अनुविधि
अनुविधि राज्य की प्रभुत्वसंपन्न शक्ति द्वारा निर्मित कानून को कहते हैं। अन्यान्य देशों में अनुविधि निर्माण की पृथक्-पृथक् प्रणालियाँ हैं जो वस्तुत: उस राज्य की शासनप्रणाली के अनुरूप होती हैं।
अंग्रेजी अनुविधि
अंग्रेजी कानून में जो अनुविधि है उसमें सन् 1235 ई. का 'स्टैट्यूट ऑव मर्टन' सबसे प्राचीन है। प्रारंभ में सभी अनुविधियाँ सार्वजनिक हुआ करती थीं। रिचर्ड तृतीय के काल में इसकी दो शाखाएँ हो गई-सार्वजनिक अनुविधि तथा निजी अनुविधि। वर्तमान अनुविधियाँ चार श्रोणियों में विभक्त हैं:-
1. सार्वजानिक साधारण अधिनियम,
2. सार्वजनिक स्थानीय तथा व्यक्तिगत अधिनियम,
3. निजी अधिनियम जो सम्राट् के मुद्रक द्वारा मुद्रित होते हैं,
4. निजी अधिनियम जो इस प्रकार मुद्रित नहीं होते। निजी अधिनियमों का अब व्यवहार रूप में लोप होता जा रहा है।
भारतीय अनुविधि
प्राचीन भारत में कोई अनुविधि प्रणाली नहीं थी। न्याय सिद्धांत एवं नियमों का उल्लेख मनु, याज्ञवल्क्य, नारद, व्यास, बृहस्पति, कात्यायन आदि स्मृतिकारों के ग्रंथों में तथा बाद में उनके भाष्यों में मिलता हैं मुस्लिम विधि प्रणाली में भी अनुविधियाँ नहीं पाई जातीं। अंग्रेजी राज्य के प्रारंभ में कुछ अनुविधियाँ 'विनियम' के रूप में आई। बाद में अनेक प्रमुख अधिनियमों का निर्माण हुआ; जैसे 'इंडियन पेनल कोड', 'सिविल प्रोसीजर कोड', 'क्रिमिनल प्रोसीजर कोड', 'एविडेंस ऐक्ट' आदि सन् 1935 ई. 'गवर्नमेंट ऑव इंडिया ऐक्ट' के द्वारा महत्वपूर्ण वैधानिक परिवर्तन हुए। 15 अगस्त् सन् 1947 ई. को भारत सवतंत्र हुआ और सन् 1950 ई. में स्वनिर्मित संविधान के अंतर्गत संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न लोकंतत्रात्मक गणराज्य बन गया। इसके पूर्ववर्ती अधिनियमों को मुख्य रूप में अपना लिया गया। तदुपरांत संसद् तथा राज्यों के विधानमंडलों द्वारा अनेक अत्यंत महत्वपूर्ण अधिनियमों का निर्माण हुआ जिनसे देश के राजनीतिक, वैधानिक, आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्रों में कांतिकारी परिवर्तन हुए।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 246 के अंतर्गत संसद तथा राज्यों के विधानमंडलों की विधि बनाने की शक्ति का विषय के आधार पर तीन विभिन्न सूचियों में वर्गीकरण किया गया है-
(1) संघसूची,
(2) समवर्ती सूची तथा
(3) राज्यसूची।
संसद् द्वारा निर्मित अधिनियमों में राष्ट्रपति तथा राज्य के विधानमंडल द्वारा निर्मित अधिनियमों में राज्यपाल की स्वीकृति आवश्यक है। समवर्ती सूची में प्रगणित विषयों के संबंध में यदि कोई अधिनियम राज्य के विधानमंडल द्वारा बनाया जाता है तो उसमें राष्ट्रपति की स्वीकृति अपेक्षित है (द्र. भारत का संविधान अनुच्छेद 245-255)।
साधारण:
(1) सार्वजनिक अधिनियम, जब तक विधि द्वारा अन्यथा उपबंध न हो, देश की समस्त प्रजा पर लागू होते हैं। भारत में निजी अधिनियम नहीं होते।
(2) प्रत्येक अधिनियम स्वीकृतिप्राप्ति की तिथि से चालू होता है, जब तक किसी अधिनियम में अन्य किसी तिथि का उल्लेख न हो।
(3) कोई अधिनियम प्रयोग के अभाव में अप्रयुक्त नहीं समझा जाता, जब तक उसका निरसन न हो।
(4) अनुविधि का शीर्षक, प्रस्तावना अथवा पार्श्वलेख उसका अंग नहीं होता, यद्यपि निर्वचन में उनकी सहायता ली जा सकती है।
प्राय:अधिनियमों का वर्गीकरण विषयवस्तु के आधार पर किया जाता है; जैसे, शाश्वत तथा अस्थायी, दंडनीय तथा लोकहितकारी, आज्ञापक तथा निदेशात्मक और सक्षमकारी तथा अयोग्यकारी।
(6) अस्थायी अधिनियम स्वयं उसी में निर्धारित तिथि को समाप्त हो जाता है।
(7) कतिपय अधिनियम प्रति वर्ष पारित होते हैं।
अधिनियम का निर्वचन:
किसी अधिनियम के निर्वचन के लिए हमें सामान्य विधि तथा उस अधिनियम का आश्रय लेना होता है। निर्वचन के मुख्य नियम इस प्रकार हैं:
(1) अधिनियम का निर्वचन उसकी शब्दावली की अपेक्षा उसके अभिप्राय तथा उद्देश्य के आधार पर करना चाहिए।
अधिनियम का देश की सामान्य विधि से जो संबंध है उसे ध्यान में रखना चाहिए।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 127 |