वियोगी हरि

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
रविन्द्र प्रसाद (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 06:36, 23 अक्टूबर 2012 का अवतरण (''''वियोगी हरि''' (जन्म- 1895, छतरपुर; मृत्यु- 1988 ई.) [[हिन्द...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें

वियोगी हरि (जन्म- 1895, छतरपुर; मृत्यु- 1988 ई.) हिन्दी साहित्य के प्रसिद्ध साहित्यकार थे। वे आधुनिक ब्रजभाषा के प्रमुख कवि, हिन्दी के सफल गद्यकार, गाँधीवादी और एक समाज सेवी संत थे। इनकी सबसे महत्त्वपूर्ण कृति 'वीर-सतसई' थी, जिसके लिए इन्हें 'मंगलाप्रसाद पारितोषिक' दिया गया था। वियोगी हरि ने अनेक ग्रंथों का संपादन, प्राचीन कविताओं का संग्रह तथा संतों की वाणियों को संकलित किया था। निबन्ध, नाटक, कविता, गद्यगीत तथा बालोपयोगी पुस्तकें भी इन्होंने लिखीं।

जन्म तथा शिक्षा

वियोगी हरि का जन्म वर्ष 1895 में छतरपुर राज्य के एक कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनका पालन-पोषण एवं शिक्षा ननिहाल में घर पर ही हुई। शिक्षा आदि के कार्य में वे प्रारम्भ से ही मेधावी रहे थे। उन्होंने अनेक ग्रंथों का संपादन, प्राचीन कविताओं का संग्रह तथा संतों की वाणियों का संकलन किया।

कविता संग्रह

'हरिजन सेवक संघ', 'गाँधी स्मारक निधि' तथा 'भूदान आंदोलन' में भी वियोगी हरि सक्रिय रहे थे। उन्होंने लगभग 40 पुस्तकों की रचना की थी। इनके मुख्य कविता संग्रह इस प्रकार हैं-

  1. भावना
  2. प्रार्थना
  3. अंतर्नाद
  4. प्रेम-शतक
  5. मेवाड-केसरी
  6. वीर-सतसई
  7. महाराणा प्रताप
  1. देशद्रोह
  1. व्यर्थ गर्व
महाराणा प्रताप

अणु-अणु पै मेवाड़ के, छपी तिहारी छाप।
तेरे प्रखर प्रताप तें, राणा प्रबल प्रताप॥
जगत जाहिं खोजत फिरै, सो स्वतंत्रता आप।
बिकल तोहिं हेरत अजौं, राणा निठुर प्रताप॥
हे प्रताप! मेवाड मे, तुहीं समर्थ सनाथ।
धनि-धनि तेरे हाथ ये, धनि-धनि तेरो माथ॥
रजपूतन की नाक तूँ, राणा प्रबल प्रताप।
है तेरी ही मूँछ की राजस्थान में छाप॥
काँटे-लौं कसक्यौ सदा, को अकबर-उर माहिं।
छाँडि प्रताप-प्रताप जग, दूजो लखियतु नाहिं॥
ओ प्रताप मेवाड़ के! यह कैसो तुव काम?
खात लखनु तुव खडग पै, होत काल कौ नाम॥
उँमडि समुद्र लौं, ठिलें आप तें आप।
करुण-वीर-रस लौं मिले, सक्ता और प्रताप॥

देशद्रोह

भूलेहुँ कबहुँ न जाइए, देस-बिमुखजन पास।
देश-विरोधी-संग तें, भलो नरक कौ बास॥
सुख सों करि लीजै सहन, कोटिन कठिन कलेस।
विधना, वै न मिलाइयो, जे नासत निज देस॥
सिव-बिरंचि-हरिलोकँ, बिपत सुनावै रोय।
पै स्वदेस-बिद्रोहि कों, सरन न दैहै कोय॥


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख