हुमायूँ
हुमायूँ
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पूरा नाम | नासिरुद्दीन मुहम्मद हुमायूँ |
अन्य नाम | हुमायूँ |
जन्म | 6 मार्च, सन् 1508 ई. |
जन्म भूमि | क़ाबुल |
मृत्यु तिथि | 27 जनवरी, सन् 1555 ई. |
मृत्यु स्थान | दिल्ली |
पिता/माता | बाबर, माहम बेगम |
पति/पत्नी | हमीदा बानू बेगम, बेगा बेगम, बिगेह बेगम, चाँद बीबी, हाज़ी बेगम, माह-चूचक, मिवेह-जान, शहज़ादी ख़ानम |
संतान | पुत्र-अकबर, मिर्ज़ा मुहम्मद हाकिम पुत्री- अकीकेह बेगम, बख़्शी बानु बेगम, बख्तुन्निसा बेगम |
राज्य सीमा | उत्तर और मध्य भारत |
शासन काल | 26 दिसंबर, 1530 - 17 मई, 1540 ई. और 22 फ़रवरी, 1555 - 27 जनवरी, 1556 ई. |
शा. अवधि | लगभग 11 वर्ष |
राज्याभिषेक | 30 दिसम्बर, सन् 1530 ई. आगरा |
धार्मिक मान्यता | इस्लाम धर्म |
युद्ध | 1554 ई. में भारत पर आक्रमण |
पूर्वाधिकारी | बाबर |
उत्तराधिकारी | अकबर |
राजघराना | मुग़ल |
मक़बरा | हुमायूँ का मक़बरा |
संबंधित लेख | मुग़ल काल |
नासिरुद्दीन मुहम्मद हुमायूँ (अंग्रेज़ी: Humayun, जन्म: 6 मार्च, 1508 ई. - मृत्यु: 27 जनवरी, 1555 ई.) एक प्रसिद्ध मुग़ल शासक था। हुमायूँ का जन्म बाबर की पत्नी ‘माहम बेगम’ के गर्भ से 6 मार्च, 1508 ई. को काबुल में हुआ था। बाबर के 4 पुत्रों- हुमायूँ, कामरान, अस्करी और हिन्दाल में हुमायूँ सबसे बड़ा था। बाबर ने हुमायूँ को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था। भारत में राज्याभिषेक के पूर्व 1520 ई. में 12 वर्ष की अल्पायु में उसे बदख्शाँ का सूबेदार नियुक्त किया गया। बदख्शाँ के सूबेदार के रूप में हुमायूँ ने भारत के उन सभी अभियानों में भाग लिया, जिनका नेतृत्व बाबर ने किया था।
राज्याभिषेक
26 दिसम्बर, 1530 ई. को बाबर की मृत्यु के बाद 30 दिसम्बर, 1530 ई. को 23 वर्ष की आयु में हुमायूँ का राज्याभिषेक किया गया। बाबर ने अपनी मृत्यु से पूर्व ही हुमायूँ को गद्दी का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। हुमायूँ को उत्तराधिकार देने के साथ ही साथ बाबर ने विस्तृत साम्राज्य को अपने भाईयों में बाँटने का निर्देश भी दिया था, अतः उसने असकरी को सम्भल, हिन्दाल को मेवात तथा कामरान को पंजाब की सूबेदारी प्रदान की थी।
साम्राज्य का इस तरह से किया गया विभाजन हुमायूँ की भयंकर भूलों में से एक था, जिसके कारण उसे अनेक आन्तरिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा और कालान्तर में हुमायूँ के भाइयों ने उसका साथ नहीं दिया। वास्तव में अविवेकपूर्णढंग से किया गया साम्राज्य का यह विभाजन, कालान्तर में हुमायूँ के लिए घातक सिद्ध हुआ। यद्यपि उसके सबसे प्रबल शत्रु अफ़ग़ान थे।, किन्तु भाइयों का असहयोग और हुमायूँ की कुछ व्यैक्तिक कमज़ोरियाँ उसकी असफलता का कारण सिद्ध हुईं।
सैन्य अभियान
हुमायूँ ने अपने विजय अभियान के तहत कई प्रदेशों को विजित किया। उसके द्वारा जिन प्रदेशों के ख़िलाफ़ अभियान चलाया गया, वे निम्नलिखित हैं-
कालिंजर का आक्रमण (1531 ई.)
हुमायूँ को कालिंजर अभियान गुजरात के शासक बहादुर शाह की बढ़ती हुई शक्ति को रोकने के लिए करना पड़ा। कालिंजर पर आक्रमण हुमायूँ का पहला आक्रमण था। कालिंजर के किले पर आक्रमण के समय ही उसे यह सूचना मिली कि, अफ़ग़ान सरदार महमूद लोदी बिहार से जौनपुर की ओर बढ़ रहा है। अतः कालिंजर के राजा प्रतापरुद्र देव से धन लेकर हुमायूँ वापस जौनपुर की ओर चला गया।
दौहरिया का युद्ध (1532 ई.)
जौनपुर की ओर अग्रसर हुमायूँ की सेना एवं महमूद लोदी की सेना के बीच अगस्त, 1532 ई. में दौहारिया नामक स्थान पर संघर्ष हुआ, जिसमें महमूद की पराजय हुई। इस युद्ध मे अफ़ग़ान सेना का नेतृत्व महमूद लोदी ने किया था।
चुनार का घेरा (1532 ई.)
हुमायूँ के चुनार के क़िले पर आक्रमण के समय यह क़िला अफ़ग़ान नायक शेरशाह (शेर ख़ाँ) के क़ब्ज़े में था। 4 महीने लगातार क़िले को घेरे रहने के बाद शेर ख़ाँ एवं हुमायुँ में एक समझौता हो गया।
समझौते के अन्तर्गत शेर ख़ाँ ने हुमायूँ की अधीनता स्वीकार करते हुए, अपने पुत्र कुतुब ख़ाँ को एक अफ़ग़ान सैनिक टुकड़ी के साथ हुमायूँ की सेना में भेजना स्वीकार कर लिया तथा बदले में चुनार का क़िला शेर ख़ाँ के अधिकार में छोड़ दिया गया। हुमायूँ का खेर ख़ाँ को बिना पराजित किये छोड़ देना उसकी एक और बड़ी भूल थी। इस सुनहरे मौके का फ़ायदा उठाकर शेर ख़ाँ ने अपनी शक्ति एवं संसाधनों में वृद्धि कर ली। दूसरी तरफ़ हुमायूँ ने इस बीच अपने धन का अपव्यय किया तथा 1533 ई. हुमायूँ ने दिल्ली में ‘दीनपनाह’ नाम के एक विशाल दुर्ग का निर्माण करवाया, जिसका उद्देश्य था- मित्र एवं शत्रु को प्रभावित करना।
- 1534 ई. में बिहार में मुहम्मद जमान मिर्ज़ा एवं मुहम्मद सुल्तान मिर्ज़ा के विद्रोह को हुमायूँ ने सफलतापूर्वक दबाया।
बहादुर शाह से युद्ध (1535-1536 ई.)
गुजरात के शासक बहादुर शाह ने 1531 ई. में मालवा तथा 1532 ई. में ‘रायसीन’ के क़िले पर अधिकार कर लिया। 1534 ई. में उसने चित्तौड़ पर आक्रमण कर उसे संधि के लिए बाध्य किया। बहादुर शाह ने टर्की के कुशल तोपची रूमी ख़ाँ की सहायता से एक बेहतर तोपखाने का निर्माण करवाया।
दूसरी तरफ़ शेर ख़ाँ ने ‘सूरजगढ़ के राज’ में बंगाल को हराकर काफ़ी सम्मान अर्जित किया। उसकी बढ़ती हुई शक्ति हुमायूँ के लिए चिन्ता का विषय थी, पर हुमायूँ की पहली समस्या बहादुर शाह था। बहादुर शाह एवं हुमायूँ के मध्य 1535 ई. में ‘सारंगपुर’ में संघर्ष हुआ। बहादुर शाह पराजित होकर मांडू भाग गया। इस तरह हुमायूँ द्वारा मांडू एवं चम्पानेर पर विजय के बाद मालवा एवं गुजरात उसके अधिकार में आ गए। इसके पश्चात् बहादुर शाह ने चित्तौड़ का घेरा डाला। चित्तौड़ के शासक विक्रमाजीत की माँ कर्णवती ने इस अवसर पर हुमायूँ को राखी भेजकर उससे बहादुर शाह के विरुद्ध सहायता माँगी। हालाँकि बहादुर शाह के एक काफ़िर राज्य की सहायता न करने के निवेदन को हुमायूँ द्वारा स्वीकार कर लिया गया। एक वर्ष बाद बहादुर शाह ने पुर्तग़ालियों के सहयोग से पुनः 1536 ई. में गुजरात एवं मालवा पर अधिकार कर लिया, परन्तु फ़रवरी, 1537 ई. में बहादुर शाह की मृत्यु हो गई।
शेरशाह से संघर्ष (1537 ई.-1540 ई.)
1537 ई. के अक्टूबर महीने में हुमायूँ ने पुनः चुनार के क़िले पर घेरा डाला। शेर ख़ाँ (शेरशाह) के पुत्र कुतुब ख़ाँ ने हुमायूँ को लगभग छह महीने तक क़िले पर अधिकर नहीं करने दिया। अन्ततः हुमायूँ ने कूटनीति एवं तोपखाने के प्रयोग से क़िले पर क़ब्ज़ा कर लिया। इन छह महीनों के दौरान शेर ख़ाँ ने बंगाल अभियान में सफलता प्राप्त कर गौड़ के अधिकांश ख़ज़ाने को रोहतास के क़िले में जमा कर लिया।
चुनार की सफलता के बाद हुमायूँ ने बंगाल पर विजय प्राप्त की। वह गौड़ में 1539 ई. तक रहा। 15 अगस्त, 1538 ई. को जब हुमायूँ ने बंगाल के गौड़ क्षेत्र में प्रवेश किया, तो उसे वहाँ पर चारों ओर उजाड़ एवं लाशों का ढेर दिखाई पड़ा। हुमायूँ ने इस स्थान का पुर्ननिर्माण कर इसका नाम ‘जन्नताबाद’ रखा।
चौसा का युद्ध
26 जून, 1539 ई. को हुमायूँ एवं शेर ख़ाँ की सेनाओं के मध्य गंगा नदी के उत्तरी तट पर स्थित 'चौसा' नामक स्थान पर संघर्ष हुआ। यह युद्ध हुमायूँ अपनी कुछ ग़लतियों के कारण हार गया। संघर्ष में मुग़ल सेना की काफ़ी तबाही हुई। हुमायूँ ने युद्ध क्षेत्र से भागकर एक भिश्ती का सहारा लेकर किसी तरह गंगा नदी पार कर अपने जान बचाई। जिस भिश्ती ने चौसा के युद्ध में उसकी जान बचाई थी, उसे हुमायूँ ने एक दिन के लिए दिल्ली का बादशाह बना दिया था। चौसा के युद्ध में सफल होने के बाद शेर ख़ाँ ने अपने को 'शेरशाह' (राज्याभिषेक के समय) की उपाधि से सुसज्जित किया, साथ ही अपने नाम के खुतबे खुदवाये तथा सिक्के ढलवाने का आदेश दिया।
बिलग्राम की लड़ाई (17 मई, 1540 ई.)
बिलग्राम व कन्नौज में लड़ी गई इस लड़ाई में हुमायूँ के साथ उसके भाई हिन्दाल एवं अस्करी भी थे, फिर भी पराजय ने हुमायूँ का साथ नहीं छोड़ा। इस युद्ध की असफलता के बाद शेर ख़ाँ ने सरलता से आगरा और दिल्ली पर फिर से अधिकार लिया। इस तरह से हिन्दुस्तान की राजसत्ता एक बार फिर से अफ़ग़ानों के हाथ में आ गई।
शेरशाह से परास्त होने के उपरान्त हुमायूँ सिंध चला गया, जहाँ उसने लगभग 15 वर्ष तक घुमक्कड़ों जैसे निर्वासित जीवन व्यतीत किया। इस निर्वासन के समय ही हुमायूँ ने हिन्दाल के आध्यात्मिक गुरु फ़ारसवासी शिया मीर बाबा दोस्त उर्फ ‘मीर अली अकबरजामी’ की पुत्री हमीदा बेगम से 29 अगस्त, 1541 ई. को निकाह कर लिया, कालान्तर में हमीदा से ही अकबर जैसे महान् सम्राट का जन्म हुआ।
हुमायूँ द्वारा पुन: राज्य−प्राप्ति
हुमायूँ लगभग 14 वर्ष तक क़ाबुल में रहा। हुमायूँ ने पुनः 1545 ई. में कंधार एवं काबुल पर अधिकार कर लिया। शेरशाह के पुत्र इस्लामशाह की मुत्यु के बाद हुमायूँ को हिन्दुस्तान पर अधिकार का पुनः अवसर मिला। 5 सितम्बर, 1554 ई. में हुमायूँ अपनी सेना के साथ पेशावर पहुँचा। फ़रवरी, 1555 ई. को उसने लाहौर पर क़ब्ज़ा कर लिया।
मच्छिवारा का युद्ध (15 मई, 1555 ई.)
लुधियाना से लगभग 19 मील पूर्व में सतलुज नदी के किनारे स्थित 'मच्छीवारा' स्थान पर हुमायूँ एवं अफ़ग़ान सरदार नसीब ख़ाँ एवं तातार ख़ाँ के बीच संघर्ष हुआ। संघर्ष का परिणाम हुमायूँ के पक्ष में रहा। सम्पूर्ण पंजाब मुग़लों के अधिकार में आ गया।
सरहिन्द का युद्ध (22 जून, 1555 ई.)
इस संघर्ष में अफ़ग़ान सेना का नेतृत्व सुल्तान सिकन्दर सूर एवं मुग़ल सेना का नेतृत्व बैरम ख़ाँ ने किया। इस संघर्ष में अफ़ग़ानों की पराजय हुई। 23 जुलाई, 1555 ई. के शुभ क्षणों में एक बार पुनः दिल्ली के तख्त पर हुमायूँ को बैठने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
मृत्यु
दिल्ली के तख्त पर बैठने के बाद यह हुमायूँ का दुर्भाग्य ही था कि, वह अधिक दिनों तक सत्ताभोग नहीं कर सका। जनवरी, 1556 ई. में ‘दीनपनाह’ भवन में स्थित पुस्तकालय की सीढ़ियों से गिरने के कारण हुमायूँ की मुत्यु हो गयी। हुमायूँ के बारे में इतिहासकार 'लेनपूल' ने कहा है कि, "हुमायूं गिरते पड़ते इस जीवन से मुक्त हो गया, ठीक उसी तरह, जिस तरह तमाम-ज़िन्दगी वह गिरते-पड़ते चलता रहा था"। हुमायूँ को अबुल फ़ज़ल ने 'इन्सान-ए-कामिल' कहकर सम्बोधित किया है। हुमायूँ अफ़ीम खाने का शौक़ीन था।
चूँकि हुमायूँ ज्योतिष में विश्वास करता था, इसलिए उसने सप्ताह के सातों दिन सात रंग के कपड़े पहनने के नियम बनाये। वह मुख्यतः रविवार को पीला रंग, शनिवार को काला रंग एवं सोमवार को सफ़ेद रंग के कपड़े पहनता था।
मुग़ल राज्य की स्थापना
जिस समय हुमायूँ की मृत्यु हुई उस समय उसका पुत्र अकबर 13−14 वर्ष का बालक था। हुमायूँ के बाद उसके पुत्र अकबर को उत्तराधिकारी घोषित किया गया और उसका संरक्षक बैरम ख़ाँ को बनाया गया। तब हेमचंद्र सेना लेकर दिल्ली आया और उसने मु्ग़लों को वहाँ से भगा दिया। लेकिन हेमचंद्र की भी पराजय 6 नवंबर सन् 1556 में पानीपत के मैदान में हो गई। उसी दिन से भारत में स्वतंत्र हिन्दू राज्य की स्थापना का सपना टूट गया और बालक अकबर के नेतृत्व में मुग़लों का शासन जम गया।
वीथिका
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हुमायूँ
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हुमायूँ
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तैमूर, बाबर और हुमायूँ
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हुमायूँ का मक़बरा
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