हिरण्यकशिपु
हिरण्यकशिपु
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कुल | दैत्य |
पिता | कश्यप ऋषि |
माता | दिति |
परिजन | कश्यप ऋषि, दिति, हिरण्याक्ष, कयाधु, प्रह्लाद |
विवाह | कयाधु |
संतान | प्रह्लाद |
अपकीर्ति | हिरण्यकशिपु ने अपनी प्रजा पर किसी भी देवता की पूजा-अराधना आदि पर प्रतिबन्ध लगाया और स्वयं की पूजा का आदेश दिया। |
संबंधित लेख | प्रह्लाद, होलिका, होली, नृसिंह अवतार |
विशेष | हिरण्यकशिपु ने ब्रह्मा से यह वरदान पाया था कि- "कोई भी मनुष्य, स्त्री, देवता, पशु-पक्षी, जलचर इत्यादि, न ही दिन में और न ही रात्रि में, न घर के बाहर और न घर के भीतर, किसी भी प्रकार के अस्त्र-शस्त्र से उसे मार नहीं पायेगा।" |
अन्य जानकारी | भगवान विष्णु के नृसिंह अवतार ने राजदरबार की देहली पर बैठकर हिरण्यकशिपु को अपनी गोद में उठाकर और नाखूनों से उसके सीने को चीर कर उसका वध किया। |
हिरण्यकशिपु दैत्यों का महाबलशाली राजा था। उसने कठोर तपस्या के बल पर ब्रह्मा से यह वर प्राप्त किया था कि- "कोई भी मनुष्य, स्त्री, देवता, पशु-पक्षी, जलचर इत्यादि, न ही दिन में और न ही रात्रि में, न घर के बाहर और न घर के भीतर, किसी भी प्रकार के अस्त्र-शस्त्र से उसे मार नहीं पायेगा।" यह वरदान प्राप्त कर हिरण्यकशिपु अपनी अमरता के उन्माद में सब पर अनेकों प्रकार से अत्याचार करने लगा। इस प्रकार वह हज़ारों वर्षों तक सबको त्रस्त करता रहा। सभी देवता भगवान विष्णु की शरण में गये। तब भगवान विष्णु ने आधा शरीर मनुष्य के जैसा तथा आधा सिंह के समान बनाकर 'नरसिंह विग्रह' धारण किया तथा हिरण्यकशिपु से युद्ध प्रारंभ किया। कई हज़ार दैत्यों को मारकर भगवान विष्णु ने हिरण्यकशिपु को सायं काल के समय (जब न दिन था, न ही रात्रि) राजमहल की देहली पर (जो न ही भवन के भीतर थी, न ही बाहर) अपने नाख़ूनों से (जो कि अस्त्र-शस्त्र भी नहीं थे) जंघा पर रखकर मार डाला।[1]
परिचय
कश्यप ऋषि की अनेक पत्नियों में से एक थी दिति। दिति के दो पुत्र थे- 'हिरण्यकशिपु' और 'हिरण्याक्ष'। जब पृथ्वी का उद्धार करने के लिए भगवान विष्णु ने वराह अवतार ग्रहण किया, तब हिरण्यकशिपु के भाई हिरण्याक्ष का वध उनके द्वारा हुआ। भाई की मृत्यु से हिरण्यकशिपु कुपित होकर भगवान का विद्वेषी हो गया। वह विष्णु को प्रिय लगने वाली सभी शक्तियों देवता, ऋषि, पितर, ब्राह्मण, गौ, वेद तथा धर्म से भी द्वेष करता और उन्हें उत्पीडित करता।
ब्रह्मा से वरदान प्राप्ति
असुरराज हिरण्यकशिपु ने त्रिलोकों को अपने वश में करने व कभी भी मृत्यु का ग्रास न बनने के लिए ब्रह्मा की तपस्या की। हिरण्यकशिपु की घोर तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी प्रकट हुए। ब्रह्मा ने उससे पूछा कि वह क्या वर चाहता है। हिरण्यकशिपु ने कहा कि- "मेरी मृत्यु न आकाश में हो न भूमि पर, न कमरे के भीतर हो न ही कमरे के बाहर हो, मेरी मृत्यु न दिन में हो न रात में, मेरी मृत्यु न स्त्री के हाथों हो न पुरुष के, मृत्यु न देवों के हाथ हो, न असुरों के; न मनुष्य के द्वारा हो न पशुओं के; शस्त्रों से भी मेरी मृत्यु न हो।" ब्रह्माजी तथास्तु कहकर उसे वर प्रदान करके अंतर्धान हो गए।
पत्नी का हरण
हिरण्यकशिपु जब ब्रह्मा को प्रसन्न करने के लिए तप कर रहा था, उस अंतराल में एक घटना घटित हुई। हिरण्यकशिपु को तपस्या लीन जानकर उसके अभाव में देवों ने असुरों पर आक्रमण किया और उन्हें परास्त कर दिया। देवराज इन्द्र हिरण्यकशिपु की गर्भिणी पत्नी 'कयाधु' को बंधी बनाकर ले गए। बीच रास्ते ही उनकी मुलाकात देवऋषि नारद से हुई, जिनके उपदेशानुसार इन्द्र हिरण्यकशिपु की पत्नी कयाधु को महर्षि के आश्रम में छोड कर स्वयं देवलोक चले गये। गर्भवती कयाधु को नारद ने भागवत तत्त्व से अवगत कराया। माता के गर्भ में शिशु ने भी इन सभी उपदेशों का श्रवण किया।[2]
स्वयं की पूजा का आदेश
तपस्या पूर्ण होने पर हिरण्यकशिपु जब लौटकर आया तो उसने देवों को पराजित किया। वह नारद के आश्रम में वास करती अपनी पत्नी को पुनः राजमहल ले आया। वर के बल से अहंकार में अंधे हिरण्यकशिपु ने त्रिलोकों पर आक्रमण कर दिया और उसने उन पर विजय भी पा ली। उसने देवों को अपना दास बनाया। हिरण्यकशिपु ऋषि-मुनियों व भगवद भक्तों को तंग करने लगा, याग यज्ञों को नष्ट-भ्रष्ट करने लगा। उसने आदेश दिया कि उसके राज्य में किसी भी देवता की पूजा नहीं होगी। उसने कहा कि हिरण्याय नमः के अतिरिक्त अन्य किसी भी मंत्र का उच्चारण नहीं किया जायेगा। पूरे राज्य में स्वयं उसी की पूजा की जाए, अन्य किसी की नहीं।
प्रह्लाद का जन्म
उचित समय पर हिरण्यकशिपु की पत्नी कयाधु ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका प्रह्लाद रखा गया। चूँकि उसे नारद के उपदेशों का स्मरण था, इसीलिए प्रह्लाद में भगवान विष्णु के प्रति भक्ति भावना बाल्यकाल से ही विद्यमान थी। उपनयन संस्कार के बाद पिता हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को गुरुकुल भेजा। कुछ समय बाद पिता को यह जानने की उत्सुकता हुई की उसके बेटे ने गुरुकुल में क्या सीखा है। उसने प्रह्लाद को राजमहल बुलवाया।[2] प्रह्लाद से पिता ने पूछा- "तुमने गुरुकुल में क्या सीखा?" प्रह्लाद ने उत्तर दिया-
"श्रवणम्, कीर्तनम्, स्मरणम्, पादसेवनम्, अर्चनम्, वंदनम्, दास्यम्, सख्यम्, आत्मनिवेदनम् - इन नवविध भक्ति मार्गों से भगवान की उपासना की जा सकती है।"
अपने पुत्र के ही मुख से अपने परम शत्रु विष्णु की पूजा की जानी चाहिए, आराधना की जानी चाहिए, सुनकर हिरण्यकशिपु अति क्रुद्ध हो उठा। हिरण्यकशिपु द्वारा कई बार प्रह्लाद को समझाने पर भी कि वह विष्णु की पूजा पाठ आदि न किया करे, प्रह्लाद पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। क्रोध के आवेग में हिरण्यकशिपु ने सिपाहियों को आज्ञा दी कि वे प्रह्लाद को मार डालें। बहुविध प्रयासों के बाद भी सिपाही प्रह्लाद को मार न सके।
नृसिंह द्वारा हिरण्यकशिपु का वध
निराश हुए हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र के मन से ईश्वर भक्ति को मिटा देने के विचार से उसे पुनः गुरुकुल भेजा। परन्तु वहाँ प्रह्लाद के उपदेशों से प्रभावित होकर अन्य असुर बालक भी विष्णु के भक्त बनने लगे। अत्यंत कुपित होकर हिरण्यकशिपु बोला- "मैं त्रिलोकों का नाथ हूँ। मेरे सिवा कोई अन्य ईश्वर है तो वह कहाँ है?" प्रह्लाद ने उत्तर दिया- "ईश्वर सर्वव्यापी हैं। वे सर्वत्र विराजमान हैं"। हिरण्यकशिपु गरज उठा, उसने कहा कि- "क्या तेरा विष्णु महल के इस स्तंभ में भी हैं?" "हाँ, इस स्तंभ में भी भगवान का वास है", प्रह्लाद बोला। पुत्र के उत्तर को सुन हिरण्यकशिपु ने मुट्टी बनाकर जोर से स्तंभ पर प्रहार किया। स्तंभ में दरार पड गयी। उसके भीतर से अर्धसिह, अर्ध मानव रूप में नृसिंह मूर्ति का उग्ररूप प्रकट हुआ। संध्या का समय था। भगवान विष्णु के नृसिंह अवतार ने राजदरबार की देहली पर बैठकर हिरण्यकशिपु को अपने गोद में उठा लिया और नाखूनों से उसके सीने को चीर कर उसका वध किया। निष्कलंक भक्त प्रह्लाद के मुख से निकले वचन सत्य सिद्ध हुए।[2]
हिरण्यकशिपु ईश्वर को नहीं समझ सका। वह यह भूल गया कि ईश्वर के पास तो सभी समस्याओं का समाधान है। न दिन न रात का समय - संध्या समय; न आकाश में, न भूमी पर - अपनी गोद में; न भीतर न बाहर - देहली पर; न मानव न पशु - नृसिंह; निरायुध - अपने नाखूनों से वध किया। इस प्रकार ब्रह्माजी के वर का किसी भी प्रकार उल्लंघन किए बिना नृसिंह भगवान ने अधर्मी हिरण्यकशिपु का वध किया।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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