लोकज्ञता सर्वज्ञता (लोकवार्त्ता विज्ञान के संदर्भ में) -डॉ. हरद्वारीलाल शर्मा

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लेखक- डॉ. हरद्वारीलाल शर्मा

ई.पू. चौथी शती में चाणक्य ने सूत्रित किया था : सर्वज्ञता लोकज्ञता। शास्त्रज्ञोऽप्य लोकज्ञो मूर्खतुल्य : [1]
अर्थात्, हम जिसे सर्वज्ञता कहते हैं, वह लोक की जानकरी ही है, शास्त्रों के जानकार भी यदि लोक को नहीं जानता तो वह मूर्ख के समान है।
इतना बड़ा प्रतिवाद क्या एक तिरस्कृत ब्राह्मण की मात्र बहक तो नहीं? सभी जानते है कि इसी चाणक्य, कौटिल्य, कौटलीय शास्त्र के प्रणेता ने सिकंदर के आक्रमण के बाद चंद्रगुप्त के मोर्य साम्राज्य की स्थापना की थी, और नंदों की शक्ति का मूलोच्छेदन, और जिसका मानवी-अहंकार था: मानवकुरुत्ते तत्तु यन्न शक्यं सुरासुरै:= मनुष्य वह सब कुछ करने में समर्थ है, जो सुरासुर के लिए भी अशक्य हो (मुद्राराक्षस), और जिसने भारतीय इतिहास में, पहलम-पहल, इतने स्पष्ट शब्दों में प्रयोजनवाद की प्रतिष्ठा की थी: न प्रयोजनमन्तरा चाणक्य: स्वप्नेऽपि चेष्टते = प्रयोजन के बिना चाणक्य स्वप्न में भी चेष्टा नहीं करता। यह था राजनीतिक आदर्शवाद पर प्रयाजनवाद का सीधा प्रहार। इसी आदर्शवाद के कारण हमारे इतिहास में अनेकों बार मोड़ आये, दुर्बलताएँ उभरीं और हमारा पतन हुआ।
‘भारतीय राजनीतिक एकता’ की परिकल्पना का पिता भी चाणक्य को माना जाता है।
आदर्शवाद यों अपने में बड़ी बात है, जीवन और संस्कृति में उदार मूल्यों का सजृन इससे होता है और सामाजिक चेतना के लिए नए-नए आयाम खुलते हैं। आदर्शों का झिलमिल आलोक में सबकुछ जगमगा उठता है। समूचा भारतीय साहित्य इनकी चमचमाहट से भरपूर है। किंतु यह आदर्शवाद होता है खयाली और खोखला, जिससे संकट के समय कुछ भी नहीं मिलता। कारण स्पष्ट है, लोक अथवा ‘सर्व-जन’ एक ओर ठोस होता है और भरपूर जीवन जीता है। धीरे-धीरे इसमें दरारें पड़ने लगती हैं; फलस्वरूप वर्ग बनने लगते हैं; श्रेष्ठजन और इतरजन, अभिजात और साधारण, राजा और रैयत, द्विज और अंत्यज, आदि और अंत में लोक और वेद का भेद। आदर्शवाद उच्च वर्ग का दर्शन है, किंतु लोक के समग्र जीवन से कटा हुआ, अनेक विधि-निषेधों एवं प्रतिषेधों से परिच्छिन्न, चमचमाता हुआ किंतु इतना क्षीण कि संकट काल में जीवन के पथ को आलोकित करने में असमर्थ। बड़े से बड़ा आदर्शवादी या तो विवश होकर ठोस धरातल पर उतरता है, अथवा प्राणों से आदर्श का मोल चुकाता है।
जो हो, भारत के इतिहास में आदर्श और प्रयोजन की टक्कर देखने को मिलती है और टकराव से बिखराव। सामंजस्य के युग कम ही आए, पर जब आए तो दिन भी चमके, नूतन सर्जनाएँ हुईं, और समष्टि-चेतना का विस्तार। हमने बल और सामर्थ्य का अनुभव किया, दिग्विजय की। हमारी राजसत्तात्मक दिग्विजयों से भी महत्वपूर्ण थीं हमारी सांस्कृतिक दिग्विजय। इनके पीछे चारों दिशाओं को जीतने का हमारा संकल्प था: सामूहिक जीवन का संकल्प।
पूर्व वैदिक काल ‘सर्व-जन’ और ‘सर्व-कण’ अर्थात् लोक युग था। उत्तर वैदिक काल नहीं। सर्वजन का युग-सार्वजनीन, अर्थात् साथ चलो, साथ बोलो, साथ संकल्प करो। रामायण के युग में लोक-चेतना का विकास-विस्तार हुआ और राजाओं ने लोक-आराधना को महत्व दिया। महाभारत में अनेक बार ततो:लोक: प्रसीदति”, इससे लोक प्रसन्न होता है, जैसे वाक्य आते हैं। लोक का भय सम्राट भी मानते थे। इसके बाद लोक-चेतना क्षीण होने लगी और एक हवाई खयाली जीवन-दर्शन, वाद और सिद्धांत पैदा हो गए। लोग परेशान हुए। वेद विभिन्न, स्मृतियाँ भी भिन्न-भिन्न, कोई भी मुनि नहीं जिसका अपना अलग मत न हो। धर्म का तत्व बुद्धि की गुफा में खो गया। भई! जिस तरह से महाजन गए हों, उसी को प्रमाण मान लो।
इस कटाव-फटाव, टकराव-बिखराव से लोक-मानस में भेद और भिन्नताएँ और फलस्वरूप अंत: संघर्ष और कमज़ोरी, और तब पतन। यह है भारतीय इतिहास का क्रम, जिसका अवसान, एक बार चाणक्य के द्वारा ‘लोक’ की पुन:प्रतिष्ठा से हुआ। अतएव चाणक्य का सूत्र, सर्वज्ञता लोकज्ञता, एक ऐतिहासिक प्रतिपादन है, बहक नहीं।
लोक-मानस की पहचान, ठोस धरती की पकड़, यथार्थ और युग का बोध, प्रयोजन की सूझ-समझ, कर्मण्यता जीवन की जागरूकता और तृप्ति— ये लोकज्ञता के अंतर्निहित तत्व हैं। लोक के प्रति उदासीनता, आकाशचारी उड़ानें, बौद्धिक धुंधलके में आदर्शों की तलाश, निष्प्रयोजन चेष्टाएँ, अकर्मण्यता, चारों ओर से आते हुए प्रकाश और पवन के झोंकों को रोकने के लिए निषेध-प्रतिषेधों का जीवन पर लदान, और इन सबसे उत्पन्न हुई अतृप्त एवं कुंठा— ये लक्षण हैं लोक को छोड़कर अलोक, परलोक और अलौलिक के लिए कटे हुए मन की छटपटाहट।
गौतम बुद्ध ने इस छटपटाहट को अपने चारों ओर देखा था, और अपने बोधि के द्वारा आकाशचारी जीवन को धरती पर लाने का प्रयास किया था। बुद्ध का उपदेश अपने मूल में धरती के समीप था। इसमें लोक की पहचान थी, यद्यपि क्षीण, जिसे बाद में आए बौद्धिकों ने निर्वाण – परक, पारलौकिक एवं तार्किक बना दिया। चाणक्य ने इसे यथार्थ के ठोस धरातल पर पुन: उतारा, और लोक को राजनीति के आधार घोषित किया। लोकज्ञता के बिना शास्त्रों का ज्ञान भी मूर्खता है।
चाणक्य धर्म को सुख का मूल मानता है (सुखस्य मूलधर्म:) किंतु धर्म का मूल यज्ञादि अनुष्ठान, योग-साधना, अथवा मनु द्वारा प्रतिपादित ‘दशक धर्म-लक्षणम्’ नहीं है उसके लिए इसके विपरीत धर्मस्य मूल अर्थ:। अर्थस्य मूलं राज्यम्। और अंतत: राज्यस्य मूल चारित्र्यम् अर्थात् धर्म का मूल धन है और धन का मूल राज्य और राज्य का मूल लोगों का चरित्र है। योग-यज्ञ-मोक्ष लोक के लिए नहीं हो सकता। लोक सुख चाहता है, यहाँ और अब, और सुख-सुख के लिए चाह छोड़ने से नहीं, अर्थ से मिलता है, जिसके लिए लोक-जीवन में व्यवस्था=शासन=राज्य अपेक्षित होता है। शासन की सजीव और सक्रिय व्यवस्था का नाम प्रशासन है, अर्थात् शासन का प्रकट रूप। मानना होगा कि यह प्रयोजनवादी धर्म की परिभाषा यथार्थ पर आधृत है।
चाणक्य ने लोक की पुन: प्रतिष्ठा की। दुर्भाग्य से, अशोक के आते-आते यह प्रतिष्ठा क्षीण हो उठी। इतिहास साक्षी है, सम्राट अशोक के धम्म पर टिका हुआ साम्राज्य दुर्बल होकर गिर गया। उसने लोक के लिए आदर्शवादी नुस्खे जगह-जगह खुदवा कर मौर्ययुग के प्रयोजनवाद को मोड़ दिया। आदर्शवाद बहुत दूर नहीं चला। लोक अतत:, लौकिक को ही मान्यता देता है, अलौकिक और पारलौकिक को नहीं। वह इन पर मुग्ध हो सकता है, मान्यता नहीं देता।[2]
(2)
किसी समाज में चुने हुए लोगों का वर्ग-अभिजात वर्ग पैदा हो जाना सहज है। लोक ही इसका चुनाव करता है, बढ़ा बनाता और मान्यता देता है। किंतु चुना हुआ यही वर्ग धीरे-धीरे लोक से विच्छिन्न होकर बलात् ‘ऊँचा’ उठ जाता है, अलग और विशिष्ठ होने लगता है, अहंकार के कारण अपने को बलिष्ठ और श्रेष्ठ मान बैठता है। यह भी सामाजिक जीवन का एक विधान है। समानता का उपदेश देने वाले बौद्ध भिक्षुक महंत बन बैठे, मठाधीश लोकोत्तर और श्रेष्ठजन हो गये। इसी समय वैदिक अभिजातवाद ने भी उभार लिया, ब्राह्मणवाद के रूप शुंग-कण्व आदि राजवंशों की स्थापना हुई। इस बाद की दुर्बलता स्पष्ट थी। इसी समय नाट्याचार्य भरत ने ‘सर्व-वर्ण’ और ‘लोक’ को फिर से पहचाना, और लोक मानस की रसरुचि, सौंदर्य एवं रंग के प्रति स्वाभाविक ललक-लालसा को पहचान करना नाट्यशास्त्र की रचना की। यह नाट्यशास्त्र, ‘सार्ववर्णिक’ पंचम वेद कहलाया। यह थी लोक की पुन: प्रतिष्ठा, एक बार और, और भारत में सुवर्णयुग का ‘श्रीगणेश’। (और भारतीय प्रयोजनवादी राजनीति का सूत्रपात, जो हर्षवर्द्धन तक आते-आते समाप्त हो गई।)

वेदों में ‘रस’ की चर्चा है, वह आत्मा की ही स्वरूप है। किंतु आत्मा अपहतपाष्मा है, अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय एवं आनंदमय कोशों से ऊपर, पार, दूर, जहाँ विरला ही कोई पहुँचता है। वाणी भी मन के साथ टकराकर वहाँ से लौट आती है, अर्थात् यह सब लोक की पहचान और पहुँच से बाहर। परंतु नृत्य, गीत, संगीत, मूर्ति, चित्र, स्थापत्य, वास्तु, सज्जा-श्रृंगार और इन सबकी समष्टि, नाट्य के प्रति लोगों का सहज आकर्षण होता है। नाट्य में अपने ही सहज स्वभाव का मंच पर अनुकरण, अपने ही रूप का प्रतिरूप (शिल्प), अपने ही भावों का अभिनय देखकर लोक अद्भुत आनंद का अनुभव करता है। इससे उसके स्थायी मनोभावों का उद्रेक होता है, और इससे परम निवृत्ति। लोगों के मन का द्रवीभाव। क्या यही रस की अनुभूति नहीं है? तो, फिर, ‘रसो वै स:’ का आध्यात्मिक अनुभव लोक की सामर्थ्य से दूर की बात है— भरत ने घोषणा की : नाट्य के द्वारा मन का द्रवीभाव — यही रस है, लोक के लिए सहज, अनुभवगम्य। नाट्य यही सार्ववर्णिक वेद है: लोक के लिए लोक द्वारा सिरजा हुआ वेद।
नाट्यशास्त्र लोकात्मकता की दूसरी बड़ी विजय थी। लोक स्वभाव-सहज की विजय की विजय। सहज ही समग्र होता है, और समग्र ही सत्य होता है। अतएव ‘सत्यमेव जयते’ की विजय।
लोकात्मकता की विजय — यही सार है ‘सर्वज्ञता लोकज्ञता’ सूत्र का।
हम यह नहीं कहते हैं कि इतिहास के दूसरे घटक और शक्तियाँ नहीं होतीं, किंतु आदमी के इतिहास को बनाने में परिस्थितियों का जितना योगदान रहता है, उतना ही मन: स्थितियों का भी। दोनों के तालमेल से संस्कृति बनती है। लोकात्मकता एक प्रबल मन:स्थिति है। वर्गवाद अथवा सामंतवाद के विकास के साथ लोक वर्ग की दूरी बढ़ती है, और लोकात्मकता क्षीण होती है, जिसका प्रभाव संस्कृति की सभी अभिव्यक्तियों पर पड़ना अवश्यंभावी है। सम्राट् हर्ष के साथ यह क्षय यहाँ प्रारंभ हुआ और थोथे अहंकार के साथ सामंती मनोवृत्ति का विस्तार और अस्वस्थ मूल्यों का जीवन में संचार। राजपूती आनबान-शान के ऊपर हम गर्व कर सकते हैं, परंतु इसका ऐतिहासिक मूल्य संदिग्ध है। लोक इसका साथ कम देता है, और इसे आयं-बायं-सायं कहकर उपहास के योग्य समझता है। सातवीं-आठवीं शती से जो टूटन इस देश में प्रारंभ हुई तो इसे रोकते-रोकते भी 14, 15, 16वीं शतियों में आकर कबीर, नानक, दादू, तुलसी, सूर आदि संतों ने लोकात्मकता को पुन: प्रतिष्ठित करने में सफलता प्राप्त की। इन्होंने लोक और भगवान के बीच टूटे रिश्ते को जोड़ा, लोगों से सीधा संपर्क किया। संत लोक के उतना समीप आए जितना सामंत लोक से दूर थे। संत ने यों ही नहीं गया था : संतन को कहा आगरे सों काम। संत-सामंत के इस अंतर्द्वंद्व में लोकात्मकता फिर से क्षीण हो उठी। संत हार गए, और सामंतों की हार अपने ही कारणों से अनिवार्य थी ही।
19 और 20वीं शतियों के अधिकांश भाग में लोक-चेतना पुन: चमकी। यद्यपि केवल बाल गंगाधर तिलक को ‘लोक-मान्य’ कहा गया, सच यह है कि धर्म के क्षेत्र में स्वामी दयानंद, काव्य के क्षेत्र में कवींद्र रवींद्र, साहित्य के क्षेत्र में प्रेमचंद, और राजनीति के क्षेत्र में महात्मा गाँधी अपने मूल रूप में ‘लोक-मान्य’ थे। इन महा-पुरुषों ने लोक को मान्यता दी तो लोक ने इनको लोक-मान्य ठहराया। ‘महात्मा’ लोक का प्रिय शब्द है, और भारतीय संस्कृति का एक श्रृंगार। महात्मा गाँधी ने भारतीय लोक की नाड़ी पर हाथ रखा, और जवाहरलाल नेहरू ने ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में हृदय की धड़कन को पहचाना। आज स्थिति बदल रही है। नया सामंत वर्ग और अभिजात वर्ग आँखों के आगे पैदा हो रहा है। राजनीति से लोक-मानस की गहराई दनों-दिन बढ़ती जा रही है। भारतीय इतिहास में यह निर्णायक घड़ी है, और हमारे संकट का कारण है, लोकज्ञता की कमी। लोक-चेतना की धुंधलाहट। लोकात्मकता की क्षीणता। उपचार केवल एक है : लोक-चेतना के उभार-उद्गार से विकृत वर्ग-चेतना का निराकरण।
दु:ख इस बात का है कि इस स्थिति से कुछ भी नहीं बचा। न संस्कृति का कोई पक्ष और न साहित्य की कोई अभिव्यक्ति।
लोकज्ञता – लोकात्मकता ही लोकतंत्र का आधार-स्तंभ होता है, लोक का अर्थ है सर्व-जन और सर्व-वर्ण, अर्थात् सब लोग। ‘सबलोग’ से किसी कारणवश यदि ‘कुछ’ लोग अलग, दूर होने लगते हैं तो इससे वर्ग बनते हैं, और वर्गवाद के साथ, सहज ही, विषमता बढ़ती है। ‘लोक’ समानता का पर्याय है, और जो समान होते हैं, वे ही स्वतंत्र होते हैं। वर्गवाद समानता और स्वतंत्रता का विरोधी है, और संघर्ष का मूल। यदि हम इसे पहचानते हैं तो भारतीय लोक कभी पराधीन नहीं हुआ, किसी भी राजसत्ता में। यही कारण है कि वह आज जीवित है, अपनी राह चलता है और अपनी राह चलता आया है। जिसने लोक को पहचाना, वही जीता उसी की शक्ति से, क्योंकि लोक ही शक्ति का अजस्र और सनातन स्रोत होता है लोक समान और स्वतंत्र, अतएव निर्भय और समर्थ होता है। सामूहिक चेतना का स्रोत यही है। यह विडंबना ही है कि साम्यवाद समानता को आगे रखता है तो पूंजीवाद स्वतंत्रता की हिमायती है। लोक-विज्ञान का मत है कि जो समान नहीं, वे स्वतंत्र नहीं हो सकते। दोनों ही लोक-मानस मे साथ रहते हैं। दोनों का टूटन और बिखराव लोक-स्वभाव को मान्य नहीं है। साम्यवाद और पूंजीवाद दोनों ही वर्गवादी प्रतीत होते हैं, और लोक-चेतना की समग्रता एवं सत्य से दूर हैं। दोनों वादों क सामंजस्य लोक के धरातल पर ही संभव है।
यह संयोग नहीं, इतिहास की अनिवार्यता है कि लोक-तंत्र की संकल्पना के साथ लोक-विज्ञान और लोक-मानस की अनेक अभिव्यक्तियों, भंगिमाओं और स्फूर्तियों का वैज्ञानिक विवेचन प्रारंभ हुआ। लोक-तंत्र का विचार पश्चिम में उपजा, इसका लम्बा और पेचीदा इतिहास है। धर्म में लोक-तंत्र के सूत्र मिल जाते हैं, किंतु लोक-तंत्र मूलत: धार्मिक अवधारणा नहीं है। इसका उदय और विकास लोक-जीवन के आध्यात्मिक और ऐतिहासिक परिस्थितियों में हुआ। पश्चिमी यूरोप और इंग्लैंड में परिस्थितियों की टक्कर से लोक-चेतना का उद्गार हुआ और लोक-तंत्र के आग्नेय बीज पहले लोगों के मन में चमके और बाद में लोकतंत्रात्मक जीवन-दर्शन के रूप में प्रकट हुए। अनेक राज्य-क्रांतियों में लोगों को अपनी शक्ति का अहसास हुआ। इधर राष्ट्रवाद उभर कर आया तो विश्व-इतिहास के परिप्रेक्ष्य में उपनिवेशवादी शक्तियाँ जागीं और सारे महाद्वीपों पर छा गईं।
यूरोपीय उपनिवेशवाद में एक अंतर्विरोध निहित था : मन को दी भागों में काटा-बांटा नहीं जा सकता। घर पर लोक-तंत्र और बाहर उपनिवेशों में राजतंत्र दो विरोधी मानसिकताएँ भला एक साथ कैसे रहतीं? पहले तो यूरोपीय साम्राज्यवादियों ने अपने-अपने उपनिवेशों में रहने वाले लोगों को समझना चाहा, इसलिए कि वे उन पर शासन कर सकें। यह लोक-विज्ञान, समाज-विज्ञान और नृविज्ञान के लिए मूल प्रेरणा थी। पंरतु शीघ्र ही आदमी और लोक को समझने का यह प्रयास वैज्ञानिकों को गंभीर प्रश्नों की ओर ले गया। राष्ट्रवाद ने लोगों के मन में रोमानियत के भावों को पहले ही जगा दिया था, और प्रत्येक राष्ट्र अपने अतीत-गौरव को मुग्ध दृष्टि से देखने लगा था। इधर, वैज्ञानिकों ने अपने ही लोगों को समझने का प्रयास प्रांरभ किया तो लोक-जीवन की मूल प्रेरणाओं, विकास और विस्तार की शक्तियों और अतत: धर्म-व्यवस्था, विश्वास-मान्यता, निष्ठा-आस्था, कला-संस्कृति आदि के विश्लेषण-विवेचन से जीवन के ही आदि स्रोतों तक पहुँच गए। वैज्ञानिकों ने जीवन की निरंतरता को समझा, विविधताओं एवं परिवर्तनों के बीच सनातन प्रवृत्तियों और ऊर्जाओं का उद्घाटन किया। और, इस प्रकार प्रारंभ हुए संस्कृति विज्ञान, नृविज्ञान, समाज विज्ञान, और इन सबके आधारभूत लोकवार्त्ता विज्ञान का उदय-विकास-विस्तार।
लोक-वार्त्ता विज्ञान के विज्ञान के अध्ययन से अनेक रोचक परिणाम निकले हैं, जैसे इतिहास के अध्ययन में गंभीरता, लोक-जीवन की साहित्यिक, कलात्मक और सामूहिक सर्जनात्मक अभिव्यक्तियों को समझने के लिए नूतन आधार, नए सूत्र, नए सिद्धांत। सबसे बड़ा लाभ हुआ है यह समझ कि आज का आधुनिक आदमी भी आदिमता के समीप है, और यह कि इसे समझने के लिए प्राचीन परिभाषाएँ गलत सिद्ध हो गई हैं।
लोक=Folk=Volk : ये पर्याय हैं, और पुराने भी हैं। इसी प्रकार Lore=Kunde= वार्त्ता=बात=व्यवहार=आचार और समाचार पर्याय हैं। जर्मनी के ग्रिम्स-बंधुओं ने अपनी संग्रहीत लोक-कथाओं में जन-जीवन का ऐसा रसीला, रोमांचक, और साथ ही ऐसा मौलिक-मोहक पक्ष प्रस्तुत किया है कि लोक को समझने के लिए एक दम नए क्षितिज खुल गए। एक ओर समूचे यूरोप में, साधारण मज़दूर-किसान के अनपढ़, अनगढ़ जीवन की रंगीनी-रसीली अभिव्यक्तियों-कहानियों, गीतों, नृत्यों प्रथा-परंपराओं, आदि- का संग्रह प्रारंभ हुआ तो दूसरी ओर नृविज्ञानियों ने लोक-जीवन के सनातन सत्यों का उद्घाटन किया। इस अनपढ़-अनगढ़ लोकजीवन में कितनी गहराइयाँ हैं, कितने आयाम, और कितनी सचाइयाँ। लोग चमत्कृत हो उठे। कवि गा उठे, आदमी के लिए आदमी का अध्ययन सबसे रोचक और महत्वपूर्ण विषय है।
(4)
लोक-वार्त्ता विज्ञान के प्रति यह सूझ-समझ हमारे विचार से, चाणक्य के सूत्र सर्वज्ञता-लोकज्ञता की पहचान और पुन: प्रतिष्ठा है, इतिहास के बदले हुए संदर्भ में। चाणक्य के अर्थशास्त्र में यों आदि से अंत तक लोक-चेतना, यथार्थ बोध, को शासन-प्रशासन का आधार बनाया गया है किंतु कहीं पर यह संकेत नहीं मिलता कि किस प्रकार वैज्ञानिक विधि से इस बोध को प्राप्त किया जाए। राजा को ‘चार-चक्षु:’ माना गया है। लोकवार्त्ता विज्ञान का उदय कल की बात है, इसकी अवधारणा, स्वरूप और कार्य के संबंध में भी उदय काल है, इसकी अवधारणा, स्वरूप और कार्य के संबंध में भी कोई मोड़ और बदलाव आ चुके हैं। लोक-वार्त्ता को, एक समय विज्ञान का विलोम भी समझा गया, क्योंकि विज्ञान विचार, तर्क, प्रमाण के साक्ष्य को आधार बना कर चलता है तो लोक-वार्त्ता विश्वास, श्रद्धा, मान्यता, आस्था के सहारे जीती है। किसी समय लोक-वार्ता को अनगढ़ जीवन का मनोविनोद भी समझा गया, अथवा वे विनोद और कहानियाँ जो पुराने समय में प्रचलित थीं, मात्र मन-बहलाव के लिए तोते-मैना की कहानियाँ। आज स्थिति पूरी तरह बदल गई है। आज मान्य सूत्र है जहाँ लोक-वार्त्ता स्वयं पैदा हो जाती है और लोक का अर्थ है सर्वजग, सब लोग-सामान्य मनुष्य-मामूली आदमी। हर आदमी अपनी विशिष्टता के झीने आवरण के नीचे मामूली आदमी होता है। आर्थात लोक! लोक-वार्त्ता मात्र लोक-कथाएँ, पुरा-कथाएँ, पशु कथाओं, चुटकुले, लोकोक्ति, मात्र नहीं हैं, अपितु लोक-जीवन की समूची, सहज, और सच्ची अभिव्यक्तियां, कृत्रिमता से युक्त, अर्थात् जीवंत लोक-चेतना के उद्गार। प्रकट रूप। लोक-कथाएँ, और इनके विविध रूप, व्यंग्य-विनोद, लोक-धर्म और लोक-विश्वासों का विशाल व्यूह, प्रथाएँ, रीतियां, मान्यताएँ, जो लोक-जीवन के लिए राजमार्ग हैं, उत्सव सरकार, त्यौहार, निष्ठाएँ, आस्थाएँ ये सब इसके लिए अध्ययन के विषय हैं। परिणात: लोक-वार्त्ता विज्ञान युग-बोध और यथार्थ-बोध का अक्षय स्रोत बन उठा है, और लोकज्ञता का आधार और मूलोद्गम।
निरंतरता लोक-जीवन का एक लक्षण है। लोक-चेतना परंपराओं का अजस्र प्रवाह है। यही कारण है कि ‘वर्तमान’ को समझने के लिए संपूर्ण ‘‘अतीत’’ की जानकारी आवश्यक है। वर्तमान की समझ ही ‘भविष्य’ की सूझ-समझ के लिए अनिवार्य है। इतिहास-बोध का तात्पर्य ही अतीत+विद्यमान+भविष्यत् के नैरंतर्थ का बोध है। किसी भी एक विश्वास अथवा परंपरा को लीजिये, जैसे, पुनर्जन्म में विश्वास अथवा मृतक-संस्कार से संबंधित परंपरा। इनके वर्तमान स्वरूप और शक्ति को समझने के लिए हमें इतिहास के अंतहीन अंधेरियों को पार करके, यदि संभव हुआ तो, आदिम जीवन तक जाना होगा। इनमें बदलाव लाने के लिए, यदि संभव हो तो, इस समझ की उपेक्षा नहीं की जा सकती।
इतिहास घटना-क्रम का वैज्ञानिक अध्ययन है। निरंतरता और परिवर्तन इसके ताने-बाने हैं, स्पष्ट है, युग-बोध और यथार्थ-बोध के बिना परिवर्तनों पर काबू पाना तो दूर रहा, इनका यथावत् समझना भी सुकर नहीं। जो शास्त्र-चितंन यथार्थ और युग को नहीं समझता, वह ‘सनातन’ को क्या समझेगा। वह खोखला, हवाई, और चाणक्य के शब्दों में, मात्र मूर्खता ही हो सकता है। एक उदाहरण : बुंदेलखंड में नदी पर बांध बनाया जाना था, जिससे वहाँ के निवासियों को लाभ होता, पर बाँध में देवी का पुराना मंदिर दब रहा था। लोग विरोध पर उतारू हो गए। देवी के दबने से उनका लोक-विश्वास दब रहा था। हमने श्वास की भांति विश्वास को लोक-मानस का प्राण माना है। वह उन्हें कैसे सहा होता? प्रशासक सिर मार कर चले गए। पहुँचे वहाँ एक पुराण पंथी मंत्री, किंतु लोकज्ञ पहले उन्होंने देवी की सांगोपांग पूजा की। लोग शामिल हुए। वहाँ देवी के लिए भव्य मंडप बनाया गया, और बाँध को इस प्रकार योजित किया गया कि उसे क्षति न हो, लोग स्वयं में जुट गए और देवी के जयकारों के साथ मंत्रीजी के जयकारों से आकाश गूजं गया।
युग की जड़े अतीत में होती हैं। हम अपने ही आस्था, विश्वास, मूल्य, मान्यताओं, धार्मिक निष्ठाओं, यहाँ तक कि विचार करने की विद्याओं और खान-पान, रहन-सहन, रुचियाँ, संक्षेप में, अपने जीवन की मूल प्रेरणाओं का विश्लेषण-विवेचन करके देखें, हमारी मानसिकता का सर्वांश नहीं तो अधिकांश अतीत से प्राप्त होता है, अतीत जिससे हम आसानी से पीछा नहीं छुड़ा सकते। पीछा छुड़ाने या मोड़ देने के लिए इसे समझना आवश्यक है। वर्तमान को समझे बिना भविष्य का निर्माण छूंछा प्रयास होगा। लोक-वार्त्ता विज्ञान इतिहास की इसी निरंतरता और नित्यता, समष्टि मानस की अनंत संपदा जो हमारे व्यष्ट-मानस में ओतप्रोत है और युगचेतना की शक्तियों, प्रेरणाओं और प्रवृत्तियों को अपने अध्ययन का केंद्र मानता है।
(5)
दुर्भाग्य से हमारे देश में लोक-वात्त विज्ञान का अध्ययन अपेक्षित गंभीरता के साथ अभी प्रारंभ नहीं हुआ, विदेशों की भाँति शास्त्रज्ञता आसान है, ना। किताबें पढ़ लीजिए और इम्तहान में पास हो जाइये। बस! लोकज्ञता के लिए भी यहाँ पुस्तकें पढ़ने से काम चल जाता है। सच बात यह है कि लोक को जानने के लिए लोगो के बीच रहना होगा, लोक-जीवन के साथ एकमएक होकर उसके दर्द को समझने के लिए इसे भोगना पड़ेगा। आँखों से देखना और कानों से उसकी कराह सुननी होगी। उसे ग़रीब-गवांर कह कर दुरदुराने से, उसके गीतों में जीवन की गहरी बदनाएँ हैं जिन्हें सिनेमा के गले-सड़े गीतों की अपेक्षा निम्न मानने से, उसके अनगढ़ शब्दों और वाक्यविन्यास को मात्र ‘बोली’ कह कर अपमानित करने से लोकज्ञता पैदा नहीं हो सकती। तथाकथित आधुनिकता ने लोक-रुचि को विकृत किया है, उसका परिष्कार नहीं किया। किसी किताबी लोकज्ञ की यह घोषणा : में हिन्दुस्तान को जानता हूँ कितनी उपहासास्पद है।
शास्त्रज्ञता किताबी होती है, हमारे देश में तो जब कृषि-विज्ञान का छात्र गेहूँ और जौ में अंतर नहीं कर सकता, सनई के खेत को अरहर का खेत बताता है, तो इस शास्त्रज्ञता को मूर्खता न कहें तो क्या कहें?

स्पष्ट है लोकज्ञ बनना शास्त्रज्ञ बनने की अपेक्षा कठिन काम है। लोक मात्र जीवित ही नहीं रहता, वह क्षण-क्षण अपने मन की रंगीनियों और उसके अनंत विलासों, स्फूर्तियों को प्रकट करता है। खुलापन, बेतकल्लुफी, निषेध-प्रतिषेधों से मुक्त, स्वतंत्रता और समानता का व्यवहार, सहजता, सरलता और सब सच्चाई ये लोक-जीवन के प्रमुख लक्षण हैं। लोक-मानस इन्हीं लक्षणों के कारण सृजन के लिए सक्षम होता है। लोक-कलाओं, लोक-कथाओं और लोक-प्रथाओं के रूप में, हंस कर, गाकर, नाच कर, चुटकलों और व्यंग्य-विनादों से, लोक की सौंदर्य-चेतना, रूप-रस-रुचि के लिए उसकी ललक-लालसा, प्रकट होती है। किसी समाज की मूल्य-चेतना लोकात्मक होती है। लोक का काम विचार मात्र से नहीं चलता, जो दूर तक नहीं जा पाता, मन और जीवन के गहरे अंतरालों और अंधेरियों में प्रवेश नहीं कर पाया मनोगुहा तमसा आच्छन्न है, जहाँ सत्य के अनंत रूप, रहस्य, आश्चर्य और चमत्कार छिपे हैं, जहाँ विचार की गति नहीं, वहाँ विश्वास जाता है। श्रद्धा मन का बल है, जिससे विश्वास संवलित होता है। जीवन की गंभीरतम, सत्यतम और सुंदरतम अभिव्यक्तियों तक पहुँचने के लिए हमें ‘लोक’ को समझना चाहिए। स्मरण रहे, ‘लोक’ कृत्रिमता का विलोम है। हमारी संस्कृति का चमकीला-भड़कीला धरातलीय रूप उसके गंभीर और सच्चे, सहज रूप को छिपाए हुए हैं, इसमें संदेह नहीं।
लोक-वार्त्ता विज्ञान लोक का सही, सच्ची और समूची समझदारी के लिए एक नूतन वैज्ञानिक उपकरण के रूप में आज हमें प्राप्त है। इसकी सबसे बड़ी उपलब्धि होगी हमारी सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों का पुन: मूल्यांकन। हिन्दी साहित्य को लाभ होगा: सृजन के लिए सुदृढ़ लोक-संदर्भ, जिसमें आज वह कटा हुआ है और न जाने कहाँ-कहाँ विदेशी व विजातीय मानसिकताओं में अपना आधार खोज रहा है, जहाँ वह नहीं है। यह आरोप सच है कि हिन्दी-साहित्य लोक-चेतना की गहराइयों को न पहचानता है और न उसे पकड़ पा रहा है।



टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 542-543।अर्थशास्त्र
  2. देखें: डी. आर. भंडराकर की पुस्तक, ‘अशोक’

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख

स्वतंत्र लेखन वृक्ष
तृतीय विश्व हिन्दी सम्मेलन 1983
क्रमांक लेख का नाम लेखक
हिन्दी और सामासिक संस्कृति
1. हिन्दी साहित्य और सामासिक संस्कृति डॉ. कर्ण राजशेषगिरि राव
2. हिन्दी साहित्य में सामासिक संस्कृति की सर्जनात्मक अभिव्यक्ति प्रो. केसरीकुमार
3. हिन्दी साहित्य और सामासिक संस्कृति डॉ. चंद्रकांत बांदिवडेकर
4. हिन्दी की सामासिक एवं सांस्कृतिक एकता डॉ. जगदीश गुप्त
5. राजभाषा: कार्याचरण और सामासिक संस्कृति डॉ. एन.एस. दक्षिणामूर्ति
6. हिन्दी की अखिल भारतीयता का इतिहास प्रो. दिनेश्वर प्रसाद
7. हिन्दी साहित्य में सामासिक संस्कृति डॉ. मुंशीराम शर्मा
8. भारतीय व्यक्तित्व के संश्लेष की भाषा डॉ. रघुवंश
9. देश की सामासिक संस्कृति की अभिव्यक्ति में हिन्दी का योगदान डॉ. राजकिशोर पांडेय
10. सांस्कृतिक समन्वय की प्रक्रिया और हिन्दी साहित्य श्री राजेश्वर गंगवार
11. हिन्दी साहित्य में सामासिक संस्कृति के तत्त्व डॉ. शिवनंदन प्रसाद
12. हिन्दी:सामासिक संस्कृति की संवाहिका श्री शिवसागर मिश्र
13. भारत की सामासिक संस्कृृति और हिन्दी का विकास डॉ. हरदेव बाहरी
हिन्दी का विकासशील स्वरूप
14. हिन्दी का विकासशील स्वरूप डॉ. आनंदप्रकाश दीक्षित
15. हिन्दी के विकास में भोजपुरी का योगदान डॉ. उदयनारायण तिवारी
16. हिन्दी का विकासशील स्वरूप (शब्दावली के संदर्भ में) डॉ. कैलाशचंद्र भाटिया
17. मानक भाषा की संकल्पना और हिन्दी डॉ. कृष्णकुमार गोस्वामी
18. राजभाषा के रूप में हिन्दी का विकास, महत्त्व तथा प्रकाश की दिशाएँ श्री जयनारायण तिवारी
19. सांस्कृतिक भाषा के रूप में हिन्दी का विकास डॉ. त्रिलोचन पांडेय
20. हिन्दी का सरलीकरण आचार्य देवेंद्रनाथ शर्मा
21. प्रशासनिक हिन्दी का विकास डॉ. नारायणदत्त पालीवाल
22. जन की विकासशील भाषा हिन्दी श्री भागवत झा आज़ाद
23. भारत की भाषिक एकता: परंपरा और हिन्दी प्रो. माणिक गोविंद चतुर्वेदी
24. हिन्दी भाषा और राष्ट्रीय एकीकरण प्रो. रविन्द्रनाथ श्रीवास्तव
25. हिन्दी की संवैधानिक स्थिति और उसका विकासशील स्वरूप प्रो. विजयेन्द्र स्नातक
देवनागरी लिपि की भूमिका
26. राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ में देवनागरी श्री जीवन नायक
27. देवनागरी प्रो. देवीशंकर द्विवेदी
28. हिन्दी में लेखन संबंधी एकरूपता की समस्या प्रो. प. बा. जैन
29. देवनागरी लिपि की भूमिका डॉ. बाबूराम सक्सेना
30. देवनागरी लिपि (कश्मीरी भाषा के संदर्भ में) डॉ. मोहनलाल सर
31. राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ में देवनागरी लिपि पं. रामेश्वरदयाल दुबे
विदेशों में हिन्दी
32. विश्व की हिन्दी पत्र-पत्रिकाएँ डॉ. कामता कमलेश
33. विदेशों में हिन्दी:प्रचार-प्रसार और स्थिति के कुछ पहलू प्रो. प्रेमस्वरूप गुप्त
34. हिन्दी का एक अपनाया-सा क्षेत्र: संयुक्त राज्य डॉ. आर. एस. मेग्रेगर
35. हिन्दी भाषा की भूमिका : विश्व के संदर्भ में श्री राजेन्द्र अवस्थी
36. मारिशस का हिन्दी साहित्य डॉ. लता
37. हिन्दी की भावी अंतर्राष्ट्रीय भूमिका डॉ. ब्रजेश्वर वर्मा
38. अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ में हिन्दी प्रो. सिद्धेश्वर प्रसाद
39. नेपाल में हिन्दी और हिन्दी साहित्य श्री सूर्यनाथ गोप
विविधा
40. तुलनात्मक भारतीय साहित्य एवं पद्धति विज्ञान का प्रश्न डॉ. इंद्रनाथ चौधुरी
41. भारत की भाषा समस्या और हिन्दी डॉ. कुमार विमल
42. भारत की राजभाषा नीति श्री कृष्णकुमार श्रीवास्तव
43. विदेश दूरसंचार सेवा श्री के.सी. कटियार
44. कश्मीर में हिन्दी : स्थिति और संभावनाएँ प्रो. चमनलाल सप्रू
45. भारत की राजभाषा नीति और उसका कार्यान्वयन श्री देवेंद्रचरण मिश्र
46. भाषायी समस्या : एक राष्ट्रीय समाधान श्री नर्मदेश्वर चतुर्वेदी
47. संस्कृत-हिन्दी काव्यशास्त्र में उपमा की सर्वालंकारबीजता का विचार डॉ. महेन्द्र मधुकर
48. द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन : निर्णय और क्रियान्वयन श्री राजमणि तिवारी
49. विश्व की प्रमुख भाषाओं में हिन्दी का स्थान डॉ. रामजीलाल जांगिड
50. भारतीय आदिवासियों की मातृभाषा तथा हिन्दी से इनका सामीप्य डॉ. लक्ष्मणप्रसाद सिन्हा
51. मैं लेखक नहीं हूँ श्री विमल मित्र
52. लोकज्ञता सर्वज्ञता (लोकवार्त्ता विज्ञान के संदर्भ में) डॉ. हरद्वारीलाल शर्मा
53. देश की एकता का मूल: हमारी राष्ट्रभाषा श्री क्षेमचंद ‘सुमन’
विदेशी संदर्भ
54. मारिशस: सागर के पार लघु भारत श्री एस. भुवनेश्वर
55. अमरीका में हिन्दी -डॉ. केरीन शोमर
56. लीपज़िंग विश्वविद्यालय में हिन्दी डॉ. (श्रीमती) मार्गेट गात्स्लाफ़
57. जर्मनी संघीय गणराज्य में हिन्दी डॉ. लोठार लुत्से
58. सूरीनाम देश और हिन्दी श्री सूर्यप्रसाद बीरे
59. हिन्दी का अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य श्री बच्चूप्रसाद सिंह
स्वैच्छिक संस्था संदर्भ
60. हिन्दी की स्वैच्छिक संस्थाएँ श्री शंकरराव लोंढे
61. राष्ट्रीय प्रचार समिति, वर्धा श्री शंकरराव लोंढे
सम्मेलन संदर्भ
62. प्रथम और द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन: उद्देश्य एवं उपलब्धियाँ श्री मधुकरराव चौधरी
स्मृति-श्रद्धांजलि
63. स्वर्गीय भारतीय साहित्यकारों को स्मृति-श्रद्धांजलि डॉ. प्रभाकर माचवे