राजघाट उत्खनन वाराणसी
वाराणसी | वाराणसी पर्यटन | वाराणसी ज़िला |
राजघाट की प्राचीनता और उसका सतत इतिहास किसी पुरातात्विक उत्खनन से 1940 ई. तक निश्चित नहीं था। इसकी प्राचीन स्थिति वर्तमान काशी स्टेशन के उत्तर-पूर्वी में गंगा और वरुणा के मध्य थी, जिसे राजघाट टीले के नाम से जाना जाता है। इसकी आकस्मिक खोज 1939 ई. में वर्तमान काशी स्टेशन के विस्तार के समय रेलवे ठीकेदारों द्वारा खुदाई कराते समय हुई।[1] खुदाई में इन ठेकेदारों को बहुत-सी प्राचीन वस्तुएँ मिलीं जिनमें मिट्टी की मुहरें एवं मुद्रायें भी थीं। इन वस्तुओं को अब भारत कला भवन और इलाहाबाद म्यूनिसिपल म्यूजियम में रखा गया है। इन मुद्राओं में मुख्यत: यूनानी देवी-देवताओं की आकृतियाँ तथा कुछ यूनानी राजाओं के सिर का अंकन है। यहाँ से मिली वस्तुओं से आकृष्ट होकर श्री कृष्णदेव के नेतृत्व में भारतीय पुरातत्त्व विभाग के एक दल ने यहाँ उत्खनन प्रारंभ किया। इस दल ने ऊपरी जमाव से 20 फुट नीचे तक खुदाई की।
उत्खनन में 12 खंभों से युक्त एक मंदिर तथा ईंटों की कुछ अन्य संरचनाएँ, उत्तरी काली चमकीले मृण्भांड के टुकड़े तथा कुछ अन्य वस्तुएँ मिलीं।[2] इसके अतिरिक्त उत्खनन में चौथे स्तर (दूसरी-तीसरी शताब्दी ई.) से अनेक यूनानी देवी-देवताओं की आकृतियों से युक्त मुद्राएँ भी मिली हैं। यहाँ बड़ी मात्रा में मुद्राओं के मिलने के कारण श्री कृष्णदेव इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि ये मुद्राएँ वाराणसी व पश्चिमी देशों (यूनान एवं रोम) के बीच व्यापारिक संबंध की द्योतक हैं।[3] परंतु मोतीचंद्र वाराणसी और पश्चिम के देशों (यूनानी एवं रोम) के बीच व्यापारिक संबंध होने की बात को अस्वीकार करते हैं। उनका कहना है कि उस समय पश्चिम देशों से व्यापार मुख्यत: जलमार्ग से ही होता था, जो कि अरब सागर व बंगाल की खाड़ी के बंदरगाहों तक ही सीमित था और वहाँ से भारतीय व्यापारियों द्वारा यह सामान देश के अन्य भागों में पहुँचाया जाता था, जबकि स्थलमार्ग से इन विदेशी व्यापारियों के मध्य देश तक पहुँचने के भी प्रमाण नहीं मिलते।[4] यदि इन व्यापारियों का व्यापारिक संबंध मध्य देश से मान भी लिया जाय तो इसका प्रमाण मध्यदेश के अन्य व्यापारिक नगरों (कौशांबी, सहजाति (आधुनिक 'भीटा') और श्रीवस्ती में क्यों नहीं मिलता? यह एक विचारणीय प्रश्न है। अत: यह तो निश्चित है कि ये मुद्रायँ व्यापारिक उद्देश्य से यहाँ नहीं आईं। संभव है कि ये मुद्राएँ हिंद-यवन शासक ड्रेमेट्रियस या मिलिंद (मिनांडर) के पाटलिपुत्र विजय अभियान के दौरान बनारस में पड़ाव के समय छूट गई हों।
यह प्राचीन स्थल चारों ओर से सुरक्षित था। दक्षिण-पूर्व की ओर से गंगा, उत्तर और उत्तर-पूर्व में वरुणा नदी तथा पश्चिम तथा उत्तर-पश्चिम की ओर से यह एक परिखा द्वारा परिवेष्टित था। ग्रीब[5] और शेरिंग[6] ने भी प्राचीन वाराणसी की स्थिति नगर के उत्तर में वरुणा और गंगा के मिलन-बिंदु पर मानी है। अत: यह तो निश्चित है कि यह स्थल वाराणसी की प्राचीनतम बस्ती को निश्चित करता है। समर्थन के लिए उत्खनन में 1940 में यहीं से प्राप्त एक गुप्तकालीन मुहर पर उल्लेखित लेख ‘वाराणस्याधिष्ठानिधकरणस्य’ का भी उल्लेख समीचीन होगा। इस क्षेत्र का सर्वप्रथम वैज्ञानिक उत्खनन काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रो. अवध किशोर नारायण ने 1957 में प्रारंभ किया। इस कार्य का पुन: आरंभ 1960-61 और बाद के वर्षों में भी चलता रहा।[7] उत्खनन से निम्नलिखित चरण प्रकाश में आए हैं।
उत्खनन के विभिन्न चरण
प्रथम काल
राजघाट की खुदाई से प्राप्त अवशेषों से यह सिद्ध होता है कि मानव ने सर्वप्रथम 8वीं शती ई.पू. के आसपास इस दलदल वाले क्षेत्र को साफ़ करके निवास प्रारंभ किया। उस समय यहाँ के निवासियों का मुख्य पेशा कृषि था। यहाँ के निवासी मिट्टी के मकानों एवं फूस की झोपड़ियों में रहते थे। सीमित उत्खनन के कारण इस काल के आवासीय भवनों के बारे में विस्तृत जानकारी नहीं मिल सकी, परंतु ऐसा आभास होता है कि इस काल में यह क्षेत्र नगरीकरण की प्रक्रिया से बिल्कुल अनभिज्ञा रहा होगा। इस काल के तीन चरण दृष्टिगत होते हैं-
प्रथम चरण के निचले स्तरों की सीमित खुदाई से आवासीय भवनों एव स्मारकों के अवशेष नहीं मिले हैं। यहाँ से प्राप्त वस्तुओं में लोहे के उपकरण, अस्थिनिर्मित औजार, बड़ी संख्या में मृण्मूर्तियाँ, मिट्टी की तश्तरियाँ तथा आभूषण आदि मिले हैं। द्वितीय चरण से सरकण्डे (नरकुल) के टुकड़े तथा कमरों के फर्शों के उत्खनित अंश प्रकाश में आए हैं। इस चरण से एक प्रकार के अवशेष भी मिले है।[8] जिसे बाद के उत्खननों में तटबंध से समीकृत किया गया है। संभवत: गंगा की बाढ़ से नगर की रक्षा के लिए उक्त तटबंध का निर्माण किया गया था।[9]नगरीकरण के प्रारंभ में तटबंध के निर्माण का यह प्रथम प्रयास था। इस चरण से किसी प्रकार की संरचना के अवशेष नहीं मिले है। फिर भी फर्श के उत्खनित अंश के मिलने से इस काल में भवनों के होने की पुष्टि होती है। इसके अतिरिक्त लाला एवं भूरे रंग की मृण्मूर्तियाँ भी मिली हैं जिनमें हाथी और साँड़ की आकृतियाँ मुख्य है। इस चरण की समाप्ति तीसरी-चौथी शती ई.पू. के लगभग हुई। तृतीय चरण में कच्ची मिट्टी की दीवाल तथा कच्चे फर्श के अवशेष मिले हैं।[10] इसके अतिरिक्त कुछ मृण्मूर्तियाँ, ताँबे के सिक्के तथा मृतिका वलय कूप भी मिले हैं।
द्वितीय काल
द्वितीय काल का प्रारंभ तीसरी शती ई. पू. से प्रारंभ होता है। यह युग वाराणसी के इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। नगरीय सभ्यता के इतिहास में विकास का यह प्रथम काल था। इस काल में कृष्ण-लेपित परंपरा, कृष्ण लोहित पात्र एवं उत्तरी काले चमकीले मृण्भाण्डों का प्रयोग बहुतायत में मिलता है[11], जो इस काल के आर्थिक और तकनीकी विकास के स्पष्ट प्रमाण है। इस काल की सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि भवनों के निर्माण में पकी ईंटों का प्रयोग था। यदा-कदा मकानों में कच्ची ईंटों का प्रयोग भी मिलता है। भवनों में पकी ईंटों के प्रयोग से जहाँ एक ओर इनकी तकनीकी प्रगति की जानकारी मिलती है, वहीं दूसरी ओर जनता की सुख-समृद्धि का भी ज्ञान होता है। भवनों की नींव में कंकड़ पत्थर एवं ईंटों के टुकड़ों को डाला जाता था। उत्खनन से एक स्थान पर कंकड़-पत्थर से युक्त कंकरीट की नींव भी मिली है।[12]
भवनों की छत के निर्माण में खपरैल (रुफटाइल्स) का प्रयोग मिलता है। इनको लोहे के कीलों से बाँधा जाता था। दीवालों में स्तंभ-गर्त (पोस्ट-होल्स) के अवशेष भी मिले हैं, जिससे यह सिद्ध होता है कि छत को टिकाने के लिए लकड़ी या बाँस के खंभों का प्रयोग किया जाता था।[13] मकान एक सीध में बनाए जाते थे और दो मकानों के मध्य कुछ स्थान छोड़ दिया जाता था। स्पष्टत: शुद्ध वायु और नगर की स्वच्छता के लिए ही ऐसा किया जाता था। इन मकानों के मध्य गोलाकार कुएँ भी मिलें हैं। कभी-कभी ये कुएँ मकानों के अंदर भी स्थित होते थे। पूर्ण खुदाई के अभाव में कुछ निश्चित कहना कठिन है लेकिन कमरे के अंदर ऐसे कुओं के मिलने से ऐसा प्रतीत होता है कि इनका उपयोग शौच आदि के लिए किया जाता रहा होगा।[14] उत्खनन से पता चलता है कि प्रावस्था 1 में कमरों का औसत आकार 2.56 मीटर x 2.26 तथा प्रावस्था 2 में 1.90 मीटर x 2.92 मीटर था। प्रत्येक परिवार के रहने के लिए दो कमरे थे। इन कमरों में दो दरवाज़े, एक दालान (प्रकोष्ठ), एक कुआँ, स्नानार्थ चबूतरा तथा नाली सम्मिलित थी। यहाँ से सोख्ता घड़े और मृतिकावलय कूप के भी अवशेष मिले हैं। इसके अतिरिक्त पकी ईंटों से निर्मित एक नाली के अवशेष भी मिले हैं। यह नाली उत्तर से दक्षिण 2.75 मीटर लंबाई में विस्तृत थी, जो बड़े आकार की ईंटों से आवृत थी। सफाई की सुविधा के लिए नाली में लंबवत् ईंटों का प्रयोग मिलता है। इस काल में कच्ची ईंटों का प्रयोग भी मिलता है। उत्खनन से चार रद्दों वाले एक भवन का भी पता चला है। इस भवन में प्रयुक्त ईंटों 39x30x7 सेंटीमीटर आकार की है। पकी ईंटों की माप दो वर्गों में दृष्टिगत होती है। एक वर्ग में प्रयुक्त ईंटों 50x31x5 सेंटीमीटर आकार की है। तथा दूसरे वर्ग में 48x28x5 सेंटीमीटर आकार की है। इस काल का अंत ईसवी सन् के प्रारंभ में हुआ होगा।
तृतीय काल
इस काल का प्रारंभ ईसवी शती से लेकर तीसरी शताब्दी ई. के मध्य माना जाता है। आवासीय संरचना की दृष्टि से यह काल सर्वाधिक समृद्ध था। इस काल के सभी भवन पकी ईंटों से निर्मित हैं। इनमें प्रयुक्त ईंटें मुख्यत: दो आकार की हैं- इस प्रकार की ईंटें जिनकी माप 40x25x5 सेंटीमीटर है तथा दूसरे प्रकार की ईंटें 39x29x5 सेंटीमीटर माप की है।[15] इस काल की उत्खनित संरचना को अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से उत्खननकर्ताओं ने तीन संरचनात्मक प्रावस्थाओं में विभक्त किया है।
संरचनात्मक प्रावस्था 1 में ऐसे भवनों की नींव मिलती है जिनमें कमरे का आकार 4x4.21 मीटर लंबा है और एक-दूसरे को पूर्व के छोर पर काटते हैं। इसकी नींव की मोटाई 20 सेंटीमीटर चौड़ी थी। इसके साथ दो मुड़ी हुई दीवालें भी थीं। इस संरचना से बड़े आकार के कमरे का पता चलता है, जिसका एक पार्श्व 6.06 मीटर लंबा था। यहीं से ईंटों के प्लेटफार्मयुक्त एक कुआँ भी मिला था। फर्श के कोने में वृत्ताकार धँसा हुआ एक स्थान था। संभवत: यहाँ सोख्ता घड़े (सोकेज जार्स) या कोई उपकरण रखा गया होगा।[16]
संरचनात्मक प्रावस्था 3 में कंकरीट की एक 24 सेंटीमीटर मोटी फर्श और कुछ दीवालों के अवशेष मिलें हैं इसमें एक दीवाल 2.27 मीटर थी, जिसमें प्रयुक्त ईटों की 11 परतें हैं। इसके अतिरुक्त कई अन्य दीवालों के अवशेषों का भी पता चला है, लेकिन भग्नावस्था में होने के कारण इनसे किसी निश्चित योजना की जानकारी नहीं हो पाती। भवनों की निर्माण योजना से यह स्पष्ट परिलक्षित होता है कि उनकी रचना दिशाओं को ध्यान में रखकर की जाती थी।[17]
इस काल के उत्खनित सभी मृदभांड लाल रंग के हैं। रोचक है कि द्वितीय काल में इस प्रकार के मृदभांडों का प्रयोग अपेक्षाकृत कम मिलता है, जबकि इस काल में इनका प्रयोग आकार और पकाने की नई प्रक्रिया के रूप में दृष्टिगत होता है। अन्य महत्त्वपूर्ण वस्तुओं में सिक्कों एवं मुहरों का प्रयोग मुख्य है। यहाँ से 400 मुहरें एवं राजमुद्रांक (सीलिंग्स) परिष्कृत एवं अपरिष्कृत रूप में मिली हैं। उल्लेख्य है कि इसी प्रकार के राज्यमुद्रांक (सीलिंग्स) अगियाबीर से भी मिली हैं जिनका विवरण अध्याय 9 में दिया गया है। पुरालिपि संबंधी चिह्नों से ये मुहरें पहली शताब्दी और तीसरी शताब्दी के मध्य की प्रतीत होती हैं। इस काल में पहली बार डाईस्ट्रक सिक्कों का प्रयोग मिलता है। यहाँ से कौशांबी और अयोध्या के दो सिक्के भी मिले हैं, जिन पर लेख क्रमश: ‘नवस्’ और ‘शिवदत्तस’ अंकित हैं। इस काल से बड़ी संख्या में मुहरों एवं राजमुद्रांकों का मिलना तथा समर्थनस्वरूप सिक्कों का प्राप्त होना, इस तथ्य का स्पष्ट प्रमाण् है कि इस काल में व्यापार और वाणिज्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई।[18]
चतुर्थ काल
यह काल 300 से 700 ई. के बीच विकसित था। इस काल के निर्मित भवन पूर्व-युग के भवनों से भिन्न थे। इस काल के सभी अवशेष गुप्तयुगीन हैं। इस काल के मकान सभी सुविधाओं से युक्त थे। इन मकानों में स्नानगृह, पाकशाला एवं भंडारकक्ष इत्यादि मिलते हैं। इस काल की प्राप्त वस्तुओं में दो कुंड, बर्तन रखने के मर्तबान, एक कंकरीट की जाली मुख्य हैं कमरों में प्रयुक्त इटें 41.5x26.5x5 सेंटीमीटर आकार की हैं।
उपर्युक्त तथ्यों के विवेचन से यह स्पष्ट है कि विभिन्न युगों में भवन-निर्माण की प्रक्रिया में पर्याप्त अंतर मिलता है। निर्माण की प्रथम प्रक्रिया के पश्चात् उत्तरोत्तर परिवर्द्धन का क्रम परिलक्षित होता है। सर्वप्रथम 8वीं शती ईसवी पूर्व में मानव मुख्यत: कच्ची मिट्टी के मकानों एवं झोपड़ियों में निवास करता था। परंतु नगरीकरण की प्रक्रिया के प्रांरभ के फलस्वरूप दूसरी-तीसरी सदी ई.पू. में भवनों के निर्माण में पकी ईंटों का प्रयोग होने लगा। इस काल में कच्ची ईंटों का प्रयोग भी मिलता है। लोगों को लोहे का ज्ञान हो चुका था, इसलिए भवनों में लोहे की कीलों का उपयोग आवश्यकतानुसार होने लगा।[19] ईसवी सन् के प्रारंभ से तीसरी शताब्दी तक इन भवनों में पकी ईंटों का प्रयोग बहुलता से मिलता है। इस काल के कमरे पूर्ववर्ती कमरों से बड़ें होते थे। भवनों की नींव कंकरीट एवं ईंटों के टुकड़ों से भरी जाती थी। तीसरी शताब्दी से सातवीं शताब्दी के भवनों में भी पकी ईंटों का प्रयोग मिलता है।
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ विद्या प्रकाश एवं टी.एन. राय, बुलेटिन ऑफ़ द यू.पी. हिस्टारिकल सोसाइटी, संख्या 4 (साइट्स एंड मानुमेंट्स ऑफ़ यू.पी.) लखनऊ, 1965 पृष्ठ 33
- ↑ कृष्णदेव, एनुअल बिबलियोग्राफी ऑफ़ इंडियन हिस्ट्री एंड इंडोलाजी (1947), पृष्ठ 49-51
- ↑ कृष्णदेव, क्वायंस डिवाइसेस फ्राम राजघाट सील्स, जर्नल ऑफ़ दि न्यूमिसमैटिक्स सोसायटी ऑफ़ इंडिया 3, (दिसंबर 1941), पृष्ठ 77
- ↑ मोतीचंद्र काशी का इतिहास, पृष्ठ 56
- ↑ ई. ग्रीब्ज, काशी, पृष्ठ 3-4
- ↑ एम.ए. शेरिंग, दि सेक्रेड सिटी ऑफ़ हिन्दूज, पृष्ठ 291
- ↑ इंडियन आर्कियोलाजी, ए रिव्यू, 1957-58, पृष्ठ 64
- ↑ ई. ग्रीब्ज, काशी, पृष्ठ 3-4
- ↑ ए.के. नारायण एवं पुरुषोत्तम सिंह, एक्सकेवेशंस एट राजघाट, खंड 3, पृष्ठ 6। वीरेन्द्र प्रताप सिंह ने उपर्युक्त मत का खंडन करते हुए यह प्रमाणित किया है कि यह प्राकार ही रहे होंगे। अपने मत के समर्थन में उन्होंने उन खातों का उल्लेख किया है जहाँ प्राकार के अवशेष मिले हैं, जिसका उल्लेख उत्खननकर्ताओं ने भूलवशं नहीं किया है। देखें, वीरेन्द्र प्रताप सिंह, सम आसपेक्ट्स ऑफ़ लाइफ इन ऐंश्येंट वाराणसी एज रिविल्ड थ्रो दि आर्कियोलाजिकल सोर्सेज 1980, अध्याय 2
- ↑ ए.के. नारायण और टी.एन.राय, एक्सकेवेशंस ऐट राजघाट, भाग 1, पृष्ठ 22-25
- ↑ तत्रैव, भाग 2, पृष्ठ 10
- ↑ तत्रैव, भाग 1, पृष्ठ 26
- ↑ ए.के. नारायण और टी.एन. राय, एक्सकेवेशंस ऐट राजघाट, भाग 1, पृष्ठ 26, चित्र 5, प्लेट 4, 5
- ↑ वीरेन्द्र प्रताप सिंह, सम आसपेक्ट्स ऑफ़ लाइफ इन ऐंश्येंट वाराणसी एज रिविल्ड थ्रो दि आर्कियोलाजिकल सोर्सेज, पृष्ठ 88 और चित्र संख्या-2
- ↑ अवधकिशोर नारायण और टी.एन. राय. एक्सकेवेशंस ऐट राजघाट, भाग 1, पृष्ठ 28, प्लेट 10 ।, 18
- ↑ उल्लेखनीय है घरों में सोख्ता घड़ों को गढ्ढा खोदकर रखा जाता था। जिसमें घर की गंदगी आदि इकट्ठा की जाती थी।
- ↑ ए.के. नारायण एवं टी.एन. राय, एक्सकवेशंस ऐट राजाघाट, पृष्ठ 28
- ↑ तत्रैव भाग 3, पृष्ठ 14
- ↑ उल्लेखनीय है कि लोहे की कीलों का प्रयोग खपरैलों को बाँधने के लिए किया जाता था।
- ऐतिहासिक स्थानावली | विजयेन्द्र कुमार माथुर | वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग | मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार