राजस्थानी भाषा

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राजस्थानी भाषा भारतीय-आर्य भाषाओं तथा बोलियों का समूह है, जो भारत के राजस्थान राज्य में बोली जाती हैं। यह भाषा हिन्दी की एक प्रमुख उपभाषा है। राजस्थानी भाषा अपनी शब्दावली का लगभग 80% हिन्दी से ग्रहण करती है, जबकि 20% शब्द स्थानीय होते हैं। इसके चार प्रमुख वर्ग हैं: पूर्वोत्तर मेवाती, दक्षिणी मालवी, पश्चिम मारवाड़ी, और पूर्वी-मध्य जयपुरी, इनमें से मारवाड़ी भौगोलिक दृष्टि से सबसे व्यापक है। राजस्थान पूर्व के हिन्दी क्षेत्रों तथा दक्षिण-पश्चिम में गुजराती क्षेत्रों के बीच स्थित संक्रमण क्षेत्र है। राजस्थानी भाषाओं को भारत के संविधान में सरकारी भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त नहीं है। इसके स्थान पर हिन्दी का उपयोग सरकारी भाषा के रूप में होता है।

राजस्थान की प्रमुख बोलियाँ

भारत के अन्य राज्यों की तरह राजस्थान में कई बोलियाँ बोली जाती हैं। वैसे तो समग्र राजस्थान में हिन्दी बोली का प्रचलन है लेकिन लोक-भाषाएँ जन सामान्य पर ज़्यादा प्रभाव डालती हैं। जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने राजस्थानी बोलियों के पारस्परिक संयोग एवं सम्बन्धों के विषय में वर्गीकरण किया है। ग्रियर्सन का वर्गीकरण इस प्रकार है :-

  • पश्चिमी राजस्थान में बोली जाने वाली बोलियाँ - मारवाड़ी, मेवाड़ी, ढारकी, बीकानेरी, बाँगड़ी, शेखावटी, खेराड़ी, मोड़वाडी, देवड़ावाटी आदि।
  • उत्तर-पूर्वी राजस्थानी बोलियाँ - अहीरवाटी और मेवाती।
  • मध्य-पूर्वी राजस्थानी बोलियाँ - ढूँढाड़ी, तोरावाटी, जैपुरी, काटेड़ा, राजावाटी, अजमेरी, किशनगढ़, नागर चोल, हड़ौती।
  • दक्षिण-पूर्वी राजस्थान - रांगड़ी और सोंधवाड़ी
  • दक्षिण राजस्थानी बोलियाँ - निमाड़ी आदि।

बोलियाँ जहाँ बोली जाती हैं

मारवाड़ी

राजस्थान के पश्चिमी भाग में मुख्य रूप से मारवाड़ी बोली सर्वाधिक प्रयोग की जाती है। यह जोधपुर, जैसलमेर, बीकानेर और शेखावटी में बोली जाती है। यह शुद्ध रूप से जोधपुर क्षेत्र की बोली है। बाड़मेर, पाली, नागौर और जालौर ज़िलों में इस बोली का व्यापक प्रभाव है। मारवाड़ी बोली की कई उप-बोलियाँ भी हैं जिनमें ठटकी, थाली, बीकानेरी, बांगड़ी, शेखावटी, मेवाड़ी, खैराड़ी, सिरोही, गौड़वाडी, नागौरी, देवड़ावाटी आदि प्रमुख हैं। साहित्यिक मारवाड़ी को डिंगल कहते हैं। डिंगल साहित्यिक दृष्टि से सम्पन्न बोली है।

मेवाड़ी

यह बोली दक्षिणी राजस्थान के उदयपुर, भीलवाड़ा और चित्तौड़गढ़ ज़िलों में मुख्य रूप से बोली जाती है। इस बोली में मारवाड़ी के अनेक शब्दों का प्रयोग होता है। केवल ए और औ की ध्वनि के शब्द अधिक प्रयुक्त होते हैं।

बाँगड़ी

यह बोली डूंगरपुरबाँसवाड़ा तथा दक्षिणी-पश्चिमी उदयपुर के पहाड़ी क्षेत्रों में बोली जाती हैं। गुजरात की सीमा के समीप के क्षेत्रों में गुजराती-बाँगड़ी बोली का अधिक प्रचलन है।

धड़ौती

इस बोली का प्रयोग झालावाड़, कोटा, बूँदी ज़िलों तथा उदयपुर के पूर्वी भाग में अधिक होता है।

मेवाती

यह बोली राजस्थान के पूर्वी ज़िलों मुख्यतः अलवर, भरतपुर, धौलपुर और सवाई माधोपुर की करौली तहसील के पूर्वी भागों में बोली जाती है।

बृज

उत्तर प्रदेश की सीमा से लगे भरतपुर, धौलपुर, दिल्ली और अलवर ज़िलों में यह बोली अधिक प्रचलित है।

मालवी

झालावाड़, कोटा और प्रतापगढ़ ज़िलों में मालवी बोली का प्रचलन है। यह भाग मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र के समीप है।

रांगड़ी

राजपूतों में प्रचलित मारवाड़ी और मालवी के सम्मिश्रण से बनी यह बोली राजस्थान के दक्षिण-पूर्वी भाग में बोली जाती है।

ढूँढाती

राजस्थान के मध्य-पूर्व भाग में मुख्य रूप से जयपुर, किशनगढ़, अजमेर, टौंक के समीपवर्ती क्षेत्रों में ढूँढ़ाड़ी भाषा बोली जाती है। इसका प्रमुख उप-बोलियों में हाड़ौती, किशनगढ़ी, तोरावाटी, राजावाटी, अजमेरी, चौरासी, नागर, चौल आदि प्रमुख हैं। इस बोली में वर्तमान काल में 'छी', 'द्वौ', 'है' आदि शब्दों का प्रयोग अधिक होता है।

वचन का प्रयोग

•एक वचन के संज्ञावाची शब्द जो हिन्दी में आकारांत होते हैं, राजस्थानी भाषा में ये शब्द ओकारांत हो जाते हैं। जैसे, कुत्ता (हिन्दी) - कुत्तो (राजस्थानी), पोमचा (हिन्दी) - पोमचो (राजस्थानी), •राजस्थानी भाषा में एक वचन के जो शब्द ओकारांत होते हैं वे बहुवचन में आकारांत हो जाते हैं। जैसे-

घड़ो—घड़ा, उदाहरण— थे सगळा घड़ा भरल्यो।
पीळो—पीळा, पोमचो—पोमचा, उदाहरण— थे कता पीळा पोमचा ख़रीद'र ल्याया हो।
बोळो—बोळा, उदाहरण— म्हे बोळा सारा काकड़िया ल्याया हां।

  • राजस्थानी भाषा में एक वचन के जो शब्द ईकारांत होते हैं उनमें बहुवचन के लिए 'इयां' लगा देते हैं।

लड़की—लड़क्यां, उदाहरण— थारै कती लड़क्यां हैं।
कड़ी—कड़्यां, उदाहरण— इतिहास की सगळी कड़्यां जोड़ो।
घोड़ी—घोड़्यां, उदाहरण— सगळी घोड़्यां नै पाणी पावो।

  • राजस्थानी भाषा में एक वचन के कुछ शब्द ईकारांत होते हैं उनमें बहुवचन के लिए 'यां' लगा देते हैं।

लुगाई—लुगायां, उदाहरण— सगळी लुगायां नै पाणी पावो।
भोजाई—भोजायां, उदाहरण— भोजायां नॅ बोलो कॅ गीत गावॅं।

अक्षर 'ळ (ḷ)' का प्रयोग

यह अक्षर 'ळ' हरियाणवी, राजस्थानी और मराठी भाषाओं में ख़ूब प्रयोग होता है। हिन्दी भाषा, जो आम तौर पर लखनऊ और बनारस के पास बोली जाती है, उसमें इसका प्रयोग इतना नहीं है। बाकी प्रदेशों जैसे राजस्थान, महाराष्ट्र, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली आदि में इस अक्षर का बोलने में ख़ूब प्रयोग होता है। उसका उच्चारण 'ल' और 'ड़' के बीच का है। कुछ नमूने नीचे देखिये - हिन्दी रूप कोष्ठ में लिखे गए हैं।

  • फळ (फल)
  • हळ (हल)
  • थाळी (थाली)
  • काळा (काला)
  • साळा (साला)
  • हड़ताळ (हड़ताल)
  • भोळा (भोला)
  • गळा (गला)

अक्षर "ण (ṇ)" का प्रयोग

राजस्थानी, हरयाणवी भाषा में अक्षर 'ण (ṇ)' का ख़ूब प्रयोग होता है, हालांकि हिन्दी में इसका प्रयोग कम है। हिन्दी में 'ण (ṇ)' के स्थान पर 'न (n)' प्रयोग होता है। कुछ उदाहरण देखिये:-

  • थाणा (थाना)
  • काणा (काना)
  • पाणी (पानी)
  • स्याणा (सयाना)
  • दाणा (दाना)
  • घणा (घना)
  • भाण (बहन)
  • सुणाओ (सुनाओ)
  • पिछाण (पहचान)
  • बजाणा (बजाना)

अक्षर 'र्' का प्रयोग

राजस्थानी, हरयाणवी भाषा में अक्षर 'र्' का प्रयोग क्रियाओं के साथ बहुतायत से होता है। हिन्दी में इस तरह का प्रयोग नहीं होता है। हिन्दी में 'र्' का प्रयोग होने पर या तो इसको ऊपर चढ़ा देते हैं जैसे 'कर्म' अथवा नीचे जोड़ते हैं जैसे 'क्रिया'। कुछ उदाहरण देखिये:-

  • क र् या
  • ध र् या
  • खा र् या
  • पी र् या
  • जा र् या
  • आ र् या

राजस्थानी भाषा की विशेषताएँ

राजस्थानी भाषा की सामान्य विशेषताएँ निम्न हैं-

  • राजस्थानी में 'ण', 'ड़' और (मराठी) 'ल' तीन विशिष्ट ध्वनियाँ (Phonemes) पाई जाती हैं।
  • राजस्थानी तद्भव शब्दों में मूल संस्कृत 'अ' ध्वनि कई स्थानों पर 'इ' तथा 'इ' 'उ' के रूप में परिवर्तित होती देखी जाती हैं-'मिनक' (मनुष्य), हरण (हरिण), 'कमार' (कुंभकार)।
  • मेवाडी और मालवी में 'च', 'छ', 'ज', 'झ' का उच्चारण भीली और मराठी की तरह क्रमश: 'त्स', 'स', 'द्ज', 'ज़' की तरह पाया जाता है।
  • संस्कृत हिन्दी पदादि 'स-ध्वनि' पूर्वी राजस्थानी में तो सुरक्षित है, किंतु मेवाड़ी-मालवी-मारवाड़ी में अघोष 'ह्ठ' हो जाती है। जैसे हि. सास, जैपुरी-हाडौती 'सासू', मेवाड़ी-मारवाड़ी 'ह्ठाऊ'।
  • पदमध्यगत हिन्दी शुद्ध प्राणध्वनि या महाप्राण ध्वनि की प्राणता राजस्थानी में प्राय: पदादि व्यंजन में अंतर्भुक्त हो जाती है-हिं. कंधा, रा. खाँदो; हि. पढना, रा. फढ-बो।
  • राजस्थानी के सबल पुलिंग शब्द हिन्दी की तरह आकारांत न होकर ओकारांत है :-हि. घोड़ा, रा. घोड़ी, हिं. गधा, रा. ग"द्दो, हिं. मोटा, रा. मोटो।
  • पश्चिमी राजस्थानी में संबंध कारक के परसर्ग 'रो-रा-री' हैं, किंतु पूर्वी राजस्थानी में ये हिन्दी की तरह 'को-का-की' हैं।
  • जैपुरी-हाड़ौती में 'नै' परसर्ग का प्रयोग कर्मवाच्य भूतकालिक कर्ता के अतिरिक्त चेतन कर्म तथा संप्रदान के रूप में भी पाया जाता है-'छोरा नै छोरी मारी' (लड़के ने लड़की मारी); 'म्हूँ छोरा नै मारस्यूँ' (मैं लड़के को पीटूँगा;-चेतन कर्म); 'यो लाडू छोरा नै दे दो' (यह लड्डू लड़के को दे दो-संप्रदान)।
  • राजस्थानी में उत्तम पुरुष के श्रोतृ-सापेक्ष 'आपाँ-आपण' ओर श्रोतृ निरपेक्ष 'महे-म्हें-मे' दुहरे रूप पाए जाते हैं।
  • हिन्दी की तरह राजस्थानी के वर्तमानकालिक क्रिया रूप सहायक क्रियायुक्त शतृप्रत्ययांत विकसित रूप न होकर शुद्ध तद्भव रूप हैं। 'मूँ जाऊँ छूँ' (मैं जाता हूँ)।
  • सहायक क्रिया के रूप पश्चिमी राजस्थानी में 'हूं-हाँ-हो-है' (वर्तमान) और 'थो-थी-था' (भूतकाल) हैं, किंतु पूर्वी राजस्थानी में 'छूँ-छाँ-छो-छै' (वर्तमान) और 'छो-छी-छा' (भूतकाल) हैं।
  • राजस्थानी में तीन प्रकार के भविष्यत्कालिक रूप पाए जाते हैं :-जावैगो, जासी, जावैलो। इनमें द्वितीय रूप संस्कृत के भविष्यत्कालिक तिङंत रूपों का विकास हैं-'जासी' (यास्यति), जास्यूँ (यास्यामि)।
  • राजस्थानी की अन्य पदरचनात्मक विशेषता पूर्वकालिक क्रिया के लिए 'र' प्रत्यय का प्रयोग है : -'ऊ-पढ़-र रोटी ख़ासी' (वह पढ़कर रोटी खाएगा)।
  • राजस्थानी की वाक्यरचनागत विशेषताओं में प्रमुख उक्तिवाचक क्रिया के कर्म के साथ संप्रदान कारक का प्रयोग है, जबकि हिन्दी में यहाँ 'करण या अपादान' का प्रयोग देखा जाता है। 'या बात ऊँनै कह दो' (यह बात उससे कह दो)। पूर्वी राजस्थानी में हिन्दी के ही प्रभाव से संप्रदानगत प्रयोगके अतिरिक्त विकल्प से कारण-अपादानगत प्रयोग भी सुनाई पड़ता है-'या बात ऊँ सूँ कह दो'।

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