लालमोहन घोष

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लालमोहन घोष एक बैरिस्टर थे, जो कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) हाइकोर्ट में वकालत करते थे। इनका जन्म 'कृष्णानगर', पश्चिम बंगाल में 1849 ई. में हुआ और मृत्यु 1909 ई. में हुई थी। लालमोहन घोष बहुत ओजस्वी और प्रभावशाली वक्ता थे। एक लिबरल के रूप में वह दो बार इंगलिश पार्लियामेंट की सदस्यता के लिए खड़े हुए थे, परन्तु इस कार्य में वे विफल रहे। अंग्रेज़ों द्वारा 'आई.सी.एस.' (भारतीय प्रशासनिक सेवा) की परीक्षा में बैठने की आयु कम कर दिये जाने पर लालमोहन घोष के अधीन ही एक प्रतिनिधिमंडल 1879 ई. में ब्रिटेन भेजा गया था।

नेतृत्व

1877 ई. में ब्रिटिश अंग्रेज़ सरकार ने 'आई.सी.एस.' की परीक्षा में बैठने की आयु सीमा 21 से घटाकर 19 करने का विचार किया, जिससे की भारतीयों का उसमें प्रवेश कठिन हो जाये। इस समय इण्डियन एसोसियेशन, कलकत्ता ने भारतीयों की ओर से एक स्मृतिपत्र तैयार किया और 1879-1880 ई. में एक प्रतिनिधि मंडल लालमोहन घोष के नेतृत्व में ब्रिटेन भेजा गया।

सफलता

लालमोहन घोष ने भारतीयों का पक्ष बहुत ही प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया, जिसका प्रभाव ब्रिटिश जनता पर पड़ा। उन्हीं के आग्रह पर ब्रिटिश सरकार ने विधिविहित सिविल सर्विस का निर्माण किया। इस सफलता से उत्साहित होकर वे पुन: ब्रिटेन गये और ब्रिटिश आम चुनाव में उदार दल के प्रत्याशी के रूप में खड़े हुए। वे चुनाव तो नहीं जीत सके, लेकिन उनके प्रयत्नों से 'भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन' को बल मिला। वे पक्के संविधानवादी थे और ब्रिटिश संरक्षण में औपनिवेशिक स्वराज्य के पक्ष में थे। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को उनसे बहुत बल प्राप्त हुआ था। 1884 ई. में लालमोहन घोष भारत लौटे और वकालत प्रारम्भ कर दी। 1892 ई. में वे भारतीय विधान परिषद के सदस्य बने और 1903 ई. में 'भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस' के अध्यक्ष बने।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

भारतीय इतिहास कोश |लेखक: सच्चिदानन्द भट्टाचार्य |प्रकाशक: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान |पृष्ठ संख्या: 420 |


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