विश्व की हिन्दी पत्र-पत्रिकाएँ -डॉ. कामता कमलेश

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लेखक- डॉ. कामता कमलेश

          विगत कुछ वर्षों से हिन्दी का वैश्विक मंच विशाल से विशालतर होता जा रहा है। राष्ट्र संघ में हिन्दी की स्थापना का प्रयास विश्व हिन्दी सम्मेलनों का आयोजन आदि ऐसी घटनाएं हैं जिनसे हिन्दी की क्षमता का सहज ही ज्ञान हो जाता है। अब हिन्दी एक देशीय नहीं अपितु बहुदेशीय भाषा का रूप ले चुकी है। यही क्या बोलने वाले की दृष्टि से भी हिन्दी संसार की चतुर्थ बड़ी भाषा है। इस समय भारत से बाहर शताधिक विश्वविद्यालयों एवं संस्थानों में हिन्दी का पठन-पाठन इस बात का द्योतक है कि हिन्दी मात्र साहित्य की चीज नहीं वरन् वह हृदयों को जोड़ने वाली ऊर्जा भी है और प्रेम की गंगा भी वर्तमान समय में हिन्दी का लेखन एवं प्रचार प्रसार प्रायः दो रूपों में हो रहा है प्रथम के अन्तर्गत वो देश आते हैं जहां के लोग हिन्दी को एक विश्व भाषा के रूप में 'स्वांत: सुखाय’ सीखते, पढ़ते-पढ़ाते हैं। इसके अन्तर्गत रूस, अमेरिका, कनाडा, इंगलैण्ड, जर्मनी, इटली, बेल्जियम, फ्रांस, चैकोस्लोवाकिया, रूमानिया, चीन, जापान, नार्वे, स्वीडन, पोलैंड, ऑस्ट्रेलिया, मैक्सिको आदि देश आते हैं। दूसरे के अन्तर्गत वे देश आते हैं जहां भारत से जाने वाले प्रवासी भारतीय और भारतवंशी लोग बड़ी संख्या में निवास करते हैं जिनकी मातृ भाषा हिन्दी रही जो कि आजकल मॉरीशस फिजी, गुयाना, सूरीनाम, कीनिया, ट्रिनीडाड-टुबैगो, बर्मा, थाइलैंड, नेपाल, श्रीलंका, मलेशिया, दक्षिणी अफ्रीका आदि देशों में रह रहे हैं। इन्हें हिन्दी अपनी पैतृक-संपत्ति के रूप में मिली। इन दोनों प्रकार के देशों में हिन्दी का रचना संसार बहुत ही विपुल एवं समृद्ध है।
          भाषा और साहित्य की कोई भौगोलिक सीमा नहीं होती। इसीलिए हिन्दी भारतीय संस्कृति 'वसुधैव कुटुम्बकम’ को लक्ष्य करके प्रसारित हो रही है। विश्व की इस महान् भाषा के विकास के लिए विभिन्न भारतेतर देशों में संचार साधन के रूप में आकाशवाणी, दूरदर्शन के साथ साथ पत्र पत्रिकाओं का खुलकर सहयोग लिया जा रहा है।

मॉरीशस

          (हिन्द) महासागर में अवस्थित मॉरीशस ही वह पहला देश है। जहां सर्वप्रथम दिसंबर 1834 में प्रवासी भारतीयों के चरण पड़े थे। अन्य देशों में विनीडाड 1845, द. अफ्रीका 1860, गुुयाना 1870, सूरीनाम जून 1873, फीजी मई, 1879 में भारतीय मज़दूर पहुंचे थे। मॉरीशस ही वह प्रथम भारतेतर देश है जहां विश्व हिन्दी सम्मेलन का आयोजन हुआ और राष्ट्र संघ में हिन्दी को स्थान दिलाने का प्रस्ताव भी सर्वप्रथम इसी ने ही रखा था। अतः विश्व हिन्दी साहित्य में मॉरीशस का अपना विशिष्ट स्थान बन गया है। इस समय वहां भावयित्री एवं कारयित्री दोनों प्रतिभाएं एक साथ कार्यरत हैं। हिन्दी पत्रकारिता की दृष्टि से मॉरीशस में सर्वप्रथम 15 मार्चए 1909 को 'हिन्दुस्तानी’ साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। यह पत्र हिन्दी, अंग्रेजी तथा गुजराती में एक साथ प्रकाशित होता था। इसके प्रथम संपादक डॉ. मणिलाल थे। इस पत्र के माध्यम से ही वहां के लोगों में सामाजिकए राजनीतिक चेतना का उदय होने के साथ साथ
निज भाषा उन्नति अहैए निज उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान केए मिटै न हिये को सूल।।
का भी अनुभव किया। लेकिन डॉ. मणिलाल के भारत आने के बाद ही इस पत्र का प्रकाशन बंद हो गया। सन् 1910 में डॉ. मणिलाल ने वहां आर्य समाज की स्थापना की और एक प्रेस भी खोला। यहीं से सन् 1911 में 'माॅरिशस आर्य पत्रिका’ का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। यह एक साप्ताहिक पत्र था। पहले यह पत्र आर्य सभा के पदाधिकारियों की देख रेख में चला। फिर सन् 1916 में पं. काशीनाथ किष्ठो इसके संपादक बने जिन्होंने बड़ी लगन और निष्ठा से इसे कई वर्षों तक जीवित रखा। इसमें आर्य समाज की शिक्षा के साथ साथ वैदिक धर्म को भी प्रधान स्थान मिलता था। इसी वर्ष श्री रामलाल के संपादन में ‘ओरिंटल गजे़ट’ नाम का एक और पत्र प्रकाशित हुआ। इसमें भारतीयों के बारे में प्रचुर सामग्री छपती थी। सन् 1920 में इंडोमॉरीशस संघ के तत्वाधान में 'मारिशस टाइम्स’ का प्रकाशन हुआ। 1924 में श्री गजाधर राजकुमार के संपादन में मॉरिशसमित्र’ नाम का एक पत्र निकला जिसमें अधिकतर सामाजिक सुधार तथा भ्रातृत्व भावना के लेख छपते थे। फिर सन् 1929 में ‘आर्य वीर’ नाम का एक द्विभाषिक पत्र निकला। यह एक साप्ताहिक पत्र था जिसके प्रथम संपादक पं. काशीनाथ किष्ठो ही हुए। इसमें आर्य समाज के विचारों का बाहुल्य रहता था।
          सन् 1933 में सनातन धर्मावलंबियों में श्री रामासामी नरसीमुलु (नरसिंह दास) के संपादन में 'सनातन धर्मांक’ पत्र निकला। जिसमें हिन्दू धर्म और रीति रिवाजों पर विपुल सामग्री दी जाती थी यह एक द्विभाषिक पत्र था। मॉरीशस के भारतवंशियों में सांस्कृतिक चेतना जाग्रत करने के उद्देश्य से सन् 1936 में इंडियन कल्चरल एशोशिएशन की स्थापना हुई। इस संस्था ने ‘इंडयन कल्चरल रिव्यू’ नाम का एक पत्र निकाला जिसके प्रथम संपादक थे डॉ. के. हजारी सिंह जो मोक स्थित महात्मा गांधी के वर्तमान निदेशक हैं। इसी संस्थान में द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन का आयोजन सन् 1976 में हुआ था। सन् 1936 में रिव्यू के एक पूरक हिन्दी पत्र 'वसंत’ का प्रकाशन हुआ जिसके संपादक थे पं. गिरजानन उमाशंकर। कुछ वर्ष प्रकाशित होने के बाद यह पत्र बंद हो गया। पाँच वर्ष पूर्व 'वसंत’ का पुनर्जन्म हुआ और इसके वर्तमान संपादक हैं मारिशस के प्रसिद्ध लेखक श्री अभिमन्यु अनंत। यह एक मासिक पत्र है तथा महात्मा गांधी संस्थान के तत्वाधान में प्रकाशित हो रहा है। यह पूर्ण साहित्यिक धारा पत्र है। इसमें नवोदित रचनाकारों को अधिक स्थान मिलता है। इसका कहानी विशेषांक काफ़ी ख्याति अर्जित कर चुका है। विदेशी हिन्दी पत्रों में वसंत का स्थान सर्वोपरि माना जा सकता है तथा इसका स्तर भी भारतीय श्रेष्ठ पत्रों के समान ही है।
          सन् 1942 में पब्लिक रिलेशंस ऑफिस से 'मासिक चिट्ठी’ नाम से एक लघु पत्र निकला जो सूचनात्मक अधिक था। सन् 1945 में ‘आर्यवीर जागृति’ नाम से एक दैनिक पत्र निकला जिसके संपादक थे प्रो. विष्णुदयाल वासुदेव। इसने भी पर्याप्त ख्याति अर्जित की थी परंतु कुछ वर्षों के बाद इस बंद होना पड़ा। सन् 1948 में 'जनता’ पत्र का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। इसके प्रथम संपादक हुए श्री जयनरायण राय। इसमें साहित्यिक और हिन्दी के लिए समर्पित भाव को स्थान मिला। बाद में इसको कुछ समय के लिए बंद होना पड़ा परंतु पुनः सन् 1974 में इसका पुन:प्रकाशन प्रारंभ हुआ। इस समय 'जनता’ मॉरीशस का सर्वश्रेष्ठ साप्ताहिक माना जाता है। तथा इसके वर्तमान संपादक हैं श्री राजेन्द्र अरुण। द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन के समय इसने हिन्दी प्रचार प्रसार के लिए उत्कृष्ठतम भूमिका निभाई थी। सन् 1948 में ही एक और पत्र 'जमाना’ भी विष्णुदयाल बंधु के संपादन में निकला। यह मॉरीशस के हिन्दी लेखकों का सहयोगी पत्र था। और इसमें अधिकतर हिन्दी की रचनाओं का स्थान दिया जाता था। अब यह पत्र कभी कभार ही निकल पाता है। इसके उपरांत आर्य सभा मॉरीशस ने पुनः ‘आर्योदय’ नाम का एक और पत्र निकाला। यह पत्र आज भी वैदिक धर्म और हिन्दी की सेवा बड़ी निष्ठा से कर रहा है। सन् 1953 में मॉरीशस आमाल गामटेड के तत्वाधान में 'मज़दूर’ का प्रकाशन हुआ जिसमें प्रवासी भारतीयों के समाचारों को प्रमुखता से छापा जाता था। सन् 1959 में श्री भगतसुरज मंगर और श्री रामलाल विक्रम के संपादन में 'नवजीवन’ का प्रकाशन हुआ। फिर सन् 1960 में मॉरीशस हिन्दी परिषद का त्रैमासिक पत्र ‘अनुराग’ का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। इस पत्रिका को सम्पूर्ण मॉरीशसीय लेखकों का सहयोग प्राप्त था। इसके प्रथम संपादक थे पं. दौलत शर्मा। इसमें कविताए कहानी, नाटक, संस्मरण, भेंटवार्ता तथा निबंध को भरपूर स्थान दिया जाता है। यह पत्र इस समय मॉरीशस का एकमात्र त्रैमासिक साहित्यिक पत्र है। संप्रति इसके संपादक हैं मारिशस के सर्वश्रेष्ठ हिन्दी कवि और लेखक श्री सोमदत्त बखौरी। इसी वर्ष 'समाजवाद’ पत्र का भी प्रकाशन हुआ जो थोड़े दिनों बाद बंद हो गया। हिन्दू मॉरीशस कांग्रेस ने ष्कांग्रेस नाम से तथा प्रशिक्षण महाविद्यालय ने 'प्रकाश’ नाम से सन् 1964 में अपने अपने पत्र निकाले। प्रकाशन में वहां के प्रशिक्षणार्थियों की रचनाओं का बाहुल्य होता है। यह पत्र अब भी वार्षिक अंक के रूप में प्रकाशित हो जाता है। प्रो. रामप्रकाश इसके संपादक हैं। सन् 1965 में मॉरीशस में सर्वप्रथम एक बाल पत्रिका का प्रकाशन हुआ जिसका नाम था 'बाल सखा'। यह पत्रिका हिन्दी लेखक संघ के तत्वाधान में प्रकाशित हुई।
          सन् 1970 में मॉरीशस के प्रसिद्ध आर्य नेता श्री मोहनलाल मोहित के संपादन में ‘आर्य समाज’ का हीरक जयंती विशेषांक प्रकाशित हुआ तथा सन् 1973 में 'वैदिक जरनल’ का प्रकाशन। इन दोनों पत्रों का संकल्प हिन्दी भाषा को सुदृढ़ बनाना था। सन् 1974 में त्रियोले से ‘आभा’ दर्पण’ नाम के दो विशुद्ध साहित्यिक पत्र निकले। ये मासिक पत्र थे। ‘आभा’ के समपादक हैं मारिशस के उदयीमान कवि तथा कहानीकार श्री महेश रामजियावन। ‘आभा’ का कहानी विशेषांक पाठकों में काफ़ी चर्चित रह चुका है। इसी के साथ द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन के स्वागताध्यक्ष श्री दयानंदलाल वसंतराय के संपादन में 'शिवरात्रि’ वार्षिक पत्र का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। यह पत्र आज भी अपनी गरिमा और गौरवमयी परंपरा के साथ प्रकाशित होता है। इसमे भी हिन्दी साहित्य को प्रचुर स्थान दिया जाता है। तथा संस्कृत शिक्षा के लिए भी कभी कभार अच्छे लेख प्रकाशित होते हैं। सन् 1975 में हिन्दी सरस्वती संघ, त्रियोले की त्रैमासिक पत्रिका 'रणभेरी’ का प्रकाशन प्रारंभ हुआ जिसमें वहां के हिन्दी रचनाकारों को विशेष रूप से प्रोत्साहन देने का संकल्प है। इस प्रकार मॉरीशस में हिन्दी पत्रों की एक लंबी पृष्ठ श्रंखला समय के साथ निरंतर बढ़ती जा रही है जो कि विश्व हिन्दी साहित्य के लिए एक शुभ लक्षण है।

फिजी

          प्रशांत महासागर के मोती फिजी में भी भारतीय श्रमिक कुली के रूप में लाए गए थे। वे अपनी लगन, निष्ठा और ईमानदारी से हिन्दी का अलख जगाए हुए हैं। यह संसार में दूसरा विदेशी राष्ट्र है जहां हिन्दी का बाहुल्य है। फिजी में सर्वप्रथम सन् 1913 में पं. शिवदत्त शर्मा की देखरेख में डॉ. मणिलाल द्वारा संपादित पत्र 'सेटलर’ का हिन्दी अनुवाद साइक्लोस्टाइल रूप में प्रकाशित हुआ था। इसका लोगों ने भरपूर स्वागत किया। फिर सन् 1923 में 'फिजी समाचार’ का प्रकाशन हुआ। यह साप्ताहिक पत्र था इसके प्रथम संपादक थे श्री बाबूराम सिंह और अंतिम श्री चंद्रदेव सिंह। यह पत्र कुछ वर्षों तक प्रकाशित होकर बंद हो गया। इसी समय 'भारत पुत्र', ‘बुद्धि’ तथा ‘बुद्धिवाणी’ आदि पत्रों का प्रकाशन हुआ जो अधिक दिन न चल सके और शीघ्र ही इतिहास की एक घटना बन कर रह गए। सन् 1930-40 के मध्य दो मासिक पत्र और निकले, एक पं. श्री कृष्ण शर्मा के संपादन में 'वैदिक संदेश’ तथा दूसरा 'सनातन धर्म'। किंतु दोनों पत्र पारस्परिक आलोचना प्रत्यालोचना के शिकार हुए और अकाल ही काल कवलित हो गये।
          सन् 1935 में 'शांतिदूत’ साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। पं. गुरुदयाल शर्मा इसके संस्थापक संपादक थे। अब श्री जगनरायण शर्मा संपादक तथा श्रीमती निर्मला पथिक सह संपादिक हैं। यह फिजी का सर्वाधिका प्रसार वाला हिन्दी पत्र है तथा फिजी टाइम्स समूह प्रकाशन से संबंधित है। इसमें साहित्यिक, राजनीतिक विषयों पर भरपूर सामग्री रहती है। इसका प्रकाशन स्तर भारतीय पत्रों के समान ही है। सन् 1940 के आस पास फिजी में कई हिन्दी पत्र उदित हुए, जैसे पं. वी. डी. लक्ष्मण के संपादन में 'किसान’ अखिल फिजी कृषक महासंघ के तत्वाधान में 'दीनबंधु’ श्री ज्ञानीदास के संपादन में 'ज्ञान’ और 'तारा', आर्य पुस्ताकलय के अन्तर्गत 'पुस्तकालय', श्री काशीराम कुमुद के संपादन में 'प्रवासिनी’ तथा श्री राम खेलावन के संपादन में 'प्रकाश’ आदि। इन सभी पत्रों में हिन्दी लेखन और साहित्य के अलावा फिजी में प्रवासी भारतीयों की दशा का भी चित्रण होता था। ये सभी पत्र अधिक दिनों तक प्रकाशित न रह सके और एक एक कर सभी बंद हो गये। फिर भी फिजी में हिन्दी पत्रकारिता में इनका योगदान सराहनीय रहा। इसी प्रकार 'जंजाल', 'सनातन प्रकाश’ और 'मज़दूर’ पत्र भी हैं जो दो चार अंकों के बाद अपने अस्तित्व की रक्षा न कर सके।
          इसके बाद पं. राघवानंद शर्मा के कुशन संपादन में 'जागृति’ पत्र का प्रकाशन हुआ जिसने काफ़ी लोकप्रियता प्राप्त की। पहले यह पत्र अर्द्ध साप्ताहिक था। कालांतर में साप्ताहिक हो गया। इसमें किसानों से संबंधित समाचार अधिक रहते थे। कुछ वर्ष पहले ही इसका प्रकाशन बंद हुआ है। सन् 1953 में ‘आवाज’ नाम का एक साप्ताहिक पत्र निकला जिसमें राजनीतिक चेतना के स्वर अधिक थे। श्री ज्ञानदास के संपादन में 'झंकार’ साप्ताहिक का प्रकाशन भी हुआ। इसका प्रकाशन बड़े उत्साह के साथ हुआ। इसमें सिने समाचारों का बाहुल्य होने से इसे शीघ्र ही लोकप्रियता मिली, पर सन् 1958 में इसका प्रकाशन बंद हो गया।
          सन् 1960 में 'जय फ़िजी’ पत्र का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। इसके संपादक हैं पं. कमलाप्रसाद मिश्र। यह फिजी का अति लोकप्रिय पत्र है तथा साप्ताहिक रूप में अब भी प्रकाशित हो रहा है। इसका मुद्रण फोटो सेट विधि से होता है। इस पत्र के संपादक पं. कमला प्रसाद मिश्र की हिन्दी सेवा और उनका फिजी में हिन्दी पत्रकारिता में योगदान के आधार पर भारत सरकार ने उन्हें 'विदेशी हिन्दी सेवी’ पुरस्कार से भी पुरष्कृत किया। स्व, श्री नंदकिशोर के संपादन में 'फिजी संदेश’ का भी प्रकाशन हुआ। इनमें स्थानीय लेखकों को बहुत प्रोत्साहन मिलता था फिर भी ये अधिक लोकप्रिय नहीं हुए और बंद हो गये। सन् 1974 में पं. विवेकानंद शर्मा के कुशल संपादन में 'सनातन संदेश’ का प्रकाशन हुआ। यह मासिक पत्र था। यह फिजी की सनातन धर्म सभा का प्रमुख पत्र था। श्री शर्मा के अनथक प्रयासों के बाद भी इसका प्रकाशन अधिक वर्षों तक न हो सका। इसके अतिरिक्त 1926 में 'राजदूत’ पत्र का राजकीय प्रकाशन हुआए जिसमें राजकीय बातों को ही प्रश्रय दिया जाता था। इसी प्रकार 'विजय’ के भी कुद अंक निकले, पर विजय भी अपनी रक्षा न कर सका और समय के हाथों पराजय को प्राप्त हुआ। फिजी के सूचना मंत्रालय द्वारा 'फिजी वृत्तांत और शंख के भी प्रकाशन हुए जिनमें वहां के जन-जीवन की चर्चाए प्रधान होती थी। इस प्रकार विश्व हिन्दी पत्रकारिता में फिजी के हिन्दी पत्रों की अविरल अनवरत चली आ रही है।

सूरीनाम

          दक्षिणी अमेरिका स्थित सूरीनाम एक ऐसा राष्ट्र है जो कभी भारतीय मज़दूरों के लिए श्री राम देश था। यहां भी प्रवासी भारतीयों की विपुल संख्या है। हिन्दी का पठन पाठन तथा तथा भारतीय संस्कृति यहां की अधिकांश जनता में रची बसी है। यहां सर्वप्रथम सन् 1964 में ‘आर्य दिवाकर’ नाम से एक पत्र आर्य समाज द्वारा प्रकाशित किया गया। यह पत्र आज भी अविरल प्रकाशित हो रहा है। इसमें आर्य समाज से संबंधित सामग्री तो होती ही है पर कभी कभी हिन्दी की विश्वजनीनता पर भी लेख लिखे जाते हैं। इसी वर्ष पं. शिवरतन जी के संपादन में 'सरस्वती' मासिक पत्रिका का प्रकाशन हुआ। यह पूर्ण साहित्यिक पत्र है तथा वहां स्थापित सरस्वती प्रेस है। 'सरस्वती’ लघु पत्र होते हुए भी अपनी सही भूमिका निभा रहा है। सूरीनाम के निकेरी शहर से दूसरा 'भारतोदय’ नाम का पत्र निकला और भारतोदय प्रेस की स्थापना भी हुई किंतु आर्थिक कठिनाई के कारण प्रेस और पत्रिका दोनों को ही अकाल ही काल के गाल में जाना पड़ा। निकेरी में प्रवासी भारतीयों की संख्या सर्वाधिक है। सन् 1975 में डॉ. ज्ञान हंस ‘अधीन’ के संपादन में ष्धर्म प्रकाश’ और पं. शिवरतन जी के संपादन में 'वैदिक संदेश’ का एक साथ प्रकाशन हुआ किंतु ये पत्र भी अधिक दिनों तक नहीं चल सके। डॉ. अधीन ने हिन्दी-डच कोश भी लिखा है। इन्होंने बनारस से हिन्दी की शिक्षा प्राप्त की है। इनके अथक प्रयास के बाद भी पत्रिका का प्रकाशन जारी न रह सका। इसके बाद एक अन्य हिन्दी सेवी भक्त श्री कालपू जी ने अपने व्यय से हिन्दी शिक्षण रिकार्ड बनवाया और इसके माध्यम से हिन्दी शिक्षण को योग दिया। फलतः हिन्दी एक संचार साधन के रूप में विकसित हुई जिसका लोगों ने अतिशय स्वागत किया किंतु कालांतर में यह प्रयोग भी असफल हुआ।
          श्री प्रेमचंद के संपादन में 'प्रेम संदेश’ मासिक पत्र का प्रकाशन प्रारंभ हुआ जिसमें साहित्य की प्रायः सभी विधाओं को स्थान मिलता था। इसका प्रकाशन साइक्लोस्टाइल पद्धति से होता था। कितु दो तीन वर्षों तक हिन्दी की सेवा कर इसका भी प्रकाशन बंद हो गया। इसी प्रकार श्री महातमसिंह के संपादन में 'शातिदूत’ मासिक पत्र का प्रकाशन हुआ। श्री सिंह ने इसकी रक्षा के लिए भरपूर साहस और लगन से कार्य किया किंतु यह भी अंततः बंद हो गया। इसका भी मुद्रण साइक्लोस्टाइल विधि से होता था। कुद दिनों तक यह सर्वाधिक लोकप्रिय पत्र रहा। गाधी सांस्कृतिक भवन के शांतिदल द्वारा 'प्रकाश' नाम का एक साप्ताहिक पत्र निकल रहा है। इसी के साथ एक अन्य पत्र 'विकास’ का भी प्रकाशन हो रहा है। हिन्दी प्रेस के अभाव में अनेक कठिनाइयों का सामना करते हुए भी सूरीनाम में हिन्दी पत्रों का दीप जल रहा है

गुयाना

          यह राष्ट्र भी दक्षिणी अमेरिका में अवस्थित है और यहां भी काफ़ी संख्या में प्रवासी भारतीय रहते हैं। हिन्दी और भारतीय संस्कृति यहां के जन जीवन में सर्वत्र फैली है। यहां सर्वप्रथम हिन्दी पत्र का प्रकाशन एक रविवारीय परिशिष्ट के अंग के रूप में हुआ। यहां से प्रकाशित अंग्रेजी दैनिक पत्र ‘आर्गोसी’ के रविवारीय अंक में एक पृष्ठ हिन्दी का रहा करता था। जिसमें धार्मिक एवं सामाजिक समाचार ही प्रकाशित होते थे, पर पांच वर्षों तक अविरल प्रकाशित होने के बाद यह पृष्ठ बंद हो गया। अन्य देशों की भांति यहां भी आर्य समाज द्वारा ‘आर्य ज्योति’ का प्रकाशन होता है जिसमें आर्य समाज के सिद्धांतों तथा वैदिक धर्म के समाचारों को ही स्थान मिलता है। इसके अतिरिक्त सनातन धर्म सभा द्वारा ‘अमर ज्योति’ नाम का एक पत्र प्रकाशित होता है। पं. रामलाल का हिन्दी पत्रकारिता एवं हिन्दी शिक्षण से अधिक लगाव होने से वहां हिन्दी की ज्योति ज्योतित है। गुयाना का एकमात्र उत्कृष्ट पत्र 'ज्ञानदा’ है। यह एक मासिक पत्र है जिसके संपादक श्री योगीराज शर्मा हैं। यह पूर्ण साहित्यिक पत्र है तथा इसका आवरण मुद्रित एवं शेष सामग्री साइक्लोस्टाइल पद्धति से छपती है। श्री शर्मा जी ने इसके अस्तित्व के लिए अहोरात्रि श्रम किया और गुयाना में हिन्दी पत्रकारिता को अक्षुण्ण रखा। इस प्रकार गुयाना में हिन्दी पत्रों की अस्मिता प्रेस की असुविधाओं के होते हुए भी सुरक्षित है।

त्रिनीडाड-टुबैगो

          कैरिबियन समुद्र में स्थित त्रिनीडाड-टुबैगो में जो वेस्ट इंडीज के नाम से भी जाना जाता है, भारतीयों की संख्या अधिक है। यहां भी अन्य देशों की भांति भारतीय मज़दूर शर्तनामा कुली के रूप में लाए गए थे। हिन्दी का लेखन, पाठन, वाचन अन्य देशों की भांति ही चल रहा है। यहां से सर्वप्रथम हिन्दी में 'कोहेनूर अखबार’ निकला जो अब बंद हो गया है। इसमें धार्मिक सामग्री के अलावा कुछ स्थानीय समाचार भी प्रकाशित होते थे। यहां का सर्वाधिक लोकप्रिय पत्र 'ज्योति’ है। यह एक मासिक पत्र है तथा इसका सर्वप्रथम प्रकाशन मार्च, 1968 को हुआ था। इसके संस्थापक संपादक हैं प्रो. हरिशंकर आदेश। यह पत्र जीवन ज्योति प्रकाशन के अंतर्गत प्रकाशित होता है। पहले यह पत्र हिन्दी शिक्षा संघ द्वारा प्रकाशित होता था परंतु अब संघ के बंद हो जाने पर यह भारतीय विद्या संस्थान के मुख्पत्र के रूप में प्रकाशित होता है। यह प्रत्येक मास की सात तारीख को प्रकाशित होता है। प्रो. आदेश ने इसे साहित्यिक बनाने का भरसक प्रयास किया है जिसमें वे सफल भी हुए हैं। हिन्दी-अंग्रेजी मिश्रित इस पत्र में संगीत की तकनीकी शिक्षा के लिए भी लेख छपते हैं। नवोदित हिन्दी लेखकों को इससे काफ़ी प्रोत्साहन मिलता है। त्रिनिडाड में हिन्दी प्रेस के अभाव में हिन्दी प्रकाशन को पर्याप्त कठिनाई का सामना करना पड़ता है। इस समय वहां स्व. पं. काशीप्रसाद मिश्र का एक ही प्रेस है जिसमें पर्याप्त टाइप न होने से मुद्रण में अप्रत्यासित संघर्ष उठाना पड़ता है। अतः ज्योति का प्रकाशन लीथो एवं आफसेट प्रणाली से होता है। फिर भी प्रो. आदेश वहां हिन्दी पत्रकारिता का दीप जलाए हुए हैं।

दक्षिणी अफ्रीका

          दक्षिण अफ्रीका के भारतीयों के मध्य से ही पूज्य बापू का राजनीतिक जीवन प्रारंभ हुआ था। वहां प्रवासी भारतीयों की संख्या अधिक था। यहां से सर्वप्रथम 1903 में ‘इंडियन ओपीनियन’ साप्ताहिक का हिन्दी संस्करण प्रकाशित हुआ। इसके प्रथम संपादक श्री मनसुखलाल नाजर थे। यह डरबन से 13 मील दूर फिनिक्स आश्रम से प्रकाशि होता था और श्री मदनजीत के प्रेस में मुद्रित होता था। गांधी जी की इस पर कड़ी कृपा थी। नाजर जी की मृत्यु के बाद गाँधी जी के अंग्रेज मित्र श्री हर्बर्ट किचन एवं उनके अनंतर श्री हेनरी एस. एल. पोलक इसके संपादक बने। अब यह पत्र बंद हो चुका है। इस पत्र के माध्यम से वहां के प्रवासी भारतीयों में नई चेतना का उदय हुआ था। इसके बाद 5 मई, 1922 को 'हिन्दी’ नाम का एक साप्ताहिक पत्र निकला जिसके आद्य संपादक थे पं. भवानीदयाल संन्यासी। इससे भी हिन्दी को बढ़ावा मिला। इस प्रकार वहां आज तक हिन्दी की धारा प्रवाहमान है।

बर्मा

          बर्मा कभी भारत का ही अंग था किंतु अब यह एक स्वतंत्र राष्ट्र है। यहां भी प्रचुर मात्रा में प्रवासी भारतीय रहते हैं। यहां हिन्दी के विकास में पं. हरिवदन शर्मा एवं श्री एल. बी' लाठिया का योगदान अद्वितीय है। यहां श्री लाठिया ने 'बर्मा समाचार’ का सर्वप्रथम प्रकाशन कर हिन्दी पत्रकारिता की नींव रखी। इसके बाद 'प्राची कलश’ मासिक पत्र भी कुछ वर्ष तक प्रकाशित होकर बंद हो गया। सन् 1934 में 'प्राची कलश’ हिन्दी दैनिक के रूप में प्रकाशित हुआ। इसके संस्थापक थे श्री अनंतराम मिश्र। फिर कुछ दिनों के बाद 'प्रवासी’ साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन हुआ। जिसके संस्थापक, प्रकाशक एवं संपादक श्री श्यामचरण मिश्र ही हुए। सन् 1951 में श्री रामप्रसाद वर्मा ने 'नवजीवन’ दैनिक पत्र का प्रकाशन प्रारंभ किया। किंतु कालांतर में दोनों पत्र बंद हो गये। कुछ समय तक 'जागृति' पत्र का भी प्रकाशन हुआ। इसके बाद 1953 में 'ब्रह्मभूमि' मासिक पत्र का प्रकाशन प्रारंभ हुआ जिसके प्रकाशक श्री ब्रह्मानंद एवं संपादक श्री रामप्रसाद वर्मा हैं। यह रंगून से अब तक नियमित प्रकाशित हो रहा है। सन् 1970 में ‘आर्य युवक जागृति’ पत्रिका का भी मासिक रूप में प्रकाशन हुआ किंतु कुछ काल के बाद इसका प्रकाशन रुक गया। फिर भी बर्मा में हिन्दी पत्रकारिता की ज्योति ब्रह्मभूमि के माध्यम से जल रही है।

नेपाल

          यह हमारा निकटतम देश है। यहां नेपाली राष्ट्रभाषा है फिर भी दोनों देशों की भाषा लिपि देवनागरी ही है। सन् 1956 से काठमांडू से 'नेपाली’ हिन्दी दैनिक का प्रकाशन होता है जिसके संपादक हैं श्री उमाकांत दास। इसमें राजनीतिक समाचारों का बाहुल्य होता है तथा कभी कभी हिन्दी की रचनाएं भी प्रकाशित हो जाती हैं। इसके अतिरिक्त त्रिभुवन विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग से सन् 1980 से 'साहित्य लोक’ नाम का एक पत्र प्रकाशित होता है जिसके संपादक हैं डॉ. कृष्ण चंद्र मिश्र। यह पूर्ण साहित्यिक पत्र है। इसके अतिरिक्त 'चर्चा’ और ‘आरोहण’ आदि लघु पत्र भी येन-केन प्रकाशित हो जाते हैं। हिन्दी पत्रों की प्रकाशन की दृष्टि से नेपाल में वर्तमान स्थिति अधिक अच्छी नहीं है। फिर भी उपर्युक्त पत्र हिन्दी की विश्वजनीनता को बनाए हुए हैं।

हालैंड

          पिछले कुछ वर्षोंं से सूरीनाम से आए हुए लाखों प्रवासी भारतीयों ने वहां हिन्दी की दीपशिखा प्रज्वलित कर अपने अस्तित्व को बनाए रखा है। यहां भारतीय संस्कृति की अनेक संस्थाएं हैं जिनके अंतर्गत हिन्दी शिक्षण एवं प्रकाशन होता है। 'लल्ला रुख’ भारतवंशियों की प्रमुख संस्था है। इसी नाम से एक लघु पत्रिका का प्रकाशन होता है जिसमें सांस्कृतिक, सामाजिक तथा धार्मिक बातों की सूचनाएं ही छपती हैं। डॉ. जे.पी. कौलेश्वर सुकुल इस पत्र के माध्यम से हिन्दी की सेवा कर रहे हैं।

इंग्लैण्ड

          इंग्लैण्ड ही विश्व में पहला राष्ट्र है जहां से सर्वप्रथम 1883 में कालाकांकर नरेश के संपादन में 'हिन्दोस्थान’ पत्र का प्रकाशन हुआ। जिसने भारतीय स्वतंत्रता में अभूतपूर्व योगदान दिया था। इसके बाद 'वैदिक पब्लिकेशन्स' का प्रकाशन हुआ। इसका मुद्रण आफसेट प्रणाली से होता था इसमें सामाजिक चेतना की ध्वनि अधिक थी। इसके बाद लंदन में हिन्दी प्रचार परिषद की स्थापना हुई और फिर उसी परिषद के मुखपत्र के रूप में सन् 1964 में एक हिन्दी त्रैमासिकी 'प्रवासिनी’ का प्रकाशन प्रारंभ हुआ जिसके संपादक है श्री धर्मेंद्र गौतम। इस पत्र के कई विशेषांक निकले जिसमें श्री गोपाल कृष्ण विशेषांक सर्वाधिक चर्चित रहा। हिन्दी एवं राष्ट्रीय चेतना का यह पत्र आज भी प्रकाशित हो रहा है।

कनाडा

          भारत की स्वतंत्रता के बाद कनाडा में प्रवासी भारतीयों की संख्या में अपार वृद्धि हुई, जिससे वहां हिन्दी का प्रसार स्वतः हो रहा है। इस समय टोरंटो से एक मासिक पत्र 'भारती’ का प्रकाशन हो रहा है। फोटोस्टेट पद्धति से इस पत्र का मुद्रण होता है। तथा हिन्दी एवं अंग्रेजी दोनों भाषाओं में सामग्री होती है। इसके अतिरिक्त श्री रघुवीर सिंह के संपादन में ‘विश्व भारती’ पाक्षिक पत्र का भी प्रकाशन होता है। कनाडा में ‘विश्व भारती’ राष्ट्रभाषा हिन्दी एवं भारतीय संस्कृति की संवाहिका के रूप में विख्यात है। अब टोरंटो से ही एक नया मासिक पत्र 'जीवन ज्योति’ नई आशा, अतिशय उमंग एवं पवित्र लक्ष्य लेकर नवंबर, 1982 से प्रकाशित हो रहा है। इसके संपादक हैं प्रसिद्ध प्रवासी हिन्दी कवि संगीतज्ञ प्रो. हरिशंकर आदेश। इन्होंने ट्रिनिडाड में भी हिन्दी का अलख जगा रखा है। अतः 'जीवन ज्योति’ से कनाडा में हिन्दी और भारतीय संस्कृति का गौरवमय प्रकाशन होगा, ऐसी आशा है।

रूस

          रूस में अन्य भारतेतर देशों की अपेक्षा हिन्दी का अध्ययन अध्यापन एवं प्रचार अधिक है। रूस ही ऐसा पहला देश है जिसने राष्ट्रभाषा हिन्दी का सर्वाधिक महत्व प्रदान किया है। रूस से हिन्दी के स्तरीय प्रकाशन हुए हैं तथा मास्को में एक हिन्दी प्रकाशन गृह भी स्थापित है। यहीं से सोवियत संघ नाम का एक हिन्दी मासिक पत्र प्रकाशित होता है। यह सचित्र पत्र है। तथा सोवियत संबंधों पर आधारित अनेक लेख इसमें प्रकाशित होते रहते हैं। यह पत्र हिन्दी के अतिरिक्त संसार की अन्य 20 भाषाओं में एक साथ प्रकाशित होता है। इसके प्रधान संपादक हैं श्री निकोलाई ग्रिवाचोव। मास्को से दूसरा हिन्दी पत्र है.ष्सोवियत नारीष्। यह एक मासिक पत्र है तथा इसकी प्रधान संपादिका हैं- व. ई. फेदोतोवा तथा हिन्दी संस्करण के संपादक हैं- श्री ई. पा. गोलुबेन। यह भी संसार की लगभग 20 भाषाओं में एक साथ प्रकाशित होता है। इसमें सोवियत नारी जीवन का सचित्र चित्रण होता है।

चीन

          चीन संसार में सर्वाधिक आबादी वाला राष्ट्र है। यहां हिन्दी का प्रचार प्रसार तो नहीं किंतु चीन संबंधी जानकारी विभिन्न देशों को देने के लिए वहां से 'चीन सचित्र’ नामक एक हिन्दी मासिक पत्र निकलता है। यह विश्व की 19 भाषाओं में एक साथ प्रकाशित होता है हिन्दी में इसके 326 अंक अब तक प्रकाशित हो चुके हैं। इसका मुद्रण एवं प्रकाशन बीजिंग से होता है।

जापान

          संसार में सर्वप्रथम सूर्योदय के दर्शन करने वाला ज्वालामुखियों का देश जापान अपनी वैज्ञानिक कुशलता के लिए जग प्रसिद्ध है। यहां हिन्दी का पठन पाठन अन्य देशों की ही भांति होता है। जापान एवं भारत का सांस्कृतिक एवं साहित्यिक संबंध बहुत प्राचीन है। बौद्ध धर्माबलंबी होने के कारण जापानियों का भारत से भावात्मक लगाव है इसीलिए यहां के लोग हिन्दी सीखते हैं। सन् 1964 में यहां से एक ‘अंक’ नाम का पत्र प्रकाशित हुआ। जिसके अब तक 21 अंक प्रकाशित हो चुके हैं। इसके अतिरिक्त जापान भारत मित्रता संघ का मासिक पत्र 'सर्वोदय’ भी प्रकाशित होता है। वस्तुतः यह धार्मिक पत्र है किंतु इसमें हिन्दी संबंधी सामग्री रहती है। यथार्थ रूप में ये सभी पत्र जापानी से अनूदित हो कर प्रकाशित होते हैं। जापान का प्रथम हिन्दी पत्र 'ज्वालामुखी’ है जिसका प्रथम अंक सितंबर, 1980 में टोक्यो से प्रकाशित हुआ था। इसके संपादक हैं श्री योशिअकि सुजुकि। इसके अब तक दो अंक ही प्रकाशित हुए हैं। प्रकाशन के बारे में संपादक का प्रथम अंक में मत है कि हिन्दी के माध्यम से जापानी साहित्य का परिचय, जापानी साहित्य का अनुवाद, जापानी साहित्य एवं हिन्दी साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन, जापानी संस्कृति का परिचय आदि करने से भारत के लोगों को भी इसका लाभ मिलेगा। पत्रिका का नामकरण फुजि पर्वत की भव्यता को लेकर किया गया है। ज्वालामुखी की तरह सदैव हम भी क्रियाशील रहें इसीलिए इस शीर्षक की सार्थकता है।
इस प्रकार भारत से बाहर विश्व के देशों में हिन्दी पत्र पत्रिकएं अपने अपने उपलब्ध साधनों के आधार पर प्रकाशित हो रहीं हैं, जिन्हें देखकर एक 'विश्व हिन्दी’ की सहज ही कल्पना हो जाती है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

तृतीय विश्व हिन्दी सम्मेलन 1983
क्रमांक लेख का नाम लेखक
हिन्दी और सामासिक संस्कृति
1. हिन्दी साहित्य और सामासिक संस्कृति डॉ. कर्ण राजशेषगिरि राव
2. हिन्दी साहित्य में सामासिक संस्कृति की सर्जनात्मक अभिव्यक्ति प्रो. केसरीकुमार
3. हिन्दी साहित्य और सामासिक संस्कृति डॉ. चंद्रकांत बांदिवडेकर
4. हिन्दी की सामासिक एवं सांस्कृतिक एकता डॉ. जगदीश गुप्त
5. राजभाषा: कार्याचरण और सामासिक संस्कृति डॉ. एन.एस. दक्षिणामूर्ति
6. हिन्दी की अखिल भारतीयता का इतिहास प्रो. दिनेश्वर प्रसाद
7. हिन्दी साहित्य में सामासिक संस्कृति डॉ. मुंशीराम शर्मा
8. भारतीय व्यक्तित्व के संश्लेष की भाषा डॉ. रघुवंश
9. देश की सामासिक संस्कृति की अभिव्यक्ति में हिन्दी का योगदान डॉ. राजकिशोर पांडेय
10. सांस्कृतिक समन्वय की प्रक्रिया और हिन्दी साहित्य श्री राजेश्वर गंगवार
11. हिन्दी साहित्य में सामासिक संस्कृति के तत्त्व डॉ. शिवनंदन प्रसाद
12. हिन्दी:सामासिक संस्कृति की संवाहिका श्री शिवसागर मिश्र
13. भारत की सामासिक संस्कृृति और हिन्दी का विकास डॉ. हरदेव बाहरी
हिन्दी का विकासशील स्वरूप
14. हिन्दी का विकासशील स्वरूप डॉ. आनंदप्रकाश दीक्षित
15. हिन्दी के विकास में भोजपुरी का योगदान डॉ. उदयनारायण तिवारी
16. हिन्दी का विकासशील स्वरूप (शब्दावली के संदर्भ में) डॉ. कैलाशचंद्र भाटिया
17. मानक भाषा की संकल्पना और हिन्दी डॉ. कृष्णकुमार गोस्वामी
18. राजभाषा के रूप में हिन्दी का विकास, महत्त्व तथा प्रकाश की दिशाएँ श्री जयनारायण तिवारी
19. सांस्कृतिक भाषा के रूप में हिन्दी का विकास डॉ. त्रिलोचन पांडेय
20. हिन्दी का सरलीकरण आचार्य देवेंद्रनाथ शर्मा
21. प्रशासनिक हिन्दी का विकास डॉ. नारायणदत्त पालीवाल
22. जन की विकासशील भाषा हिन्दी श्री भागवत झा आज़ाद
23. भारत की भाषिक एकता: परंपरा और हिन्दी प्रो. माणिक गोविंद चतुर्वेदी
24. हिन्दी भाषा और राष्ट्रीय एकीकरण प्रो. रविन्द्रनाथ श्रीवास्तव
25. हिन्दी की संवैधानिक स्थिति और उसका विकासशील स्वरूप प्रो. विजयेन्द्र स्नातक
देवनागरी लिपि की भूमिका
26. राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ में देवनागरी श्री जीवन नायक
27. देवनागरी प्रो. देवीशंकर द्विवेदी
28. हिन्दी में लेखन संबंधी एकरूपता की समस्या प्रो. प. बा. जैन
29. देवनागरी लिपि की भूमिका डॉ. बाबूराम सक्सेना
30. देवनागरी लिपि (कश्मीरी भाषा के संदर्भ में) डॉ. मोहनलाल सर
31. राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ में देवनागरी लिपि पं. रामेश्वरदयाल दुबे
विदेशों में हिन्दी
32. विश्व की हिन्दी पत्र-पत्रिकाएँ डॉ. कामता कमलेश
33. विदेशों में हिन्दी:प्रचार-प्रसार और स्थिति के कुछ पहलू प्रो. प्रेमस्वरूप गुप्त
34. हिन्दी का एक अपनाया-सा क्षेत्र: संयुक्त राज्य डॉ. आर. एस. मेग्रेगर
35. हिन्दी भाषा की भूमिका : विश्व के संदर्भ में श्री राजेन्द्र अवस्थी
36. मारिशस का हिन्दी साहित्य डॉ. लता
37. हिन्दी की भावी अंतर्राष्ट्रीय भूमिका डॉ. ब्रजेश्वर वर्मा
38. अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ में हिन्दी प्रो. सिद्धेश्वर प्रसाद
39. नेपाल में हिन्दी और हिन्दी साहित्य श्री सूर्यनाथ गोप
विविधा
40. तुलनात्मक भारतीय साहित्य एवं पद्धति विज्ञान का प्रश्न डॉ. इंद्रनाथ चौधुरी
41. भारत की भाषा समस्या और हिन्दी डॉ. कुमार विमल
42. भारत की राजभाषा नीति श्री कृष्णकुमार श्रीवास्तव
43. विदेश दूरसंचार सेवा श्री के.सी. कटियार
44. कश्मीर में हिन्दी : स्थिति और संभावनाएँ प्रो. चमनलाल सप्रू
45. भारत की राजभाषा नीति और उसका कार्यान्वयन श्री देवेंद्रचरण मिश्र
46. भाषायी समस्या : एक राष्ट्रीय समाधान श्री नर्मदेश्वर चतुर्वेदी
47. संस्कृत-हिन्दी काव्यशास्त्र में उपमा की सर्वालंकारबीजता का विचार डॉ. महेन्द्र मधुकर
48. द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन : निर्णय और क्रियान्वयन श्री राजमणि तिवारी
49. विश्व की प्रमुख भाषाओं में हिन्दी का स्थान डॉ. रामजीलाल जांगिड
50. भारतीय आदिवासियों की मातृभाषा तथा हिन्दी से इनका सामीप्य डॉ. लक्ष्मणप्रसाद सिन्हा
51. मैं लेखक नहीं हूँ श्री विमल मित्र
52. लोकज्ञता सर्वज्ञता (लोकवार्त्ता विज्ञान के संदर्भ में) डॉ. हरद्वारीलाल शर्मा
53. देश की एकता का मूल: हमारी राष्ट्रभाषा श्री क्षेमचंद ‘सुमन’
विदेशी संदर्भ
54. मारिशस: सागर के पार लघु भारत श्री एस. भुवनेश्वर
55. अमरीका में हिन्दी -डॉ. केरीन शोमर
56. लीपज़िंग विश्वविद्यालय में हिन्दी डॉ. (श्रीमती) मार्गेट गात्स्लाफ़
57. जर्मनी संघीय गणराज्य में हिन्दी डॉ. लोठार लुत्से
58. सूरीनाम देश और हिन्दी श्री सूर्यप्रसाद बीरे
59. हिन्दी का अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य श्री बच्चूप्रसाद सिंह
स्वैच्छिक संस्था संदर्भ
60. हिन्दी की स्वैच्छिक संस्थाएँ श्री शंकरराव लोंढे
61. राष्ट्रीय प्रचार समिति, वर्धा श्री शंकरराव लोंढे
सम्मेलन संदर्भ
62. प्रथम और द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन: उद्देश्य एवं उपलब्धियाँ श्री मधुकरराव चौधरी
स्मृति-श्रद्धांजलि
63. स्वर्गीय भारतीय साहित्यकारों को स्मृति-श्रद्धांजलि डॉ. प्रभाकर माचवे

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