राखालदास बंद्योपाध्याय
राखालदास बंद्योपाध्याय
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पूरा नाम | राखालदास बंद्योपाध्याय |
जन्म | 12 अप्रैल, 1885 |
जन्म भूमि | मुर्शिदाबाद, बंगाल |
मृत्यु | 23 मई, 1930, कलकत्ता |
कर्म भूमि | भारत |
कर्म-क्षेत्र | इतिहासकार |
मुख्य रचनाएँ | 'द ओरिजिन ऑफ़ बंगाली स्क्रिप्ट', 'हिस्ट्री ऑफ़ ओरिसा', 'बास रिलीवस् ऑफ़ बादामी', 'शिव टेंपुल ऑफ़ भूमरा', 'ईस्टर्न स्कूल ऑफ़ मेडडीवल स्कल्पचर' आदि। |
शिक्षा | बी. ए. (ऑनर्स), एम. ए. (इतिहास) |
विद्यालय | कलकत्ता विश्वविद्यालय |
प्रसिद्धि | इतिहासकार और पुरातत्त्ववेत्ता |
विशेष योगदान | 1922 में एक बौद्ध स्तूप की खुदाई के सिलसिले में मोहनजोदड़ो की प्राचीन सभ्यता की खोज करना इनका महत्त्वपूर्ण कार्य था। |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | 1917 में राखालदास जी ने पूना में पुरातत्त्व सर्वेक्षण के पश्चिमी मंडल के अधीक्षक के रूप में कार्य किया। लगभग 6 वर्षों तक महाराष्ट्र, गुजरात, सिंध, राजस्थान एवं मध्य प्रदेश की देशी रियासतों में पुरातत्त्व विषयक जो महत्वपूर्ण काम किए |
राखालदास बंद्योपाध्याय (अंग्रेज़ी: Rakhaldas Bandyopadhyay; जन्म- 12 अप्रैल, 1885, मुर्शिदाबाद, बंगाल; मृत्यु- 23 मई, 1930, कलकत्ता[1]) भारत के प्रसिद्ध इतिहासकार और पुरातत्त्ववेत्ता थे। ये भारतीय पुराविदों के उस समूह में से एक व्यक्ति थे, जिसमें से अधिकांश ने 20वीं शती के प्रथम चरण में तत्कालीन 'भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण' के महानिदेशक जॉन मार्शल के सहयोगी के रूप में पुरातात्त्विक उत्खनन, शोध तथा स्मारकों के संरक्षण में विशेष ख्याति प्राप्त की थी।
जन्म तथा शिक्षा
राखालदास बंद्योपाध्याय का जन्म 12 अप्रैल, 1885 ई. में ब्रिटिश कालीन भारत में बंगाल के मुर्शिदाबाद ज़िले में हुआ था। उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से इतिहास में एम. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की थी। वहाँ डॉ. राजेन्द्र प्रसाद और शरतचन्द्र बोस जैसे व्यक्ति उनके सहपाठी तथा मित्र थे। राखालदास जी ने संस्कृत भाषा का भी गहन अध्ययन किया था।
व्यावसायिक शुरुआत
पुरातत्त्व के प्रति राखालदास जी की रुचि आरम्भ से ही थी। प्रेसिडेंसी कॉलेज में अध्ययन करते समय पण्डित हरप्रसाद शास्त्री तथा बंगला लेखक रामेंद्रसुंदर त्रिपाठी और फिर तत्कालीन बंगाल मंडल के पुरातत्त्व अधीक्षक डॉ. ब्लॉख के संपर्क में उनका आना हुआ। इसी समय से वे ब्लॉख महोदय के अवैतनिक सहकारी के रूप में अन्वेषणों तथा उत्खनन कार्यों में काम करने लगे थे। 1907 ई. में बी. ए. (ऑनर्स) करने पर इनकी नियुक्ति प्रांतीय संग्रहालय, लखनऊ के सूचीपत्र बनाने के लिए हुई थी। इसी बीच उन्होंने कुछ महत्वपूर्ण इतिहास संबंधी लेख भी लिखे। सन 1910 में एम. ए. करने के तुरंत बाद ही इनकी नियुक्ति भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग में उत्खनन सहायक के पद पर हो गई थी। लगभग एक वर्ष तक इन्होंने कलकत्ता स्थित 'इंडियन म्यूज़ियम' में कार्य किया।
शोध तथा सर्वेक्षण कार्य
1917 में इन्होंने पूना में पुरातत्त्व सर्वेक्षण के पश्चिमी मंडल के अधीक्षक के रूप में कार्य किया। लगभग 6 वर्षों तक महाराष्ट्र, गुजरात, सिंध, राजस्थान एवं मध्य प्रदेश की देशी रियासतों में पुरातत्त्व विषयक जो महत्वपूर्ण काम किए, उनका विवरण 'एनुअल रिपोर्ट्स ऑफ़ द आर्क्योलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया'[2] में उपलब्ध है। 'भूमरा' (मध्य प्रदेश) के उल्लेखनीय प्राचीन गुप्त युगीन मंदिर तथा मध्य कालीन हैहय-कलचुरी स्मारकों संबंधी शोध राखालदास जी द्वारा इसी कार्यकाल में किए गए थे। किन्तु उनका सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य था, 1922 में एक बौद्ध स्तूप की खुदाई के सिलसिले में मोहनजोदड़ो की प्राचीन सभ्यता की खोज। इसके अतिरिक्त उन्होंने पूना में पेशवाओं के राजप्रासाद का उत्खनन कर पुरातत्त्व और इतिहास की भग्न श्रृंखला को भी जोड़ने का प्रयत्न किया।
राखालदास बंद्योपाध्याय का 1924 में स्थानांतरण पुरातत्त्व सर्वेक्षण के पूर्वी मंडल, कलकत्ता में हो गया, जहाँ वे लगभग दो वर्ष तक रहे। इस छोटी-सी अवधि में उन्होंने पहाड़पुर के प्राचीन मंदिर का उल्लेखनीय उत्खनन करवाया। 1926 में कुछ प्रशासकीय कारणों से बंद्योपाध्याय जी को सरकारी सेवा से अवकाश ग्रहण करना पड़ा। इसके बाद वे 'बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय' में प्राचीन भारतीय इतिहास के 'मनींद्र नंदी प्राध्यापक' पद पर अधिष्ठित हुए और मृत्यु तक इसी पद पर बने रहे।
कृतियाँ
राखालदास जी ने कई ग्रंथों की रचना भी की थी, जैसे-
- द ओरिजिन ऑफ़ बंगाली स्क्रिप्ट[3]
- हिस्ट्री ऑफ़ ओरिसा
- बास रिलीवस् ऑफ़ बादामी[4]
- शिव टेंपुल ऑफ़ भूमरा[5]
- ईस्टर्न स्कूल ऑफ़ मेडडीवल स्कल्पचर[6]
- द हैहयज़ ऑफ़ त्रिपुरी ऐंड देअर मानुमेंट्स[7]
- द एज ऑफ़ इंपीरियल गुप्तज़[8]
- द पालज ऑफ़ बंगाल[9]
निधन
इस महान् इतिहासकार का निधन 23 मई, 1930 को हुआ। जीवन के अंतिम वर्षों में राखालदास बंद्योपाध्याय की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं रही; यद्यपि उनका लेखन और शोध सुचारु रूप से चलता रहा। 'हिस्ट्री ऑफ़ ओरिसा', जो उनकी मृत्यु के बाद ही पूरी छप पाई, उनके अंतिम दिनों की ही कृति है।
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