शेर दरवाज़ा लखनऊ
शेर दरवाज़ा लखनऊ
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विवरण | 'शेर दरवाज़ा' सन् 1857 की जनक्रांति का केंद्र बिंदु रहा है। ब्रिटिश सेनाधिकारी 'ब्रिगेडियर जनरल नील' को उसी द्वार के पीछे क्रांतिकारियों ने मार डाला था। |
राज्य | उत्तर प्रदेश |
नगर | लखनऊ |
अन्य जानकारी | शेर दरवाज़ा आज भी शेर दरवाज़ा है क्योंकि सिंहद्वार पर बने ये शेर हिंदुस्तानी सपूतों की दास्तान से जुड़े हैं जिन्होंने गदर में अपनी बहादुरी के कमाल दिखाए। |
लखनऊ ग्लोब वाले पार्क के दक्षिण में उपेक्षित सा पड़ा हुआ एक केसरिया फाटक है जिस पर शेरों का एक जोड़ा बैठा हुआ है। इसी वजह से इस डेढ़ सौ साल पुराने द्वार को 'शेर दरवाज़ा' कहा जाता है। गदर से पहले इस दरवाज़े के साथ ख़ास बाज़ार की मशहूर बस्ती थी, जहां बारह इमामों की एक दरगाह भी हुआ करती थी, जिसे बादशाह ने नसीरुद्दीन हैदर के अहद में बनवाया था, लेकिन अब उस दरगाह और बाज़ार का नामोनिशान भी नहीं रह गया है।
इतिहास
शेर दरवाज़ा सन् 1857 की जनक्रांति का केंद्र बिंदु रहा है। ब्रिटिश सेनाधिकारी 'ब्रिगेडियर जनरल नील' को उसी द्वार के पीछे क्रांतिकारियों ने मार डाला था। शेर दरवाज़े से 15 गज की दूरी पर कभी पत्थर का एक स्मारक बना हुआ करता था जो जनरल नील के जख्मी होकर गिरने का स्थान था। अंग्रेज़ी शासन काल में जनरल नील की शहादत का कर्ज अदा करने के लिए ब्रिटिश पदाधिकारियों ने इस द्वार को 'नील गेट' कहना शुरू कर दिया था। हजरतगंज से आकर छतर मंजिलों के बीच से जाने वाली सड़क को नील रोड का नाम दिया गया था।
वर्तमान में
शेर दरवाज़ा आज भी शेर दरवाज़ा है क्योंकि सिंहद्वार पर बने ये शेर हिंदुस्तानी सपूतों की दास्तान से जुड़े हैं जिन्होंने गदर में अपनी बहादुरी के कमाल दिखाए। 26 सितंबर सन् 1857 को मद्रास रेजीमेंट का जनरल नील जब मोती महल से रेज़ीडेंसी की तरफ जा रहा था, एक हिंदुस्तानी ने उस पर बंदूक से वार कर दिया। जनरल नील उसी जगह गिर गया। मरने के बाद उसे बेली गारद के अहाते में दफना दिया गया था।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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