वनस्पति

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किसी क्षेत्र का वनस्पतिक जीवन या  भूमि पर मौजूद पेड़-पौधे और इसका संबंध किसी विशिष्ट जाति, जीवन के रूप, रचना, स्थानिक प्रसार या अन्य वानस्पतिक या भौगोलिक गुणों से नहीं है। यह शब्द  'फ्लोरा'  शब्द से कहीं अधिक बड़ा है जो विशेष रूप से जाति की संरचना से संबंधित होता है। वनस्पति न सिर्फ इंसानी जीवन, बल्कि पृथ्वी पर वास करने वाले समस्त जीव-जंतुओं के जीवन चक्र का एक अहम हिस्सा है। एक तरफ जहाँ यह वातावरण को शुद्ध करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है, वहीं दूसरी तरफ इसकी कई प्रजातियाँ दवा के रूप में भी काम आती हैं।

भारत में वनस्पति

देश में मिलने वाली जलवायविक एवं मृदा सम्बन्धी विभिन्नताओं ने वनस्पति को भी पर्याप्त रूप में प्रभावित किया है। उच्चावच का प्रभाव भी वनस्पत की प्रकृति को निर्धारित करने का एक महत्त्वपूर्ण कारक है। देश में उष्ण, शीत एवं शीतोष्ण तीनों प्रकार के जलवायु कटिबन्धों की दशाएँ मिलती है। वर्तमान में 774,74 लाख वर्ग किमी भूमि पर वन है, सम्पूर्ण भौगोलिक क्षेत्र का 23.56 प्रतिशत है। इसमें से सघन वन 11.88 प्रतिशत, खुला वन 88.75 प्रतिशत और कच्छ वनस्पति क्षेत्र 0.15 प्रतिशत है। देश में वनों का विस्तार सभी राज्यों में समान नहीं है। कुछ भागों में वर्षा की मात्रा औसत से अधिक मिलती है, जबकि कुछ भाग शुष्क एवं वर्षाविहीन ही हैं। वर्षा के असमान वितरण तथा उच्चावच की विभिन्नता के आधार पर भारत को 6 वनस्पति प्रदेशों में वर्गीकृत किया जाता है, जो इस प्रकार हैं -

  1. हिमालय प्रदेशीय या पर्वतीय वन
  2. उष्णार्द्र सदाबहार वन
  3. आर्द्र मानसूनी वन
  4. उष्णार्द्र पतझड़ वन
  5. मरुस्थलीय वन
  6. दलदली अथवा ज्वार भाटा क्षेत्रों के वन

हिमालय प्रदेशीय या पर्वतीय वन

हिमालय पर्वतीय क्षेत्र में मिलने वाले पर्वतीय वनों में ऊंचाई के अनुसार अन्तर पाया जाता है। पर्वतीय क्षेत्रों की तलहटी वाले भागों में 6 से 9 मीटर तक की ऊंचाई के चौड़ी पत्ती वाले वन मिलते है, जबकि उच्च भागों में 18 मीटर से भी अधिक ऊंचाई के नुकीली पत्ती वाले वन पाये जाते हैं। हिमालय पर्वतमाला के पूर्वी भाग में, जहाँ वार्षिक वर्षा की मात्रा अधिक होती है, कम वर्षा वाले पश्चिमी भागों की अपेक्षा घनी एवं विविध प्रकार की वनस्पतियाँ पायी जाती है। हिमालय के वन प्रदेशों को मुख्यतः 2 प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है -

पूर्वी हिमालय की वनस्पतियाँ

इसमें अर्द्ध उष्णकटिबन्धीय वन तराई क्षेत्रों से लेकर 1,524 की ऊंचाई तक मिलते हैं। ऐसे वनों में साल, शीशम, अमूरा, सेमल, चिनौली, चन्दन आदि के वृक्ष पाये जाते हैं। इनमें सवाना प्रकार की लम्बी घासें भी पायी जाती है। बांस एवं लम्बी लताओं ने इस प्रकार के वनों को काफ़ी सघन बना दिया है। पूर्वी हिमालय में 1,524 से 2,800 मीटर की ऊंचाई तक शीतोष्ण कटिबन्धीय वनस्पतियाँ मिलती हैं जिनमें ओंक, बर्च, मैपिल, एल्डर, मैगनोलिया तथा लारेल के चौड़ी पत्ती वाले वृक्ष पाये जाते हैं। 2,800 से 3,600 मीटर की ऊंचाई वाले भागों में पूर्णतः पर्वतीय वनस्पति का वर्चस्व मिलता है जिसमें सिल्वर फर, बर्च, भोजपत्र, सैज तथा लिचेन के वृक्ष मिलते हैं। 4,800 से 6,100 मीटर की ऊंचाई वाले भागों में छोटी-छोटी घांसे तथा सुन्दर पुष्प मिलते हैं जबकि इसके ऊपर केवल बर्फ़ का जमाव पाया है।

पश्चिमी हिमालय के वन

हिमालय पर्वतमाला के पश्चिमी भागों में 1,524 मीटर की सामान्य ऊंचाई तक अर्द्ध उष्ण कटिबन्धीय वनस्पतियां पायी जाती हैं जिनमें प्रमुख वृक्ष साल, साल ढाक, सेमल, बांस आंवला, शीशम, बेर आदि हैं। 3,000 से 5,000 मीटर की ऊंचाई वाले भागों में शीतोष्ण कटिबन्धीय वनों की अधिकता है। ऐसे वनों में चीड़, देवदार, वालसम, ब्लूपाइन, एल्डर, एल्म, बर्च आदि वृक्ष मिलते हैं।

उष्णार्द्र सदाबहार वन

देश में उन भागों में, जहां औसत वार्षिक वर्षा 200 सेमीटर से अधिक, वार्षिक औसत तापमान 240 सें. के आसपास तथा वर्ष भर आर्द्रता 70 प्रतिशत तक रहती है। उष्णार्द्र सदाबहार वन पाये जाते है। इनका विस्तार उत्तर में हिमालय की तराई वाले क्षेत्रों, पूर्वी हिमालय के पाद-प्रदेश (असम, पश्चिम बंगाल), पश्चिमी घाट पर्वत के ढालों पर, नीलगिरि तथा अन्नामलाई की पहाड़ियों पर एवं अण्डमान निकोबार द्वीप समूह में पाया जाता है। इन वनों में मिलने वाले प्रमुख वृक्ष हैं - महोगनी, रोजवुड, ताड़, बांस, रबड़, जंगली आम, आबनूस, आदि। इनकी ऊंचाई 30 से 45 मीटर तक होती है। ये आपस में मिले होते हैं जिसके कारण इन्हें काटने में असुविधा होती है।

आर्द्र मानसूनी वन

देश में 100 से 200 से.मी. औसत वार्षिक वर्षा वाले भागों में आर्द मानसूनी प्रकार की वन्स्पति पायी जाती है। वृक्षों की सघनता कम होने के कारण इनकी कटाई अधिक हुई। है। इनका विस्तार हिमालय के बाहरी एवं निचले ढालों पर पंजाब से लेकर असम तक तथा उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल के दक्षिणी भाग, उड़ीसा, पश्चिमी घाट पर्वत के पूर्वी सिरे से लेकर मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक और केरल के शुष्क भागों में कुमारी अन्तरीप तक पाया जाता है। इनमें मिलने वाले प्रमुख वृक्ष साल, सागौन, साखू, शहतूत, पलास, लाल चन्दन, आम, जामुन, गूलर, पाकड़ आदि हैं। ये वन लगभग 7 लाख वर्ग किमी क्षेत्र पर फैले हैं। सागौन के वृक्ष महाराष्ट्र और कर्नाटक राज्य में बहुत अधिक पाए जाते हैं। इन वनों से लकड़ी के साथ उपयोगी पदार्थ प्राप्त होते हैं जैसे - तेल, वार्निश, चमड़ा रंगने का पदार्थ आदि। इनकी लकड़ी औद्योगिक एवं घरेलू उपयोगों के लिए काफ़ी महत्त्वपूर्ण होती है।

उष्णार्द्र पतझड़ वन

उष्णार्द्र पतझड़ वाले वन देश के सर्वाधिक क्षेत्रफल पर पाये जाते हैं। इनका विस्तार उत्तर पश्चिमी में पंजाब एवं हरियाणा से लेकर मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक एवं तमिलनाडु राज्यों तक मिलता है। इस प्रकार के वनों में आम, महुआ, बरगद, शीशम, काकर, बबूल आदि प्रमुख किस्मे हैं। उत्तर प्रदेश में पश्चिम बंगाल में मूँज एवं कास उगती है। तराई प्रदशों में सवाना प्रकार की घास मिलती है। इनकी सर्वाधिक प्रधानता 50 से.मी. से 100 से.मी. की औसत वार्षिक वर्षा वाले प्रायद्वीपीय भारत के मध्यवर्ती भागों में पायी जाती है।

मरुस्थलीय वन

50 से.मी. से कम औसत वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में सामान्यतया 6 मीटर से 9 मीटर की ऊंचाई वाले कांटेदार वृक्ष वाले मरुस्थलीय वन पाये जाते हैं। वर्षा की कमी के कारण इनकी पत्तियाँ कम, छोटी एवं काँटेदार होती है तथा वृक्षों की जड़े लम्बी होती है, जिससे जल के अभाव में भी ये अधिक लम्बे समय तक बने रहते हैं। इनकी संरचना जल की कमी को सहन कर लेने वाली होती है। दक्षिणी-पश्चिमी पंजाब उत्तर प्रदेश में इस प्रकार के वृक्ष पाये जाते हैं। मरुस्थलीय वनों में मिलने वाले वृक्ष नागफनी, खेजड़ी, बबूल, कीकर, खैर, खजूर, राबांस आदि हैं। जल की कमी के कारण ऐसे क्षेत्रों में प्रायः घास का अभाव पाया जाता है।

दलदली अथवा ज्वार भाटा क्षेत्रों के वन

दलदली अथवा ज्वार भाटा क्षेत्रों के वन गंगा-ब्रह्मपुत्र डेल्टा क्षेत्र तथा पूर्वी घाट पर्वत श्रेणियों के तटीय भागों के ज्वार भाटा वाले क्षेत्रों में मिलते हैं। दलदली मिट्टी में उगने के कारण इनकी जल सहन करने की क्षमता अधिक होती है। गंगा-ब्रह्मपुत्र के डेल्टा क्षेत्रों में सुन्दरी वृक्ष की अधिकता के कारण इस क्षेत्र को ‘सुन्दरवन’ कहा जाता है। इसके अतिरिक्त तमिलनाडु एवं आन्ध्र प्रदेश के तटवर्ती ज़िलों तथा महानदी, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी आदि नदियों के डेल्टा क्षेत्रों में ताड़, नारियल, फोनिक्स, केवड़ा, सुपारी, रोजीफोरा आदि प्रजातियों के वृक्ष पाये जाते हैं।

भारतीय वन सर्वेक्षण

विभिन्न प्रकार की वनस्पतियों के होते हुए भी हमारे देश में पर्यावरण संतुलन की दृष्टि से आवश्यक कम से कम 33 प्रतिशत क्षेत्र पर वनों का आवरण होना चाहिए, जबकि वनों की अन्धाधुंध कटाई आदि के कारण वनों का निम्न विस्तार पाया जाता हे। 2005 के सर्वेक्षण के आधार पर देश का मात्र 20.60 प्रतिशत क्षेत्र ही वास्तविक रूप से वनों से ढका है।

भारतीय वन सर्वेक्षण, 2005 के अनुसार 2005 में देश में वनाच्छादित क्षेत्र 6,77,088 वर्ग किमी था, जबकि दो वर्ष पूर्व 2003 में यह 6,78,333 वर्ग किमी, (कुल भाग का 20.64 प्रतिशत ) था। इस प्रकार इन दो वर्षों में वन क्षेत्र में 1245 वर्ग किमी की कमी आई है। वन मंत्रालय की द्विवार्षिक रिपोर्ट में कहा गया है कि 2003-05 के दौरान उत्तराखण्ड, असम, छत्तीसगढ़, गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, मणिपुर, नागालैण्ड तथा अंडमान और निकोबार में जहां वन क्षेत्र घटा है, वहीं हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरियाणादिल्ली में 2 से 11 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली में 2 प्रतिशत, हरियाणा में 11 प्रतिशत में व हिमाचल प्रदेश में 10 प्रतिशत की वृद्धि वन क्षेत्र में हुई है। 2005 में देश में कुल 6,77,088 वर्ग किमी वन क्षेत्र में 54,569 वर्ग किमी में घने वन, 3,32,647 वर्ग किमी में मझोले वन व 2,89,872 वर्ग किमी क्षेत्र में खुले व छितरे वन शामिल है। इस प्रकार देश के कुल भू-भाग का 1.7 प्रतिशत घने वनों से 10-12 प्रतिशत मझोले वनों से तथा 8,82 प्रतिशत भाग खुले वनों से अच्छादित था।

वन नीति की घोषणा

भारत में प्रति व्यक्ति वनों का औसत 0.2 हैक्टेयर मात्र है, जबकि ब्राजील में 8.6, आस्ट्रेलिया में 5.1 और पूर्व सोवियत संघ में 3.5 हेक्टेयर है। इस प्रकार इन देशों में प्रति व्यक्ति वनों का क्षेत्र अधिक है। वनों की सुरक्षा के लिए स्वतंत्रता प्राप्ति पश्चात् 1952 में ही सरकार द्वारा वन नीति की घोषणा की गयी थी जिसे संधोधित कर 1988 में नई वन नीति घोषित की गई। नई नीति में वनों के संरक्षण के साथ ही नये वनों को लगाये जाने पर ज़ोर दिया गया है।


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