अल्पना

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फूलों से बनी अल्पना (बंगाल)

अल्पना विभिन्न प्रकार के रंगों से बनाई जाने वाली भारत की प्राचीन सांस्कृतिक परंपरा और लोक कला है। इसका एक नाम रंगोली भी है। अल्पना भारत के कई घरों के आँगन मे हर दिन बनाई जाती है। विशेष तौर पर महाराष्ट्र और दक्षिण भारत में यह ज्यादा देखने को मिलती है। प्राय: अलग-अलग प्रदेशों में अल्पना के नाम और उसकी शैली में भिन्नता हो सकती है, किंतु इसके पीछे निहित भावना और संस्कृति में पर्याप्त समानता रहती है। अल्पना की यही विशेषता इसे विविधता देती है और इसके विभिन्न आयामों को भी प्रदर्शित करती है। यह सामान्यत: त्योहार, व्रत, पूजा, उत्सव और विवाह आदि शुभ अवसरों पर सूखे और प्राकृतिक रंगों से बनाई जाती है। अल्पना के वैसे तो साधारण ज्यामितिक आकार हो सकते हैं, लेकिन फिर भी देवी-देवताओं की आकृतियाँ आदि भी इसमें बनाई जाती हैं।

पौराणिक उल्लेख

अल्पना के संबंध में पुराणों में कई कथाएँ प्रचलित हैं। चित्रकला पर पहले भारतीय लेख 'चित्र लक्षण' में एक कथा का उल्लेख आता है, जिसके अनुसार 'एक राजा के पुरोहित का बेटा मर गया। ब्रह्मा ने राजा से कहा, 'वह लड़के का रेखाचित्र ज़मीन पर बना दे, ताकि उस में जान डाली जा सके।' राजा ने ज़मीन पर कुछ रेखाएँ खींचीं। यहीं से अल्पना की शुरुआत हुई। इसी संदर्भ में एक और कथा है कि ब्रह्मा ने सृजन के उन्माद में आम के पेड़ का रस निकाल कर उसी से ज़मीन पर एक स्त्री की आकृति बनाई। उस स्त्री का सौंदर्य अप्सराओं को मात देने वाला था। बाद में वह स्त्री उर्वशी कहलाई। ब्रह्मा द्वारा खींचीं गई यह आकृति अल्पना का प्रथम रूप है। अल्पना के संबंध में और भी पौराणिक संदर्भ मिलते हैं, जैसे- रामायण में सीता के विवाह मंडप की चर्चा जहाँ की गई हैं, वहाँ भी अल्पना का ज़िक्र है। दक्षिण में चोल शासकों के युग में अल्पना का सांस्कृतिक विकास हुआ।[1]

प्राचीनता

मोहनजोदड़ो और हड़प्पा में भी मांडी हुई अल्पना के चिह्न मिलते हैं। अल्पना वात्स्यायन के 'कामसूत्र' में वर्णित चौंसठ कलाओं में से एक है। यह अति प्राचीन लोक कला है। इसकी उत्पत्ति के संबंध में साधारणत: यह माना जाता है कि 'अल्पना' शब्द संस्कृत के 'ओलंपेन' शब्द से निकला है, जिसका अर्थ है- 'लेप करना'। प्राचीन काल में लोगों का विश्वास था कि ये कलात्मक चित्र शहर व गाँवों को धन-धान्य से परिपूर्ण रखने में समर्थ होते हैं और अपने जादुई प्रभाव से संपत्ति को सुरक्षित रखते हैं। इसी दृष्टिकोण से अल्पना का धार्मिक और सामाजिक अवसरों पर प्रचलन शुरू हुआ।

विद्वान् मत

कई प्रकार के व्रत या पूजा, जिनमें अल्पना दी जाती है, आर्यों के युग से पूर्व की है। आनंद कुमार स्वामी, जो कि भारतीय कला के पंडित कहलाते हैं, उनका मत है कि बंगाल की आधुनिक लोक कला का सीधा संबंध 5000 वर्ष पूर्व की मोहनजोदड़ो की कला से है। व्रतचारी आंदोलन के जन्मदाता तथा बंगला लोक कला व संस्कृति के विद्वान् गुरुसहाय दत्त के अनुसार कमल का फूल जो बंगाली स्त्रियाँ अपनी अल्पनाओं के मध्य बनाती हैं, वह मोहनजोदड़ो के समय के कमल के फूल का प्रतिरूप ही है। कुछ अन्य विद्वानों का मत है कि अल्पना हमारी संस्कृति में आस्ट्रिक लोगों, जैसे मुंडा प्रजातियों से आई है, जो कि इस देश में आर्यों के आने से अनेक वर्ष पूर्व रह रहे थे। उनके अनुसार प्राचीन व परंपरागत बंगला की लोक कला कृषि युग से चली आ रही है। उस समय के लोगों ने कुछ देवी-देवताओं व कुछ जादुई प्रभावों पर विश्वास कर रखा था, जिसके अभ्यास से अच्छी फ़सल होती थी तथा प्रेतात्माएँ भाग जाती थीं। किंतु इससे यह नहीं समझना चाहिए कि अल्पना कला केवल बंगाल में ही प्रचलित थी।[1]

विभिन्न रूप

अल्पना का अलग-अलग नामों से भिन्न-भिन्न रूपों में भारत के अन्य भागों में भी प्रचलन रहा है। गुजरात में इसे 'सतिया', महाराष्ट्र में 'रंगोली', मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश में 'चौक पूरना' व 'सांझी', पहाड़ों में 'चौक पूरण' व कहीं-कहीं 'एपण', राजस्थान में 'मंडने', बिहार में 'अरिचन', मधुबनी, कहजर, आंध्र प्रदेश में 'मुग्गुल' और दक्षिण भारत में 'कोलम' कहा जाता है।

विभिन्न तथ्य

भारत की इस कला से जुड़े कई महत्त्वपूर्ण बिन्दु निम्नलिखित हैं-

  • साधारणत: अल्पना का स्त्री समाज से अधिक संबंध हैं और स्त्रियाँ ही इसे बनाती हैं। बड़े उत्सवों में स्त्रियों के समूह के समूह इस कार्य को करते हैं। यह माना जाता है कि जो आकार इसमें उभरते हैं, उनके पीछे बनाने वाले का प्रेम, लगन और उसकी भक्ति होती है। स्त्रियाँ जैसे-जैसे रेखाएँ खींचती हैं, उन रेखाओं में आकृतियाँ बनती जाती हैं। अपने भावों की अभिव्यक्ति वे गीतों की पंक्तियों में भी करती हैं।
  • अल्पना को सजावट से बनाने वालों की आंतरिक शुद्धता का पता चलता है। कन्याएँ प्रारंभ से ही पूजा करते समय यह कामना करती हैं कि हमें ऐसा पति व घर मिले, जो धन-धान्य से पूर्ण हो। इसलिए अल्पना में समस्त श्रृंगार व गृहस्थी की चीज़ें, जैसे- धान, मछली, कंघी बनाकर पूजा की जाती है।[1]
  • जब नई बहू घर में प्रवेश करती है तो कई जगह उसे दरवाज़ों पर रुक कर अल्पना बनानी पड़ती हैं। इस अल्पना में जो आकृतियाँ उभरती हैं, उनको देख कर बनाने वाले के व्यक्तित्व का बोध होता है। कई परिवारों में बहू को लक्ष्मी का रूप मानते हैं। उसके स्वागत में अल्पना में कमल बनाए जाते हैं, जिन पर उसे चलने को कहा जाता है।
  • अल्पना बहुत तन, मन व श्रद्धा से बनाई जाती है। यह सामाजिक उत्सवों, त्यौहारों तथा सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बनाई जाती है। कुछ धार्मिक 'प्रतीक' ऐसे पाए जाते हैं, जो पीढ़ियों से उसी रूप में बनाए जाते रहे हैं, और इन प्रतीकों का बनाना आवश्यक होता है। कन्याएँ तथा बहुएँ अपनी माताओं तथा सासों से इस कला को सीखती हैं और इस प्रकार अपने-अपने परिवार की परंपरा को क़ायम रखती हैं।
  • इस कला में प्रयोग आने वाली सामग्री आसानी से हर स्थान पर मिल जाती है। इसलिए यह कला ग़रीब से ग़रीब परिवार में भी अंकित की जाती हैं, जैसे- पिसे हुआ चावल का घोल, सुखाए हुए पत्तों के पाउडर से बनाया रंग, चारकोल, जलाई हुई मिट्टी आदि।
  • इन्हीं परंपरागत आलेखनों से प्रेरणा लेकर अवनीन्द्रनाथ टैगोर ने 'शांति निकेतन' में कला भवन में अन्य चित्रकला के विषयों के साथ-साथ इस कला को भी एक अनिवार्य विषय बनाया। आज यह कला 'शांति निकेतन की अल्पना' के नाम से जानी जाती है। इस कला में गोरी देवी मजा का नाम चिरस्मरणीय रहेगा, जो 'शांति निकेतन अल्पना' की जननी मानी जाती हैं।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 अल्पना (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 12 अक्टूबर, 2012।

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