मुग़लकालीन शासन व्यवस्था

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मुग़लकालीन शासन व्यवस्था के बारे में कुछ महत्वपूर्ण कृतियों से जानकारी मिलती है। ये कृतियाँ हैं - 'आईना-ए-अकबरी', 'दस्तूर-उल-अमल', 'अकबरनामा', 'इकबालनामा', 'तबकाते अकबरी', 'पादशाहनामा', 'बहादुरशाहनामा', 'तुजुक-ए-जहाँगीरी', 'मुन्तखब-उत-तवारीख़' आदि। इसके अतिरिक्त कुछ विदेशी पर्यटक जैसे 'टामस रो', 'हॉकिन्स', 'फ्रेंसिस बर्नियर', 'डाउंटन' एवं 'टैरी' से भी 'मुग़लकालीन शासन व्यवस्था के बारें में जानकारी मिलती है।

प्रशासन-स्वरूप

मुग़लकालीन शासन व्यवस्था अत्यधिक केन्द्रीकृत नौकरशाही व्यवस्था थी। इसमें भारतीय तथा विदेशी (फ़ारसअरब) तत्वों का सम्मिश्रण था। मुग़ल साम्राज्य के संस्थापक बाबर ने दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों से अलग ‘पादशह’ की उपाधि ग्रहण की। पादशाह शब्द के ‘पाद’ का शाब्दिक अर्थ है- 'स्थायित्व एवं स्वामित्व' तथा 'शाह' का अर्थ है- 'मूल एवं स्वामी'। इस तरह पूरे शब्द ‘पादशाह’ का शाब्दिक अर्थ है- ‘ऐसा स्वामी या शक्तिशाली राजा, जिसे उपदस्थ न किया जा सके। ’ मुग़ल साम्राज्य चूँकि पूर्ण रूप से केन्द्रीकृत था, इसलिए ‘पादशाह’ की शक्ति असीम थी। नियम बनाना, उसको लागू करना, न्याय करना आदि उसके सर्वोच्च अधिकार थे। मुग़ल बादशाहों ने नाममात्र के लिए भी ख़लीफ़ा का अधिपत्य स्वीकार नहीं किया। हुमायूँ बादशह को पृथ्वी पर ख़ुदा का प्रतिनिधि मानता था। मुग़लकालीन शासकों में बाबर, हुमायूँ, औरंगज़ेब ने अपना शासन आधार कुरान को बनाया, परन्तु इस परम्परा का विरोंध करते हुए अकबर ने अपने को साम्राज्य की समस्त जनता का शासक बताया। मुग़ल बादशाह भी शासन की सम्पूर्ण शक्तियों को अपने में समेटे हुए पूर्णरूप से निरकुंश थे, परन्तु स्वेच्छाचारी नहीं थे। इन्हें ‘उदार निरंकुश’ शासक भी कहा जाता था।

मंत्रिपरिषद

सम्राट को प्रशासन की गतिविधियों को भली-भाँति संचालित करने के लिए एक मंत्रिपरिषद की आवश्यकता होती थी। बाबर के शासन काल में वज़ीर का पद काफ़ी महत्वपूर्ण था, परन्तु कालान्तर में यह पद महत्वहीन हो गया। वज़ीर राज्य का प्रधानमंत्री होता था। अकबर के समय प्रधानमंत्री को ‘वकील’ और वितमंत्री को ‘वज़ीर’ कहते थे। आरंभ में वज़ीर राजस्व विभाग का सर्वोच्च अधिकारी था, किन्तु कालान्तर में अन्य विभागों पर उसका अधिकार हो गया।

वकील (वकील-ए-मुतलक)

सम्राट के बाद शासन के कार्यों को संचालित करने वाला सबसे महत्वपूर्ण अधिकारी वकील था। अकबर का वकील बैरम ख़ाँ चूँकि अपने अधिकारों का दुरुपयोग करने लगा था, इसलिए अकबर ने इस पद के महत्व को कम करने के लिए अपने शासनकाल के आठवें वर्ष में एक नया पद ‘दीवान-ए-वज़ीरात-ए-कुल’ की स्थापना की, जिसका मुख्य कार्य था- ‘राजस्व एवं वित्तीय’ मामलों का प्रबन्ध देखना। बैरम ख़ाँ के पतन के बाद अकबर ने मुनअम ख़ाँ को वकील के पद पर नियुक्त किया। परन्तु वह नाम मात्र का ही वकील था।

दीवान या वज़ीर

फ़ारसी मूल के शब्द दीवान का नियंत्रण राजस्व एवं वित्तीय विभाग पर होता था। अकबर के समय में उसका वित्त विभाग दीवान मुज़फ्फर ख़ान, राजा टोडरमल एवं ख्वाजाशाह मंसूर के अधीन 23 वर्षों तक रहा। जहाँगीर अफ़ज़ल ख़ाँ, इस्लाम ख़ान एवं सादुल्ला ख़ाँ के अधीन राजस्व विभाग लगभग 32 वर्षों तक रहा। औरंगजेब के समय में ‘असंद ख़ान’ सर्वाधिक 31 वर्षों तक दीवान या वज़ीर के निरीक्षण में कार्य करने वाले मुख्य विभाग 'दीवान-ए-खालसा' (खालसा भूमि के लिए), 'दीवान-ए-तन' (नक़द तनख़्वाहों के लिए), 'दीवान-ए-तबजिह' (सैन्य लेखा-जोखा के लिए ), 'दीवान-ए-जागीर' (राजस्व के कार्यों के लिए दिया जाने वाला वेतन), 'दीवान-ए-बयूतात' (मीर समान विभाग के लिए), 'दीवान-ए-सादात' (धार्मिक मामलों का लेखा-जोखा) आदि थे।

मीर बख्शी

इसके पास ‘दीवान आजिर’ के समस्त अधिकार होते थे। मुग़लों की मनसबदारी व्यवस्था के कारण यह पद और भी महत्वपूर्ण हो गया था। मीर बख़्शी द्वारा ‘सरखत’ नाम के पत्र पर हस्ताक्षर के बाद ही सेना को हर महीने का वेतन मिला पाता था। मीर बख़्शी के दो अन्य सहायक ‘बख़्शी-ए-हुजूर' व बख़्शी-ए-शहगिर्द थे। मनसबदारों की नियुक्ति, सैनिकों की नियुक्ति, उनके वेतन, प्रशिक्षण एवं अनुशासन की ज़िम्मेदारी व घोड़ों को दागने एवं मनसबदारों के नियंत्रण में रहने वाले सैनिकों की संख्या का निरीक्षण आदि ज़िम्मेदारी का निर्वाह मीर बख़्शी को करना होता था। प्रान्तों में नियुक्त ‘वकियानवीस’ मीर बख़्शी को सीधे संन्देश देता था।






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टीका टिप्पणी और संदर्भ