हंबीरराव मोहिते

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हंबीरराव मोहिते (अंग्रेजी: Hambirrao Mohite, जन्म- 1 मई, 1632, तलबीड, ज़िला सतारा, महाराष्ट्र) मराठा साम्राज्य के सेनापति थे। उन्होंने छत्रपति शिवाजी से लेकर के संभाजी तक सेनापति का कर्तव्य निभाया। हंबीरराव बहुत ही विश्वासदायी तथा वफादार सेनापति थे जो स्वराज्य के स्वपन को साकार बनाना चाहते थे। उन्होंने अपने मालिक छत्रपति शिवाजी महाराज के हर एक आदेश की पालना की तथा प्रजा की भलाई के बारे में सोचा।

परिचय

हंबीरराव मोहिते का जन्म 1 मई, 1632 को तलबीड, वर्तमान सतारा जिला, महाराष्ट्र में हुआ था। उनके पिता संभाजी मोहिते एक वफादार मुख्य नायक थे। हंबीरराव के 2 भाई तथा 2 बहिने थीं। उनके भाई हरीफ राव व शंकर जी थे और उनकी बहने सोयराबाई व अन्नूबाई थीं।‌ मोहिते ने अपने पिता संभाजी मोहिते के सारे गुण अपना लिए थे। वह भी एक वफादार मुख्य नायक बने तथा मराठा साम्राज्य के सेनापति का रोल निभाया। उनकी पुत्री का नाम ताराबाई था जिसका विवाह छत्रपति शिवाजी महाराज के छोटे पुत्र राजाराम से हुआ था। हंबीरराव मोहिते का दोहित्र शिवाजी द्वितीय था। हंबीरराव मोहिते की बहन सोयराबाई का विवाह शिवाजी महाराज के साथ किया गया था तथा उसकी दूसरी बहन अन्नूबाई का विवाह शिवाजी महाराज के सौतेले भाई वेंकोजी के साथ किया गया था।[1]

युद्ध नेतृत्व

हंबीरराव मोहिते के समय में कर्नाटक के कोप्पल राज्य में आदिलशाह के दो जनरल अब्दुल रहीम खान मियां तथा उनका भाई हुसैन मियां शासन करते थे। दोनों भाई बहुत ही निर्दई प्रवृत्ति के इंसान थे तथा वे वहां के किसानों के साथ बहुत ही क्रूर व्यवहार करते थे। राज्य में फसल ना होने पर तथा अकाल पड़ने पर भी वे किसानों से पूरा कर वसूल करते थे। गरीब किसान उनके सामने भीख मांगते थे, परंतु वह किसी की भी नहीं सुनते थे। उन दोनों ने वहां पर आतंक मचा के रखा था। कोप्पल प्रांत के किसानों ने छत्रपति शिवाजी महाराज को इसके बारे में शिकायत की। शिवाजी महाराज ने अपने सेनापति हंबीरराव को उनकी समस्या के निवारण के लिए वहां पर भेजा।

जनवरी 1677 ई. को छत्रपति शिवाजी महाराज की सेना हंबीरराव मोहिते के नेतृत्व में आदिलशाह की सेना से भिड़ी। मोहिते तथा धनाजी जाधव ने बहुत ही वीरता दिखाई। उनकी सेना ने आदिलशाह की आधी से ज्यादा सेना को वहीं पर खत्म कर दिया। उन्होंने अब्दुल रहीम खान को मौत के घाट उतार दिया तथा हुसैन खान को बंदी बना लिया।

कुछ समय बाद शिवाजी महाराज दक्षिण दिग्विजय (दक्षिण प्रांत) में गए। वहां पर उनके सौतेले भाई वेंकोजी ने अपने पिता की संपत्ति को साझा करने से मना कर दिया। जिसके बाद शिवाजी तथा वेंकोजी के बीच में युद्ध शुरू हो गया। क्योंकि मेहिते शिवाजी की सेना के सेनापति थे तो उन्होंने वेंकोजी के कई प्रांत, जैसे- जगदेवगढ़, कावेरीपत्तम, चिदंबरम और वृद्धाचलम इत्यादि पर विजय प्राप्त कर ली। वेंकोजी अपने इतने सारे प्रांत खोने के बाद निराश हो गए। वेंकोजी ने 6 नवंबर 1677 ई. को हंबीरराव मोहिते पर आक्रमण कर दिया। उस समय शिवाजी अपने पारिवारिक चिंता के कारण युद्ध क्षेत्र में उतनी ज्यादा सक्रिय नहीं थे और ऐसा लगा कि मोहिते इस युद्ध में हार जाएंगे। परंतु मोहिते ने वेंकोजी की सेना पर बहुत तीव्र गति से आक्रमण किया तथा उन्हें हरा दिया। लगभग 2 महीने के बाद इस युद्ध का समापन हुआ।[1]

मराठा उत्तराधिकार की लड़ाई

3 अप्रैल 1680 ई. को छत्रपति शिवाजी महाराज का देहांत हो गया तो उनके उत्तराधिकारी का प्रश्न उठा। उनकी पत्नी सोयराबाई ने अपने 10 वर्षीय पुत्र राजाराम को राजसिंहासन पर बिठा दिया। संभाजी महाराज, शिवाजी महाराज के जेष्ठ पुत्र थे। बड़े होने के नाते तत्कालीन रीति-रिवाजों के अनुसार वह ही मराठा साम्राज्य के उत्तराधिकारी बन सकते थे। अपने पिता की मृत्यु के समय संभाजी दूसरे किले में रह रहे थे। जैसे ही इस बात की सूचना संभाजी महाराज को पता चली तो उन्होंने राजाराम को हटाकर के मराठा साम्राज्य की राजगद्दी पर अधिपत्य करने की सोची। असल में राजाराम, हंबीरराव मोहिते का भांजा था। कई देशद्रोही मंत्री भी राजाराम के साथ हो गए थे। उन्होंने संभाजी को बंदी बना लिया था। हंबीरराव ने उन सभी मंत्रियों को बंदी बनाकर के संभाजी महाराज को मुक्त करवाया और बाद में उनका राज्य अभिषेक संपन्न करवाया।

मुग़ल व्यापारिक केंद्रों की लूट

उस समय बुरहानपुर उत्तर व दक्षिण भारत को व्यापारिक मार्ग से जोड़ता था। संभवत: बुरहानपुर में कई सारे पुर्तग़ाली लोग भी रहा करते थे। वहां के मुग़ल क्षेत्र-सेनापति ने स्थानीय लोगों के खिलाफ आतंक मचा रखा था। उन स्थानीय लोगों ने संभाजी महाराज से सहायता मांगी। 30 जनवरी 1681 को संभाजी महाराज तथा उनके सेनापति हंबीरराव मोहिते ने बुरहानपुर पर आक्रमण कर दिया। उस समय पर बुरहानपुर का सूबेदार खानजहां था और किले में मात्र दो 200 सैनिक थे। परंतु संभाजी तथा हंबीरराव की सेना में 20,000 सैनिक थे। मुगलों के सामने इतनी बड़ी सेना को रोकने के लिए कोई ताकत नहीं थी। मराठा सैनिकों ने बुरहानपुर के सारे मुगल व्यापार केंद्रों को लूट लिया और 3 दिनों के अंदर वहां पर एक करोड़ धनराशि से भी ज्यादा का सामान प्राप्त कर लिया।

मृत्यु

सन 1686 में मुगलों तथा मराठों के बीच में वाई का युद्ध हुआ। यह वाई प्रांत में हुआ था जिसकी वजह से इसे 'वाई का युद्ध' के नाम से जाना जाता है। इस युद्ध में मराठा शासक संभाजी ने अपने सेनापति हंबीरराव को भेजा था तथा मुगलों की तरफ से सरजा खान था। हंबीरराव ने बहुत ही चालाकी से मुगलों को वाई के क्षेत्र से पहाड़ी क्षेत्र की ओर ले कर गए। वहां पर उन्हें हरा दिया तथा मराठों की विजय हुई। दुर्भाग्यवश, 16 दिसंबर 1687 ई. को इस वाई के युद्ध में हंबीरराव मोहिते के ऊपर तोप का गोला आकर गिर गया, जिसकी वजह से उनकी मृत्यु हो गई। उस समय हंबीरराव की उम्र मात्र 57 वर्ष थी।‌ उनकी मृत्यु के बाद मराठों ने विजय के बाद भी अपने एक बेशकीमती हीरे को खो दिया।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 हंबीरराव मोहिते का जीवन परिचय (हिंदी) hindivibes.com। अभिगमन तिथि: 22 नवंबर, 2021।

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