वस्त्र

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वस्त्र

मानव के द्वारा मौसम, सुन्दरता और स्वास्थ्य एवं उपयोगिता की दृष्टि से भिन्न-भिन्न प्रकार के वस्त्रों की संरचना की जाती रही है। जातककालीन मानव-समाज भी विभिन्न प्रकार के वस्त्रों-सूती, ऊनी, क्षौम, कोसिय (सिल्क) आदि से परिचित था।

काशी वस्त्र-निर्माण का प्रमुख केन्द्र था। काशी सबसे उत्तम श्रेणी के वस्त्र बनाता था। राजा तथा धनी व्यक्ति काशी के बने वस्त्र सभी उपयुक्त अवसरों पर पहनकर विशेष गर्व महसूस करते थे। डॉ. मोतीचन्द्र लिखते हैं कि युद्ध के समय में भी बनारस में रूई पैदा की जाती थी, जिसका वस्त्र-निर्माण में उपयोग किया जाता था। यह देश के अन्य भागों से भी मंगाई जाती थी। 'तुण्डिल जातक' (388) के अनुसार, बनारस के पास कपास के खेत थे। कपास के खेतों की रखवाली अधिकतर नारियां करती थीं। कपास बीनकर बिनौले आदि निकालकर रूई बनाने का कार्य नारियों के द्वारा के द्वारा किया जाता था। 'महाउम्मग जातक' (547) में गांव के बाहर स्थिति कपास के खेतों की रखवाली करने वाली नारियों का उल्लेख प्राप्त होता है। इसी जातक के अनुसार रखवाली करते समय ही खेत-रक्षिका ने वहीं से कपास ले, बारीक सूत कातकर, गोला बनाया। इस तरह सूती वस्त्र के निर्माण के साथ रेशम का भी बनारस में और बिहार में आधुनिक युग की भांति उच्च कोटि का सिल्क बनाया जाता था। रेशमी और सूती वस्त्र बहुत लोकप्रिय थे। 'चुल्लनारद जातक' (477) का भिक्षु रेशमन 'अंतर्वासक' पहने हुए था।

क्षौम्य (ऊनी) सामान्य वस्त्र था, जिससे भिक्षु अपने चीवर बनाते थे। जातकों में उच्च वर्ग के द्वारा क्षौम वस्त्र के प्रयोग का उल्लेख प्राप्त होता है, परंतु इस वस्त्र के प्रयोग का उल्लेख प्राप्त होता है, परंतु इस वस्त्र की निर्माण-शैली का विस्तृत ज्ञान प्राप्त नहीं होता है, न ही इस वस्त्र की प्रकृति का उल्लेख ही मिलता है। फिर भी विचार है कि यह वस्त्र कुछ ऊनी, छाल, या रूप में महावग्ग (8/9/13/14) में 'कम्बल' शब्द का उल्लेख मिलता है। जातकों में भी गान्धार कम्बल को विशेष महत्व दिया गया है। वस्त्रों को तंतुवाय (कोलिय) जाति के लोग बुनते थे। उनकी श्रेणियां (गिल्ड) होती थीं। वे अत्यंत शिष्ट, शिल्पी, शातप्रिय, धनाढय व्यक्ति थे। अधिकांश के पास पर्याप्त कृषि योग्य भूमि थी। इनका बुद्ध की शाक्य जाति से सीधे रक्त संबंध था। इनके राज्य थे, करोड़ों की स्वर्ण राशि थी।


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