बनारस की वस्त्रकला
बनारस अथवा वाराणसी योग, भोग और मोक्ष की नगरी के रुप में हजारों वर्ष से विख्यात है। यहाँ एक ओर जहां मणिकर्णिका घाट पर लोग अपने प्रियजनों के मृत शरीर का अन्तिम संस्कार करने आते है, वहीं बहुत से लोग आकर काशी वास करते हुए धर्मराज के आने का इन्तजार करते यहाँ हैं। ज्ञान के पिपासु विद्यार्थी यहाँ शास्रीय अध्ययन करने के लिए आते हैं। बनारस की कला विशेष रुप से रेशमी वस्र, पीतल और काष्ठ की कलात्मक चीजें समस्त वि में प्रसिद्ध है। गंगा का स्वरूप एवं आकृति जैसा बनारस में है - अर्ध चन्द्रकार - कहीं भी नहीं है। इस तरह से बनारस धर्मक्षेत्र के साथ ही मोक्षक्षेत्र, ज्ञानक्षेत्र और कलाक्षेत्र को भी अपने-आप में आत्मसात किये हुए है।
बनारसी वस्र कला
बनारसी वस्र कला एक प्राचीन और गौरवशाली परम्परा है। इस गौरव के अनेक आयाम हैं : देवालय की पवित्रता, गंगा का सौन्दर्य, महलों एवं राजदरबारों की भव्यता, लावण्यमयी तरुणी का रुप बनारसी वस्रों से निखर उठती है और श्रेष्ठजनों का व्यक्तित्व बनारसी वस्रों से गौरवान्वित होता है। कला मानव हृदय की कोमल अनुभूति है। विविध कलाएँ मानव रुचियों एवं सभ्यता को परिस्कृत करती हैं। अपने रहन-सहन, वेष-भूषा, आचरण और वातावरण को अधिकाधिक कलात्मक बनाए रखने के प्रयास में यह मानव समाज सदैव प्रयत्नशील रहा है। इस कसौटी पर बनारसी वस्र कला सामंजस्य के भव्यतम प्रतीक है। बिनकारी कला के सम्पूर्ण सुरताल और लय इसकी बुनावट में इस तरह गूंथ दिये जाते हैं जिन्हें आँखें स्पष्टतः सुनती है। विश्व के किसी भी वस्र उद्योग (कला) के पास कलाकारी का वह नाद और स्वर नहीं जिन्हें आँखें सुन पाती हों।[1]
ऐतिहासिक एवं पौराणिक उल्लेख
- बनारसी वस्र कला का हमारे प्राचीन ग्रंथों में काफ़ी उल्लेख मिलता है। वेदों में- ख़ासकर ऋग्वेद तथा यजुर्वेद तथा अन्य ग्रंथों में काशी के वस्रों के प्रचुर उल्लेख मिलते है। इन ग्रंथों में यहाँ निर्मित वस्रों के लिए काशी, कासिक, कासीय, काशिक, कौशेय तथा वाराणसैय्यक शब्दों का प्रयोग हुआ है। वेदों में वर्णित हिरण्य वस्र (किमख़ाब) भी काशी के वस्रों के वर्णन में प्रायः अतिविशिष्ट श्रेणी के वस्र के रुप में किया गया है तथा इनका प्रयोग भी समस्त भारतवर्ष में होता था। वैदिक साहित्य में बिनकारी के बहुत शब्द जैसे ओतु (बाना), तंतु (सूत), तंत्र (ताना), बेमन (करघा), प्राचीनतान (आगे खिंचवाना), वाय (बुनकर), मयूख (ढ़रकी) आये है।
- ई. पू. का महाजनपद युग, शैथू, नागों और नंदयुग की जानकारी जैन सूत्रों, बौद्ध पिटकों और ब्राह्मण सूत्र में काशी के वस्रों के विषय में संक्षिप्त वर्णन है।
- पालि साहित्य में भी काशी के बने वस्रों के उल्लेख हैं। इन्हें काशीकुत्त्तम और कहीं-कहीं कासीय कहते थे। यहाँ का वस्र इतना प्रसिद्ध था कि महपारिनिर्वाण-सूत्र का टीकाकार विहित कप्पास पर टीका करते हुए कहता है कि भगवान बुद्ध का मृत शरीर बनारसी वस्र से लपेटा गया था और वह इतना महीन और गढ़कर बुना गया था कि तेल तक नहीं सोख सकता था। इसी तरह मज्झिममनिकाय ग्रंथ में बनारसी कपड़े के बाटीक पोत का उल्लेख वाराणसैय्यक नाम से है। इस ग्रंथ का टीकाकार बनारसी वस्र की प्रशंसा करता है। उनके अनुसार काशी में अच्छी कपास होती थी, वहाँ की कत्त्तिनें और बिनकर होशियार होते थे और वहाँ का नरम पानी (शायद गंगाजल) धुलाई के लिए बहुत अच्छा पड़ता था। ये वस्र ऊपर और नीचे से मुलायम और चिकने होते थे।
- महापरिनिब्बाणसूत्त में कही-कहीं काशी के हिरण्य वस्र (किमख़ाब) का भी उल्लेख आता है। दिव्यावदान ग्रंथ में रेशमी वस्र के लिए पट्टंशुक, चीन, कौशेश् और धौत पट्ट शब्दों का व्यवहार हुआ है। धौत पखारे हुए रेशम के वस्रों को कहते हैं। दिव्यावदान में बनारसी वस्रों के लिए काशिक वस्र, काशी तथा काशिकॉसु इत्यादि शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। काशीक वस्र सूती भी हो सकते थे क्योंकि प्राचीनकाल में बनारस तथा इसके आसपास बहुत अच्छी कपास पैदा होती थीं और यहाँ की कत्तिनें बहुत महीन सूत कातती थी।
- जैन ग्रंथ जैवूद्वीप प्रज्ञप्ति में जण्णग (दरजी) पट्टगार (रेशमी कपड़े बुनने वाले) तथा तंतुवाय (बिनकर) को शिल्पियों की श्रेणी में रखा गया है। इसके अतिरिक्त कार्यासिक (कपास बेचने वाले), सौत्रिक (सूत बेचने वाले) तथा दौष्यिक (बजाज) का भी सामाजिक जीवन में सम्मान-पूर्ण स्थान था। जातक कथाओं से पता लगता है कि बिनकारी में सभी वर्गों के लोग लगे हुए थे। रेशमी-वस्र बुनने वालों को पट्टगार तथा अन्य बिनकारों को तंतुवाय कहा जाता था। कालान्तर में पट्टगार के लिए पटुवा शब्द प्रयोग होने लगा और उसके बाद पटुवा समूह जाति में बदल गया। इसके समर्थन में हमें पट्टा (रेशमी कपड़े बूनने वाला) पट्टंथुक (रेशमी वस्र) जैसे शब्द भी मिलते हैं। बनारसी वस्र कला का एक नाम पाटेश्वरी जिसका अर्थ है (बिनकरों) द्वारा उत्पन्न लक्ष्मी। पटुवा जाति के लोग निरन्तर इस व्यवसाय में लगे रहे। ये लोग बिनकारी के अलावा माला एवं जेवरों की गुंथाई तथा कसीदाकारी के काम में भी प्रवीण थे। भारत में मुग़लों के आगमन के बाद काफ़ी उथल-पुथल हुई तथा अनेक समूह इस्लाम धर्म में परिवर्तित हो गये। पटुवा जाति का भी एक बड़ा हिस्सा इस्लाम में परिवर्तित हो गया। काशी में अभी भी कुछ पटुवा परिवार हैं। बनारसी वस्रों के ऊपर सुनहली और रुपहली मनमोहक कलाकारी ने मुग़ल बादशाहों का मन आखिरकार मोह ही लिया। इन बादशाहों को काशी के वस्रों से अत्यन्त लगाव हो गया था। उन्होंने कला को आगे बढ़ाने में काफ़ी दिलचस्पी भी ली। बादशाहों की विशेष पसंद हो जाने के कारण इसमें मुग़ल शैली का भी समावेश होने लगा। विशेषकर ईरान के दक्ष कलाकारों ने इसमें विशेष रुचि लेकर यहाँ की कलाकारी में अपनी कला का सामंजस्य किया। मुग़ल शैली बनारसी बिनकारी की लोकप्रियता का सबसे प्रमुख आधार इसकी कला है। परिवर्तन के अनगिनत दौर से गुजरने के बाद भी बनारस में बिनकरों की संख्या दिनानुदिन बढ़ती ही जा रही है। यह है जीता-जागता एवं चिरन्तन प्रमाण जो इस कला के प्रति कलाकारों एवं उनके पीढ़ी-दर-पीढ़ी के लोगों के स्नेह और समपंण को प्रदर्शित करता है।[1]
बिनकर और बिनकारी
बिनकर सामान्यतया बड़े एवं संयुक्त परिवार में रहते हैं। इस कला में लोग बचपन से ही लग जाते हैं। कला की जटिलता इतनी है कि अगर बचपन से ही इसपर ध्यान न दिया जाय तो फिर इसे सीखना मुश्किल हो जाता है। इसमें परिवार के सभी लोग बच्चे-बूढ़े, जवान, औरत और मर्द लगे रहते हैं। सभी लड़के-चाहे वे स्कूल जाते हो या न जाते हों - बिनकारी दस से बारह वर्ष की अवस्था में प्रारंभ कर देते है। पांच से छह वर्ष का प्रशिक्षण (जो घर में ही मिल जाता है) के बाद एक बच्चा एक कुशल बिनकर के आधे के आसपास कमाई कर लेता है और अगले दो से चार वर्ष में वह पूर्ण कारीगर बन जाता है एवं पूरी कमाई करने लगता है। महिलाएं सामान्यतया बिनने का कार्य नहीं करती परन्तु अन्य मदद जैसे धागे को सुलझाना, बोबिंग में डालना, चर्खा पर तैयार करना इत्यादि कर देती है। इसीलिए बिना औरत के बिनाई लगभग असम्भव सा लगता है। जब एक बच्चा इस कला को सीखना प्रारंभ करता है तो सामान्यतया वह बुटी काढ़ने का या ढ़रकी को फेकने का कार्य करता है। इसीलिए उसे बुटी कढ़वा या ढ़रकी फेकवा भी कहा जाता है। जब एक बिनकर अपनी कला में समग्रता के साथ पारंगत हो जाता है तब उसे गीरहस्ता (प्रमुख बिनकर) कहकर पुकारा जाता है।[1]
बिनकारी तकनीक
- बनारसी (बिनकर गज)
- 16 गीरह का एक गज होता है।
- 4 अंगुली का एक गीरह होती है।
- 1 गीरह में सवा दो ईंच होता है।
फन्नी की लम्बाई |
फन्नी की लम्बाई साढ़े सत्रह गीरह के लगभग होती है |
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पनहा | फन्नी के साईज पर निर्भर करता है। साड़ी की चौड़ाई अथवा अर्ज को पनहा कहा जाता है। |
भरुई की फन्नी | भरुई की फन्नी ही परम्परागत फन्नी है जो लुप्त प्राय हो रही है। भरुई की फन्नी के दोनों बेस एक प्रकार की लकड़ी से बना होता है जिसे साठा कहा जाता है। |
सीक | सीक नरकट से बना होता है। नरकट को सीक की तरह बनाकर चौड़ाई में डाला जाता है। भरुई के फन्ने के सीक की चौड़ाई लगभग 3 ईंच होती है। |
वेवर | भरुई के फन्नी के दोनों छोर पर लोहे के समान आकार के (सीक की आकृति एवं आकार के समान) सींके लगी होती हैं, जिसे वेवर कहा जाता है। |
गेवा | सींक को पारम्परिक तथा प्रचलित भाषा में गेवा कहा जाता है। गेवा दो प्रकार का होता है:
साड़ी के पनहे के दोनों हिस्सों को ठोस तथा मजबूती देने के लिए लोहे का गेवा दिया जाता है। |
हत्था | फन्नी के फ्रेम को हत्था कहा जाता है। अर्थात् फन्नी हत्थे में लगी होती है। हत्था लकड़ी का बना होता है। |
तरौधी | हत्थे के नीचे के भाग को तरौधी कहा जाता है। हत्थे और तरौधी के अन्दर वाले भाग में एक नाली खुदी होती है जिसमें फन्नी बैठी होती है। |
खड्डी | खड्डी जमीन में गड़ी होती है, जिसपर हत्था खड़ा होता है। अर्थात् हत्था खड्डी के ऊपर खड़ा होता है। खड्डी लकड़ी की बनी होती है जो दो खूंटे पर खड़ी होती है। इसमें खड्डीदार सीकी बनी होती है, जिसके बेस पर लकड़ी का माला लगा होता है। |
गेठुआ (गेठवा, गेतवा) | गेठुआ या गेतवा में लकड़ी के कांटी नायलोन के धागे से बना जाला होता है। इसी को गेठुआ कहा जाता है। कई वर्ष पूर्व जब नायलोन का प्रचार प्रसार नहीं हुआ था उस समय वाराणसी के बिनकर सूती धागों का ही गेठुआ बनाया करते थे। हालांकि आजकल सूती गेठुआ कही भी व्यवहार में नहीं लाया जाता है। |
पौंसार | पौंसार कारखाने में पैर के पास लगा होता है। सामान्यतः बेलबूटे पर चार पौंसार होते हैं जिसमें दो दम्मा का पौसार तथा दो मशीन का पौसार होता है। मशीन के पौसार को जब दबाया जाता है तब यह नाका उठाता है, जबकि दम के पौंसार दबाने से यह तानी उठाता है। |
सिरकी | सिरकी बांस का बना होता है, तथा इसका उपयोग ज़री तथा कढ़ाई बनाने के लिए किया जाता है। |
नौलक्खा (बोझा) | पौसार दबाने पर नाका या तानी ऊपर की ओर उठता है जिससे कपड़े की बिनाई तथा कढ़ाई की प्रक्रिया चलती रहती है। नाका या तानी ऊपर की ओर उठने के बाद यह ज़रूरी है कि वह फिर अपने पूर्व स्थान पर यथावत आ जाए और कहीं फंसे भी नहीं। इसी के लिए कारखाने में एक वजन दोनों तरफ दो-दो कर डाल दिया जाता है, जिसे नौलक्खा या बोझा कहते हैं। पहले नौलक्खा कुम्हार की मिट्टी को पकाकर सुन्दर आकृति में बनाता था। हालांकि आजकल इसके बदले ईंटा या बालू के बोझ का भी प्रयोग किया जाता है। |
पटबेल | आंचल के दोनों पट्टी को पटबेल कहा जाता है। |
लप्पा | लप्पा करघे के सबसे ऊपरी भाग को कहते हैं। लप्पा बांस या लकड़ी के चार टुकड़े से बनाया जाता है। बांस या लकड़ी के टुकड़े को आरी-तिरछी रखकर उस पर रखा जाता है। यहां के लोग जैक्वार्ड को अपनी भाषा में मशीन कहते हैं। लप्पा लकड़ी या बांस के टुकड़े को ही कहते हैं। |
मशीन का डन्डा | यह जैक्वर्ड मशीन का डंडा होता है। मशीन का डंडा लकड़ी से बना होता है। हरेक डंडे में दो छेद किया जाता है जिन्हें दो लकड़ियों के बीच नट तथा बोल्ट से कस दिया जाता है। |
मांकड़ी | मांकड़ी लप्पे के ऊपर होता है। यह डंडानुमा आकृति का होता है। मांकड़ी से वय की गठुआ उठता है। |
चिड़ैया (चिड़ई का डंडा) | जिस डंडे से जकार्ड मशीन के स्लाइड को उठाया जाता है उसे चिड़ैया या फिर चिड़ई का डण्डा कहा जाता है। चिड़ैया नीचे की ओर मशीन पर हमेशा झुका हो इस ख्याल से लोहे के प्लेट से इसे बांध दिया जाता है। मशीन के डण्डे का पिछला हिस्सा एक डोरी द्वारा नीचे कारखाने में एक लीवर द्वारा कसा होता है जिसको पैर से दबाने से मशीन अपना कार्य शुरु कर देता है। |
वस्र बनने से पूर्व की प्रक्रिया
बनारस में रेशम के धागे सर्वाधिक रुप से कर्नाटक राज्य के बंगलौर शहर से आता है। बाज़ार के दुकानदारों, गीरस्ता (भीहस्ता) तथा बुनकरों से सम्पर्क के दौरान यह पता चला कि बनारसी साड़ी में प्रयुक्त होने वाले 75 से 80 प्रतिशत रेशमी धागे कर्नाटक से ही आते हैं। हालांकि जम्मू और कश्मीर, पश्चिम बंगाल (मालदा), बिहार (चाईबासा तथा संताल परगना) इत्यादि जगहों से भी थोड़े बहुत मात्रा में कच्चा रेशमी धागा मंगाया जाता है। इक्के-दुक्के नामी-गरामी गीरस्ता तथा कोठीदार मनमाफिक आर्डर के बेशकीमती तथा नफीसी बनारसी साड़ी बनाने के लिए चीन, जापान, कोरिया इत्यादि देशों से भी रेशम के धागे को मंगाते या आयात करते हैं। चूंकि आयात की प्रक्रिया जटिल है तथा यह काफ़ी मंहगा भी पड़ता है अतः सामान्य गीरस्ता तथा कोठीदार एवं बिनकर इन आयातित रेशमी धागों से साड़ी नहीं बनाता। पुराने बिनकरों, गीरस्तों तथा कोठीदारों से विस्तृत बातचीत के दौरान यह तथ्य उभर कर हमारे सामने आया कि कई वर्षों पहले अर्थात् आजादी के पूर्व बनारस में अधिकांश रुप से कच्चे रेशमी धागे सर्वाधिक रुप से कश्मीर, चीन, जापान, कोरिया तथा बंगलादेश (ढाका) एवं पश्चिम बंगाल से मंगाये जाते थे।
कतान
यहां रेशम में 'मलवरी' रेशम का प्रयोग किया जाता है। मलवरी रेशम 2 प्लाई टवीस्टेड यार्न होता है जिसे बनारसी या यों कहें कि बिनकारी की भाषा में 'कतान' कहा जाता है। कतान एक किलो के लच्छा या गुण्डी में रहता है। इसे साबून और पानी डालकर भट्टी में डि-गमड (गोंद तथा चिपचिपाहट रहित) किया जाता है और अन्ततः ब्लीच किया जाता है। डिगम्ड बहुत ही उच्च ताप पर किया जाता है। डिगमींग तथा ब्लीचिंग की प्रक्रिया पूर्ण हो जाने पर कतान के गुच्छे को रंगरेज को रंगने के लिए दिया जाता है। रेशमी धागों को रंगना भी एक जटिल प्रक्रिया है साथ ही साथ यह महंगी भी है।
- डिगमींग का काम सारे लोग नहीं करते। कुछ ख़ास परिवार इस कला में पारंगत होते हैं। डिगमींग के बाद सूत के लच्छे के वजन में लगभग 250 ग्राम तक की कमी आ जाती है। एक किलो का लच्छा घटकर 750 ग्राम तक हो जाता है।
- रंगने की प्रक्रिया भी सभी बिनकर स्वयं नहीं करते हैं। हालांकि ज्यादेतर गीरस्ता स्वयं ही लच्छे को रंगकर फिर बिनकर को बिनने के लिए देते हैं। और अगर बिनकर स्वतंत्र है तो वह फिर स्वयं या किसी डायर से गुच्छे को इच्छित रंग में रंगवा लेता है।
- रंगाई की प्रक्रिया समाप्त हो जाने पर गुच्छे को बोबिन बाइन्डर से सुलझाया जाता है (या फिर यों कहें कि बोबिन में लपेटा जाता है।) उसके बाद ताना बनाया जाता है। एक ताने की लम्बाई सामान्यतया 25 मीटर की होती है, जिससे चार साड़ी आसानी से बनाया जा सके। ताना बनाने का काम बिनकर स्वयं करता है, किन्तु अगर ताने में विभिन्न रंगों के धागे का प्रयोग करना हो (किसी ख़ास डिजाइन के लिए), तो पुराने ताने में नए रंगीन ताने को बिनकर स्वयं नहीं करता बल्कि जो इसके विशेषज्ञ होते हैं, उनकी सहायता ली जाती है।
- ताना बनाकर फिर उसके एक-एक ताग को सुलझाकर लपेटन में लपेट लिया जाता है। ताना बन जाने पर फिर उसे हथकरघे पर बैठा दिया जाता है। साथ ही साथ इच्छित डिजाईन जिसे कपड़े पर उतारना है, नक्शेबन्द से बनवाया जाता है और फिर नक्शेबन्द के डिजाइन जो ग्राफ पेपर में बना होता है के आधार पर डिजाइन की पट्टी कुट पर जेक्वार्ड कार्ड पंचर द्वारा छेद किया जाता है। अन्त में जक्वार्ड से जाला को ठीक से सजाया जाता है। हरेक ताने को जाले से टांक दिया जाता है। उसके बाद बिनने की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है।
बनारस की वस्र कला बहुत ही प्राचीन है। यों तो यहां की बिनने की परम्परा बनारस ज़िले के अलावे मऊ, बलिया और यहां तक कि पड़ोसी राज्य बिहार के पटना, फतुआ, औरंगाबाद तक फैल गया है।
मोटिफ
मोटिफ | सामान्य विवरण | पैटर्न |
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बूटी | बूटी छोटे-छोटे तस्वीरों की आकृति लिए हुए होता है। इसके अलग-अलग पैटर्न को दो या तीन रंगो के धागे की सहायता से बनाये जाते हैं। यह बनारसी साड़ी के लिए प्रमुख आवश्यक तथा महत्त्वपूर्ण आकृतियों में से एक है। इससे साड़ी की जमीन या मुख्य भाग को सुसज्जित किया जाता है। पहले रंग को 'हुनर का रंग ' कहा जाता है। जो सामान्यतया गोल्ड या सिल्वर धागे को एक एक्सट्रा भरनी से बनाया जाता है हालांकि आजकल इसके लिए रेशमी धागों का भी प्रयोग किया जाता है जिसे मीना कहा जाता है जो रेशमी धागे से ही बनता है। सामान्यतया मीने का रंग हुनर के रंग का होने चाहिए। |
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बूटा | जब बूटी के आकृति को बड़ा कर दिया जाता है तो इस बढ़े हुए आकृति को बूटा कहा जाता है। छोटे हरे पेड़-पौधे जिसके साथ छोटी-छोटी पत्तियां तथा फूल लगे हों इसी आकृति को बूटे से उभारा जाता है। यह पेड़ पौधे भी हो सकता है और कुछ फूल भी हो सकता है। गोल्ड, सिल्वर या रेशमी धागे या इनके मिश्रण से बूटा काढ़ा जाता है। रंगों का चयन डिजाइन तथा आवश्यकता के अनुसार किया जाता है। बूटा साड़ी के बॉर्डर, पल्लव तथा आंचल में काढ़ा जाता है जबकि ब्रोकेड के आंगन में इसे काढ़ा जाता है। कभी-कभी साड़ी के किनारे में एक ख़ास कि के बूटे को काढ़ा जाता है, जिसे यहां के लोग अपनी भाषा में कोनिया कहते हैं। |
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कोनिया | जब एक ख़ास आकृति के बूटे को बनारसी वस्रों के कोने में काढ़ा जाता है तो उसे कोनिया कहते हैं। आकृति को इस तरह से बनाया जाता है जिससे वे कोने के आकार में आसानी से आ सकें तथा बूटे से वस्र और अच्छी तरह से अलंकृत हो सके। जिन वस्रों में स्वर्ण तथा चांदी धागों का प्रयोग किया जाता है उन्हीं में कोनिया को बनाया (काढ़ा) जाता है। सामान्यतया कोनिया काढ़ने के रिए रेशमी धागों का प्रयोग नहीं किया जाता है, क्योंकि रेशमी धागों से शुद्ध फूल पत्तियों का डिजाइन सही ढ़ग से नहीं उभर पाता। |
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बेल | यह एक आरी या धारीदार फूल पत्तियों या ज्यामितीय ढंग से सजाए गए डिजाइन होते हैं। इन्हें क्षैतिज आरे या टेड़े मेड़े तरीके से बताया जाता है, जिससे एक भाग को दूसरे भाग से अलग किया जा सके। कभी-कभी बूटियों को इस तरह से सजाया जाता है कि वे पट्टी का रुप ले लें। भिन्न-भिन्न जगहों पर अलग-अलग तरीके के बेल बनाए जाते हैं। |
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जाल और जंगला |
जाल जैसे नाम से ही स्पष्ट होता है जाल के आकृति लिए हुए होते हैं। जाल एक प्रकार का पैटर्न है, जिसमें बूटी को साड़ी के में सजाया जाता है। |
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झालर | बॉर्डर के तुरंत बाद जहां कपड़े का मुख्य भाग जिसे अंगना कहा जाता है कि शुरुआत होती है वहां एक ख़ास डिजाइन वस्र को और अधिक अलंकृत करने के लिए दिया जाता है तो इसे झालर कहा जाता है। सामान्यतया यह बॉर्डर के डिजाइन से रंग तथा मटेरियल में मिलता होता है। |
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कला को जीवित रखने की विवशता
पहले शुद्ध सोने तथा चांदी से ज़री बनाया जाता था। अतः जब साड़ी पहनने लायक़ नहीं भी रहती थी तो जलाकर ख़ासी मात्रा में सोना या चांदी इकट्ठा कर लिया जाता था। यकायक 1977 में चांदी के भाव बहुत बढ़ गया। बढ़े भाव के चांदी से जरी बनाना बड़ा ही महंगा साबित हुआ। इसका नतीजा यह निकला की साड़ी की कीमत काफ़ी बढ़ गयी। बढ़ी हुई कीमत में लोग साड़ी ख़रीदने से कतराने लगे। ऐसा लगने लगा मानो अब बनारसी बिनकारी लगभग समाप्त ही हो जाएगी। यह भी एक संयोग ही था कि लगभग उसी समय गुजरात के शहर सूरत में नकली ज़री का निर्माण प्रारंभ हो गया था। नकली ज़री देखने में बिलकुल असली ज़री के जैसी ही थी परन्तु इसकी कीमत असली जड़ी के दसवें हिस्से से भी कम पड़ती थी। कुछ बिनकरों ने इस नकली ज़री का प्रयोग किया। प्रयोग सफल रहा और धीरे धीरे असली ज़री का स्थान नकली जरी ने ले लिया। साड़ी की मांग पुनः बाज़ार में जोरो के साथ बढ़ गयी। बुनकर बिरादरी फिर अपनी ढ़रकी और पौसार के आवाज में मस्त होकरबिनकरी के पेशे में तल्लीन हो गये।
वे नकली ज़री के कार्य में इतना खो गए कि धीरे-धीरे ऐसा लगने लगा कि असली ज़री का नामो-निशान मिट जाएगा। इसी बीच 1988-1989 के लगभग कुछ लोगों (भारतीय रईस) तथा विदेशियों ने बनारसी साड़ी तथा वस्र में असली ज़री लगवाने की इच्छा व्यक्त की। वर्तमान में कुछ बिनकर पहले दिए गए ऑर्डर के वस्रों तथा साड़ियों में असली ज़री लगाते हैं। हालांकि असली ज़री का प्रयोग बहुत ही कम होता है, फिर भी परम्परा जीवित है।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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