चौंसठ कलाएँ

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इन्हें भी देखें: चौंसठ कलाएँ जयमंगल के मतानुसार

खजुराहो, मध्य प्रदेश
  • प्राचीन काल में भारतीय शिक्षा-क्रम का क्षेत्र बहुत व्यापक था। शिक्षा में कलाओं की शिक्षा भी अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखती थीं कलाओं के सम्बन्ध में रामायण, महाभारत, पुराण, काव्य आदि ग्रन्थों में जानने योग्य, सामग्री भरी पड़ी है; परंतु इनका थोड़े में, पर सुन्दर ढंग से विवरण शुक्राचार्य के 'नीतिसार' नामक ग्रन्थ के चौथे अध्याय के तीसरे प्रकरण में मिलता है। उनके कथनानुसार कलाएँ अनन्त हैं, उन सबके नाम भी नहीं गिनाये जा सकते; परंतु उनमें 64 कलाएँ मुख्य हैं।
  • कला का लक्षण बतलाते हुए आचार्य लिखते हैं कि जिसको एक मूक (गूँगा) व्यक्ति भी, जो वर्णोच्चारण भी नहीं कर सकता, कर सके, वह 'कला' है।[1]
  • केलदि श्रीबसवराजेन्द्रविरचित 'शिवतत्त्वरत्नाकर' में मुख्य-मुख्य 64 कलाओं का नामनिर्देश इस प्रकार किया हे-
  1. इतिहास
  2. आगम
  3. काव्य
  4. अलंकार
  5. नाटक
  6. गायकत्व
  7. कवित्व
  8. कामशास्त्र
  9. दुरोदर (द्यूत)
  10. देशभाषालिपिज्ञान
  11. लिपिकर्प
  12. वाचन
  13. गणक
  14. व्यवहार
  15. स्वरशास्त्र
  16. शाकुन
  17. सामुद्रिक
  18. रत्नशास्त्र
  19. गज-अश्व-रथकौशल
  20. मल्लशास्त्र
  21. सूपकर्म (रसोई पकाना)
  22. भूरूहदोहद (बागवानी)
  23. गन्धवाद
  24. धातुवाद
  25. रससम्बन्धी खनिवाद
  26. बिलवाद
  27. अग्निसंस्तम्भ
  28. जलसंस्तम्भ
  29. वाच:स्तम्भन
  30. वय:स्तम्भन
  31. वशीकरण
  32. आकर्षण
  33. मोहन
  34. विद्वेषण
  35. उच्चाटन
  36. मारण
  37. कालवंचन
  38. स्वर्णकार
  39. परकायप्रवेश
  40. पादुका सिद्धि
  41. वाकसिद्धि
  42. गुटिकासिद्धि
  43. ऐन्द्रजालिक
  44. अंजन
  45. परदृष्टिवंचन
  46. स्वरवंचन
  47. मणि-मन्त्र औषधादिकी सिद्धि
  48. चोरकर्म
  49. चित्रक्रिया
  50. लोहक्रिया
  51. अश्मक्रिया
  52. मृत्क्रिया
  53. दारूक्रिया
  54. वेणुक्रिया
  55. चर्मक्रिया
  56. अम्बरक्रिया
  57. अदृश्यकरण
  58. दन्तिकरण
  59. मृगयाविधि
  60. वाणिज्य
  61. पाशुपाल्य
  62. कृषि
  63. आसवकर्म
  64. लावकुक्कुट मेषादियुद्धकारक कौशल
  • वात्स्यायन प्रणीत 'कामसूत्र' के टीकाकार जयमंगल ने दो प्रकार की कलाओं का उल्लेख किया है-
  1. 'काम शास्त्रांगभूता'
  2. 'तन्त्रावापौपयिकी'।
  • इन दोनों में से प्रत्येक में 64 कलाएँ हैं। इनमें कई कलाएँ समान ही हैं और बाकी पृथक। पहले प्रकार में 24 कर्माश्रया, 20 द्यूताश्रया, 16 शयनोपचारिका और 4 उत्तर कलाएँ,- इस तरह 64 मूल कलाएँ है; इनकी भी अवान्तर और कलाएँ हैं, जो सब मिलकर 518 होती हैं।

कर्माश्रया 24 कलाओं के नाम इस प्रकार हैं-

खजुराहो, मध्य प्रदेश
  1. गीत
  2. नृत्य
  3. वाद्य
  4. कौशल-लिपिज्ञान
  5. उदारवचन
  6. चित्रविधि
  7. पुस्तकर्म
  8. पत्रच्छेद्य
  9. माल्यविधि
  10. गन्धयुत्स्यास्वाद्यविधान
  11. रत्नपरीक्षा
  12. सीवन
  13. रंगपरिज्ञान
  14. उपकरणक्रिया
  15. मानविधि
  16. आजीवज्ञान
  17. तिर्यग्योनिचिकित्सित
  18. मायाकृतपाषण्डपरिज्ञान
  19. क्रीड़ाकौशल
  20. लोकज्ञान
  21. वैचक्षण्य
  22. संवाहन
  23. शरीरसंस्कार
  24. विशेष कौशल

द्यूताश्रया 20 कलाओं में 15 निर्जीव और 5 सजीव हैं। निर्जीव कलाएँ ये हैं-

  1. आयु:प्राप्ति
  2. अक्षविधान
  3. रूप-संख्या
  4. क्रियामार्गण
  5. बीजग्रहण
  6. नयज्ञान
  7. करणादान
  8. चित्राचित्रविधि
  9. गूढ़राशि
  10. तुल्याभिहार
  11. क्षिप्रग्रहण
  12. अनुप्राप्तिलेखस्मृति
  13. अग्निक्रम
  14. छलव्यामोहन
  15. ग्रहदान

सजीव 5 कलाएँ ये हैं-

  1. उपस्थानविधि
  2. युद्ध
  3. रूत
  4. गत
  5. नृत्त

शयनोपचारिका 16 कलाएँ ये हैं-

खजुराहो, मध्य प्रदेश
  1. पुरुष का भावग्रहण
  2. स्वरागप्रकाशन
  3. प्रत्यंगदान
  4. नख-दन्तविचार
  5. नीविस्त्रंसन
  6. गुह्यांगका संस्पर्शनानुलोम्य
  7. परमार्थ कौशल
  8. हर्षण
  9. समानार्थताकृतार्थता
  10. अनुप्रोत्साहन
  11. मृदुक्रोधप्रवर्तन
  12. सम्यक्क्रोधनिवर्तन
  13. क्रुद्धप्रसादन
  14. सुप्तपरित्याग
  15. चरमस्वापविधि
  16. गुह्यगूहन

4 उत्तरकलाएँ ये हैं-

  1. साश्रुपात रमण को शापदान,
  2. स्वशपथक्रिया,
  3. प्रस्थितानुगमन और
  4. पुन:पुनर्निरीक्षण। इस प्रकार दूसरे प्रकार की भी सर्वसाधारण के लिये उपयोगिनी 64 कलाएँ हैं।
  • श्रीमद्भागवत के टीकाकार श्रीधरस्वामी ने भी 'भागवत' के दशम स्कन्ध के 45वें अध्याय के 64वें श्लोक की टीका में प्राय: दूसरे प्रकार की कलाओं का नामनिर्देश किया है; किंतु शुक्राचार्य ने अपने 'नीतिसार' में जिन कलाओं का विवरण दिया है, उनमें कुछ तो उपर्युक्त कलाओं से मिलती हैं, पर बाकी सभी भिन्न हैं। यहाँ पर जयमंगलटीकोक्त दूसरे प्रकार की कलाओं का केवल नाम ही पाठकों की जानकारी के लिये देकर उसके बाद 'शुक्रनीतिसार' के क्रमानुसार कलाओं का दिग्दर्शन कराया जायगा।
  • जयमंगल के मातनुसार 64 कलाएँ ये हैं-
  1. गीत कला
  2. वाद्य कला
  3. नृत्य कला
  4. आलेख्य कला
  5. विशेषकच्छेद्य कला (मस्तक पर तिलक लगाने के लिये काग़ज़, पत्ती आदि काटकर आकार या साँचे बनाना)
  6. तण्डुल-कुसुमबलिविकार कला (देव-पूजनादि के अवसर पर तरह-तरह के रँगे हुए चावल, जौ आदि वस्तुओ तथा रंगविरंगे फूलों को विविध प्रकार से सजाना)
  7. पुष्पास्तरण कला
  8. दशनवसनांगराग कला (दाँत, वस्त्र तथा शरीर के अवयवों को रँगना)
  9. मणिभूमिका-कर्म कला (घर के फर्श के कुछ भागों को मोती, मणि आदि रत्नों से जड़ना)
  10. शयनरचन कला (पलंग लगाना)
  11. उदकवाद्य कला (जलतरंग)
  12. उदकाघात कला (दूसरों पर हाथों या पिचकारी से जल की चोट मारना)
  13. चित्राश्च योगा कला (जड़ी-बूटियों के योग से विविध वस्तुएँ ऐसी तैयार करना या ऐसी औषधें तैयार करना अथवा ऐसे मन्त्रों का प्रयोग करना जिनसे शत्रु निर्बल हो या उसकी हानि हो),
  14. माल्यग्रंथनविकल्प कला (माला गूँथना)
  15. शेखरकापीड़योजन कला (स्त्रियों की चोटी पर पहनने के विविध अलंकारों के रूप में पुष्पों को गूँथना)
  16. नेपथ्यप्रयोग कला(शरीर को वस्त्र, आभूषण, पुष्प आदि से सुसज्जित करना)
  17. कर्णपत्रभंग कला (शंक्ख, हाथीदाँत आदि के अनेक तरह के कान के आभूषण बनाना)
  18. गन्धयुक्ति कला (सुगन्धित धूप बनाना)
  19. भूषणयोजन कला
  20. ऐन्द्रजाल कला (जादू के खेल)
  21. कौचुमारयोग कला (बल-वीर्य बढ़ाने वाली औषधियाँ बनाना)
  22. हस्तलाघव कला (हाथों की काम करने में फुर्ती और सफ़ाई)
  23. विचित्रशाकयूषभक्ष्यविकार-क्रिया कला(तरह-तरह के शाक, कढ़ी, रस, मिठाई आदि बनाने की क्रिया)
  24. पानकरस-रागासव-योजन कला (विविध प्रकार के शर्बत, आसव आदि बनाना)
  25. सूचीवान कर्म कला (सुई का काम, जैसे सीना, रफू करना, कसीदा काढ़ना, मोजे-गंजी बुनना)
  26. सूत्रक्रीड़ा कला (तागे या डोरियों से खेलना, जैसे कठपुतली का खेल)
  27. वीणाडमरूकवाद्य कला
  28. प्रहेलिका कला (पहेलियाँ बूझना)
  29. प्रतिमाला कला (श्लोक आदि कविता पढ़ने की मनोरंजक रीति)
  30. दुर्वाचकयोग कला (ऐसे श्लोक आदि पढ़ना, जिनका अर्थ और उच्चारण दोनों कठिन हों)
  31. पुस्तक-वाचन कला
  32. नाटकाख्यायिका-दर्शन कला
  33. काव्य समस्यापूरण कला
  34. पट्टिकावेत्रवानविकल्प कला (पीढ़ा, आसन, कुर्सी, पलंग, मोढ़े आदि चीज़ें बेंत बगेरे वस्तुओं से बनाना)
  35. तक्षकर्म कला (लकड़ी, धातु आदि को अभष्टि विभिन्न आकारों में काटना)
  36. तक्षण कला (बढ़ई का काम)
  37. वास्तुविद्या कला
  38. रूप्यरत्नपरीक्षा कला (सिक्के, रत्न आदि की परीक्षा करना)
  39. धातुवाद कला (पीतल आदि धातुओं को मिलाना, शुद्ध करना आदि)
  40. मणिरागाकर ज्ञान कला (मणि आदि का रँगना, खान आदि के विषय का ज्ञान)
  41. वृक्षायुर्वेदयोग कला
  42. मेषकुक्कुटलावकयुद्धविधि कला (मेंढे, मुर्गे, तीतर आदि को लड़ाना)
  43. शुकसारिका प्रलापन कला (तोता-मैना आदि को बोली सिखाना)
  44. उत्सादन-संवाहन केशमर्दनकौशल कला (हाथ-पैरों से शरीर दबाना, केशों का मलना, उनका मैल दूर करना आदि)
  45. अक्षरमुष्टि का कथन (अक्षरों को ऐसी युक्ति से कहना कि उस संकेत का जानने वाला ही उनका अर्थ समझे, दूसरा नहीं; मुष्टिसकेंत द्वारा वातचीत करना, जैसे दलाल आदि कर लेते हैं),
  46. म्लेच्छित विकल्प कला (ऐसे संकेत से लिखना, जिसे उस संकेत को जानने वाला ही समझे)
  47. देशभाषा-विज्ञान कला
  48. पुष्पशकटिका कला
  49. निमित्तज्ञान कला (शकुन जानना)
  50. यन्त्र मातृका कला (विविध प्रकार के मशीन, कल, पुर्जे आदि बनाना)
  51. धारणमातृका कला (सुनी हुई बातों का स्मरण रखना)
  52. संपाठ्य कला
  53. मानसी काव्य-क्रिया कला (किसी श्लोक में छोड़े हुए पद को मन से पूरा करना)
  54. अभिधानकोष कला
  55. छन्दोज्ञान कला
  56. क्रियाकल्प कला (काव्यालंकारों का ज्ञान)
  57. छलितक योग कला (रूप और बोली छिपाना)
  58. वस्त्रगोपन कला (शरीर के अंगों को छोटे या बड़े वस्त्रों से यथायोग्य ढँकना)
  59. द्यूतविशेष कला
  60. आकर्ष-क्रीड़ा कला (पासों से खेलना)
  61. बालक्रीड़नक कला
  62. वैनयिकी ज्ञान कला (अपने और पराये से विनयपूर्वक शिष्टाचार करना)
  63. वैजयिकी-ज्ञान कला (विजय प्राप्त करने की विद्या अर्थात् शस्त्रविद्या)
  64. व्यायामविद्या कला इनका विशेष विवरण जयमंगल ने कामसूत्र की व्याख्या में किया है।
कन्दरिया मन्दिर, खजुराहो
  • शुक्राचार्य का कहना है कि कलाओं के भिन्न-भिन्न नाम नहीं हैं, अपितु केवल उनके लक्षण ही कहे जा सकते हैं; क्योंकि क्रिया के पार्थक्य से ही कलाओं में भेद होता है। जो व्यक्ति जिस कला का अवलम्बन करता है, उसकी जाति उसी कला के नाम से कही जाती है।
  • पहली कला है नृत्य (नाचना)। हाव-भाव आदि के साथ गति नृत्य कहा जाता है। नृत्य में करण, अंगहार, विभाव, भाव, अनुभाव और रसों की अभिव्यक्ति की जाती है। नृत्य के दो प्रकार हैं- एक नाट्य, दूसरा अनाट्य। स्वर्ग-नरक या पृथ्वी के निवासियों की कृतिका अनुकरण 'नाटय' कहा जाता है और अनुकरण-विरहित नृत्य 'अनाटय'। यह कला अति प्राचीन काल से यहाँ बड़ी उन्नत दशा में थी। श्रीशंकर का ताण्डवनृत्य प्रसिद्ध है। आज तो इस कला का पेशा करने वाली एक जाति ही 'कत्थक' नाम से प्रसिद्ध है। वर्षाऋतु में घनगर्जना से आनन्दित मोर का नृत्य बहुतों ने देखा होगा। नृत्य एक स्वाभाविक वस्तु है, जो हृदय में प्रसन्नता का उद्रेक होते ही बाहर व्यक्त हो उठती है। कुछ कलाविद पुरुषों ने इसी स्वाभाविक नृत्य को अन्यान्य अभिनय-वेशषों से रँगकर कला का रूप दे दिया है। जंगली-से-जंगली और सभ्य-से-सभ्य समाज में नृत्य का अस्तित्व किसी-न-किसी रूप में देखा ही जाता है। आधुनिक पाश्चात्त्यों में नृत्यकला एक प्रधान सामाजिक वस्तु हो गयी है। प्राचीन काल में इस कला की शिक्षा राजकुमारों तक के लिये आवश्यक समझी जाती थीं। अर्जुन द्वारा अज्ञातवासकाल में राजा विराट की कन्या उत्तरा को बृहन्नला रूप में इस कला की शिक्षा देने की बात 'महाभारत' में प्रसिद्ध है। दक्षिण-भारत में यह कला अब भी थोड़ी-बहुत विद्यमान है। 'कथकली' में उसकी झलक मिलती है। श्री उदयशंकर आदि कुछ कला प्रेमी इस प्राचीन कला को फिर जाग्रत करने के प्रयत्न में लगे हुए हैं।
  • अनेक प्रकार के वाद्यों का निर्माण करने और उनके बजाने का ज्ञान 'कला' है। वाद्यों के मुख्यतया चार भेद हैं-
  1. तत-तार अथवा ताँत का जिसमें उपयोग होता है, वे वाद्य 'तत' कहे जाते हैं- जैसे वीणा, तम्बूरा, सारंगी, बेला, सरोद आदि।
  2. सुषिर- जिसका भीतरी भाग सच्छिद्र (पोला) हो और जिसमें वायु का उपयोग होता हो, उसको 'सुषिर' कहते हैं- जैसे बांसुरी, अलगोजा, शहनाई, बैण्ड, हारमोनियम, शंख आदि।
  3. आनद्ध -चमड़े से मढ़ा हुआ वाद्य 'आनद्ध' कहा जाता है- जैसे ढोल, नगाड़ा, तबला, मृदंग, डफ, खँजड़ी आदि।
  4. घन- परस्पर आघात से बजाने योग्य वाद्य 'घन' कहलाता है- जैसे झांझ, मंझीरा, करताल आदि। यह कला गाने से सम्बन्ध रखती हैं बिना वाद्य के गान में मधुरता नहीं आती। प्राचीन काल में भारत के वाद्यों में वीणा मुख्य थी। इसका उल्लेख प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों में भी उपलब्ध होता है। सरस्वती और नारद का वीणा वादन, श्रीकृष्ण की वंशी, महादेव का डमरू तो प्रसिद्ध ही है। वाद्य आदि विषयों के संस्कृत में अनेक ग्रन्थ हैं। उनमें अनेक वाद्यों के परिमाण, उनके बनाने और मरम्मत करने की विधियाँ मिलती हैं। राज्यभिषेक, यात्रा, उत्सव, विवाह, उपनयन आदि मांगलिक कार्यों के अवसरों पर भिन्न-भिन्न वाद्यों का उपयोग होता था। युद्ध में सैनिकों के उत्साह, शौर्य को बढ़ाने के लिये अनेक तरह के वाद्य बजाये जाते थे।
  • स्त्री और पुरुषों को वस्त्र एवं अलंकार सुचारू रूप से पहनाना 'कला' है।
  • अनेक प्रकार के रूपों का आविर्भाव करने का ज्ञान 'कला' है। इसी कला का उपयोग हनुमान जी ने श्रीरामचन्द्रजी के साथ पहली बार मिलने के समय ब्राह्मण-वेश धारण करने में किया था।
  • शैय्या और आस्तरण (बिछौना) सुन्दर रीति से बिछाना और पुष्पों को अनेक प्रकार से गूँथना 'कला' है।
  • द्यूत (जूआ) आदि अनेक क्रीड़ाओं से लोगों का मनोरंजन करना 'कला' है। प्राचीन काल में द्यूत के अनेक प्रकारों के प्रचलित होने का पता लगता है। उन सबमें अक्षक्रीड़ा (चौपड़ा) विशेष प्रसिद्ध थी। नल, युधिष्ठिर, शकुनि आदि इस कला में निपुण थे।
  • अनेक प्रकार के आसनों द्वारा सुरत क्रीड़ा का ज्ञान 'कला' है। इन सात कलाओं का उल्लेख 'गान्धर्ववेद' में किया गया है।
  • विविध प्रकार के मकरन्दों (पुष्परस) से आसव, मद्य आदि की कृति 'कला' है।
  • शल्य (पादादि अंग में चुभे काँटे) की पीड़ा को अल्प कर देना या शल्य को अंग में से निकाल डालना, शिरा (नाड़ी) और फोड़े आदि की चीर-फाड़ करना 'कला' है। हकीमों की जर्राही और डाक्टरों की सर्जरी इसी कला के उदाहरण हैं।
  • हींग आदि रस (मसाले) से युक्त अनेक प्रकार के अन्नों का पकाना 'कला' है। महाराज नल और भीमसेन जैसे पुरुष भी इस कला में निपुण थे।
  • वृक्ष, गुल्म, लता आदि को लगाने, उनसे विविध प्रकार के फल, पुष्पों को उत्पन्न करने एवं उन वृक्षादि का अनेक उपद्रवों से संरक्षण करने की कृति 'कला' है। प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों में सुरम्य उद्यान, उपवन आदि का बहुत उल्लेख प्राप्त होता है। विष्णुधर्मोत्तरपुराण, अग्नि पुराण तथा शुक्रनीतिंसार में इस विषय पर बहुत प्रकाश डाला गया है। इससे मालूम होता है कि बहुत प्राचीन काल में भी यह कला उन्नत दशा में थी।
  • पत्थर, सोने-चाँदी आदि धातुओं को (खान में से) खोदना, उन धातुओं की भस्म बनाना 'कला' है।
  • सभी प्रकार के इक्षु (ईख) से बनाये जा सकनेवाले पदार्थ- जैसे राव, गुड़, खाँड़, चीनी, मिश्री, कन्द आदि बनाने का ज्ञान 'कला' है।
  • सुवर्ण आदि अनेक धातु और अनेक औषधियों को परस्पर मिश्रित करने का ज्ञान (सिनथेसिस) 'कला' है।
  • मिश्रित धातुओं को उस मिश्रण से अलग-अलग कर देना (अनालिसिस) 'कला' है।
  • धातु आदि के मिश्रण का अपूर्व (प्रथम) विज्ञान 'कला' है।
  • लवण (नमक) आदि को समुद्र से या मिट्टी आदि पदार्थों से निकालने का विज्ञान 'कला' है। इन दस कलाओं का आयुर्वेद से सम्बन्ध है, इसलिये ये कलाएँ आयुर्वेद के अन्तर्भूत हैं। इनमें आधुनिक बाँटनी, गार्डनिंग, माइनिंग, मेटलर्जी, केमिस्ट्री आदि आ जाते हैं।
  • पैर आदि अंगों के विशिष्ट संचालनपूर्वक (पैतरा बदलते हुए) शस्त्रों का लक्ष्य स्थिर करना और उनका चलाना 'कला' है।
  • शरीर की सन्धियों (जोड़ों) पर आघात करते हुए या भिन्न-भिन्न अंगों को खींचते हुए दो मलों (पहलवानों) का युद्ध (कुश्ती) 'कला' है। इस कला में भी भारत प्राचीन काल से अब तक सर्वश्रेष्ठ रहा है। श्रीकृष्ण ने कंस की सभा के चाणूर, मुष्टिक आदि प्रसिद्ध पहलवानों को इस कला में पछाड़ा था। भीमसेन और जरासन्ध की कुश्ती कई दिनों तक चलने का उल्लेख 'महाभारत' में आया है। आज भी गामा आदि के नाम जगद्विजयी मल्लों में हैं। पंजाब, मथुरा आदि के मल्ल अभी भी इस कला में अच्छी निपुणता रखते हैं। इस युद्ध का एक भेद 'बाहुयुद्ध' है। इसमें मल्ललोग किसी शस्त्र का उपयोग न कर केवल मुष्टि से युद्ध करते हैं। इसे 'मुक्की', 'कुक्काबाज़ी' (बाकसिंग) कहते हैं। काशी के दुर्गा घाट पर कार्तिक में होने वाली मुक्की सुप्रसिद्ध है। बाहुयुद्ध में लड़कर मरने वाले की शुक्राचार्य ने निन्दा की है। वे लिखते हैं— 'बाहुयुद्ध में मरनेवाले को न तो इस लोक में यश मिलता है, न परलोक में स्वर्ग-सुख। किंतु मारने वाले का यश अवश्य होता है; क्योंकि शत्रु के बल और दर्प (घमण्ड) का अन्त करना ही युद्ध का लक्ष्य होता है। इसलिये प्राणान्त (शत्रु के मर जाने तक) बाहुयुद्ध करना चाहिये।[2]

ऐसे युद्ध का उदाहरण मधु-कैटभ के साथ विष्णु का युद्ध है, जो समुद्र में पाँच हज़ार वर्षों तक होता रहा था—

मधुकैटभौ दुरात्मानावतिवीर्यपराक्रमौ॥

क्रोधरक्तेक्षणावत्तुं ब्रह्माणं जनितोद्यमौ।
समुत्थाय ततस्ताभ्यां युयुधे भगवान हरि:॥

पंचवर्षसहस्त्राणि बाहुप्रहरणो विभु:। (सप्तशती 1। 92-94)

  • कृत और प्रतिकृत आदि अनेक तरह के अति भयंकर बाहु (मुष्टि) प्रहारों से अकस्मात शत्रुपर झपट कर किये गये आघातों से एवं शत्रु को असावधान पाकर ऐसी दशा में उसको पकड़कर रगड़ देने आदि प्रकारों से जो युद्ध किया जाता है, उसे 'निपीड़न' कहते हैं और शत्रु द्वारा किये गये ऐसे 'निपीड़न' से अपने को बचा लेने का नाम 'प्रतिक्रिया' है अर्थात् अपना बचाव करते हुए शत्रु पर केवल बाहुओं से भयंकर आघात करते हुए युद्ध करना 'कला' है।
  • अभिलक्षित देश (निशाने) पर विविध यन्त्रों से अस्त्रों को फेंकना और किसी (बिगुल, तुरही आदि) वाद्य के संकेत से व्यूह रचना (किसी ख़ास तरीक़े से सैन्य को खड़ा करने की क्रिया) करना 'कला' है। इससे पता चलता है कि मन्त्रों से फेंके जाने वाले अस्त्र- आज कल के बन्दूक, तोप, मशीनगन, तारपीड़ों आदि की तरह-प्राचीन काल में भी उपयोग में लाये जाते रहे होंगे। किंतु उनसे होने वाली भारी क्षति को देखकर उनका उपयोग कम कर दिया गया होगा। मनु ने भी महायन्त्र-निर्माण का निषेध किया है।
  • हाथी, घोड़े और रथों की विशिष्ट गतियों से युद्ध का आयोजन करना 'कला' है। 18 से 22 तक की पाँच कलाएँ 'धनुर्वेद' से सम्बन्ध रखती हैं।
  • विविध प्रकार के आसन (बैठने का प्रकार) एवं मुद्रा (दोनों हाथों की अँगुलियों से बननेवाली अंकुश, पद्म, धेनु आदि की आकृतियों) से देवताओं को प्रसन्न करना 'कला' हैं इस कला पर आधुनिकों का विश्वास नहीं है, तो भी कही-कहीं इसके जानने वाले व्यक्ति पाये जाते हैं। इसका प्राचीन समय में ख़ूब प्रचार था। संस्कृत में तन्त्र एवं आगम के अनेक ग्रन्थों में मुद्रा आदि का वर्णन देखने में आता है। हिप्नोटिज्म जानने वालों में कुछ मुद्राओं का प्रयोग देखा जाता है। वे मुद्रा द्वारा अपनी शक्ति का संक्रमण अपने प्रयोज्य- विधेय में करते हैं।
  • रथ हाँकने का काम (कोचवानी) एवं हाथी, घोड़ो को अनेक तरह की गतियों (चालों) की शिक्षा देना 'कला' है। इसकी शिक्षा किसी समय में सभी राजकुमारों के लिये आवश्यक समझी जाती थी। यदि विराट पुत्र उत्तर इस कला में निपुण न होते तो जब दुर्योधन आदि विराट की गौओं का अपहरण करने के लिये आये, उस समय अर्जुन का सारथ्य वे कैसे कर सकते थे। भारत-युद्ध में श्री कृष्ण अर्जुन का रथ कैसे हाँक सकते या कर्ण का सारथ्य शल्य कैसे कर सकते थे। आज भी शौक़ीन लोग सारथि (ड्राइवर) को पीछे बैठाकर स्वयं मोटर आदि हाँकते हुए देखे जाते हैं।
  • मिट्टी, लकड़ी, पत्थर और पीतल आदि धातुओं से बर्तनों का बनाना 'कला' हैं यह कला भी इस देश में बहुत पुराने समय से अच्छी दशा में देखने में आती है। इसका अनुमान ज़मीन की खुदाई से निकले हुए प्राचीन बर्तनों को 'वस्तु-संग्रहालय' (म्यूजियम) में देखने से हो सकता है।
  • चित्रों का आलेखन 'कला' है। प्राचीन चित्रों को देखने से प्रमाणित होता है कि यह कला भारत में किस उच्चकोटि तक पहुँची हुई थी। प्राचीन मन्दिर और बौद्ध विहारों की मूर्तियों और अजन्ता आदि गुफ़ाओं के चित्रों को देखकर आश्चर्य होता है। आज कई शताब्दियों के व्यतीत हो जाने पर भी वे ज्यों-के-ज्यों दिखलायी पड़ते हैं। उनके रंग ऐसे दिखलायी पड़ते हैं कि जैसे अभी कारीगर ने उनका निर्माणकार्य समाप्त किया हो। प्रत्येक वर्ष हज़ारों विदेशी यात्री उन्हें देखने के लिये दूर-दूर से आते रहते हैं। प्रयत्न करने पर भी वैसे रंगों का आविष्कार अब तक नहीं हो सका है। यह कला इतनी व्यापक थी कि देश के हर एक कोने में घर-घर में इसका प्रचार था। अब भी घरों के द्वार पर गणेश जी आदि के चित्र बनाने की चाल प्राय: सर्वत्र देखी जाती हैं कई सामाजिक उत्सवों के अवसरों पर स्त्रियाँ दीवाल और ज़मीन पर चित्र लिखती हैं। प्राचीन काल में भारत की स्त्रियाँ इस कला में बहुत निपुण होती थीं। बाणासुर की कन्या उषा की सखी चित्रलेखा इस कला में बड़ी सिद्धहस्त थी। वह एक बार देखे हुए व्यक्ति का बाद में हूबहू चित्र बना सकती थी। चित्रकला के 6 अंग हैं-
कन्दरिया मन्दिर, खजुराहो
  1. रूपभेद (रंगों की मिलावट)
  2. प्रमाण (चित्र में दूरी, गहराई आदि का दिखलाना और चित्रगत वस्तु के अंगों का अनुपात)
  3. भाव और लावण्य की योजना
  4. सादृश्य
  5. वर्णिका (रंगों का सामंजस्य)
  6. भंग (रचना-कौशल)। 'समरागंणसूत्रधार' आदि प्राचीन शिल्पग्रन्थों में इस कला का विशदरूप से विवरण उपलब्ध होता है।
  • तालाब, बावली, कूप, प्रासाद (महल और देव मन्दिर) आदि का बनाना और भूमि (ऊँची-नीची) का सम (बराबर) करना 'कला' है। 'सिविल इंजीनियरिंग' का इसमें भी समावेश किया जा सकता है।
  • घटी (घड़ी) आदि समय का निर्देश करने वाले यन्त्रों का निर्माण करना 'कला' है। प्राचीन काल में समय का माप करने के लिये जलयन्त्र, वालुकायन्त्र, धूप-घड़ी आदि साधन थें अब घड़ी के बन जाने से यद्यपि उनका व्यवहार कम हो गया है, तथापि कई प्राचीन शैली के ज्योतिषी लोग अब भी विवाह आदि के अवसर पर जलयन्त्र द्वारा ही सूर्योदय से इष्ट काल का साधन करते हैं। एवं कई प्राचीन राजाओं की ड्योढ़ी पर अब भी जलयन्त्र वालुकायन्त्र या धूप-घड़ी के अनुसार समय-निर्देशक घण्टा बजाने की प्रथा देखने में आती है। आश्चर्य है कि इन्हीं यन्त्रों की सहायता से प्राचीन ज्योतिषी लोग सूक्ष्मातिसूक्ष्म समय के विभाग का ज्ञान स्पष्टतया प्राप्त कर लिया करते थे। और उसी के आधार पर बनी जन्मपत्रिका से जीवन की घटनाओं का ठीक-ठीक पता लगा लिया जाता था।
  • अनेक वाद्यों का निर्माण करना 'कला' है।
  • कतिपय रंगों के अल्प, अधिक या सम संयोग (मिलावट) से बने विभिन्न रंगों से वस्त्र आदि वस्तुओं का रँगाना- यह भी 'कला' है। पहले यह कला घर-घर में थी; किंतु इसका भार, अब मालूम होता है, रंगरेजों के ऊपर ही छोड़ दिया गया है। यहाँ के रंग बड़े सुन्दर और टिकाऊ होते थे। यहाँ के रंगों से रँगे वस्त्रों का बाहर के देशों में बड़ा आदर था। अब भी राजपूताने के कई नगरों में ऐसे-ऐसे कुशल रँगरेज हैं कि जो महीन-से-महीन मलमल को दोनों ओर से दो विभिन्न रंगों में रँग देते हैं। जोधपुर में कपड़े को स्थान-स्थान पर बाँधकर इस तरह से रँग देते हैं कि उसमें अनेक रंग और बेल-बूटे बैठ जाते हैं।
  • जल, वायु और अग्नि के संयोग से उत्पन्न वाष्प (भाप) के निरोध (रोकने) से अनेक क्रियाओं का सम्पादन करना 'कला' है—[3] भोजदेव (वि. सं. 1066-98) कृत 'समरांगण सूत्रधार' के 31वें अध्याय का नाम ही 'यन्त्रविधान' है। उस अध्याय में 223.5 श्लोक हैं, जिनमें विलक्षण प्रकार के विविध यन्त्रों के निर्माण की संक्षिप्त प्रक्रिया का दिग्दर्शन कराया गया है। इससे तो यह बात स्पष्ट रीति से जानी जा रही है कि प्राचीन भारत के लोगों को भाप के यन्त्रों का ज्ञान था और वे उन यन्त्रों से अपने व्यावहारिक कार्यों में आज की तरह सहायता लिया करते थे।
  • नौका, रथ आदि जल-स्थल के आवागमन के साधनों का निर्माण करना 'कला' है। पहले के लोग स्थल और यातायात के साधनों का- अच्छे-से-अच्छे उपकरणों से सम्पन्न अश्व, रथ, गौ (बैलों) के रथ आदि का बनाना तो जानते ही थे; साथ ही अच्छे-से-अच्छे सुदृढ़ सुन्दर, उपयोगी, सर्वसाधनों से सम्पन्न बड़े-बड़े जहाजों का बनाना भी जानते थे। जहाजों के उपयोग का वर्णन वेदों में भी मिलता है। जहाजों पर दूर-दूर के देशों के साथ अच्छा व्यापार होता था। जलयानों से आने-जाने वाले माल पर कर आदि की व्यवस्था थीं पाश्चात्यों की तरह यहाँ के मल्लाह भी बड़े साहसी और यात्रा में निडर होते थे; किंतु पाश्चात्य शासकों की कृपा से अन्यान्य कलाओं की तरह भारत में यह कला भी बहुत क्षीण हो गयी है।
  • सूत्र, सन आदि तन्तुओं से रस्सी का बनाना 'कला' है।
  • अनेक तन्तुओं से पटबन्ध (वस्त्र की रचना) 'कला' है। यह कला भी बहुत प्राचीन समय से भारत में बड़ी उन्नत दशा में थी। भारत में 'ईस्ट इण्डिया कम्पनी' के शासन के पहले यहाँ ऐसे सुन्दर, मज़बूत, बारीक वस्त्र बनाये जाते थे, जिनकी बराबरी आजतक कोई दूसरा देश नहीं कर सका है। 'ईस्ट इण्डिया कम्पनी' के समय में यहाँ के वस्त्र-निर्माण एवं वस्त्र-निर्यात के व्यवसाय को पाश्चात्य स्वार्थी व्यापारियों ने कई उपायों से नष्ट कर दिया।
  • रत्नों की पहचान और उनमें वेध (छिद्र) करने की क्रिया का ज्ञान 'कला' है। प्राचीन समय से ही अच्छे बुरे रत्नों की पहचान तथा उनके धारण से होने वाले शुभाशुभ फल का ज्ञान यहाँ के लोगों को था। ग्रहों के अनिष्ट फलों को रोकने के लिये विभिन्न रत्नों को धारण करने का शास्त्रों ने उपदेश किया है। उसके अनुसार रत्नों को धारण करने का फल आज भी प्रत्यक्ष दिखलायी देता है। पर आज तो भारतवर्ष की यह स्थिति है कि अधिकांश लोगों को उन रत्नों का धारण करना तो दूर रहा, दर्शन भी दुर्लभ है।
  • सुवर्ण, रजत आदि के याथात्म्य (असलीपन) का जानना 'कला' है।
  • नकली सोने-चाँदी और हीरे-मोती आदि रत्नों को निर्माण करने का विज्ञान 'कला' है। पुराने कारीगरों की बातें सुनने में आती हैं। वे कई वस्तुओं के योग से ठीक असली-जैसा सोना चाँदी आदि बना सकते थे। अब तो केवल उनकी बातें ही सुनने में आती हैं। रत्न भी प्राचीन काल में नकली बनाये जाते थे। मिश्री से ऐसा हीरा बनाते थे कि अच्छे जौहरी भी उसको जल्दी नहीं पहचान सकते थे। इससे मालूम होता है कि 'इमिटेशन' हीरा आदि रत्न तथा 'कलचर' मोतियों का आविष्कार पाश्चात्यों ने कुछ नया निकाला हो- यह बात नहीं है। किंतु यह भी मानना ही पड़ेगा कि उस समय इन नकली वस्तुओं का व्यवसाय आजकल की तरह अधिक विस्तृत नहीं था। देश के सम्पन्न होने के कारण उन्हें नकली वस्तुओं से अपनी शोभा बढ़ाने की आवश्यकता ही क्या थी। पर आज की स्थिति कुछ और है, इसी से इन पदार्थों का व्यवहार अधिक बढ़ गया है।
  • सोने-चाँदी के आभूषण बनाना एवं लेप (मुलम्मा) आदि (मीनाकारी) करना 'कला' है।[4]
  • चमड़े को मुलायम करना और उससे आवश्यक उपयोगी समान तैयार करना और
  • पशुओं के शरीर पर से चमड़ा निकालकर अलग करना 'कला' है।[5] आज तो यह कला भारत के लोगों के हाथ से निकलकर विदेशियों के हाथ में चली गयी हैं यहाँ केवल चर्मकारों के घरों में कुछ अवशिष्ट रही है; किंतु चमड़ों को कमाकर विदेशियों के मुक़ाबले में उन्हें मुलायम करना नहीं जानते।
खजुराहो, मध्य प्रदेश
  • गौ, भैंस आदि को दुहने से लेकर दही ज़माना, मथना, मक्खन निकालना तथा उससे घी बनाने तक की सब क्रियाओं का जानना 'कला' है। इसे पढ़कर हृदय में दु:ख की एक टीस उठ जाती है। वह भारत का सौभाग्य काल कहाँ, जब घर-घर में अनेक गौओं का निवास था, प्रत्येक मनुष्य इस कला से अभिज्ञ होता था, दूध दही की मानो नदियाँ बहती थीं, दूध के पौसरे बैठाये जाते थे- जहाँ लोग पानी की तरह मुफ़्त में दूध पी सकते थें और कहाँ आज का हतभाग्य समय! घी-मक्खन का तो दर्शन दूर रहा, बच्चों को दूधी मिलना कठिन है। कहाँ वह श्रीकृष्ण के समय का व्रज वृन्दावन का दृश्य, और कहाँ आज बड़े-बड़े शहरों के पास बने बूचड़खानों में प्रतिदिन हज़ारों की संख्या मं वध किये जानेवाली गौ माता और उनके बच्चों का करुण क्रन्दन।
  • कुर्ता आदि कपड़ों को सीना 'कला' है- सीवने कञ्चुकादीनां विज्ञानं तु कलात्मकम्।
  • जल में हाथ, पैर आदि अंगों से विविध प्रकार से तैरना 'कला' है। तैरने के साथ-साथ डूबते हुए को कैसे बचाना चाहिये, थका या डूबता हुआ व्यक्ति यदि उसको बचाने के लिये आये व्यक्ति को पकड़ ले, तो वैसी स्थिति में किस तरह उससे अपने को छुड़ाकर और उसे लेकर किनारे पर पहुँचना चाहिये-इत्यादि बातों का जानना भी बहुत आवश्यक है।
  • घर के बर्तनों को माँजने का ज्ञान 'कला' है। पहले यह काम घर की स्त्रियाँ ही करती थीं, आज भी कई घरों में यही चाल है; परंतु अब बड़े घरानों की स्त्रियाँ इसमें अपना अपमान समझती हैं।
  • वस्त्रों का संमार्जन (अच्छी तरह धोकर साफ़ करना) 'कला' है।
  • क्षुरकर्म (हजामत बनाना) 'कला' है। आजकल यह बड़ी उन्नति पर है। गंगा-यमुना के घाटों, बाज़ारों में चले जाइये, आपको इस कला का उदाहरण प्रत्यक्ष देखने को मिल जायगा। कोई पढ़ा-लिखा आधुनिक सभ्य पुरुष प्राय: ऐसा न मिलेगा, जिसके आह्निक में अपना 'क्षुरकर्म' सम्मिलित न हो!-वस्त्रसम्मार्जनंचैव क्षुरकर्म ह्युभे कले।
  • तिल, तीसी, रेंड़ी आदि तिलहन पदार्थ और मांसों में से तेल निकालने की कृति 'कला' है।
  • हल चलाना जानना और 49-पेड़ों पर चढ़ना जानना भी 'कला' है। हल चलाना तो कृषि का प्रधान अंग ही है। पेड़ों पर चढ़ना भी एक कला ही है। सभी केवल चाहने मात्र से ही पेड़ों पर चढ़ नहीं सकते। खूजर, ताड़, नारियल, सुपारी आदि के पेड़ों पर चढ़ना कितना कठिन है- इसे देखने वाला ही जान सकता है। इसमें जरा-सी भी असावधानी होने पर मृत्यु यदि न हो तो भी अंग भंग होना मामूली बात है।
  • मनोऽनुकूल (दूसरे की इच्छा के अनुसार उसकी) सेवा करने का ज्ञान 'कला' है। राजसेवक, नौकर, शिष्य आदि के लिये इस कला का जानना परमावश्यक है। इस कला को न जाननेवाला किसी को प्रसन्न नहीं कर सकता।
  • बाँस, ताड़, खजूर, सन आदि से पात्र (टोकरी, झाँपी आदि) बनाना 'कला' है।
  • काँच के बरतन आदि सामान बनाना 'कला' है। मालूम होता है कि यह कला भारत में प्राचीन समय से ही थी, किंतु मध्यकाल में यहाँ से विदेशियों के हाथ में चली गयी। स्त्रियों का सौभाग्य चिह्न चूड़ियाँ तक विदेशों से आने लगीं !
  • जलों से संसेचन (अच्छी तरह खेतों को सींचना) और
  • संहरण (अधिक जलवाली या दलदलवाली भूमि में से जल को बाहर निकाल डालना अथवा दूर से जल को आवश्यक स्थान पर ले आना) 'कला' है।
  • लोहे के अस्त्र-शस्त्र बनाने का ज्ञान 'कला' है। 56-हाथी, घोड़े, बैल और ऊँटों की पीठ-सवारी के उपयुक्त पल्याण (जीन, काठी) बनाना 'कला' है।
  • शिशुओं का संरक्षण (पालन) और 58-धारण (पोषण) करना एवं
  • बच्चों के खेलने के लिये तरह-तरह खिलौने बनाना 'कला' है— शिशो: संरक्षणे ज्ञानं धारणे क्रीडने कला।
  • अपराधियों को उनके अपराध के अनुसार ताड़न (दण्ड देने) का ज्ञान 'कला' है।
  • भिन्न-भिन्न देशों की लिपि को सुन्दरता से लिखना 'कला' है। भारत इस कला में बहुत उन्नत था। ऐसे सुन्दर अक्षर लिखे जाते थे कि उन्हें देखकर आश्चर्य होता है। लिखने के लिये स्याही भी ऐसी सुन्दर बनती थी कि सैकड़ों वर्षों की लिखी हुई पुस्तकें आज भी नयी-सी मालूम होती हैं। छापने के प्रेस, टाइपराइटर आदि साधनों का उपयोग होता जा रहा है, जिससे लोगों के अक्षर बिगड़ते जा रहे हैं। स्थिति यहाँ तक पहुँची है कि कभी-कभी अपना ही लिखा हुआ अपने से नहीं पढ़ा जाता। पहले यह कला इतनी उन्नत थी कि 'महाभारत-जैसा सवा लाख श्लोकों का बड़ा पोथा आदि से अन्त तक एक ही साँचे के अक्षरों में लिखा हुआ देखने में आता है। कहीं एक अक्षर भी छोटा-बड़ा नहीं हो पाया है; स्याही भी एक-जैसी ही है- न कहीं गहरी न कहीं पतली। विशेष आश्चर्य तो यह है कि सारी पुस्तक में न तो एक अक्षर ग़लत लिखकर कहीं काटा हुआ है न कहीं कोई धब्बा ही है।
  • पान की रक्षा करना— ऐसा उपाय करना कि जिससे पान बहुत दिनों तक न सूखने पाये, न गले-सड़े, 'कला' है। आज भी बहुत से ऐसे तमोली हैं, जो मगही पान को महीनों तक ज्यों-का-त्यों रखते हैं। इस तरह ये 62 कलाएँ अलग-अलग है; किन्तु दो कलाएँ ऐसी हैं, जिन्हें सब कलाओं का प्राण कहा जा सकता है। यही सब कलाओं के गुण भी कही जा सकती हैं इन दो में पहली है
  • आदान और दूसरी
  • प्रतिदानं किसी काम को करने में आशुकारित्व (जल्दी-फुर्ती से करना) 'आदान' कहा जाता है और उस काम को चिरकाल (बहुत समय) तक हकरते रहना 'प्रतिदान' है। बिना इन दो गुणों के कोई भी कला अधिक उपयुक्त नहीं हो सकती। इस तरह 64 कलाओं का यह संक्षिप्त विवरण हैं।

निष्कर्ष

यह पाठयक्रम कितना व्यापक है! इसमें प्राय: सभी विषयों का समावेश हो जाता है। इसी अंक में अन्यत्र प्रकाशित 'हिन्दू-संस्कृतिका आधार' शीर्षक लेख में जिन 32 विद्याओं का संक्षिप्त वर्णन किया गया है, उनका भी इसी पाठयक्रम में समावेश है। शिक्षा का यह उद्देश्य माना जाता है कि उससे ज्ञान की वृद्धि हो, सदाचार में प्रवृत्ति हो और जीविकोपार्जन में सहायता मिले। इस क्रम में इन तीनों का ध्यान रखा गया है। इतना ही नहीं, पारलौकिक कल्याण भी नहीं छोड़ा गया है। संक्षेप में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष- इन चारों पुरुषार्थो को ध्यान में रखकर ही शिक्षा का यह क्रम निश्चित किया गया है। इससे पता लगता है कि उस समय-की शिक्षा का आदर्श कितना उच्च तथा व्यावहारिक था। श्रीकृष्णचन्द्र को इन सभी विषयों की पूरी शिक्षा दी गयी थी और वे प्राय: सभी में प्रवीण थें। अर्जुन नृत्यकला और नल, भीम आदि पाकविद्या में निपुण थें परशुराम, द्रोणाचार्य-सरीखे ब्राह्मण धनुर्वेद में दक्ष थे। इससे जान पड़ता है कि गुरुकुलों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों के बालकों को प्राय: इन सभी विषयों की थोड़ी-बहुत शिक्षा दी जाती रही होगी। परंतु इस शिक्षा से ऐसा न हो कि जो काम जिसके जी में आया करने लगा, जैसा कि आजकल होता है- इसका भी ध्यान रखा गया था। क्योंकि ऐसा होने से सारी समाज व्यवस्था ही बिगड़ जाती, श्रेणी-संघर्ष और बेकारी की उत्पत्ति होती, जैसा कि आजकल देखने में आ रहा है। सब मनुष्यों का स्वभाव एक-सा नहीं होता, किसी की प्रवृत्ति किसी ओर तो किसी की किसी ओर होती है। जिसकी जिस ओर प्रवृत्ति है, उसी में अभ्यास करने से कुशलता प्राप्त होती है। इसीलिये शुक्राचार्य ने लिखा है—

यां यां कलां समाश्रित्य निपुणो यो हि मानव:।
नैपुण्यकरणे सम्यक् तां तां कुर्यात् स एव हि॥

वंशागत कला

वंशागत कला के सीखने में कितनी सुगमता होती है, यह प्रत्यक्ष है। एक बढ़ई का लड़का बढ़ईगिरी जितनी शीघ्रता और सुगमता के साथ सीखकर उसमें निपुण हो सकता है, उतना दूसरा नहीं, क्योंकि वंश-परम्परा और बालकपन से ही उसके उस कला के योग्य संस्कार बन जाने हैं। इन मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों के आधार पर प्राचीन शिक्षा क्रम की रचना हुई थी। उसमें आजकल की सी धाँधली न थी, जिसका दुष्परिणाम आज सर्वत्र दिखाई पड़ रहा है। प्राय: सभी विषयों में चञ्चुप्रवेश और किसी एक विषय की, जिसमें प्रवृत्ति हो, योग्यता प्राप्त करने से ही पूर्व शिक्षा और यथोचित ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है। आज पाश्चात्य विद्वान् भी प्रचलित शिक्षा-पद्धति की अनेक त्रुटियों का अनुभव कर रहे हैं; परंतु हम उस दूषित पद्धति की नकल करने की ही धुन में लगे हुए हैं। वर्तमान शिक्षा से लोगों को अपने वंशागत कार्यों से घृणा तथा अरुचि होती चली जा रही है और वे अपने बाप-दादा के व्यवसायों को बड़ी तेज़ीसे छोड़ते चले जा रहे हैं। शिक्षित युवक ऑफिस में छोटी-छोटी नौकरियों के लिये दर-दर दौड़ते हैं, अपमान सहते हैं, दूसरों की ठोकर खाते हैं और जीवन से निराश होकर कई तो आत्मघात कर बैठते हैं। यदि यही क्रम जारी रहा तो पूरा विनाश सामने है। क्या ही अच्छा होता, यदि हमारे शिक्षा-आयोजकों का ध्यान एक बार हमारी प्राचीन शिक्षा-पद्धति की ओर भी जाता।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  • लेखक— पं. श्रीदुर्गादत्तजी त्रिपाठी
  1. शक्तो मूकोऽपि यत् कर्तुं कलासंज्ञं तु तत् स्मृतम्।
  2. 'मृतस्य तस्य न स्वर्गो यशो नेहापि विद्यते। बलदर्पविनाशान्तं नियुद्धं यश से रिपो:। न कस्यासीद्धि कुर्याद्वै प्राणान्तं बाहुयुद्धकम्॥
  3. जलवाथ्वग्निसंयोगनिरोधैश्च क्रिया कला।
  4. स्वर्णाद्यलंकारकृति: कलालेपादिसत्कृति:।
  5. मार्दवादिक्रियाज्ञानं चर्मणां तु कला स्मृता। पशुचर्मांगनिर्हारक्रियाज्ञानं कला स्मृता ॥

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