समुद्र मंथन
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विवरण | पुराणों में वर्णित एक प्रसिद्ध पौराणिक कथा है जिसमें देवताओं और दानवों ने मिलकर समुद्र का मंथन किया था। |
कारण | दुर्वासा ऋषि ने अपना अपमान होने के कारण देवराज इन्द्र को ‘श्री’ (लक्ष्मी) से हीन हो जाने का शाप दे दिया। भगवान विष्णु ने इंद्र को शाप मुक्ति के लिए असुरों के साथ 'समुद्र मंथन' के लिए कहा। |
संदर्भ ग्रंथ | कूर्म पुराण, अग्नि पुराण, ब्रह्माण्ड पुराण |
संबंधित लेख | बलि, क्षीरसागर, मन्दराचल पर्वत, वासुकि नाग, कूर्म अवतार, कौस्तुभ मणि, हलाहल विष, देवासुर संग्राम, राहु एवं केतु |
अन्य जानकारी | कहा जाता है समुद्र मंथन में चौदह (14) रत्नों की प्राप्ति हुई थी। |
समुद्र मंथन पुराणों में वर्णित एक प्रसिद्ध पौराणिक कथा है जिसमें देवताओं और दानवों ने मिलकर समुद्र का मंथन किया था।
समुद्र मंथन का कारण
एक बार की बात है शिवजी के दर्शनों के लिए दुर्वासा ऋषि अपने शिष्यों के साथ कैलाश जा रहे थे। मार्ग में उन्हें देवराज इन्द्र मिले। इन्द्र ने दुर्वासा ऋषि और उनके शिष्यों को भक्तिपूर्वक प्रणाम किया। तब दुर्वासा ने इन्द्र को आशीर्वाद देकर विष्णु भगवान का पारिजात पुष्प प्रदान किया। इन्द्रासन के गर्व में चूर इन्द्र ने उस पुष्प को अपने ऐरावत हाथी के मस्तक पर रख दिया। उस पुष्प का स्पर्श होते ही ऐरावत सहसा विष्णु भगवान के समान तेजस्वी हो गया। उसने इन्द्र का परित्याग कर दिया और उस दिव्य पुष्प को कुचलते हुए वन की ओर चला गया।
दुर्वाषा ऋषि का शाप
इन्द्र द्वारा भगवान विष्णु के पुष्प का तिरस्कार होते देखकर दुर्वाषा ऋषि के क्रोध की सीमा न रही। उन्होंने देवराज इन्द्र को ‘श्री’ (लक्ष्मी) से हीन हो जाने का शाप दे दिया। दुर्वासा मुनि के शाप के फलस्वरूप लक्ष्मी उसी क्षण स्वर्गलोक को छोड़कर अदृश्य हो गईं। लक्ष्मी के चले जाने से इन्द्र आदि देवता निर्बल और श्रीहीन हो गए। उनका वैभव लुप्त हो गया। इन्द्र को बलहीन जानकर दैत्यों ने स्वर्ग पर आक्रमण कर दिया और देवगण को पराजित करके स्वर्ग के राज्य पर अपनी परचम फहरा दिया। तब इन्द्र देवगुरु बृहस्पति और अन्य देवताओं के साथ ब्रह्माजी की सभा में उपस्थित हुए। तब ब्रह्माजी बोले —‘‘देवेन्द्र ! भगवान विष्णु के भोगरूपी पुष्प का अपमान करने के कारण रुष्ट होकर भगवती लक्ष्मी तुम्हारे पास से चली गयी हैं। उन्हें पुनः प्रसन्न करने के लिए तुम भगवान नारायण की कृपा-दृष्टि प्राप्त करो। उनके आशीर्वाद से तुम्हें खोया वैभव पुनः मिल जाएगा।’’
शाप मुक्ति का उपाय
इस प्रकार ब्रह्माजी ने इन्द्र को आस्वस्त किया और उन्हें लेकर भगवान विष्णु की शरण में पहुँचे। वहाँ परब्रह्म भगवान विष्णु भगवती लक्ष्मी के साथ विराजमान थे। देवगण भगवान विष्णु की स्तुति करते हुए बोले—‘‘भगवान् ! आपके श्रीचरणों में हमारा बारम्बार प्रणाम। भगवान् ! हम सब जिस उद्देश्य से आपकी शरण में आए हैं, कृपा करके आप उसे पूरा कीजिए। दुर्वाषा ऋषि के शाप के कारण माता लक्ष्मी हमसे रूठ गई हैं और दैत्यों ने हमें पराजित कर स्वर्ग पर अधिकार कर लिया है। अब हम आपकी शरण में हैं, हमारी रक्षा कीजिए।’’ भगवान विष्णु त्रिकालदर्शी हैं। वे पल भर में ही देवताओं के मन की बात जान गए। तब वे देवगण से बोले—‘‘देवगण ! मेरी बात ध्यानपूर्वक सुनें, क्योंकि केवल यही तुम्हारे कल्याण का उपाय है। दैत्यों पर इस समय काल की विशेष कृपा है इसलिए जब तक तुम्हारे उत्कर्ष और दैत्यों के पतन का समय नहीं आता, तब तक तुम उनसे संधि कर लो। क्षीरसागर के गर्भ में अनेक दिव्य पदार्थों के साथ-साथ अमृत भी छिपा है। उसे पीने वाले के सामने मृत्यु भी पराजित हो जाती है। इसके लिए तुम्हें समुद्र मंथन करना होगा। यह कार्य अत्यंत दुष्कर है, अतः इस कार्य में दैत्यों से सहायता लो। कूटनीति भी यही कहती है कि आवश्यकता पड़ने पर शत्रुओं को भी मित्र बना लेना चाहिए। तत्पश्चात् अमृत पीकर अमर हो जाओ। तब दुष्ट दैत्य भी तुम्हारा अहित नहीं कर सकेंगे। देवगण ! वे जो शर्त रखें, उसे स्वाकीर कर लें। यह बात याद रखें कि शांति से सभी कार्य बन जाते हैं, क्रोध करने से कुछ नहीं होता।’’ भगवान विष्णु के परामर्श के अनुसार इन्द्रादि देवगण दैत्यराज बलि के पास संधि का प्रस्ताव लेकर गए और उन्हें अमृत के बारे में बताकर समुद्र मंथन के लिए तैयार कर लिया।
समुद्र मंथन कथा
इसी समय मेघ के समान गम्भीर स्वर में आकाशवाणी हुई- 'देवताओ और दैत्यो! तुम क्षीर समुद्र का मन्थन करो। इस कार्य में तुम्हारे बल की वृद्धि होगी, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। मन्दराचल को मथानी और वासुकी नाग को रस्सी बनाओ, फिर देवता और दैत्य मिलकर मन्थन आरम्भ करो।' यह आकाशवाणी सुनकर सहस्त्रों दैत्य और देवता समुद्र-मन्थन के लिये उद्यत हो सुवर्ण के सदृश कान्तिमान् मन्दराचल के समीप गये। वह पर्वत सीधा, गोलाकार, बहुत मोटा और अत्यन्त प्रकाशमान था। अनेक प्रकार के रत्न उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। चन्दन, पारिजात, नागकेशर, जायफल और चम्पा आदि भाँति-भाँति के वृक्षों से वह हरा-भरा दिखायी देता था।
मन्दराचल पर्वत
उस महान् पर्वत को देखकर सम्पूर्ण देवताओं ने हाथ जोड़कर कहा- 'दूसरों का उपकार करने वाले महाशैल मन्दराचल ! हम सब देवता तुमसे कुछ निवेदन करने के लिये यहाँ आये हैं, उसे तुम सुनो।' उनके यों कहने पर मन्दराचल ने देहधारी पुरुष के रूप में प्रकट होकर कहा- 'देवगण! आप सब लोग मेरे पास किस कार्य से आये हैं, उसे बताइये।' तब इन्द्र ने मधुर वाणी में कहा- 'मन्दराचल! तुम हमारे साथ रहकर एक कार्य में सहायक बनो; हम समुद्र को मथकर उससे अमृत निकालना चाहते हैं, इस कार्य के लिये तुम मथानी बन जाओ।' मन्दराचल ने 'बहुत अच्छा' कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार की और देवकार्य की सिद्धि के लिये देवताओं, दैत्यों तथा विशेषत: इन्द्र से कहा- 'पुण्यात्मा देवराज! आपने अपने वज्र से मेरे दोनों पंख काट डाले हैं, फिर आप लोगों के कार्य की सिद्धि के लिये वहाँ तक मैं चल कैसे सकता हूँ?' तब सम्पूर्ण देवताओं और दैत्यों ने उस अनुपम पर्वत को क्षीर समुद्र तक ले जाने की इच्छा से उखाड़ लिया; परंतु वे उसे धारण करने में समर्थ न हो सके। वह महान् पर्वत उसी समय देवताओं और दैत्यों के ऊपर गिर पड़ा। कई कुचले गये, कई मर गये, कई मूर्च्छित हो गये, कई एक-दूसरे को कोसने और चिल्लाने लगे तथा कुछ लोगों ने बड़े क्लेश का अनुभव किया। इस प्रकार उनका उद्यम और उत्साह भंग हो गया। वे देवता और दानव सचेत होने पर जगदीश्वर भगवान विष्णु की स्तुति करने लगे- 'शरणागतवत्सल महाविष्णो! हमारी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये। आपने ही इस सम्पूर्ण चराचर जगत् को व्याप्त कर रखा है।'
विष्णु और वासुकि नाग
उस समय देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये गरुड़ की पीठ पर बैठे हुए भगवान विष्णु सहसा वहाँ प्रकट हो गये। वे सबको अभय देने वाले हैं। उन्होंने देवताओं और दैत्यों की ओर दृष्टिपात करके खेल-खेल में ही उस महान् पर्वत को उठाकर गरुड़ की पीठ पर रख लिया। फिर वे देवताओं और दैत्यों को क्षीर-समुद्र के उत्तर-तट पर ले गये और पर्वतश्रेष्ठ मन्दराचल को समुद्र में डालकर तुरंत वहाँ से चल दिये। तदनन्तर सब देवता दैत्यों को साथ लेकर वासुकी नाग के समीप गये और उनसे भी अपनी प्रार्थना स्वीकार करायी। इस प्रकार मन्दराचल को मथानी और वासुकि-नाग को रस्सी बनाकर देवताओं और दैत्यों ने क्षीर-समुद्र का मन्थन आरम्भ किया। इतने में ही वह पर्वत समुद्र में डूबकर रसातल को जा पहुँचा। तब लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु ने कच्छपरूप धारण करके तत्काल ही मन्दराचल को ऊपर उठा दिया। उस समय यह एक अद्भुत घटना हुई। फिर जब देवता और दैत्यों ने मथानी को घुमाना आरम्भ किया, तब वह पर्वत बिना गुरु के ज्ञान की भाँति कोई सुदृढ़ आधार न होने के कारण इधर-उधर डोलने लगा। यह देख परमात्मा भगवान् विष्णु स्वयं ही मन्दराचल के आधार बन गये और उन्होंने अपनी चारों भुजाओं से मथानी बने हुए उस पर्वत को भली-भाँति पकड़कर उसे सुखपूर्वक घुमाने योग्य बना दिया। तब अत्यन्त बलवान् देवता और दैत्य एकीभूत हो अधिक ज़ोर लगाकर क्षीर-समुद्र का मन्थन करने लगे।
विष्णुजी का कच्छप रूप
कच्छप रूपधारी भगवान की पीठ जन्म से ही कठोर थी और उस पर घूमने वाला पर्वतश्रेष्ठ मन्दराचल भी वज्रसार की भाँति दृढ़ था। उन दोनों की रगड़ से समुद्र में बड़वानल प्रकट हो गया। साथ ही हलाहल विष उत्पन्न हुआ। उस विष को सबसे पहले नारद जी ने देखा। तब अमित तेजस्वी देवर्षि ने देवताओं को पुकार कर कहा- 'अदिति कुमारो! अब तुम समुद्र का मन्थन न करो। इस समय सम्पूर्ण उपद्रवों का नाश करने वाले भगवान शिव की प्रार्थना करो। वे परात्पर हैं, परमानन्दस्वरूप हैं तथा योगी पुरुष भी उन्हीं का ध्यान करते हैं।'
देवता अपने स्वार्थसाधन में संलग्न हो समुद्र मंथन रहे थे। वे अपनी ही अभिलाषा में तन्मय होने के कारण नारद जी की बात नहीं सुन सके। केवल उद्यम का भरोसा करके वे क्षीर-सागर के मन्थन में संलग्न थे। अधिक मन्थन से जो हलाहल विष प्रकट हुआ, वह तीनों लोकों को भस्म कर देने वाला था। वह प्रौढ़ विष देवताओं का प्राण लेने के लिये उनके समीप आ पहुँचा और ऊपर–नीचे तथा सम्पूर्ण दिशाओं में फैल गया। समस्त प्राणियों को अपना ग्रास बनाने के लिये प्रकट हुए उस कालकूट विष को देखकर वे सब देवता और दैत्य हाथ में पकड़े हुए नागराज वासुकि को मन्दराचल पर्वत सहित वहीं छोड़ भाग खड़े हुए। उस समय उस लोकसंहारकारी कालकूट विष को भगवान शिव ने स्वयं अपना ग्रास बना लिया। उन्होंने उस विष को निर्मल (निर्दोष) कर दिया। इस प्रकार भगवान शंकर की बड़ी भारी कृपा होने से देवता, असुर, मनुष्य तथा सम्पूर्ण त्रिलोकी की उस समय कालकूट विष से रक्षा हुई।
चन्द्रदेव का प्राकट्य
तदनन्तर भगवान विष्णु के समीप मन्दराचल को मथानी और वासुकि नाग को रस्सी बनाकर देवताओं ने पुन: समुद्र-मन्थन आरम्भ किया। तब समुद्र से देवकार्य की सिद्धि के लिये अमृतमयी कलाओं से परिपूर्ण चन्द्रदेव प्रकट हुए। सम्पूर्ण देवता, असुर और दानवों ने भगवान चंद्रमा को प्रणाम किया और गर्गाचार्य जी से अपने-अपने चन्द्रबल की यथार्थ रूप से जिज्ञासा की। उस समय गर्गाचार्य जी ने देवताओं से कहा- 'इस समय तुम सब लोगों का बल ठीक है। तुम्हारे सभी उत्तम ग्रह केंन्द्र स्थान में (लग्न में, चतुर्थ स्थान में, सप्तम स्थान में और दशम स्थान में) हैं। चन्द्रमा से गुरु का योग हुआ है। बुध, सूर्य, शुक्र, शनि और मंगल भी चन्द्रमा से संयुक्त हुए हैं। इसलिये तुम्हारे कार्य की सिद्धि के निमित्त इस समय चन्द्रबल बहुत उत्तम है। यह गोमन्त नामक मुहूर्त है, जो विजय प्रदान करने वाला है।' महात्मा गर्गजी के इस प्रकार आश्र्वासन देने पर महाबली देवता गर्जना करते हुए बड़े वेग से समुद्र-मन्थन करने लगे।
चार दिव्य वृक्ष
मथे जाते हुए समुद्र के चारों ओर बड़े ज़ोर की आवाज़ उठ रही थी। इस बार के मन्थन से देवकार्यों की सिद्धि के लिये साक्षात् सुरभि कामधेनु प्रकट हुईं। उन्हें काले, श्वेत, पीले, हरे तथा लाल रंग की सैकड़ों गौएँ घेरे हुए थीं। उस समय ऋषियों ने बड़े हर्ष में भरकर देवताओं और दैत्यों से कामधेनु के लिये याचना की और कहा- 'आप सब लोग मिलकर भिन्न-भिन्न गोत्रवाले ब्राह्मणों को कामधेनु सहित इन सम्पूर्ण गौओं का दान अवश्य करें।' ऋषियों के याचना करने पर देवताओं और दैत्यों ने भगवान् शंकर की प्रसन्नता के लिये वे सब गौएँ दान कर दीं तथा यज्ञ कर्मों में भली-भाँति मन को लगाने वाले उन परम मंगलमय महात्मा ऋषियों ने उन गौओं का दान स्वीकार किया। तत्पश्चात् सब लोग बड़े जोश में आकर क्षीरसागर को मथने लगे। तब समुद्र से कल्पवृक्ष, पारिजात, आम का वृक्ष और सन्तान- ये चार दिव्य वृक्ष प्रकट हुए।
कौस्तुभ मणि
उन सबको एकत्र रखकर देवताओं ने पुन: बड़े वेग से समुद्र मन्थन आरम्भ किया। इस बार के मन्थन से रत्नों में सबसे उत्तम रत्न कौस्तुभ प्रकट हुआ, जो सूर्यमण्डल के समान परम कान्तिमान था। वह अपने प्रकाश से तीनों लोकों को प्रकाशित कर रहा था। देवताओं ने चिन्तामणि को आगे रखकर कौस्तुभ का दर्शन किया और उसे भगवान विष्णु की सेवा में भेंट कर दिया। तदनन्तर, चिन्तामणि को मध्य में रखकर देवताओं और दैत्यों ने पुन: समुद्र को मथना आरम्भ किया। वे सभी बल में बढ़े-चढ़े थे और बार-बार गर्जना कर रहे थे। अब की बार उसे मथे जाते हुए समुद्र से उच्चै:श्रवा नामक अश्र्व प्रकट हुआ। वह समस्त अश्र्वजाति में एक अद्भुत रत्न था। उसके बाद गज जाति में रत्न भूत ऐरावत प्रकट हुआ। उसके साथ श्वेतवर्ण के चौसठ हाथी और थे। ऐरावत के चार दाँत बाहर निकले हुए थे और मस्तिष्क से मद की धारा बह रही थी। इन सबको भी मध्य में स्थापित करके वे सब पुन: समुद्र मथने लगे। उस समय उस समुद्र से मदिरा, भाँग, काकड़ासिंगी, लहसुन, गाजर, अत्यधिक उन्मादकारक धतूर तथा पुष्कर आदि बहुत-सी वस्तुएँ प्रकट हुईं। इन सबको भी समुद्र के किनारे एक स्थान पर रख दिया गया। तत्पश्चात् वे श्रेष्ठ देवता और दानव पुन: पहले की ही भाँति समुद्र-मन्थन करने लगे। अब की बार समुद्र से सम्पूर्ण भुवनों की एकमात्र अधीश्वरी दिव्यरूपा देवी महालक्ष्मी प्रकट हुईं, जिन्हें ब्रह्मवेत्ता पुरुष आन्वीक्षिकी (वेदान्त-विद्या) कहते हैं। इन्हीं को दूसरे लोग 'मूल-विद्या' कहकर पुकारते हैं।
देवी महालक्ष्मी
कुछ सामर्थ्यशाली महात्मा इन्हीं को वाणी और ब्रह्मविद्या भी कहते हैं। कोई-कोई इन्हीं को ऋद्धि, सिद्धि, आज्ञा और आशा नाम देते हैं। कोई योगी पुरुष इन्हीं को 'वैष्णवी' कहते हैं। सदा उद्यम में लगे रहने वाले माया के अनुयायी इन्हीं को 'माया' के रूप में जानते हैं। जो अनेक प्रकार के सिद्धान्तों को जानने वाले तथा ज्ञानशक्ति से सम्पन्न हैं, वे इन्हीं को भगवान की 'योगमाया' कहते हैं। देवताओं ने देखा देवी महालक्ष्मी का रूप परम सुन्दर है। उनके मनोहर मुख पर स्वाभाविक प्रसन्नता विराजमान है। हार और नूपुरों से उनके श्रीअंगो की बड़ी शोभा हो रही है। मस्तिष्क पर छत्र तना हुआ है, दोनों ओर से चँवर डुल रहे हैं; जैसे माता अपने पुत्रों की ओर स्नेह और दुलार भरी दृष्टि से देखती है, उसी प्रकार सती महालक्ष्मी ने देवता, दानव, सिद्ध, चारण और नाग आदि सम्पूर्ण प्राणियों की ओर दृष्टिपात किया। माता महालक्ष्मी की कृपा-दृष्टि पाकर सम्पूर्ण देवता उसी समय श्रीसम्पन्न हो गये। वे तत्काल राज्याधिकारी के शुभ लक्षणों से सम्पन्न दिखायी देने लगे।
लक्ष्मी द्वारा नारायण का वरण
तदनन्तर देवी लक्ष्मी ने भगवान मुकुन्द की ओर देखा। उनके श्रीअंग तमाल के समान श्यामवर्ण थे। कपोल और नासिका बड़ी सुन्दर थी। वे परम मनोहर दिव्य शरीर से प्रकाशित हो रहे थे। उनके वक्ष:स्थल में श्रीवत्स का चिह्न सुशोभित था। भगवान एक हाथ में कौमोद की गदा शोभा पा रही थी। भगवान् नारायण की उस दिव्य शोभा को देखते ही लक्ष्मी जी आश्चर्यचकित हो उठीं और हाथ में वनमाला ले सहसा हाथी से उतर पड़ीं। वह माला श्रीजी ने अपने ही हाथों बनायी थीं, उसके ऊपर भ्रमर मंडरा रहे थे। देवी ने वह सुन्दर वनमाला परमपुरुष भगवान विष्णु के कण्ठ में पहना दी और स्वयं उनके वाम भाग में जाकर खड़ी हो गयीं। उस शोभाशाली दम्पति का वहाँ दर्शन करके सम्पूर्ण देवता, दैत्य, सिद्ध, अप्सराएँ, किन्नर तथा चारणगण परम आनन्द को प्राप्त हुए।
धन्वन्तरि और अमृत
लक्ष्मी द्वारा विष्णु वरण के बाद समुद्र मंथन से कन्या के रूप में वारुणी प्रकट हई जिसे दैत्यों ने ग्रहण किया। फिर एक के पश्चात् एक चन्द्रमा, पारिजात वृक्ष तथा शंख निकले और अन्त में धन्वन्तरि वैद्य अमृत का घट लेकर प्रकट हुये।" धन्वन्तरि के हाथ से अमृत को दैत्यों ने छीन लिया और उसके लिये आपस में ही लड़ने लगे। देवताओं के पास दुर्वासा के शापवश इतनी शक्ति रही नहीं थी कि वे दैत्यों से लड़कर उस अमृत को ले सकें इसलिये वे निराश खड़े हुये उनका आपस में लड़ना देखते रहे।
मोहिनी रूप धारण
देवताओं की निराशा को देखकर भगवान विष्णु तत्काल मोहिनी रूप धारण कर आपस में लड़ते दैत्यों के पास जा पहुँचे। उस विश्वमोहिनी रूप को देखकर दैत्य तथा देवताओं की तो बात ही क्या, स्वयं ब्रह्मज्ञानी, कामदेव को भस्म कर देने वाले, भगवान शंकर भी मोहित होकर उनकी ओर बार-बार देखने लगे। जब दैत्यों ने उस नवयौवना सुन्दरी को अपनी ओर आते हुये देखा तब वे अपना सारा झगड़ा भूल कर उसी सुन्दरी की ओर कामासक्त होकर एकटक देखने लगे। वे दैत्य बोले, "हे सुन्दरी! तुम कौन हो? लगता है कि हमारे झगड़े को देखकर उसका निबटारा करने के लिये ही हम पर कृपा कटाक्ष कर रही हो। आओ शुभगे! तुम्हारा स्वागत है। हमें अपने सुन्दर कर कमलों से यह अमृतपान कराओ।" इस पर विश्वमोहिनी रूपी विष्णु ने कहा, "हे देवताओं और दानवों! आप दोनों ही महर्षि कश्यप जी के पुत्र होने के कारण भाई-भाई हो फिर भी परस्पर लड़ते हो। मैं तो स्वेच्छाचारिणी स्त्री हूँ। बुद्धिमान लोग ऐसी स्त्री पर कभी विश्वास नहीं करते, फिर तुम लोग कैसे मुझ पर विश्वास कर रहे हो? अच्छा यही है कि स्वयं सब मिल कर अमृतपान कर लो।"
देवताओं को अमृतपान
विश्वमोहिनी के ऐसे नीति कुशल वचन सुन कर उन कामान्ध दैत्यों, दानवों और असुरों को उस पर और भी विश्वास हो गया। वे बोले, "सुन्दरी! हम तुम पर पूर्ण विश्वास है। तुम जिस प्रकार बाँटोगी हम उसी प्रकार अमृतपान कर लेंगे। तुम ये घट ले लो और हम सभी में अमृत वितरण करो।" विश्वमोहिनी ने अमृत घट लेकर देवताओं और दैत्यों को अलग-अलग पंक्तियो में बैठने के लिये कहा। उसके बाद दैत्यों को अपने कटाक्ष से मदहोश करते हुये देवताओं को अमृतपान कराने लगे। दैत्य उनके कटाक्ष से ऐसे मदहोश हुये कि अमृत पीना ही भूल गये।
राहु और केतु
भगवान की इस चाल को राहु नामक दैत्य समझ गया। वह देवता का रूप बना कर देवताओं में जाकर बैठ गया और प्राप्त अमृत को मुख में डाल लिया। जब अमृत उसके कण्ठ में पहुँच गया तब चन्द्रमा तथा सूर्य ने पुकार कर कहा कि ये राहु दैत्य है। यह सुनकर भगवान विष्णु ने तत्काल अपने सुदर्शन चक्र से उसका सिर गर्दन से अलग कर दिया। अमृत के प्रभाव से उसके सिर और धड़ राहु और केतु नाम के दो ग्रह बन कर अन्तरिक्ष में स्थापित हो गये। वे ही बैर भाव के कारण सूर्य और चन्द्रमा का ग्रहण कराते हैं।
देवासुर संग्राम
इस तरह देवताओं को अमृत पिलाकर भगवान विष्णु वहाँ से लोप हो गये। उनके लोप होते ही दैत्यों की मदहोशी समाप्त हो गई। वे अत्यन्त क्रोधित हो देवताओं पर प्रहार करने लगे। भयंकर देवासुर संग्राम आरम्भ हो गया जिसमें देवराज इन्द्र ने दैत्यराज बलि को परास्त कर अपना इन्द्रलोक वापस ले लिया।
चौदह (14) रत्नों की प्राप्ति
समुद्र मंथन की मिथकीय घटना के बाद जो चौदह (14) रत्नों की प्राप्ति हुई उससे संबंधित निम्नलिखित पंक्तियाँ स्मरणीय हैं:-
- श्री, मणि, रम्भा, वारुणी, अमिय, शंख, गजराज
- धेनु, धनुष, शशि, कल्पतरु, धन्वन्तरि, विष, वाज।[1]
अर्थात
- हलाहल (विष)
- कामधेनु
- उच्चे: श्रवा (अश्व)
- ऐरावत हाथी
- कौस्तुभ मणि
- कल्पद्रुम
- रंभा
- लक्ष्मी
- वारुणी (मदिरा)
- चन्द्रमा
- पारिजात वृक्ष
- पांचजन्य शंख
- धन्वन्तरि (वैद्य)
- अमृत
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ नए सपने बुनने का नाम है कुंभ (हिन्दी) (html) हिन्दुस्तान लाइव। अभिगमन तिथि: 22 मार्च, 2016।
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