लालचंद
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- लालचंद या लक्षोदय
- लालचंद मेवाड़ के महाराणा जगतसिंह (संवत 1685-1709) की माता जांबवती जी के प्रधान श्रावक हंसराज के भाई डूँगरसी के पुत्र थे।
- इन्होंने संवत 1700 में 'पद्मिनीचरित्र' नामक एक प्रबंधकाव्य की रचना की जिसमें राजा रत्नसेन और पद्मिनी की कथा का राजस्थानी मिली भाषा में वर्णन है।
- जायसी ने कथा का जो रूप रखा है उससे इसकी कथा में बहुत जगह भेद है, जैसे - जायसी ने 'हीरामन तोते' के द्वारा पद्मिनी का वर्णन सुनकर रत्नसेन का मोहित होना लिखा है, पर भाटों द्वारा एकबारगी घर से निकल पड़ने का कारण इसमें यह बताया गया है कि पटरानी प्रभावती ने राजा के सामने जो भोजन रखा वह उसे पसंद न आया। इस पर रानी ने चिढ़कर कहा कि यदि मेरा भोजन अच्छा नहीं लगता तो कोई पद्मिनी ब्याह लाओ -
तब तड़की बोली तिसे जी राखी मन धारि रोस।
नारी आणों काँ न बीजी द्यो मत झूठो दोस
हम्मे कलेवी जीणा नहीं जी किसूँ करीजै बाद।
पदमणि का परणों न बीजी जिमि भोजन होय स्वाद
इसपर रत्नसेन यह कहकर उठ खड़ा हुआ,
राणो तो हूँ रतनसी परणूँ पदमिनि नारि।
- राजा समुद्र तट पर जा पहुँचा जहाँ से औघड़नाथ सिद्ध ने अपने योगबल से उसे सिंहलद्वीप पहुँचा दिया। वहाँ राजा की बहन पद्मिनी के स्वयंवर की मुनादी हो रही थी -
सिंहलदीप नो राजियो रे, सिंगल सिंह समान रे।
तसु बहण छै पदमिणि रे, रूपे रंभ समान रे
जोबन लहरयाँ जायछै रे, ते परणूँ भरतार रे।
परतज्ञा जे पूरवै रे, तासु बरै बरमाल रे
- राजा अपना पराक्रम दिखाकर पद्मिनी को प्राप्त करता है।
- इसी प्रकार जायसी के वृत्त से और भी कई बातों में भेद है। इस चरित्र की रचना गीतिकाव्य के रूप में समझनी चाहिए।
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