जालंधरपा

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जालंधरपा को नाथ संप्रदाय में आदिनाथ के रूप में स्मरण किया गया है। उन्हें मत्स्येन्द्रनाथ का गुरु बताया गया है। जालंधरपा को 'जलंधरीपाँव', 'जलंधरीपा' भी कहा गया है। ये विभिन्न नाम जलंधरपाद के विकृत रूप हैं।

परिचय

किसी का अनुमान है कि जालंधरपा का मूल नाम 'जालधारक' अर्थात् "जाल धारण करने वाला", था और ये मछुए जाति के थे; किंतु तिब्बती परम्परा में इन्हें भोगदेश का निवासी पण्डित (ब्राह्मण) माना गया है। राहुल सांकृत्यायन ने इनके चार शिष्यों- 'कर्णपा', 'मीनपा', 'धर्मपा' और 'तंतिपा' का उल्लेख किया है। मीनपा अर्थात् मत्स्येन्द्रनाथ को जनश्रुति के अनुसार जालंधरपा का गुरु-भाई भी बताया गया है।[1]

'गोरक्ष सिद्धांत संग्रह' में गोरक्षपाद ने इन्हें नाथ सम्प्रदाय के प्रवर्तकों में गिनाया है। स्वयं जालंधरपा ने अपनी कृति 'विमुक्त मंजरी' में अपने को आदिनाथ कहा है। चंद्रनाथ योगी द्वारा रचित 'योगि सम्प्रदाय विष्कृषि' में एक कथा दी गयी है, जिसमें बताया गया है कि इनकी उत्पत्ति गुप्त साम्राज्य के उच्छेदक बृहद्रथ द्वारा रचित यज्ञ की अग्नि से हुई थी और इसी कारण इनका नाम जलेंद्रनाथ पड़ा था। आगे के समय में 'जलेंद्रनाथ' जलंधरपाद के रूप में बदल गया। इन उल्लेखों से प्रकट होता है कि जालंधरपा सिद्ध सम्प्रदाय के प्राचीनतम आचार्यों में से एक थे। यदि उन्हें मत्स्येन्द्रनाथ का गुरुभाई स्वीकार किया जाय तो उनका समय आठवीं-नवीं शताब्दी ठहरता है। गोपीचंद की कथा में जालंधरपा को गोपीचंद की माता मैंनामती का गुरु बताया गया है। इससे भी जालंधरपा का समय आठवीं-नवीं शताब्दी ही जान पड़ता है।

निवास

जालंधरपा मल रूप में पंजाब के निवासी बताये गय हैं। कहा जाता है कि पंजाब का प्रसिद्ध जालंधर नगर उन्हीं के नाम पर बसाया गया था। वहाँ पर इनका एक मठ या पीठ था, जहाँ आज भी एक टीला उनकी स्मृति को सुरक्षित किये हुए है।

रचनाएँ

जालंधरपा की दो पुस्तकें मगही भाषा में रची बतायी गयी हैं, उनके नाम निम्नलिखित हैं-

  1. 'विमुक्त मंजरी गीत'
  2. 'हुँकार चित्त विंदुभावना क्रम'

इन पुस्तकों में साधना के विभिन्न उपक्रमों और सिद्धि की अवस्थाओं का वर्णन है। आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा सम्पादित 'नाथ सिद्धों की बानियाँ' के अंतर्गत जालंधरपाद के पद शीर्षक से उनके 13 पद (सबदी) दिये गये हैं। इनके पदों का विषय गुरु, ज्ञान, निरंजन, धरती, आकाश, सूर्य, चंद्र आदि का वर्णन है। पाँचवीं सबदी में गोपीचंद्र का उल्लेख किया गया है, किंतु उनके सम्बंध में कुछ भी ज्ञात नहीं है। 'वज्र प्रदीप' पर लिखी इनकी टीका 'शुद्धि व्रज्र प्रदीप' नाथ परम्परा में प्रसिद्ध है।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी साहित्य कोश, भाग 2 |प्रकाशक: ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |संपादन: डॉ. धीरेंद्र वर्मा |पृष्ठ संख्या: 26 |
  2. सहायक ग्रंथ- पुरातत्व निबंधावली: महापण्डित राहुल सांकृत्यायन; हिन्दी काव्यधारा: महापण्डित राहुल सांकृत्यायन; नाथ सम्प्रदाय: डॉ. हज़ारी प्रसाद द्विवेदी; नाथ सिद्धों की बानियाँ: डॉ. हज़ारी प्रसाद द्विवेदी; योग प्रवाह: डॉ. पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल

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