शैशिरायण त्रिगर्तराज के राजपुरोहित थे। गर्ग गोत्रीय होने से उन्हें गार्ग्य भी कहा जाता है। उन्होंने विवाह करने से पूर्व ही संकल्प कर लिया था कि वे बाहर वर्ष तक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करेंगे। किंतु बाद के समय में उन्होंने विवाह कर लिया, क्योंकि आजीवन ब्रह्मचर्य रखना नहीं था।[1]
कन्या के पिता श्रद्धा सहित कन्यादान करने पहुंचे तो अस्वीकार कैसे कर देते। यह नपुंसक है। इसने मेरी बहिन का जीवन नष्ट कर दिया। पत्नी के छोटे भाई को जब पता लगा कि शैशिरायण तो विवाह करके भी पत्नी से दूर रहते हैं, उन्हें देखते तक नहीं तो बहिन की व्यथा का अनुभव करके छोटा भाई क्रोध में भर गया। उसने सार्वजनिक रूप से बहनोई पर आरोप किया। इस आरोप का क्या उत्तर था–जो कुछ कहा जाता, उसे अपनी दुर्बलता छिपाने का लोग बहाना मानते और व्रत भंग करना नहीं था। बड़ा क्रोध आया शैशिरायण को, इतना क्रोध कि उससे उसका शरीर काला पड़ गया, किंतु वे उस समय मौन रहे।
कठोर ब्रह्मचर्य का पालन वे गार्ग्य मुनि कर ही रहे थे। केवल लौहचूर्ण खाकर तपस्या प्रारंभ कर दी उन्होंने। भगवान रुद्र प्रसन्न हुए और वरदान माँगने के लिए कहा। गार्ग्य शैशिरायण ने कहा- "मुझे ऐसा पराक्रम पुत्र चाहिए जो यदुवंश की सब शाखा के लोगों के लिए अवध्य हो।"
एवमस्तु! वरदान देकर भगवान शिव अपने धाम चले गए। शैशिरायण लौटे तपोवन से। उन्हें अब त्रिगर्त जाना नहीं था। पुत्रहीन यवनराज को उनके वरदान का समाचार मिल गया था। वे स्वयं जाकर आदरपूर्वक गार्ग्य को अपने यहां ले आए। यवनराज के यहां एक अप्सरा गोपनारी के वेश में रहती थी। उसका नाम गोपाली पड़ गया था वहां। उसे मुनि की सेवा में यवनराज ने नियुक्त कर दिया। उस अप्सरा के गर्भ से मुनि को जो पुत्र हुआ, उसका नाम कालयवन पड़ा। यवनराज ने उसे पाला और अपना उत्तराधिकारी बनाया।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह चक्र पृ. 287 (हिंदी) hi.krishnakosh.org। अभिगमन तिथि: 28 जनवरी, 2017।