स्वामी हरिदास

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हरिदास एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- हरिदास (बहुविकल्पी)
स्वामी हरिदास
स्वामी हरिदास जी, निधिवन, वृन्दावन
स्वामी हरिदास जी, निधिवन, वृन्दावन
पूरा नाम स्वामी हरिदास
जन्म भाद्रपद शुक्ल पक्ष अष्टमी 1535 विक्रम सम्वत् (अनुमानित)
जन्म भूमि वृंदावन, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 1630 विक्रम सम्वत् (अनुमानित)
मृत्यु स्थान निधिवन, वृंदावन
अभिभावक श्री आशुधीर और श्रीमती गंगादेवी
कर्म भूमि ब्रज
कर्म-क्षेत्र भक्त कवि, शास्त्रीय संगीतकार, सखी संप्रदाय प्रवर्तक
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी प्रसिद्ध गायक तानसेन इनके शिष्य थे। सम्राट अकबर इनके दर्शन करने वृंदावन गए थे। 'केलिमाल' में इनके सौ से अधिक पद संग्रहित हैं।

स्वामी हरिदास (अंग्रेज़ी: Swami Haridas) भक्त कवि, शास्त्रीय संगीतकार तथा कृष्णोपासक सखी संप्रदाय के प्रवर्तक थे, जिसे 'हरिदासी संप्रदाय' भी कहते हैं। इन्हें ललिता सखी का अवतार माना जाता है। इनकी छाप रसिक है। इनके जन्म स्थान और गुरु के विषय में कई मत प्रचलित हैं। इनका जन्म समय कुछ ज्ञात नहीं है। हरिदास स्वामी वैष्णव भक्त थे तथा उच्च कोटि के संगीतज्ञ भी थे। प्रसिद्ध गायक तानसेन इनके शिष्य थे। सम्राट अकबर इनके दर्शन करने वृंदावन गए थे। 'केलिमाल' में इनके सौ से अधिक पद संग्रहित हैं। इनकी वाणी सरस और भावुक है। ये प्रेमी भक्त थे।

जीवन परिचय

श्री बांकेबिहारीजी महाराज को वृन्दावन में प्रकट करने वाले स्वामी हरिदासजी का जन्म विक्रम सम्वत् 1535 में भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की अष्टमी (श्री राधाष्टमी) के ब्रह्म मुहूर्त में हुआ था। आपके पिता श्री आशुधीर जी अपने उपास्य श्रीराधा-माधव की प्रेरणा से पत्नी गंगादेवी के साथ अनेक तीर्थो की यात्रा करने के पश्चात् अलीगढ जनपद की कोल तहसील में ब्रज आकर एक गांव में बस गए। हरिदास जी का व्यक्तित्व बड़ा ही विलक्षण था। वे बचपन से ही एकान्त-प्रिय थे। उन्हें अनासक्त भाव से भगवद्-भजन में लीन रहने से बड़ा आनंद मिलता था। हरिदासजी का कण्ठ बड़ा मधुर था और उनमें संगीत की अपूर्व प्रतिभा थी। धीरे-धीरे उनकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैल गई। उनका गांव उनके नाम से विख्यात हो गया। हरिदास जी को उनके पिता ने यज्ञोपवीत-संस्कार के उपरान्त वैष्णवी दीक्षा प्रदान की। युवा होने पर माता-पिता ने उनका विवाह हरिमति नामक परम सौंदर्यमयी एवं सद्गुणी कन्या से कर दिया, किंतु स्वामी हरिदास जी की आसक्ति तो अपने श्यामा-कुंजबिहारी के अतिरिक्त अन्य किसी में थी ही नहीं। उन्हें गृहस्थ जीवन से विमुख देखकर उनकी पतिव्रता पत्नी ने उनकी साधना में विघ्न उपस्थित न करने के उद्देश्य से योगाग्नि के माध्यम से अपना शरीर त्याग दिया और उनका तेज स्वामी हरिदास के चरणों में लीन हो गया।

वृन्दावन प्रस्थान

विक्रम सम्वत् 1560 में पच्चीस वर्ष की अवस्था में हरिदास वृन्दावन पहुंचे। वहां उन्होंने निधिवन को अपनी तपोस्थली बनाया। हरिदास जी निधिवन में सदा श्यामा-कुंजबिहारी के ध्यान तथा उनके भजन में तल्लीन रहते थे। स्वामीजी ने प्रिया-प्रियतम की युगल छवि श्री बांकेबिहारीजी महाराज के रूप में प्रतिष्ठित की। हरिदासजी के ये ठाकुर आज असंख्य भक्तों के इष्टदेव हैं। वैष्णव स्वामी हरिदास को श्रीराधा का अवतार मानते हैं। श्यामा-कुंजबिहारी के नित्य विहार का मुख्य आधार संगीत है। उनके रास-विलास से अनेक राग-रागनियां उत्पन्न होती हैं। ललिता संगीत की अधिष्ठात्री मानी गई हैं। ललितावतार स्वामी हरिदास संगीत के परम आचार्य थे। उनका संगीत उनके अपने आराध्य की उपासना को समर्पित था, किसी राजा-महाराजा को नहीं। बैजूबावरा और तानसेन जैसे विश्व-विख्यात संगीतज्ञ स्वामी जी के शिष्य थे। मुग़ल सम्राट अकबर उनका संगीत सुनने के लिए रूप बदलकर वृन्दावन आया था। विक्रम सम्वत 1630 में स्वामी हरिदास का निकुंजवास निधिवन में हुआ।

सखी-सम्प्रदाय

स्वामी जी ने एक नवीन पंथ सखी-सम्प्रदाय का प्रवर्तन किया। उनके द्वारा निकुंजोपासना के रूप में श्यामा-कुंजबिहारी की उपासना-सेवा की पद्धति विकसित हुई, यह बडी विलक्षण है। निकुंजोपासना में जो सखी-भाव है, वह गोपी-भाव नहीं है। निकुंज-उपासक प्रभु से अपने लिए कुछ भी नहीं चाहता, बल्कि उसके समस्त कार्य अपने आराध्य को सुख प्रदान करने हेतु होते हैं । श्री निकुंजविहारी की प्रसन्नता और संतुष्टि उसके लिए सर्वोपरि होती है। राधाष्टमी के पावन पर्व में स्वामी हरिदास का पाटोत्सव (जन्मोत्सव) वृन्दावन में बड़े धूमधाम के साथ मनाया जाता है। सायंकाल मंदिर से चाव की सवारी निधिवन में स्थित उनकी समाधि पर जाती है। ऐसा माना जाता है कि ललितावतार स्वामी हरिदास की जयंती पर उनके लाडिले ठाकुर बिहारीजी महाराज उन्हें बधाई देने श्रीनिधिवन पधारते हैं। देश के सुप्रसिद्ध संगीतज्ञ निधिवन में स्वामीजी की समाधि के समक्ष अपना संगीत प्रस्तुत करके उनका आशीर्वाद लेते हैं।

हरिदास सम्प्रदाय

वृन्दावन के आधुनिक सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सम्प्रदायों में से एक उल्लेखनीय सम्प्रदाय है, हरिदास सम्प्रदाय जिसकी संस्थापना स्वामी हरिदास द्वारा हुई थी। वृन्दावनस्थ आधुनिक मन्दिरों में विशिष्ट एक प्रख्यात मन्दिर है, जो श्री बाँके बिहारी जी के मन्दिर के नाम से लोक विश्रुत है। यह गुंसाई जी तथा उनके वशधरों के आधिपत्य में है। इस वंश परम्परा के लोगों की संख्या 19 वीं सदी में लगभग 500 थी। श्रीकृष्ण को समर्पित यह मन्दिर हरिदासी संप्रदाय का मुख्यावास मात्र ही नहीं, वरन् सम्पूर्ण भारत में यह एक मात्र मन्दिर है, जिस पर गोस्वामियों का एकाधिकार है। सत्तर हज़ार रुपयों की धनरशि से इनका पुनर्निर्माण निकट अतीत में ही हुआ। यह निधि दूर पास के यजमानों से तेरह वर्ष के अन्तराल में एकत्र की थी। सामान्य किन्तु अत्यन्त सारभूत स्वरूप के लाल पत्थर से निर्मित इस विशद वर्गाकार मन्दिर का प्रमुख केन्द्रीय द्वार संगमरमर से बना हुआ है, जो अत्यन्त प्रभावशाली है। यह भवन निर्माण शिल्प का एक प्रसन्न आदर्श प्रस्तुत करता है। यह सभ्य संसार के ऐसे कतिपय स्थानों में से एक है, जहाँ भारतीय शिल्प मृत अतीत की परिश्रम साध्य प्रति कृति मात्र न होकर एक जीवन्त कला है, जो निरन्तर स्वत: ही विकास की प्रक्रिया में प्रबर्द्धमान है। गुसाइयों के वंशानुक्रमानुसार यह सम्पत्ति दो भागों में विभक्त हुई। उसका एक भाग स्वयं एक ब्रह्मचारी का था, किन्तु उसके भ्राता जगन्नाथ के मेघश्याम, मुरारीदास और गोपीनाथदास नामक तीन पुत्र थे, जिनमें से तीसरे नि:सन्तान दिवंगत हो गये। शेष दोनों भाई वर्त्तमान वंश परम्परा के पूर्वज थे। जैसा कि ऐसे प्रकरणों में सामान्यत: होता है दोनों परिवार परस्पर संघर्षरत रहने लगे। एकाधिक बार शान्तिभंग होने की गम्भीर स्थिति के निवारणार्थ शासन को क़ानून की सहायता लेने को विवश होना पड़ा। अपने पूर्वज की महानता के परे कतिपय गुंसाई ही सम्मान के अधिकारी होने का दावा कर सकते थे। या तो अपने वैदुष्य के कारण या अपनी नैतिकता की सटीकता के कारण, क्योंकि उनमें से बहुसंख्यक पढ़ लिख नहीं सकते थे। सामान्यतः उसके दो दावेदार थे। प्रत्येक 'बट' के लिये एक-एक। ये थे गुसाई जगदीश और किशोर चन्द्र। सम्प्रदाय के साहित्य की संकीर्ण सीमाओं में ये दोनों ही पक्ष अच्छे पढ़े लिखे थे।

हरिदास के सन्दर्भ में नाभा जी के मूल भक्तमाल में निम्नोक्त छन्द है—

आशधीर उद्योत कर रसिक छाप हरिदास की॥
जुगल नाम सौं नैम जपत नित कुंज बिहारी॥
अविंलोकित रहैं केलि सखी सुख को अधिकारी॥
गान कला गंधर्व श्याम श्यामा को तोषें॥
उत्तम भोग लगाय मोर मरकट तिमि पोषें॥
नृपति द्वार ठाड़े रहें दरशन आशा जासकी॥
आशधीर उद्योत कर रसिक छाप हरिदास की॥

इसके पश्चात् प्रियादास की टिप्पणिका या अनुपूरक इस प्रकार है—

॥टीका॥
श्री स्वामी हरिदास रास राशि को बषांनि सकै
रसिकता की छाप कोई जाप मधि पाई है॥
ल्यायौ कोऊ चोवा ताकौ अति मन भोवा वामै
डारयौ लै पुलनि यह खोवा हिय आइयै॥
जानि के सुजान कही लै दिषावौ लाल प्यारे
नैसिकु उघारे पट सुगन्ध बुड़ाइयै॥
पारस पषांन करि जल डरबाइ दियौ
कियौ तब शिष्य अंसैं नाना विधि गाइयै॥

अन्य तथ्य

अकबर, तानसेन और हरिदास

कदाचित इसे सभी मानेगे कि इस विशिष्ट छन्द में शिष्य अपने गुरु से अधिक अस्पष्ट रहा है। भक्त सिंधु ने उक्त दोनों छन्दों का 211 पदों की कविता में विशदीकरण किया है तथा समस्त भ्रमों की कुंजी निम्नांकित विवरण में प्रदान की है-

  • कोल (अलीगढ़ का प्राचीन नाम) के समीपस्थ एक गाँव में, जो अब हरिदासपुर कहलाता है, एक सनाढ्य ब्राह्मण ब्रह्मधीर के जानधीर नामक एक सुपुत्र था। जिसके हृदय में गिरि धारण करने वाले श्रीकृष्ण के गिरधारी स्वरूप के प्रति विशेष समर्पण (भक्ति) भाव जाग्रत था और इस प्रकार उसने गोवर्धन के पावन पर्वत की अनेक तीर्थ यात्रायें की थी। इसी प्रकार के एक अवसर पर उसने आशधीर रखा। अन्तत: आशधीर ने वृन्दावन के समीप स्थित एक छोटे से गाँव राजपुर के गंगाधर ब्राह्मण की आत्मजा से विवाह किया, जिसने संवत 1441 विक्रमी के भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को हरिदास को जन्म दिया। अपनी निपट शैशवावस्था से ही उसने अपनी भावी पवित्रता के संकेत दिये और अन्य बालकों के साथ खेलने के स्थान पर वह निरन्तर प्रार्थना और ध्यान में लगा रहता था। अपने माता पिता के अनुरोधों के परे उसने ब्रह्मचर्य का व्रत ले लिया और 25 वर्ष की आयु में वृन्दावन के सामने यमुना के बायें किनारे स्थित एक प्राकृतिक झील मानसरोवर पर एक एकान्तिक कुटी में रहने लगा। हरिदास तदनन्तर वृन्दावनस्थ निधिवन में चले गये और यहाँ उन्होंने विट्ठलविपुल को औपचारिक रूप से अपना शिष्य बनाया, जो उनके स्वयं के मातुल थे। शीघ्रमेव हरिदास जी की ख्याति दूर दूर तक फैल गई और उनके अनेक दार्शनार्थियों में से दिल्ली से दयालदास नामक एक खत्री एक दिन आया, जिसे अनायास दार्शनिक का पत्थर प्राप्त हुआ, जो सम्पर्क में आई प्रत्येक वस्तु को सोने में रूपान्तरित कर देता था। उसने यह पत्थर एक महान् निधि के रूप में स्वामी जी को भेंट किया। स्वामी जी ने वह यमुना में फेंक दिया। दाता के प्रवोधन को देखकर स्वामी जी उसे यमुना किनारे ले गये और उसे मुट्ठी भर रेती जल में से निकालने का आदेश दिया। जब उसने वैसा ही किया तो प्रत्येक कण उसी तरह की प्रतिकृति प्रतीत हुई, जो फेंक दिया गया था और जब परीक्षण किया तो वह उन्हीं गुणों से सम्पन्न पाया गया। तब खत्री की समझ में आया कि सन्तों को भौतिक सम्पदा की कोई आवश्यकता नहीं है लेकिन वे स्वयमेव परिपूर्ण होते हैं। तदनन्तर वह स्वामी हरिदास के शिष्यों में सम्मिलित हो गया।
  • यह सुनकर कि साधु को दार्शनिक का पत्थर भेंट किया गया है एक दिन जब स्वामी जी स्नान कर रहे थे, कुछ चोरों ने शालिग्राम को चुराने का अवसर पा लिया। उन्होंने सोचा कदाचित यही वह (पत्थर) हो। अपने उद्देश्य हेतु व्यर्थ जानकर उन्होंने (चोरों ने) उसे एक झाड़ी में फेंक दिया। जैसे ही सन्त उसकी खोज में उस स्थान से होकर निकले शालिग्राम की वाणी सुनाई दी कि मैं यहाँ हूँ। उसी समय से प्रत्येक प्रात:काल किसी चामत्कारिक माध्यम से स्वामी जी को नित्य एक स्वर्ण-मुद्रा प्राप्त होने लगी जिससे वे मन्दिर का भोग लगाते और जो बचता था, उससे वे अन्न क्रय करते, जिसे वे यमुना में मछलियों को और तट पर मोर और वानरों को खिलाते थे।
  • एक दिन एक कायस्थ ने एक सहस्त्र रुपये मूल्य के 'अतर' की बोतल भेंट की और यह देखकर जड़ीभूत हो गया कि स्वामी जी ने उपेक्षा भाव से उसे भूमि पर पटक दिया, जिससे बोतल टूट गई और बहुमूल्य 'अतर' सब नष्ट हो गया। परन्तु जब उसे मन्दिर ले जाया गया तो उसने पाया कि भेंट भगवान द्वारा स्वीकृत हो गई है, क्योंकि पूरा मन्दिर भवन इत्र की सुगन्धि से महक रहा था।
  • दिल्ली के सम्राट् के एक बिगड़ा हुआ मूर्ख बेटा था, जो अपमानपूर्वक वहाँ से निकाल दिया गया था। अपनी घुमक्कड़ी में संयोगवश वह वृन्दावन आ निकला और वहाँ सड़क पर सो गया। उषाकाल में स्वामी जी जब निधिबन से स्नानाथ जा रहे थे, तो उससे टकरा गये और उसकी महानी सुनकर उसका तानसेन नाम रख दिया और मात्र अपनी इच्छा शक्ति के प्रयोग से उसे एक अप्रतिम संगीतज्ञ के रूप में परिवर्तित कर दिया। उसके दिल्ली लौटने पर सम्राट् उसकी विचक्षणता पर आश्चर्य विजडित रह गया और उसने वृन्दावन यात्रा की तथा उस गुरु के दर्शन करने की ठान ली, जिससे उसने शिक्षा ग्रहण की थीं तदनुसार, जब वह आगरा आया, तो वह मथुरा चला गया तथा भतरौंद तक आधे मार्ग घोड़े पर और वहाँ से पैदल निधिबन तक गया। सन्त ने अपने पुराने शिष्य का गरिमापूर्वक स्वागत किया और उसके शाही सी को देखा भी नहीं , यद्यपि वह जानते थे कि वह कौन है। अन्तत: जब सम्राट् ने निरन्तर कुछ करने योग्य सेवा की अभ्यर्थन की तो उसे वह समीपस्थ बिहारी घाट ले गये, जो वर्त्तमान में ऐसा लग रहा था जैसे कि प्रत्येक सीढ़ी बहुमूल्य स्वर्ण जड़ित पत्थर की हो और एक सीढ़ी में कुछ कमी दिखाते हुए सम्राट् से कहा कि उसके स्थान पर दूसरी रखवा दें। यह कार्य महान् सम्राट् की भी शक्ति से परे था। सम्राट् ने पवित्र वानरों और मयूरों के पोषणार्थ छोटा सा अनुदान देकर तुष्टि पाई और वह प्रभूत सदुपदेश प्राप्त करके अपने मार्ग चला गया।
  • स्वामी हरिदास के जीवन में अन्य किसी घटना का उल्लेख अभिलिखित नहीं मिलता। उनके अनन्तर उनके उत्तराधिकारी उनके मातुल विट्ठल विपुल और उनके पश्चात् बिहारीदास हुए। बिहारीदास प्रेम उन्माद में इतने निमग्न हो गये कि मन्दिर के प्रशासनार्थ जगन्नाथ नामक एक पंजाबी सारस्वत ब्राह्मण बुलाया गया। उसकी मृत्यु के उपरान्त उसके अनेक उत्तराधिकारी आते गये, जिसे लिखना अनावश्यक प्रतीत होता है।
  • यही भक्तसिन्धु का विवरण है, जो भक्तमाल के दोनों अस्पष्ट संकेतों –अतर और दार्शनिक पत्थर, वानरों और मोरों के नित्य खिलाने और सम्राट् की वृन्दावन यात्रा-का स्पष्टीकरण प्रदान करता है। अन्य विषयों में स्वामी जी के उत्तराधिकारियों द्वारा स्वीकृत परम्पराओं से यह मेल नहीं खाता। क्योंकि उनका कथन है कि वह सनाढ्य नहीं प्रत्युत सारस्वत थे, यह कि उनका परिवार कोल या जलेसर से नहीं, प्रत्युत मुलतान के पास ऊछ से आया था और यह कि वह चार शताब्दी पूर्व नहीं, प्रत्युत अधिक से अधिक मात्र तीन शताब्दी पूर्व हुए थे। प्रतीत होता है कि भक्तसिन्धु का लेखक जाति में संघभेद का पक्षधर था, पचास वर्ष पूर्व या आसपास हुआ था। उसने तथ्यों को तदनुसार तोड़ मरोड़ लिया है। क्योंकि जगन्नाथ , जिसे वह कोल से बुलाता है, उसका नाम महन्तों की मूल तालिका में नहीं है, जो बाद में दी जायगी। तिथियों के सम्बन्ध में वह नितान्त असफल रहा है संवत 1441-संवत 1537 विक्रमी। वह स्पष्ट है, क्योंकि जिस सम्राट ने वृन्दावन यात्रा की थी, वह निश्चय ही अकबर था और वह संवत 1612 तक सिंहासनारूढ़ नहीं हुआ था। यह ठीक है कि प्रोफेसर विलसन अपने ग्रन्थ 'हिन्दुओं के धार्मिक सम्प्रदाय' में वर्णन करते हैं कि हरिदास चैतन्य के शिष्य और सत्यनिष्ठ साथी थे। चैतन्य का जन्म सन् 1485 ई. और शरीरान्त सन् 1527 ई. में हुआ। लेकिन, यद्यपि हरिदास ने चैतन्य के उपदेशों की भावना का समाहार किया था, फिर भी इस धारणा का कोई कारण नहीं कि उन दोनों के मध्य कोई वार्त्तालाप हुआ होगा। यदि ऐसा होता तो यह तथ्य भक्तमाल या उसके आधुनिक व्याख्याकारों से शायद ही छूट पाता।

ग्राउस के विचार

स्वामी हरिदास जी की समाधि, निधिवन, वृन्दावन
Swami Haridas Samadhi(Tomb), Nidhivan, Vrindavan

मेरे (ग्राउस) पास 680 पृष्ठों की एक छोटी पोथी हैं, जिसमें संस्थापक से लेकर इस हस्तलेख की तिथि संवत 1825 तक के समस्त महन्तों की तथा उनके लेखों की तालिका है। सूची यह है-

  1. स्वामी हरिदास
  2. विट्ठल विपुल
  3. बिहारिनदास
  4. नागरीदास
  5. सरसदास
  6. नवलदास
  7. नरहरदास
  8. रसिकदास तथा
  9. ललितकिशोर (ललितमोहनीदास)

प्रत्येक महन्ती के लिये बीस वर्ष रखे जायें, जो एक ऊँचा औसत हैं, क्योंकि इस पद पर एक वयस्क व्यक्ति का चयन होता है, स्वामी हरिदास के शरीरान्त की तिथि मात्र संवत 1665 विक्रमी ठहरती है। उनकी रचनाएँ शैली में तुलसीदास की कविता से अधिक पूर्ववर्ती नहीं हैं, जिनका देहावसान संवत 1680 में हुआ था। अत: प्रत्येक दशा में निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वे अकबर और जहाँगीर के शासनकाल में ईसवी की सोलहवीं शती के अन्त और सत्रहवीं शती के आरम्भ में विद्यमान रहे। उपरिलिखित सूची में प्रत्येक महन्त अपने पूर्ववर्ती महन्त का शिष्य उल्लिखित है और प्रत्येक ने कुछ भक्ति कविताएँ लिखी, जिन्हें साखी , चौबोला या पद कहा जाता है। सर्वाधिक मात्रा में लिखने वाले लेखक बहारिनदास हैं, जिनके पद 684 पूष्ठों का कलेवर भरते हैं। उनमें से अनेक पदों में अतिशयातिरेक में वे रहस्यात्मक भक्ति को अभिव्यक्त करते हैं, जो दिव्यभाव की अपेक्षा भौतिकता की द्योतक हैं। किन्तु निम्नोक्त उद्धरण सर्वथा पृथक् प्रकृति का है। यह स्वामी हरिदास के देहावसान की तिथि का अनुमोदन करने की दिशा में अधिक सहायक है, जो ऊपर निष्कर्षित है। क्योंकि इसमें सम्राट् अकबर और उसके प्रसिद्ध मित्र बीरबल की मृत्यु का नाम से उल्लेख है, जो सन् 1590 ई. में हुई थी।

राग गोरी

कहा गर्वे रे मृतक नर ॥
स्वान स्यार की ख़ान पांन तन अंठि चलत रे निलज निडर ॥
यहै अवधि जग विदित जग बांभन बड़े भये बीरबर ॥
मरत दूष्यौं हियौ न जियौ किसी न सहाइ अकबर ॥
स्वासन निकसत सुर असुर रषि गेंथि काल करतर ॥
इतहि न उतहि बीच ही भूल्यों है फिरत कौंन कौ थर ॥
सुखद सरन हरिचरन कमल भजि बादि फिरत भटकत घर धर ॥
श्री बिहारीदास हरिदास विपुलबल लटकि लग्यौ संग सर्वोपर ॥[1]

संप्रदाय के संस्थापक की 'साधारण सिद्धान्त' और 'रास के पद' शीर्षक 41 पृष्ठों की केवल दो छोटी रचनाएँ हैं। पहली अपने मूल पाठ में नीचे उद्धृत की जाती है। मन्दिर के सभी भक्तों को इसका बहुलांश कंठस्थ है, यद्यपि निश्वयपूर्वक जान लिया गया कि उनमें से विरले ही इसके सामान्य अर्थ से आगे अधिक जानते हैं। किशोरचन्द्र जैसे बहुज्ञ पुजारी ने इसका अवलोकन किया और उसके कुछ अंशों के अर्थ किये। अन्य पंडितों का अभिमत लेने पर वे अर्थ अपर्याप्त पाये गये और विवशत: छोड़ने पड़े।

राग विभास

ज्यौंही ज्यौंही तुम राषत हौ त्यौंही त्यौंही रहियत है हों हरि॥
और तौ अचरचे पाय धरौं सु तौ कहौं कौन के पेंड भरि ॥
जद्यपि हौं अपनौ भायौ कियौ चाहौं कैसे करि सकौं जो तु राखौ पकरि ॥
हरिदास के स्वामी श्याम कुंज बिहारी
पिजरा के जनावर लौं तरफराय रहौ उड़िवे कौ कितौक करि ॥1॥
काहूकौ बस नांहि तुम्हारी कृपा ते सब होय श्री बिहारी बिहारिन ॥
और मिथ्या प्रपंच काहे कौं भाषिये सो तौ है हारिनि ॥
जाहि तुम सौं हित तासौं तुम हित करौ सब सुख कारनि ॥
हरिदास के स्वामी श्यामा कुंजबिहारी प्राँननि के आधारनि ॥2॥
कबहूँ कबहूँ मन इत उत जातैं यातें अब कौन है अधिक सुष॥
बहुत भाँति नयत आंनि राष्यौ नाहितौ पावतौ दुष ॥
कोटि कमलावन्य बिहारी तातै मुहा चुहीं सब सुष लियें रहत रुष॥
हरिदास के स्वामी श्यामा कुंज बिहारी दिन देषत रहौ विचित्र मुष॥3॥
हरि भजि हरि भजि छांड़िन मान नर तन कौ॥
जिन बंछैरे जिन बंछैरे तिल तिल धनकौं ॥
अनमागैं आगैं आवैगौ ज्यौं पल लागैं पलकौं ॥
कहि हरिदास मीच ज्यौं आवै त्यौं धन आपुन कौ ॥4॥

राग बिलावल

हे हरि मोसौं न बिगारन कौं तोसौं न संम्हारन कौं मोहि तांहि परी होड़ ॥
कौंन धौं जी तै कौंन धौं हारै परि बादी न छोड़ ॥
तुम्हारी मायाबाजी पसारी विचित्र मोहे मुनि काके भूले कोउ॥
कहि हरिदास हम जीते हारे तुम तहु न तोड़ ॥5॥
वंदे अषत्यार भला ॥
चित न डुलाव आव समाधि भीतर न होहु अगला ॥
न फिर दर दर पदर पद न होहु अधला॥
कहि हरिदास करता किया सो हुवा सुमेर अचल चला ॥6॥
हित तौ कीजै कमल नैन सों जा हित के आगैं और हित के लागै फीकौ॥
कै हित कीजैं साधु संगत सौं ज्यौं कलमषि जाय जीकौ॥
हरि कौ हित ऐसौ जैसौ रंग मजीठ॥
संसार हिंत असौ जैसौ रंग कसूम दिन दुती कौ॥
कहि हरिदास हित कीजै बिहारी सौं और निवाहू जी कौ ॥7॥
तिनका बयार बस॥
ज्यौं भावै त्यौं उड़ाय ले जाय आपने रस ॥
ब्रह्म लोक शिवलोक और लोक अस।
कहे हरिदास विचार देषौ विना बिहारी नाहिं जस ॥8॥
संसार समुद्र मनुष्य मीन नक्र मगर और जीब बहु बंदसि ॥
मन बयार प्रेरे स्नेह फंद फदसि ॥
लोभ पिंजरा लोभी मरजिया पदारथ चारि षंदषंदसि॥
कहि हरिदास तेई जीव पराभये जे गहि रहे चरन आनन्द नन्दसि ॥9॥
हरि के नाम कौ आलस कित करत है रे काल फिरत सर सांधे ॥
बेर कुबेर कछू नहि जानत कढ्यौ फिरत है कांधे॥
हीरा बहुत जवाहिर सच्चे राँचे कहा भयौ हस्ती दर बाँधे ॥
कहि हरिदास महल में बनिता बनठाढ़ी भई॥
तव कछु न चलत जब आवत अन्त की आँधे ॥10॥
देषौ इनि लोगन की लावनि ॥
बूझत नाँहिं हरिचरनकमल कौं मिथ्या जन्म गवावनि
जब जमदूत आय घेरत हैं करत आप मनभावनि ॥
कहै हरिदास तबहीं चिरजीवै कुंजबिहारी चितवनि ॥11॥
मन लगाय प्रीति कीजै करवासों ब्रज बीचिन न दीजे सोहनी॥
वृन्दावन सो बन उपबन सौं गुंजमाल हाथ पोहनी ॥
गो गोसुतन सों मृगी मृगसुतन सौं और तन नेंक न जोहनी ॥
हरिदास के स्वामी श्यामां कुंज बिहारी सोचित ज्यों सिर पर दोहनी ॥12॥

राग कल्यान

हरि कौ असोई सब खेल ॥
मृग तृष्णा जग ब्यापि रह्यों है कहूँ बिजौरौ न बेलि॥
धन मद जोवन मद राज मद ज्यौं पंछिन में डेल ॥
कहै हरिदास यहै जिय जानौ तीरथ को सौ मेल ॥13॥
माई धनि वे मृगी जे कमल नैन कों पूजित अपनें अपनैं भरतारन सहित॥
धनिवे गाइ वछ वेई जे वशरस पीवत श्रवन दोना ज्यौं जाई न बहत ॥
पंछी न होंहिं मुनि जन जेते केते सेवहि दिन काम क्रोध लोभ रहित॥
सुनि हरिदास हमारे पति ते कठिन जान दे हये राखत गहत ॥14॥

राग बरारी

लाल मेरे दूध की दोहनी॥
मारग जात माहि रह्यौ री अंचरा मेरौ जाहिन दंत हो बिना बोहना॥
नागरि गूजरि ठगि लीनों मेरौं लाल गोरोचन कौ तिलक भावै मोहना॥
हरिदास के स्वामी इहां असोई न्याव है या नगरी जिन बसोरी सोहनी॥15॥

राग कान्हरो

झूठी बात सांची करि दिषावत हौ हरि नागर॥
निसि दिन बुनत उधेरत हौ जाय प्रपंच कौ सागर॥
ठाठ बनाय धरयौ मिहरी कौ है पुरुषतें आगर॥
सुनि हरिदास यहै जिय जानों सुपनें कौ सौ जागर॥16॥
जगत प्रीति करि देवी नाहि नेंग टीकौ कोऊ॥
छत्रपति रंक लौ देषै प्रकृति विरोध न बन्यौ कोऊ॥
दिन जु गये बहुत जन्मन के ऐसौ जावौं जिन कोऊ॥
सुनि हरिदास मीत भलौ पायौ विहारी ऐसौ पावौ सब कोऊ॥17॥
लोग तौ भूल्यौ भलै भूल्यों तुम मति भूलौ मालाधारी॥
आपनौ पति छाँड़ि आरनि सौं राति ज्यौं दारिन में दारी॥
स्याम कहत जे जीव मोते विमुख जोको जिन दूसरी कर डारी॥
कहि हरिदास जज्ञ देवता पितरन कौ शरधा भारी ॥18॥
जौलौ जीवै तौलौ हरि मज रे मन और बात सब बादि ॥
द्यौस चार के हलभला में तू कहा लेगौ लादि॥
धनमद जोवनमद राजमद भूल्यौ नगर विवादि॥
कहि हरिदास लोभ चरपट भयौ काहेकी लगै फिरादि॥19॥
प्रेम समुद्र रूप रस गहिरे कैसे लागै घाट॥
बेकार्यौ दै जानि कहावत जानि पन्यौ को कहा परी वाट॥
काहू कौ सर सूधौ न परै मारत गाल गली गली हाट॥
कहि हरिदास जानि ठाकुर बिहारी तकत न ओट पाट॥20॥

सम्बंधित प्रसंग

एक बार हरिदास भगवती यमुना की रेती में बैठे हुए थे। वसन्त-ऋतु का यौवन अपनी पराकाष्ठा पर था। चारों ओर कोयल की सुरीली और मीठी कण्ठाध्व‍नि कुंज-कुंज में अनुपम उद्दीपन का संचार कर रही थी। लताएं कुसुमित होकर पादपों के गाढ़ालिंगन में शयन कर रही थीं। वृन्दावन के मन्दिरों में धमार की धूम थी। रसिक हरिदास का मन डोल उठा। उनके प्राणप्रिय रास-बिहारी की मनोरम दिव्यता उनके नयनों में समा गयी। वृन्दावन की चिन्मयता की आरसी में अपने उपास्य की झांकी करके वे ध्यानस्थ हो गये। उन्हें तनिक भी बाह्य ज्ञान नहीं था। वे मानस-जगत की सीमा में भगवदीय कान्ति का दर्शन करने लगे। भगवान राधारमण रंगोत्सव में प्रमत्त होकर राधारानी के अंग-अंग को कर में कनक पिचकारी लेकर सराबोर कर रहे थे। ललिता, विशाखा आदि रासेश्वरी की ओर से नन्दनन्दन पर गुलाल और अबीर फेंक रही थीं। यमुना-जल रंग से लाल हो चला था। बालुका में गुलाल और बुक्के के कण चमक रहे थे। भगवान होली खेल रहे थे। हरिदास के प्राणों में रंगीन चेतनाएं लहराने लगीं। नन्दनन्दन के हाथ की पिचकारी छूट ही तो गयी। हरिदास के तन-मन भगवान के रंग में शीतल हो गये। उनका अन्तर्देश गहगहे रंग में सराबोर था। भगवान ने भक्त को ललकारा। हरिदास ने भगवान के पीताम्बर पर इत्र की शीशी उड़ेल दी। इत्र की शीशी जिसने भेंट की थी, वह तो उनके इस चरित्र से आश्चर्यचकित हो गया। जिस वस्तु को उसने इतने प्रेम से प्रदान किया था, उसे उन्होंने रेती में छिड़ककर अपार आनन्द का अनुभव किया। रसिक हरिदास की आँखें खुलीं। उन्होंने उस व्यक्ति की मानसिक वेदना की बात जान ली और शिष्यों के साथ श्रीबिहारी जी के दर्शन के लिये भेजा। उस व्यक्ति ने बिहारी जी का वस्त्र इत्र से सराबोर देखा, और देखा कि पूरा मन्दिर विलक्षण सुगन्ध से परिपूर्ण था। वह बहुत लज्जित हुआ, पर भगवान ने उसकी परम प्यारी भेंट स्वीकार कर ली, यह सोचकर उसने अपने सौभाग्य की सराहना की।

एक बार एक धनी तथा कुलीन व्यक्ति ने हरिदास से दीक्षित होने की इच्छा प्रकट की और उन्हें पारस भेट स्वरूप दिया। हरिदास ने पारस को पत्थर कहकर यमुना में फेंक दिया और उसे शिष्य बना लिया।

अपने दरबारी गायक भक्तवर तानसेन से एक बार अकबर ने पूछा- "क्या तुमसे बढ़कर भी कोई गाने वाले व्यक्ति हैं।" तानसेन ने विनम्रतापूर्वक स्वामी हरिदास जी का नाम लिया। अकबर ने उन्हें राजसभा में आमन्त्रित करना चाहा, पर तानसेन ने निवेदन किया कि वे कहीं आते-जाते नहीं। निधिवन जाने का निश्चय हुआ। हरिदास जी तानसेन के संगीत-गुरु थे। उनके सामने जाने में तानसेन के लिये कुछ भी अड़चन नहीं थी। रही अकबर की बात, सो उन्होंने वेष बदलकर एक साधारण नागरिक के रूप में उनका दर्शन किया। तानसेन ने जान-बूझकर एक गीत गलत राग में गाया। स्वामी हरिदास ने उसे परिमार्जित और शुद्ध करके कोकिल कण्ठ से जब अलाप भरना आरम्भ किया, तब अकबर ने संगीत की दिव्यता का अनुभव किया। तानसेन ने कहा- "स्वामी जी सम्राटों के सम्राट भगवान श्रीकृष्ण के गायक हैं।"

एक बार श्रीकृष्ण चैतन्य गौरांग महाप्रभु से वे बात कर रहे थे। ठीक उसी समय राधाकुण्ड निवासी रघुनाथदास मानसिक श्रृंगार में खोयी हुई प्रियाजी की पुष्प-वेणी खोजते उनके निकट आ पहुंचे। स्वामी जी ने अश्वत्थ वृक्ष के नीचे पता लगाकर उनकी मानसिक सेवा की, समस्त व्यवस्था का निरूपण कर दिया। स्वामी हरिदास ने रस की प्रीति-रीति चलायी, जिस पथ पर यती, योगी, तपी और संन्यासी ध्यान लगाकर भगवान के दर्शन से अपनी साधना सफल करते हैं और फिर भी उनके रूप-रस की कल्पना नहीं कर पाते, उसी को स्वामी हरिदास ने अपनाकर भगवान "रसो वै स:" को मूर्तिमान पा लिया। स्वामी हरिदास जी 'निम्बार्क सम्प्रदाय' के अन्तर्गत "टट्टी सम्प्रदाय" के संस्थापक थे। संवत 1630 विक्रमी तक वे निधिवन में विद्यमान थे। वृन्दावन की नित्य नवीन भगवल्लीलामीय चिन्मयता के सौन्दर्य में उनकी रसोपासना ने विशेष अभिवृद्धि की।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अरे मर्त्य प्राणी क्यों अभिमान करता है? तेरा शरीर कुतों और श्रृगालों का भोज्य बनेगा, तथापि तू निर्ल्लज्ज और निर्भय ऐंठकर चलता है। सभी का यह अन्त सारे संसार को विदित है। ब्राह्मण वीरबल एक महान् पुरुष था, तथापि उसकी मृत्यु हुई। उसकी मृत्यु से सम्राट अकवर का हृदय शोकाकुल हुआ। वह भी जीवित न रहा और न कोई सहायता मिली। जब देवासुर मृत्यु को प्रापत होते हैं, मृत्यु उनकी जुगाली करती है। न इधर न उधर , बीच में ही तू किस किसके घर भटकता है सभी भ्रमित हैं और अभिमान में फूले हुए हैं, तेरा किस पर विश्वास है? हरि के पद-कमलों की आराधना कर। घर-घर घूमना और भटकना सब अभिमान है। हरिदास के विषुल वल से बिहारिनदास ने उस सर्वाच्च को प्राप्त कर लिया है।

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