आँख की किरकिरी उपन्यास भाग-4

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एक ओर चाँद डूबता है, दूसरी और सूरज़ उगता है। आशा चली गई लेकिन महेन्द्र के नसीब में अभी तक विनोदिनी के दर्शन नहीं। महेन्द्र डोलता-फिरता, जब-तब किसी बहाने माँ के कमरे में पहुँच जाता- लेकिन विनोदिनी उसे पास आने की कोई मौक़ा ही न देती।

महेन्द्र को ऐसा उदास देखकर राजलक्ष्मी सोचने लगी- 'बहू चली गई, इसीलिए महेन्द्र को कुछ अच्छा नहीं लगता है।'

अब महेन्द्र के सुख-दुख के लिहाज़ से माँ गैर जैसी हो गई है। हालाँकि इस बात के जहन में आते ही उसे मर्मांतक हुआ! फिर भी वह मयंक को उदास देखकर चिन्तित हो गई।

उन्होंने विनोदिनी से कहा- "इस बार इनफ्लूएंजा के बाद मुझे दमा-जैसा कुछ हो गया है। बार-बार सीढ़ियाँ चढ़कर मुझसे ऊपर जाते नहीं बनता। महेन्द्र के खाने-पीने का ख्याल तुम्हीं को रखना है, बिटिया!

उसकी हमेशा की आदत है, किसी के जतन के बिना महेन्द्र रह नहीं सकता। देखो तो, बहू के जाने के बाद उसे पता नहीं क्या हो गया है। और बहू की भी बलिहारी, वह चली गई!" विनोदिनी बोली- "ज़रूरत क्या है, बुआ!"

राजलक्ष्मी बोलीं- "अच्छा, कोई ज़रूरत नहीं। मुझसे जो हो सकेगा, वही करूँगी।"

और वह उसी समय महेन्द्र के ऊपर वाले कमरे की झाड़-पोंछ करने जाने लगी। विनोदिनी कह उठी- "तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं, तुम मत जाओ! मैं ही जाती हूँ। मुझे माफ करो बुआ, जैसा तुम कहोगी, करूँगी।" राजलक्ष्मी लोगों की बातों की क़तई परवाह नहीं करती। पति की मृत्यु के बाद से दुनिया और समाज में उन्हें महेन्द्र के सिवाय और कुछ नहीं पता। विनोदिनी ने जब समाज की निन्दा का इशारा किया, तो वह खीझ उठीं। जन्म से महेन्द्र को देखती आई है, उसके जैसा भला लड़का मिलता कहाँ है? जब कोई उसकी आलोचना करता तो राजलक्ष्मी से रह न जाता उन्हें लगता कि इसी पल उसकी जबान गल क्यों नहीं रही!

महेन्द्र कॉलेज से लौटा और आज अपने कमरे को देखकर ताज्जुब में पड़ गया। दरवाज़ा खोलते ही चन्दन और धूप की खुशबू से घर महक उठा। मसहरी में रेशमी झालर बिछौने पर धप-धप धुली चादर और पुराने तकिए के बजाय दूसरा रेशमी फूल कढ़ा चौकोर तकिया- उसकी ख़ूबसूरत कढ़ाई विनोदिनी की काफ़ी दिनों की मेहनत का फल था। आशा उससे पूछा करती थी- 'ये चीज़ें तू बनाती आखिर किसके लिए है किरकिरी?' विनोदिनी हँसकर कहती- 'अपनी चिता की सेज के लिए। मरण के सिवा अपने सुहाग के लिए है भी कौन?'

दीवार पर महेन्द्र की जो तस्वीर थी, उसके फ्रेम के चारों कोनों पर बड़ी कुशलता से रेशमी गाँठें बाँधी गई थीं- नीचे की तिपाई पर फूलदानियों में गुलदस्ते- मानो महेन्द्र की प्रतिमूर्ति को किसी अजाने भक्त की पूजा मिली हो। कुल मिलाकर घर की शक्ल ही बदल गई थी। खाट पहले जहाँ थी, वहाँ से थोड़ी खिसकी हुई थी। कमरे को दो हिस्सों में बाँट दिया गया था। खाट के पास की दो बड़ी अलमारियों में कपड़े डालने से एक ओट जैसी हो गई थी, जिससे फर्श पर बैठने का बिछौना और रात को सोने की खाट अलग-अलग हो गई थी। काँच की जिस अलमारी में आशा की शौकिया सजावट थी, खिलौने थे, उसमें के काँच पर अन्दर से लाल कपड़ा जड़ दिया गया था। अब कुछ न दीखता था। कमरे के पुराने इतिहास की जो भी निशानी थी, नए हाथ की नई सजावट से वह ढक गई थी।

थका-माँदा महेन्द्र फर्श के साफ-सुथरे बिछौने पर लेट गया। तकियों पर माथा रखते ही एक मीठी-सी खूशबू मिली- तकिए की रुई से नागकेसर का पराग और कुछ इत्र डाला गया।

महेन्द्र की ऑंखें झप आईं। लगा, इस तकिए पर जिन हाथों की कला-कुशलता की छाप पड़ी है, मानो उसी की चम्पा-कली-सी अगुलियों की सुगन्ध आ रही है।

इतने में चाँदी की तश्तरी में फल-फूल और काँच के गिलास में बर्फ़ डला अनन्नास का शर्बत लिये नौकरानी आई।

महेन्द्र ने बड़ी तृप्ति से खाया। बाद में चाँदी के डिब्बे में पान लेकर विनोदिनी आई। बोली- "इधर कई दिन मैं खाने के समय न आ पायी, माफ करना! और जो चाहे सो करो, मगर मेरे सिर की कसम रही, मेरी ऑंख की किरकिरी को यह मत लिख भेजना कि तुम्हारी देख-भाल ठीक से नहीं हो रही है। जहाँ तक मुझसे बनता है, करती हूँ।"

विनोदिनी ने पान का डिब्बा महेन्द्र की तरफ बढ़ाया। पान में भी आज केवड़े की खुशबू थी।

महेन्द्र ने कहा- "सेवा-जतन के मामले में कभी-कभी ऐसी कमी रहना भी अच्छा है।"

विनोदिनी बोली- "क्यों भला?"

महेन्द्र ने कहा- "बाद में उलाहना देकर ब्याज समेत वसूलने की गुंजाइश रहती है।"

"महाजनजी, सूद कितना?" महेन्द्र ने कहा- "खाने के समय हाज़िर न रहीं, तो बाद में हाज़िर होने के बाद भी बकाया रह जाएगा।"

विनोदिनी बोली- "ऐसा कड़ा हिसाब है तुम्हारा कि देखती हूँ, तुम्हारे हाथों पड़ जाने पर छुटकारा नहीं।"

महेन्द्र ने कहा- "हिसाब कड़ा तो उसे कहते हैं जब वसूला जा सके। यदि वसूल ही न पाओ तो हिसाब तो रखना अपने पास?"

विनोदिनी ने कहा- "वसूल करने योग्य है भी क्या! मगर कैद तो कर ही रखा है।"

और मज़ाक को एकाएक गंभीर बनाते हुए उसने एक लम्बी साँस छोड़ी।

महेन्द्र ने भी गम्भीर होकर कहा- "तो यह कैदखाना है, क्यों?"

ऐसे में रोज़ की तरह बैरा तिपाई पर बत्ती रख गया।

अचानक ऑंख पर रोशनी पड़ी, तो हाथ की ओट करके नज़र झुकाए विनोदिनी ने कहा- "क्या पता भई, बातों में तुमसे कौन जीते? मैं चली।" महेन्द्र ने अचानक कसकर उसका हाथ पकड़ लिया। कहा- "बन्धन जब मान ही लिया, तो फिर जाओगी कहाँ?"

विनोदिनी बोली- "छि: छोड़ो! जिसके भागने का कोई रास्ता नहीं, उसे बाँधने की कोशिश कैसी!"

ज़बरदस्ती हाथ छुड़ाकर विनोदिनी चली गई। महेन्द्र सुगंधित तकिए पर सिर रखे बिछावन पर पड़ा रहा। उसके कलेजे में खलबली मच गई। सूनी साँझ, सूना कमरा-नव वसन्त की बयार- विनोदिनी का मन मानो पकड़ में आया- आया; लगा महेन्द्र अब अपने को संयमित नहीं कर पाएगा। जल्दी से उसने बत्ती बुझा दी, दरवाज़ा बन्द कर लिया और समय से पहले ही बिस्तर पर सो गया। बिछावन भी तो यह पिछले वाला नहीं। चार-पाँच गद्दे पड़े थे। काफ़ी नर्म। एक खुशबू यहाँ भी। अगरु की, खस की या काहे की थी, ठीक-ठीक समझ में न आई। महेन्द्र बार-बार इस-उस करवट लेटने लगा- मानो कोई भी पुरानी एक निशानी मिले कि उसे जकड़ ले। मगर कुछ भी हाथ न आया।

रात के नौ बजे दरवाज़े पर दस्तक पड़ी। बाहर से विनोदिनी ने कहा- "भाई साहब, आपका भोजन! दरवाज़ा खोलिए!"

महेन्द्र जल्दी से उठा और दरवाज़ा खोलने के लिए कुंडी पर हाथ लगाया। लेकिन दरवाज़े को खोला नहीं, फर्श पर पट पड़ गया। बोला- "नहीं, मुझे भूख नहीं है।"

बाहर से घबराहट-भरी आवाज- 'तबीयत तो ख़राब नहीं है? पानी ला दूँ? और कुछ चाहिए?"

महेन्द्र ने कहा- "नहीं मुझे नहीं चाहिए।"

विनोदिनी बोली- "आपको हमारी कसम। क्या हुआ बताओ! अच्छा चलो तबीयत ख़राब है तो कुंडी तो खोलो।" महेन्द्र ने ज़ोर से कहा- "उँहूँ! नहीं खोलूँगा। तुम जाओ।"

महेन्द्र फिर जाकर अपने बिस्तर पर लेट गया और आशा की स्मृति को सूनी सेज पर टटोलने लगा।

लाख कोशिश करने पर भी जब नींद न आई, तो दवात-कलम लेकर आशा को खत लिखने बैठा। लिखा, 'आशा, अब और ज़्यादा दिन मुझे अकेला मत छोड़ो-तुम्हारे न रहने से ही मेरी सारी प्रवृत्तियाँ जंजीर तोड़कर मुझे न जाने कहाँ खींच ले जाना चाहती हैं। जिससे राह देख-देखकर चलूँ वह रोशनी कहाँ? वह रोशनी तो तुम्हारी विश्वास-भरी ऑंखों की प्रेमपूर्ण दृष्टि है। मेरी मंगल, ध्रुव, तुम जल्दी चली आओ! मुझे अविचल बनाओ, मुझे बचाओ, मेरे हृदय को भर दो।'

महेन्द्र न जाने कब तक लिखता रहा। दूर, और दूर के कई गिरजों की घड़ियों में तीन बजे। कलकत्ता की सड़कों पर गाड़ियों की घड़घड़ाहट थम चुकी थी, मुहल्ले के उस छोर पर किसी नटी के कंठ से विहाग की जो तान उठ रही थी, वह भी सारी दुनिया पर फैली हुई शांति और नींद में बिल्कुल डूब गई। आशा को हृदय से याद करके और मन के आवेग को लम्बे पत्र में ज़ाहिर करके महेन्द्र को काफ़ी राहत मिली और लेटते ही उसे नींद आने में देर न लगी।

सुबह उसकी नींद खुली तो बेला हो आई थी। कमरे में धूप आ रही थी।

महेन्द्र जल्दी से उठ बैठा, रात की बातें मन में हल्की हो गई थीं। देखा, रात की लिखी चिट्ठी दवात से दबी तिपाई पर पड़ी है। उसे फिर से पढ़ गया। उसे लगा-'अरे, यह किया क्या मैंने! यह तो मानो उपन्यास का वृत्तांत हो गया। गनीमत कहो कि भेजी नहीं। क्या सोचती आशा मन में! आधी तो वह समझती ही नहीं।'

रात को जो आवेग बेहिसाब बढ़ गया था, उसकी याद आते ही महेन्द्र शर्मसार हो गया। चिट्ठी के टुकड़े-टुकड़े करके फेंक दिए। सरल भाषा में आशा को एक छोटा-सा पत्र लिखा- "और कितनी देर करोगी तुम? तुम्हारे बड़े चाचा के आने में अगर विलम्ब हो, तो मुझे वैसा लिखो। मैं खुद आकर तुम्हें ले जाऊँगा। अकेले मुझे अच्छा नहीं लग रहा है।"

27

महेन्द्र वापस आ गया और कुछ ही दिनों में आशा काशी पहुँच गई, इससे अन्नपूर्णा को बड़ी आशंका हुई। आशा से वह तरह-तरह के सवाल पूछने लगी- "क्यों री चुन्नी, और तेरी वह ऑंख की किरकिरी! तेरी राय में जिसके मुकाबले दूसरी गुणवंती नहीं?"

"सच मौसी, मैंने बढ़ाकर बिल्कुल नहीं कहा है। जैसी बुध्दि, वैसा ही रूप! काम-काज में उतनी ही कुशल।"

"तेरी तो सखी ठहरी। तू तो गुणवंती बताएगी ही। घर के और दूसरे लोग क्या कहते हैं?"

"माँ तो उसकी तारीफ करते नहीं थकतीं कभी। जब भी वह अपने घर जाने को कहती है, माँ परेशान हो उठती हैं। उसके जैसी सेवा कोई नहीं कर सकता। घर की नौकर-नौकरानी भी बीमार पड़ जाएँ, तो माँ-सी, बहन-सी उसकी सेवा करती है।"

"और महेन्द्र की क्या राय है?"

"उन्हें तो तुम जानती ही हो, निहायत अपना कोई न हो तो उन्हें नहीं जँचता। हर कोई उसे चाहता है, लेकिन उनसे अब तक ठीक पटरी नहीं बैठी।" "सो क्यों?"

"जोर-जबरदस्ती मैं कभी मिला भी देती हूँ, पर बोल-चाल लगभग बन्द ही समझो! कितने कम बोलने वाले हैं, मालूम ही है तुम्हें! लोग समझते हैं, दंभी हैं। मगर बात वैसी नहीं, दो-एक ख़ास-खास आदमियों के सिवा औरों को वे बर्दाश्त नहीं कर पाते।"

अंतिम बात कहकर आशा को अचानक लाज लगी-दोनों गाल तमतमा उठे। अन्नपूर्णा खुश होकर मन-ही-मन हँसी। बोली- "ठीक कहती हो, महेन्द्र जब आया था यहाँ, उसका नाम कभी उसकी जबान पर भी न आया।"

आशा ने दुखी होकर कहा- "यही उनमें खामी है। जिसे नहीं चाहते वह मानो है ही नहीं। उसे मानो न कभी देखा, न जाना।" शांत स्निग्ध मुस्कान से अन्नपूर्णा ने कहा- "और जिसे चाहता है, मानो जन्म-जन्मांतर उसी को देखता-जानता रहा है, यह भाव भी उसमें है, है न चुन्नी?"

आशा ने उत्तर न देकर नजर झुका ली।

अन्नपूर्णा ने पूछा- "और बिहारी का क्या हाल है, चुन्नी? वह शादी करेगा ही नहीं?"

सुनते ही आशा का चेहरा गम्भीर हो गया। वह सोच ही न पाई कि क्या जवाब दे।

आशा को निरुत्तर देखकर अन्नपूर्णा घबरा गई। पूछा- "सच-सच बता चुन्नी, बिहारी बीमार-वीमार तो नहीं है।"

आशा ने कहा- "देख मौसी, उनकी बात उन्हीं से पूछ।'

अचरज से अन्नपूर्णा ने कहा- "क्यों?"

आशा बोली- "यह मैं नहीं बता सकती।" कहकर वह कमरे से बाहर चली गई।

अन्नपूर्णा चुपचाप बैठी सोचने लगी- हीरे जैसा लड़का बिहारी, कैसा हो गया है कि उसका नाम सुनते ही चुन्नी उठकर बाहर चली गई। किस्मत का फेर!

साँझ को अन्नपूर्णा पूजा पर बैठी थीं कि कोई गाड़ी बाहर आकर रुकी। गाड़ीवान घर वाले को पुकारता हुआ दरवाज़े पर थपकी देने लगा। पूजा करती हुई अन्नपूर्णा बोल उठी- "अरे लो! मैं तो भूल ही गई थी एकबारगी। आज कुंज की सास और उसकी बहन की दो लड़कियों के आने की बात थी इलाहाबाद से। शायद आ गईं सब। चुन्नी बत्ती लेकर दरवाज़ा खोल जरा!"

लालटेन लिये आशा ने दरवाज़ा खोल दिया। बाहर बिहारी खड़ा है। वह बोल उठा- "अरे यह क्या भाभी, मैंने तो सुना था, तुम काशी नहीं आओगी?"

आशा के हाथ से लालटेन छूट गई। उसे मानो भूत दिख गया। एक साँस में वह दुतल्ले पर भागी और घबराकर चीख पड़ी- "मौसी! तुम्हारे पैर पड़ती हूँ मैं, इनसे कह दो, आज ही चले जाएँ।" पूजा के आसन पर अन्नपूर्णा चौंक उठीं। कहा- "अरे, किनसे कह दूँ चुन्नी, किनसे?"

आशा ने कहा- "बिहारी बाबू यहाँ भी आ गए!"

और बगल के कमरे में जाकर उसने दरवाज़ा बन्द कर लिया।

नीचे खड़े बिहारी ने सब सुन लिया। वह उल्टे पाँवों भाग जाने को तैयार हो गया- लेकिन पूजा छोड़कर अन्नपूर्णा जब नीचे उतर आईं तो देखा, बिहारी दरवाज़े के पास ज़मीन पर बैठा है- उसके शरीर की सारी शक्ति चली गई है।

वह रोशनी नहीं ले आई थीं। अंधेरे में बिहारी के चेहरे का भाव न देख सकीं, बिहारी भी उन्हें न देख सका।

अन्नपूर्णा ने आवाज़ दी- "बिहारी!"

बिहारी का बेबस शरीर एड़ी से चोटी तक बिजली की चोट से चौंक पड़ा। बोला- "चाची, बस और एक शब्द भी न कहो, मैं चला।"

बिहारी ने ज़मीन पर ही माथा टेका, अन्नपूर्णा के पाँव भी न छुए। माँ जिस तरह गंगासागर में बच्चे को डाल आती है, अन्नपूर्णा ने उसी तरह रात के उस अंधेरे में चुप-चाप बिहारी का विसर्जन किया- पलटकर उसे पुकारा नहीं। देखते-ही-देखते गाड़ी बिहारी को लेकर ओझल हो गई।

आशा ने उसी रात महेन्द्र को पत्र लिखा- "आज शाम को एकाएक बिहारी यहाँ आए थे। बड़े चाचा कब तक कलकत्ता लौटेंगे, ठिकाना नहीं। तुम जल्दी आकर मुझे यहाँ से ले जाओ?"

28

उस दिन रात तक जागते रहने और भारी आवेग के कारण सुबह महेन्द्र में एक अवसाद तारी था। फागुन के अधबीच-गर्मी पड़नी शुरू हो गई थी। और सवेरे महेन्द्र अपने सोने के कमरे के एक ओर बैठकर पढ़ता था। आज वह तकिए के सहारे फर्श पर पड़ा रहा। बेला हो आई, नहाने नहीं गया। रास्ते में फेरी वाले आवाज़ लगाते हुए गुज़रने लगे। दफ़्तर जाने वाली गाड़ियों की अविराम गड़गड़ाहट। पड़ोसी का नया मकान खड़ा हो रहा था। मज़दूरिनें छत की कुटाई की ताल पर एक स्वर से गाने लगीं। हल्की गर्म दक्खिनी बयार से महेन्द्र की दुखती नसें शिथिल हो आई थीं। कोई कठिन निश्चय, कोई दुरूह चेष्टा, मन से जूझना आज के इस अलसाए गिरे-गिरे से वसंत के दिन के लायक़ न था।

"भाई साहब, आज हो क्या गया तुम्हें? नहाओगे नहीं, खाना तैयार है। अरे, सो रहे हो। तबीयत ख़राब है? सिर दु:ख रहा है?"- और, पास आकर विनोदिनी ने उसके माथे पर हाथ रखा। अधमुंदी ऑंखों और लड़खड़ाई आवाज़ में महेन्द्र ने कहा- "आज तबीयत कुछ अच्छी नहीं- नहाऊँगा नहीं आज।"

विनोदिनी बोली- "न नहाओगे, तो थोड़ा-सा खा लो!"

ज़िद करके विनोदिनी उसे रसोई में ले गई और बड़े जतन और आग्रह से खिलाया।

खा-पीकर महेन्द्र फिर आकर लेट गया। विनोदिनी उसके सिरहाने बैठकर धीरे-धीरे सिर दबाने लगी! ऑंखें बन्द किए महेन्द्र ने कहा- "तुमने अभी खाया नहीं है, भई किरकिरी! जाओ, खा लो!" मगर विनोदिनी न गई। अलसाई दोपहरी के गर्म झोंकों से घर के परदे उड़ने लगे, दीवार के पास वाले नारियल के पेड़ की बेमानी मरमराहट कमरे में आने लगी। महेन्द्र का कलेजा जोर-जोर से थिरकने लगा और विनोदिनी का घना नि:श्वास उसी ताल पर महेन्द्र के कपाल पर पड़े बालों को नचाता रहा। किसी के भी गले से एक शब्द न निकला। महेन्द्र सोचने लगा- "ओर-छोर-हीन इस संसार के अनंत स्रोत में बहा जा रहा हूँ, जरा देर के लिए कभी कहीं नाव अगर किनारे पर लगे तो उससे किसी का क्या आता-जाता है, और कितने दिनों के लिए!"

सिरहाने बैठी महेन्द्र का सिर सहलाती विनोदिनी का सिर विह्नल यौवन के भार से धीरे-धीरे झुका जा रहा था और अन्त तक उसकी लटों की नोक महेन्द्र के कपोल को छूने लगी। हवा से हिलती हुई लटों के कोमल स्पर्श से उसका सारा शरीर रह-रहकर काँप उठने लगा, साँस मानो कलेजे के पास रुक गई, बाहर निकलने की राह न मिली। महेन्द्र झटपट उठ बैठा। बोला- "न मेरी क्लास है। कॉलेज चलूँ!" कहकर वह विनोदिनी की तरफ ताके बिना खड़ा हो गया।

विनोदिनी बोली- "परेशान न हो, कपड़े मैं ला देती हूँ।"

जाकर वह महेन्द्र के कॉलेज जाने के कपड़े ले आई।

महेन्द्र जल्दी-जल्दी चला गया, लेकिन कॉलेज में मन न लगा। देर तक पढ़ने में जी लगाने की कोशिश की मगर बेकार। आखिर जल्दी ही घर लौट आया।

कमरे में दाखिल हुआ तो देखा, पेट के नीचे तकिया रखे ज़मीन पर बैठी विनोदिनी कोई किताब पढ़ रही है-घने काले बालों का ढेर उसकी पीठ पर बिखरा पड़ा है। महेन्द्र के जूतों की आवाज़ शायद उसे सुनाई नहीं दी। पैर दबाकर महेन्द्र उसके क़रीब जा खड़ा हुआ। पढ़ते-पढ़ते उसने विनोदिनी को एक दीर्घ-नि:श्वास छोड़ते हुए देखा।

महेन्द्र ने कहा- "अरी ओ करुणामयी, कल्पना की दुनिया के लिए हृदय की फिजूलखर्ची मत करो! पढ़ क्या रही हो?"

घबराकर विनोदिनी उठ बैठी। किताब अपने ऑंचल में छिपा ली। महेन्द्र ने झपटकर छीनने की कोशिश की। देर तक हाथापाई, छीना-झपटी के बाद महेन्द्र ने विनोदिनी से किताब छीन ली। देखा बंकिम बाबू की लिखी 'विषवृक्ष' थी। जल्दी-जल्दी साँस लेती हुई गुस्से में मुँह फेरकर विनोदिनी चुप हो रही।

महेन्द्र के कलेजे में बेहद उथल-पुथल मची थी। बड़ी कोशिश के बाद वह हँसकर बोला- "जा, बेहद छका दिया। मैंने सोचा था, कुछ बड़ी ही गोपनीय चीज़ होगी और पहाड़ खोदने के बाद निकली क्या, चुहिया ही न! बंकिम बाबू का 'विषवृक्ष'?"

विनोदिनी बोली- "मेरे पास भला क्या गोपनीय हो सकता है, सुनूँ तो ज़रा।"

महेन्द्र फट से कह उठा- "कहीं बिहारी की चिट्ठी आई होती!"

पल में विनोदिनी की निगाह से बिजली छिटक पड़ी। अब तक मानो कामदेव कमरे के कोने में खिलवाड़ कर रहा था- वह मानो दूसरी बार जलकर राख हो गया। जलती हुई एक लपट की तरह विनोदिनी लमहे-भर में उठ खड़ी हुई। उसकी कलाई पकड़कर महेन्द्र ने कहा-"माफ करो, मैंने मज़ाक किया था।"

विनोदिनी ने तेज़ी से अपनी कलाई छुड़ा ली और कहा- "मज़ाक आखिर किसका! उनसे मैत्री के योग्य होते, तो मैं मज़ाक सह लेती। तुम्हारा दिल बड़ा छोटा है- मैत्री करने की जुर्रत नहीं, फिर मज़ाक!" विनोदिनी चलने लगी। महेन्द्र ने दोनों हाथों से उसके पैर थाम लिये।

ठीक इसी समय सामने एक छाया दिखी। महेन्द्र ने चौंककर उसके पैर छोड़ दिए। देखा, बिहारी खड़ा था।

बिहारी ने अपनी स्थिर दृष्टि से दोनों को जलाते हुए शांत और धीर स्वर से कहा- "बड़े बेमौके आ पहुँचा मैं। खैर! ज़्यादा देर ठहरना नहीं है। एक बात कहनी थी। मैं काशी गया था। पता नहीं था कि भाभी वहाँ हैं। अनजाने उनके प्रति यह कसूर हो गया। उनसे माफी माँगने का अवसर नहीं है, सो तुमसे माँगने आया हूँ। जाने-अनजाने अगर कभी मेरे मन को कोई पाप छू गया हो, तो उसके लिए उन्हें भी कोई दु:ख न सहना पड़े, तुमसे यही मेरी विनती है।"

अचानक बिहारी के सामने उसकी कमज़ोरी ज़ाहिर हो गई, इससे महेन्द्र का मन दहक उठा। अभी उदार बनने का मौक़ा न था। वह ज़रा हँसकर बोला, "एक कहावत है- ठाकुर घर में कौन? तो मैंने केला नहीं खाया। तुम्हारा ठीक वही हाल है। मैंने न तो तुम्हें दोष मानने को कहा, न इन्कार करने को ही। फिर माफी माँगकर साधु बनने क्यों आए?"

बिहारी कुछ देर खड़ा रहा। फिर जवाब देने की जोरदार कोशिश से उसके होठ काँप उठे, तो विनोदिनी बोल पड़ी- "बिहारी बाबू, तुम कोई जवाब मत दो- कुछ मत कहो! यह आदमी जो कुछ भी जबान पर लाया, वह उसी के मुँह का कलंक हो रहा है- वह कलंक तुम्हें नहीं छू पाया है।"

जाने विनोदिनी का कहा बिहारी के कानों तक पहुँचा या नहीं- जैसे स्वप्न में चलता हो, वह वहाँ से सीढ़ियों पर होकर नीचे उतरने लगा।

विनोदिनी पीछे लगी हुई गई। कहा- "भाई साहब, मुझसे तुम्हें कुछ भी नहीं कहना है? झिड़कना हो तो झिड़को!"

बिहारी फिर भी जब कुछ न बोला और आगे ही बढ़ने लगा तो विनोदिनी ने आगे आकर दोनों हाथों से दाएँ हाथ को कसकर पकड़ लिया। बेहद नफरत से उसे झटककर बिहारी चला गया। उसे यह भी न मालूम हुआ कि उस झटके से विनोदिनी गिर पड़ी। गिरने की आवाज़ सुनकर महेन्द्र दौड़ा आया। विनोदिनी के बाएँ हाथ की कोहनी फूट गई थी। लहू बह रहा था।

महेन्द्र बोला- "उफ, काफ़ी कट गया है!" और अपने महीन कुरते से थोड़ा-सा कपड़ा फाड़कर महेन्द्र ने वहाँ पट्टी बाँध देनी चाही।

विनोदिनी ने झट अपना हाथ हटा लिया। कहा- "ऊँहूँ, छोड़ दो। लहू बहने दो!"

महेन्द्र ने कहा- "पट्टी बाँधकर एक दवा देता हूँ- दर्द जाता रहेगा, घाव जल्दी ठीक हो जाएगा।"

विनोदिनी खिसक गई। बोली- "मैं दर्द मिटाना नहीं चाहती- यह जख्म रहे।"

महेन्द्र ने कहा- "आज बेताब होकर दूसरे के सामने मैंने तुम्हारी हेठी की है, माफ कर सकोगी मुझे?"

विनोदिनी बोली- "माफी किस बात की? ठीक किया है। मैं क्या किसी से डरती हूँ? मैं किसी को नहीं मानती! जो मुझे धक्का देकर गिरा जाते हैं, वही क्या अपने सब हैं और जो पैर पकड़कर खींचते हुए रोक रखना चाहते हैं, वे कोई नहीं?"

महेन्द्र उन्मत्त-सा गद्गद स्वर में बोला- "विनोदिनी! तो मेरे प्रेम को तुम पैरों से ठुकराओगी नहीं?"

विनोदिनी ने कहा- "सिर-ऑंखों रखूँगी। ज़िन्दगी में मुझे इतना ज़्यादा तो नहीं मिला कि मैं 'नहीं चाहिए' कहकर लौटा दूँ।"

महेन्द्र ने फिर तो दोनों हाथों से उसके दोनों हाथ थामकर कहा- "तो फिर मेरे कमरे में चलो! आज मैंने तुम्हारा दिल दुखाया है- तुम भी मुझे चोट पहुँचाकर चली आई हो, यह मलाल जब तक मिट नहीं जाता, मुझे न खाने में चैन है, न सोने में।"

विनोदिनी बोली- "आज नहीं। आज छोड़ दो मुझे। अगर मैंने तकलीफ पहुँचाई हो तो माफ करना!"

महेन्द्र बोला- "तुम भी माफ कर दो मुझे, वरना रात मैं सो नहीं सकूँगा।"

विनोदिनी बोली- "मैंने माफ कर दिया।"

उसी दम विनोदिनी से प्यार और क्षमा का निदर्शन पाने के लिए महेन्द्र व्यग्र हो उठा। लेकिन उसके मुँह की ओर नज़र पड़ते ही वह ठिठक गया। विनोदिनी नीचे उतर गई और वह भी छत पर टहलने लगा। आज अचानक बिहारी के सामने उसकी चोरी पकड़ी गई, इससे उसके मन में मुक्ति की एक खुशी आई। चोरी-चुपके में एक घिनौनापन है, वह घिनौनापन मानो एक आदमी के पास प्रकट होने से बहुत हद तक जाता रहा। मन-ही-मन वह बोला- 'खुद को भला बताकर मैं अब यह झूठ नहीं चलाना चाहता- लेकिन मैं प्यार करता हूँ, प्यार करता हूँ- यह बात झूठी नहीं है।' अपने प्रेम के गर्व से उसकी अकड़ इतनी बढ़ गई कि खुद को मानकर वह अकड़ में गर्व का अनुभव करने लगा।

29

दूसरे दिन सोकर उठते ही एक मीठे आवेग से महेन्द्र का हृदय परिपूर्ण हो गया। प्रभात की सुनहली किरणों ने मानो उसकी सभी चिन्ता-वासना पर सोना फेर दिया। कितनी प्यारी है पृथ्वी, कितना अच्छा आकाश! फूल के पराग जैसी हवा मानो उसके मन को उड़ा ले जाने लगी।

सवेरे-सवेरे मृदंग-मजीरे लिये वैष्णव भिखारी ने गाना शुरू कर दिया था। दरबान उन्हें खदेड़ने लगा। महेन्द्र ने दरबान को झिड़का और भिखारी को एक रुपया दे दिया। बैरा बत्ती लेकर लौट रहा था। लापरवाही से उसने बत्ती गिरा दी। चूर-चूर हो गई। महेन्द्र को देखकर तो उसके प्राण कूच करने लगे। महेन्द्र ने लेकिन डाँट नहीं बताई। कहा- "वहाँ अच्छी तरह से झाडू लगा दे, किसी को काँच न चुभ जाए।" आज कोई नुकसान उसे नुकसान जैसा न लगा।

अब तक प्रेम पर्दे के पीछे नेपथ्य में छिपा बैठा था। अब सामने आकर उसने परदा उठा दिया है। मानो सारे संसार पर से परदा उठा गया। रोज़-रोज़ की देखी-सुनी दुनिया की सारी तुच्छता गायब हो गई। पेड़-पौधे, राह चलते लोग, शहर की चहल-पहल... आज सब-कुछ जैसे अनोखा हो! संसारव्यापी यह नवीनता अब तक आखिर थी कहाँ!

उसे लगने लगा, आज विनोदिनी से और दिनों- जैसा साधारण मिलन न होगा। आज सुबह से वह बेताब घूमता रहा- कॉलेज न जा सका। जाने मिलन की घड़ी अचानक कब आ जाए- यह तो किसी पत्र में लिखा नहीं।

घर के धन्धों में जुटी विनोदिनी की आवाज़ कभी भण्डार से, कभी रसोई से महेन्द्र के कानों में पहुँचने लगी। आज यह उसे अच्छा न लगा। आज मन-ही-मन विनोदिनी को उसने संसार से बहुत दूर ले जाकर स्थापित किया था।

समय काटे नहीं कट रहा था। महेन्द्र का खाना-पीना चुक गया। घर के काम-धन्धों से छुट्टी हुई। दोपहर सुनसान हो गई। मगर विनोदिनी का पता नहीं। दु:ख और सुख, बेताबी और उम्मीद में महेन्द्र के मन के सितार के सारे तार झनझनाने लगे।

कल जिसके लिए छीना-झपटी हुई थी, वह 'विषवृक्ष' किताब फर्श पर पड़ी थी। उसे देखते ही छीना-झपटी की याद हो आई और महेन्द्र के मन में पुलकन भरा आवेश जग गया। कल विनोदिनी ने जिस तकिए पर अपना सिर रखा था, उसे क़रीब खींचकर महेन्द्र ने उस पर अपना माथा रखा। पड़ा-पड़ा 'विषवृक्ष' के पन्ने पलटने लगा। जाने कब किताब में जी लग गया और कब पाँच बज गए, पता नहीं।

इतने में एक मुरादाबादी थाली में फल-मिठाई और एक तश्तरी में बर्फ-चीनी डाल खुशबू-बसा ख़रबूज़ा लिये विनोदिनी आई। महेन्द्र से बोली- "कर क्या रहे हैं! आखिर बात क्या है, पाँच बज गए और न तुमने मुँह-हाथ धोया, न कपड़े बदले!"

महेन्द्र के मन में एक धक्का-सा लगा। उसे क्या हुआ है, यह भी पूछने की बात है? महेन्द्र खाने लगा। विनोदिनी जल्दी से महेन्द्र के छत पर सूखते कपड़े लाकर तह करने और अपने कुशल हाथों से उन्हें अलमारी में करीने से रखने लगी।

महेन्द्र ने कहा- "जरा-रुको तो सही, खा लूँ, फिर मैं भी तुम्हारा हाथ बँटाता हूँ।"

विनोदिनी ने हाथ जोड़कर कहा- "दुहाई है, और चाहे जो करो, हाथ मत बँटाना!"

महेन्द्र खा चुका तो उठकर बोला- "अच्छा, मुझे निकम्मा समझती हो खैर, हो जाए आज इम्तहान!"

और महेन्द्र ने नाहक ही कपड़े तह करने की कोशिश की।

विनोदिनी बोली- "जनाबेमन, आप रख दीजिए। मेरा काम मत बढ़ाइए!"

महेन्द्र बोला- "तो तुम काम किए जाओ, मैं देख-देखकर सीखूँ।"

वह अलमारी के सामने विनोदिनी के पास जाकर बैठ गया। विनोदिनी कपड़े झाड़ने के बहाने कभी-कभी महेन्द्र की पीठ पर उन्हें पटककर ढंग से तह लगाने और सहेजने लगी।

और इस तरह आज का मिलन शुरू हुआ। तड़के से उठकर महेन्द्र ने जैसी कल्पना कर रखी थी, उस अनोखेपन का कोई आभास ही नहीं। महेन्द्र फिर भी दुखी न हुआ, बल्कि उसे थोड़ा आराम मिला। अपने काल्पनिक आदर्श को किस तरह वह रूप देता, उसका ढंग क्या होता, क्या कहता, क्या जताता, तय नहीं कर पा रहा था। कपड़े सहेजने के इस हँसी-मज़ाक में मानो अपने गढ़े एक असम्भव और कठिन आदर्श से उसे मुक्ति मिली।

इतने में राजलक्ष्मी आई। कहा- "महेन्द्र, बहू कपड़े सहेज रही है, तू वहाँ बैठा क्या कर रहा है?"

विनोदिनी बोली- "ज़रा देखो तो सही बुआ, नाहक ही मेरे काम में देर कर रहे हैं।"

महेन्द्र बोला- "अरे रे! मैं तो मदद कर रहा था।"

राजलक्ष्मी बोलीं- "हाय मेरी तकदीर! तू और मदद, सुनती है बहू, इसकी सदा की यही आदत है। माँ चाची के लाड़ में पला- कभी जो अपने हाथ से तिनका भी हिलाए!"

विनोदिनी से जब भी बातचीत होती सिर्फ यही कि इसका क्या किया जाए! यह तो हर बात में अपनी माँ का मुँह देखता रहता है। वह उसकी सेवा का भार विनोदिनी पर डालकर निश्चिन्त थीं, वह इससे भी खुश थी कि महेन्द्र ने विनोदिनी की मर्यादा समझी है। महेन्द्र को सुना-सुनाकर वह बोलीं- "बहू, आज तुमने महेन्द्र के गरम कपड़े धूप में सुखा लिये, कल उसके नए रूमालों में उसके नाम का हरफ तुम्हें काढ़ देना पड़ेगा। जब से तुम्हें साथ ले आई हूँ, आदर-जतन तो कुछ किया नहीं, बस काम में ही परेशान करती रही।"

विनोदिनी ने कहा- "ऐसा कहोगी बुआ, तो मैं समझूँगी तुम मुझे पराई समझती हो।"

दुलार से राजलक्ष्मी ने कहा- "अहा बिटिया, तुम्हारी-जैसी अपनी और है कौन मेरी?"

विनोदिनी कपड़े सहेज चुकी। राजलक्ष्मी ने पूछा- "तो अब चीनी का सिरका चढ़ा दूँ कि और कोई काम है तुम्हें?"

विनोदिनी बोली- "नहीं बुआ, और कोई काम नहीं है। चलो मिठाइयाँ बना लूँ चलकर।"

महेन्द्र बोला- "अभी-अभी तो तुम रोना रो गई कि इसे काम से ही परेशान करती रही और फिर तुरन्त काम के लिए खींचे लिये जा रही हो।" विनोदिनी की ठोड़ी पकड़कर राजलक्ष्मी ने कहा- "मेरी रानी बिटिया को तो काम करना ही पसन्द नहीं है।"

महेन्द्र बोला- "आज मैंने सोच रखा था, इसके साथ कोई किताब पढूँगा बैठकर क्योंकि मेरे पास कोई काम नहीं था।"


विनोदिनी ने कहा- "ठीक है बुआ, शाम को हम दोनों भाई साहब का पढ़ना सुनेंगी- क्यों?"

राजलक्ष्मी ने सोचा- "महेन्द्र बड़ा अकेला पड़ गया है- उसे बहलाए रखना ज़रूरी है।" बोली- "हाँ, ठीक तो है। खाना बनाकर शाम हम लोग पढ़ना सुनने आएँ?"

कनखियों से विनोदिनी ने एक बार महेन्द्र को देख लिया। वह बोला- "अच्छा।" लेकिन उसे कोई उत्साह नहीं रह गया। विनोदिनी राजलक्ष्मी के साथ-साथ चली गई।

नाराज होकर महेन्द्र ने सोचा- "ठीक है, मैं भी कहीं चला जाऊँगा और देर से लौटूँगा।" और समय उसने बाहर जाने के लिए कपड़े बदले। बड़ी देर तक वह छत पर टहलता रहा, बार-बार ज़ीने की तरफ ताकता रहा और अन्त में कमरे में जाकर बैठ गया। खीझकर मन-ही-मन बोला 'आज मैं मिठाई नहीं खाऊँगा। माँ को यह बता दूँगा कि देर तक चीनी के रस को उबालते रहने से उसमें मिठास नहीं रहती।'

महेन्द्र को भोजन कराने के समय आज विनोदिनी राजलक्ष्मी को साथ ले आई। दम फूलने के डर से वे ऊपर नहीं आना चाहती थीं। महेन्द्र बहुत गम्भीर होकर खाने बैठा। विनोदिनी बोली- "अरे यह क्या भाई साहब, तुम तो आज कुछ खा ही नहीं रहे हो।"


परेशान होकर राजलक्ष्मी ने पूछा- "तबीयत तो ख़राब नहीं?"

विनोदिनी बोली- "इतने जतन से मिठाइयाँ बनाई, कुछ तो खानी ही पड़ेंगी। ठीक नहीं बनीं शायद। तो फिर रहने दो। ज़िद पर खाना भी क्या! रहने दो!"

महेन्द्र बोला- "अच्छी मुसीबत में डाल दिया है! मिठाई ही खाने की इच्छा ज़्यादा है और अच्छी लग भी रही है; तुम रोको भी तो सुनने क्यों लगा भला।" दोनों ही मिठाइयाँ महेन्द्र रस लेकर खा गया।

खाना हो गया, तो तीनों महेन्द्र के कमरे में आ बैठे। राजलक्ष्मी ने कहा- "तूने कहा था न, कोई किताब पढ़ेगा। शुरू कर न!" महेन्द्र बोला- "मगर उसमें धर्म और देवताओं की कोई बात नहीं है। तुम्हें अच्छी नहीं लगेगी।"

अच्छी नहीं लगेगी! जैसे भी हो, अच्छी तो राजलक्ष्मी को लगनी ही थी। महेन्द्र चाहे किसी भाषा में पढ़े, उसे अच्छी लगनी ही थी। आह, बेचारा महेन्द्र, बहू काशी चली गई है।- अकेला पड़ गया है। उसे जो अच्छा लगेगा, वह माँ को अच्छा क्यों नहीं लगेगा?

विनोदिनी बोली- "एक काम क्यों नहीं करते भाई साहब, बुआ के कमरे में "शान्ति-शतक" पड़ा है, आज वही पढ़कर सुनाओ। बुआ को भी अच्छा लगेगा और शाम भी मजे में कटेगी।"

महेन्द्र ने बड़े ही करुण भाव से एक बार विनोदिनी की तरफ देखा। इतने में किसी ने आकर खबर दी-"माँजी, ललाइन आकर आपका इन्तज़ार कर रही हैं।"

ललाइन राजलक्ष्मी की जिगरी दोस्त है। शाम को उनसे गप-शप करने का लोभ छोड़ सकना उनके लिए असम्भव है। फिर भी वह नौकरानी से बोलीं-"उनसे जाकर कह, आज मुझे महेन्द्र से कुछ काम है। कल मगर ज़रूर आए। मैं उनकी प्रतीक्षा करूँगी।"

महेन्द्र झटपट बोल उठा- "तुम उनसे मिल क्यों नहीं आती हो? माँ!"

विनोदिनी बोली- "न हो तो तुम रुको बुआ; मैं ही बल्कि उनके पास जाती हूँ।"

राजलक्ष्मी प्रलोभन न छोड़ सकीं। बोलीं- "बहू, तब तक तुम यहाँ बैठो-देखूँ, मैं अगर उन्हें रुख़्सत करके आ पाऊँ। पढ़ना शुरू करो तुम लोग। मेरी प्रतीक्षा की ज़रूरत नहीं है।"

राजलक्ष्मी का कमरे से बाहर जाना था कि महेन्द्र से और न रहा गया। कह उठा- "जान-बूझकर क्यों तुम मुझे इस तरह परेशान करती हो?"

विनोदिनी ने अचरज से कहा- "मैंने क्या सताया तुम्हें! मेरा आना गुनाह है क्या? तो फिर क्या ज़रूरत है, मैं जाती हूँ।"

और वह नाराज-सी होकर उठने लगी।

महेन्द्र ने उसका हाथ पकड़ लिया। बोला- "इसी तरह से तो तुम मुझे जलाया करती हो।"

विनोदिनी ने कहा- "अच्छा, मुझे किसी बात की खबर न थी कि मुझमें इतना तेज है। और तुम्हारी जान तो कम कठिन नहीं है, बेहद झेल सकते हो। शक्ल से तो समझना मुश्किल है कि काफ़ी जले-झुलसे हो।"

महेन्द्र ने कहा- "शक्ल से क्या समझोगी?"- और ज़बरदस्ती विनोदिनी का हाथ खींचकर अपनी छाती से लगा लिया।

विनोदिनी 'उफ्' कर उठी ज़ोर से। महेन्द्र ने झट उसका हाथ छोड़ दिया। पूछा- "दर्द हो गया क्या?"

कल उसका हाथ जहाँ से कट गया था, वहाँ से फिर रक्त बहने लगा।

अफ़सोस से महेन्द्र ने कहा- "ग़लती हो गई, मैं भूल गया था। लेकिन मैं आज वहाँ पर पट्टी बाँधकर ही रहूँगा।"

विनोदिनी बोली- "नहीं-नहीं, कुछ नहीं हुआ। दवा मैं नहीं लगाती।"

महेन्द्र बोलीं- "क्यों?"

विनोदिनी ने कहा- "तुम्हारी डॉक्टरी की मुझे ज़रुरत नहीं। जैसा है, वैसा ही रहे।"

महेन्द्र तुरन्त गम्भीर हो गया। मन-ही-मन बोला-"औरत का मन समझ पाना बहुत ही मुश्किल है।"

विनोदिनी उठ खड़ी हुई। रूठे महेन्द्र ने रोकने की कोशिश न की। केवल पूछा- "जा कहाँ रही हो?"

विनोदिनी बोली- "काम है।"

कहकर वह धीरे-से चली गई।

महेन्द्र एक मिनट तो बैठा रहा, फिर उसे लौटाने के लिए तेज़ी से लपका। लेकिन सीढ़ी तक ही बढ़कर लौट आया और छत पर जाकर टहलने लगा। विनोदिनी प्रतिपल उसे खींचा भी करती, मगर पास नहीं फटकने देती। कोई उसे जीत नहीं सकता, महेन्द्र को इस बात का नाज़ था। इस नाज़ को आज उसने तिलांजलि दे दी। लेकिन औरों को वह जीत सकता है क्या-उसका यह गर्व भी अब नहीं रहने का? आज उसने हार मान ली, पर हरा न सका। दिल की बाबत महेन्द्र का सिर सदा ऊँचा रहा था, वह अपना सानी नहीं समझता था- लेकिन उसी बात में उसे अपना सिर मिट्टी में गाड़ना पड़ा। अपनी जो ऊँचाई उसने खो दी, उसके बदले कुछ पाया भी नहीं।

फागुन-चैत में बिहारी की ज़मींदारी से सरसों के फूल का शहद आता है और हर साल वह राजलक्ष्मी के लिए शहद भेजा करता था। इस बार भी भेज दिया।

शहद का मटका विनोदिनी खुद राजलक्ष्मी के पास ले गई। कहा- "बुआ, बिहारी भाई साहब ने भिजवाया है।"

राजलक्ष्मी ने उसे भण्डार में रख देने को कहा। बोली- "बिहारी बाबू, तुम लोगों की खोज-खबर में कभी नहीं चूकते। बेचारे की माँ नहीं, तुम्हें ही माँ मानते हैं।"

राजलक्ष्मी बिहारी को महेन्द्र की ऐसी एक छाया समझा करती थीं कि उसके बारे में विशेष कुछ जानती न थीं। वह उसका बिना दाम का, बिना जतन का और बिना चिन्ता का फरमाबरदार था। विनोदिनी ने उन्हें उसकी माँ के बारे में जो बताया, वह बात उनके मर्म को छू गई। सहसा उन्हें लगा- 'सच ही, बिहारी की माँ नहीं, वह मुझे ही माँ मानता आया है। याद आया, दु:ख परेशानी में, रोग-शोक में बिना बुलाए, बिहारी सदा चुपचाप निष्ठा के साथ उनकी सेवा करता आया है। उन सेवाओं को राजलक्ष्मी नि:श्वास-प्रश्वास की तरह ग्रहण करती रही हैं और उनके लिए किसी के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने की बात उनके मन में भी न आई। लेकिन बिहारी की खोज-खबर किसी ने न रखी? अन्नपूर्णा जब तक थीं, खोज-खबर रखती थीं।' राजलक्ष्मी सोचा करती थीं कि बिहारी को वश में रखने के लिए अन्नपूर्णा आडम्बर फैलाती है। उसाँस लेकर राजलक्ष्मी ने कहा- "बिहारी कोख के लड़के-जैसा ही है।"

कहते ही उनके जी में आया कि बिहारी अपने लड़के से भी ज़्यादा करता है और उसने अपनी भक्ति सदा एक-सी रखी। ख्याल आते ही एक लम्बा नि:श्वास बरबस उनके अन्तर से निकल पड़ा। विनोदिनी बोली- "उन्हें तुम्हारे हाथ की रसोई बड़ी प्रिय है।"

स्नेह-भरे गर्व से राजलक्ष्मी बोलीं- "मछली का शोरबा तो उसे और किसी के हाथ का रुचता ही नहीं।"

कहते-कहते उसे याद आया- "उधर बहुत दिनों से बिहारी नहीं आया।"

विनोदिनी ने कहा- "यही तो मैं सोच रही थी, बुआ! मगर विवाह के बाद आपके बेटे बहू को लेकर इस क़दर डूब गए हैं कि हित-मित्र कोई आकर भी क्या करे?" बात राजलक्ष्मी को ठीक लगी। बीवी को पाकर महेन्द्र ने अपने सारे हितैषियों को दूर हटा दिया। बिहारी का रूठना तो ठीक ही है- आए भी क्यों वह? बिहारी को अपनी ही जमात का आदमी समझकर उसके प्रति उनकी संवेदना बढ़ गई। वह विस्तार से विनोदिनी को बताने लगी कि छुटपन से बिहारी ने बिना किसी स्वार्थ के महेन्द्र का कितना उपकार किया है, उसके लिए कितनी बार कितनी तकलीफें झेली हैं उसने- और, बेटे के लिए उन्हें अपनी जो शिकायत थी, बिहारी के विवरण से वह उसका समर्थन करने लगी। कुछ दिनों में अपनी बहू को पाकर महेन्द्र अगर अपने सदा के साथी की ऐसी उपेक्षा करे, तो दुनिया में न्याय-धर्म फिर कहाँ रहा?

विनोदिनी बोली- "कल रविवार है। तुम बिहारी बाबू को भोजन पर आमंत्रित करो। वह खुश हो जाएगा।"

राजलक्ष्मी बोलीं- "ठीक कहा तुमने महेन्द्र के हाथ से कहकर किसी से न्योता भिजवा देते हैं।"

विनोदिनी- "नहीं, न्योता तुम खुद भेजो, बुआ।"

राजलक्ष्मी- "तुम्हारी तरह मैं क्या लिखना-पढ़ना जानती हूँ।"

विनोदिनी- "न सही, तुम्हारी तरफ से मैं ही लिखे देती हूँ।"

राजलक्ष्मी के नाम से विनोदिनी ने खुद लिखकर न्योता भेजा।

रविवार महेन्द्र के बड़े आग्रह का दिन होता। पिछली रात से ही उसकी कल्पना उद्दाम हो उठती- जो कि आज तक उसकी उम्मीद के अनुरूप हुआ कुछ भी न था। तो भी इतवार के सवेरे की आभा उसकी ऑंखों में अमृत बरसाने लगी। जागे हुए शहर की सारी हलचल अनोखे संगीत- जैसी उसके कानों में प्रवेश करने लगी।

मगर माजरा क्या है? आज कोई व्रत है माँ का? और दिन जैसा करती रही हैं, आज तो वह घर के काम-काज का ख़ास भार विनोदिनी पर सौंपकर निश्चिन्त नहीं है। आज खुद भी बहुत व्यस्त हैं वे। इसी हंगामे में दस बज गए। इस बीच किसी भी बहाने महेन्द्र एक पल के लिए भी विनोदिनी से न मिल सका। किताब में मन लगाना चाहा, बिल्कुल न लगा। अखबार के एक विज्ञापन पर नाहक ही पन्द्रह मिनट तक नज़र गड़ाए रहा। आखिर न रहा गया। नीचे गया। देखा, माँ खुद रसोई कर रही हैं और कमरे में ऑंचल बाँधे विनोदिनी उनकी मदद कर रही है। महेन्द्र ने पूछा- "बात क्या है आज? बड़ी धूम-धाम है।"

राजलक्ष्मी बोलीं- "बहू ने बताया नहीं तुम्हें? आज बिहारी को खाने के लिए बुलाया है।"

"बिहारी को निमंत्रण!" महेन्द्र को सुनकर बहुत ख़राब लगा। उसने तुरन्त कहा- "मैं घर पर नहीं रहूँगा माँ।" राजलक्ष्मी- "क्यों?"

महेन्द्र- "मुझे बाहर जाना है।"

राजलक्ष्मी- "खा-पीकर जाना। ज़्यादा देर न होगी।"

महेन्द्र- "मुझे भोजन के लिए निमंत्रण है।"

कनखियों से उसे देखकर विनोदिनी बोली- "दावत है, तो जाने दो, बुआ! न हो बिहारी बाबू अकेले ही खा लेंगे।"

लेकिन अपने हाथ से जतन से पकाएँ और महेन्द्र न खाए, यह उन्हें कैसे बर्दाश्त हो! वह जितना भी आग्रह करने लगीं, महेन्द्र उतना ही टालने लगा।- इस तरह नाराज महेन्द्र ने माँ को सज़ा देने की ठानी। राजलक्ष्मी की इच्छा हुई, रसोई छोड़कर चल दें। विनोदिनी बोलीं- "तुम फ़िक्र न करो, बुआ- भाई साहब यह सब बेकार की बातें कर रहे हैं- आज वह दावत पर हर्गिज़ नहीं जाएँगे।"

राजलक्ष्मी गर्दन हिलाकर बोलीं। "नहीं-नहीं बिटिया, तुम महेन्द्र को नहीं जानतीं। वह एक बार जो तय कर लेता है, उससे नहीं डिगता।" लेकिन साबित यही हुआ कि विनोदिनी महेन्द्र को राजलक्ष्मी से कम नहीं जानती। महेन्द्र ने समझा था कि बिहारी को विनोदिनी ने ही न्योता भिजवाया है। इससे उसका जी डाह से जितना जलने लगा, उतना ही उसके लिए बाहर जाना कठिन हो गया। बिहारी क्या करता है, विनोदिनी क्या करती है, यह देखे बिना वह भला जिए कैसे? देखकर जलना ही पड़ेगा, फिर भी देखना ज़रूरी था। आज बहुत दिनों के बाद एक निमंत्रित आत्मीय की तरह बिहारी महेन्द्र के अन्त:पुर में आया। छुटपन से ही जो घर उसका जाना-पहचाना रहा है, घर के लड़के ही तरह जहाँ उसने बचपन की शरारतें की हैं, उसी द्वार पर आकर आज वह ठिठक गया। उसके अन्तर के दरवाज़े पर ऑंसू की एक लहर उमड़ उठने के लिए आघात करने लगी। उस चोट कसे पीकर होठों में हँसी लिये अन्दर गया और तुरन्त नहाकर आई राजलक्ष्मी को प्रणाम करके उनके चरणों की धूल ली। जिन दिनों बिहारी हरदम वहाँ आया-जाया करता था, ऐसे प्रणाम की प्रथा न थी। आज मानो वह सुदूर प्रवास से घर लौटा हो। प्रणाम करके उठते ही स्नेह से राजलक्ष्मी ने उसके सिर पर स्पर्श किया।

आज गहरी संवेदनाओं के साथ राजलक्ष्मी ने बिहारी के प्रति पहले से ज़्यादा स्नेह जताया। कहा- "बिहारी, तू इतने दिनों से यहाँ क्यों नहीं आया? मैं रोज़ ही सोचती थी, आज ज़रूर आएगा, मगर तेरा पता नहीं?"

बिहारी ने हँसकर कहा- "रोज़ आता होता, तो माँ रोज तुम अपने बिहारी को याद नहीं करतीं। कहाँ हैं महेन्द्र भैया?"

राजलक्ष्मी उदास होकर बोलीं- "जाने कहाँ आज दावत है उसकी, रुक न सका।"

सुनकर बिहारी का मन परेशान हो गया। 'छुटपन की मैत्री का आखिर यह अंजाम? एक लम्बा नि:श्वास छोड़कर मन से सारे विषाद को हटा देने की कोशिश करता हुआ बोला- "अच्छा, क्या-क्या बना है।" और वह अपने प्रिय व्यंजनों की बात पूछने लगा।

इतने में महेन्द्र ने आकर सूखे स्वर में पूछा-"बिहारी, कैसे हो?"

राजलक्ष्मी बोलीं- "दावत में नहीं गए?"

शर्म छिपाते हुए महेन्द्र बोला- "नहीं, गया।"

विनोदिनी नहाकर आई, तो पहले तो बिहारी कुछ बोल ही न सका। विनोदिनी और महेन्द्र को जिस रूप में वह देख गया था, वह हृदय में अंकित ही था। विनोदिनी उसके क़रीब आकर बोली- "क्यों भाई साहब, मुझे भूल गए हैं क्या?"

बिहारी बोला- "सबको पहचाना जा सकता है क्या?"

विनोदिनी ने कहा- "अगर थोड़ा-सा विचार हो तो जा सकता है।"

और उसने बुआ को पुकारकर कहा- "बुआ, खाना तैयार है।"

महेन्द्र और बिहारी खाने बैठ गए। राजलक्ष्मी पास बैठकर देखने लगीं।

महेन्द्र का ध्यारन खाने पर न था। वह परोसने के पक्षपात पर गौर कर रहा था। उसे लगा, बिहारी को भोजन परोसते हुए विनोदिनी को मानो एक ख़ास आनन्द मिल रहा है। बिहारी की पत्तल पर ही दही की मलाई और रोहू मछली का सिर डाला गया। पर चूँकि वह मेज़बान था इसलिए शिकायत की कोई गुंजाइश नहीं थी। मौसम न होने पर भी तपसी मछली मिल गई थी। उनमें से एक थी अण्डे वाली। विनोदिनी उसे बिहारी की पत्तल पर परोसने जा रही थी कि उसने कहा- "महेन्द्र भैया को दो, उन्हें बड़ी प्रिय है यह।"

महेन्द्र तीखी दबी खीझ से बोल उठा- "नहीं-नहीं, मुझे नहीं चाहिए।"

विनोदिनी ने दूसरी बार उससे अनुरोध नहीं किया और उसे बिहारी की पत्तल पर डाल दिया।

खाना खत्म हुआ। दोनों दोस्त बाहर निकले। विनोदिनी आकर बोली, "बिहारी बाबू चले मत जाना, चलिए, ऊपर के कमरे में बैठिए ज़रा देर।" बिहारी ने पूछा- "और तुम नहीं खाओगी।"

विनोदिनी बोली- "आज मेरा एकादशी का व्रत है।"

तीखे व्यंग्य की एक हल्की हास्य-रेखा बिहारी के होठों के किनारों पर खेल गई।

हँसी की यह लकीर विनोदिनी की निगाह से छिपी न रही, लेकिन जिस तरह वह हाथ के जख्म को सह गई थी- इसे भी पी गई। निहोरा करती हुई बोली- "मेरे सिर की कसम, चलो, बैठो!" महेन्द्र अचानक अजीब ढंग से गर्म हो उठा। बोला-"अक्ल से तो कोई वास्ता ही नहीं- काम-धाम पड़ा रहे, ख्वा हिश हो या न हो, बैठना ही पड़ेगा। इतनी ज़्यादा खातिरदारी का मतलब मेरी समझ में नहीं आया।" विनोदिनी ठठाकर हँस पड़ी। बोली- "भाई साहब, खातिरदारी शब्द का कोश में दूसरा कोई मतलब नहीं।"

फिर महेन्द्र से कहा- "कहने को चाहे जो कहो भाई साहब, खातिरदारी का मतलब छुटपन से जितना तुम समझते हो, शायद ही कोई समझता हो।" बिहारी बोला- "महेन्द्र भैया, एक बात है, सुन जाओ जरा!"

बिहारी ने विनोदिनी से विदा न माँगी और महेन्द्र के साथ बाहर चला गया। बरामदे पर खड़ी विनोदिनी चुपचाप सूने ऑंगन को ताकती रही।

बाहर जाकर बिहारी ने कहा- "भैया, एक बात का मैं खुलासा करना चाहता हूँ, हमारी दोस्ती क्या यहीं खत्म हो गई?"

उस समय महेन्द्र के कलेजे में आग लग रही थी। विनोदिनी का व्यंग्य बिजली की लपट-सा उसके दिमाग के एक सिरे से दूसरे सिरे तक लपकता हुआ बार-बार उसे वेधा रहा था। वह बोला- "इस बात के फैसले से शायद ही तुम्हें कुछ लाभ हो, पर मेरे लिए यह काम्य नहीं। अपनी दुनिया में मैं किसी बाहरी आदमी का प्रवेश नहीं चाहता। अन्त:पुर को मैं अन्त:पुर रखना चाहता हूँ।" बिहारी ने कुछ नहीं कहा। चला गया।

ईर्ष्या के दाह से जर्जर महेन्द्र ने एक बार प्रतिज्ञा की- "विनोदिनी से मैं नहीं मिलूँगा।" और फिर उससे मिलने की उम्मीद में वह घर-बाहर, ऊपर-नीचे छटपटाता हुआ चक्कर काटता रहा। आशा ने एक दिन अन्नपूर्णा से पूछा- "अच्छा मौसी, मौसाजी तुम्हें याद आते हैं?"

अन्नपूर्णा बोलीं- "महज ग्यारह साल की उम्र में मैं विधवा हुई, पति की सूरत मुझे छाया-सी धुँधली याद है।" आशा ने पूछा- "फिर तुम किसकी बात सोचती हो?"

अन्नपूर्णा हँसकर बोलीं- "अब मैं उन भगवान की याद करती हूँ जिनमें मेरे पति हैं।"

आशा ने पूछा- "इससे तृप्ति होती है?"

स्नेह से आशा के माथे पर हाथ फेरते हुए अन्नपूर्णा ने कहा- "मेरे मन की तू क्या समझेगी बिटिया!"

आशा अपने मन में सोचने लगी- "और मैं जिनकी बात आठों पहर सोचा करती हूँ, वे क्या मेरे मन की नहीं जानते! मैं ठीक से चिट्ठी नहीं लिख सकती, इसीलिए उन्होंने मुझे पत्र लिखना बन्द क्यों कर दिया?" इधर कुछ दिनों से उसे महेन्द्र की चिट्ठी नहीं मिली। एक उसाँस लेकर आशा ने मन में सोचा- 'इस वक्त मेरी ऑंख की किरकिरी पास रही होती, तो मेरे मन की बात चिट्ठी में ठीक-ठीक लिख देती।' 'अच्छी तरह से न लिखी गई चिट्ठी का कोई मोल पति के लिए न होगा', यह सोचकर आशा ने चिट्ठी नहीं लिखी। जितना ही जतन से लिखना चाहती उतना ही चिट्ठी बिगड़ जाती। मन की बातों को जितना ही सुलझा-सहेजकर लिखना चाहती, उसकी पंक्तियाँ पूरी न पड़तीं। अगर सिर्फ एक शब्द, 'मेरे देवता', लिखने से ही अन्तर्यामी की नाईं महेन्द्र सब-कुछ समझ सकता, तो आशा का पत्र लिखना सार्थक हो सकता था। ईश्वर ने प्रेम दिया है, थोड़ी-सी भाषा क्यों न दी?

संध्यार की आरती के बाद अन्नपूर्णा मन्दिर से लौटीं, तो आशा धीरे-धीरे उनके पैर सहलाने लगी। बड़ी देर तक सन्नाटा रहा। उसके बाद आशा बोली- "अच्छा मौसी, तुम तो कहती हो कि देवता के समान पति की सेवा करना स्त्री का धर्म है, लेकिन जो स्त्री मूर्ख हो, जिसे बुध्दि न हो, जिसे यह न मालूम हो कि पति की सेवा कैसे करनी चाहिए, वह क्या करे?" अन्नपूर्णा देर तक आशा की ओर देखती रहीं। एक लम्बी साँस छोड़कर बोलीं- "मूर्ख तो मैं भी हूँ बिटिया, मगर फिर भी तो भगवान की सेवा करती हूँ।"

आशा ने कहा- "भगवान तो तुम्हारे मन को समझते हैं, तभी वे खुश होते हैं। लेकिन यों समझो, स्वामी अगर मूर्ख स्त्री की सेवा से संतुष्ट न हो?"

अन्नपूर्णा ने कहा- "सबको खुश करने की शक्ति सबमें नहीं होती, बेटी। लेकिन स्त्री अगर तहेदिल से श्रद्धा और भक्तिपूर्वक पति की सेवा और गृहस्थी के काम करती है, तो पति चाहे नाचीज़ समझकर उसे ठुकरा दे, स्वयं जगदीश्वर जतन से उसे चुन लेते हैं।"

जवाब में आशा चुप रही। मौसी द्वारा दी गई सांत्वना को उसने अपनाने की बहुत कोशिश की, लेकिन यह बात, उसके दिमाग में हर्गिज़ न बैठ सकी कि पति जिसे नाचीज़ समझकर ठुकरा देंगे, उसे जगदीश्वर सार्थक कर सकेंगे। वह सिर झुकाए मौसी के पाँव सहलाती रही।

अन्नपूर्णा ने इस पर आशा को अपने और क़रीब खींच लिया। उसके माथे को चूमा। रुँधे कण्ठ को बलपूर्वक खोलकर बोली- "चुन्नी, तकलीफ झेलकर जीवन में जो सबक सीखा जा सकता है, केवल सुनकर वह सम्भव नहीं। तेरी इस मौसी ने भी तेरी उम्र में संसार से लेन-देन का बहुत बड़ा नाता जोड़ लिया था। उस समय मेरे भी जी में तेरी ही तरह होता था कि जिसकी मैं सेवा करूँगी, वह आखिर सन्तुष्ट क्यों न होगा। जिसकी पूजा करूँगी, उसका प्रसाद भला क्यों न मिलेगा? जिसके भले की करूँगी, वह मेरी चेष्टा को भली क्यों न समझेगा? लेकिन हर क़दम पर देखा, वैसा होता नहीं है। और अन्त में एक दिन दुनिया को छोड़कर चली आई। और आज यह पा रही हूँ कि मेरा कुछ भी बेकार नहीं हुआ। असल में बिटिया जिससे लेन-देन का सही सम्बन्ध है, जो संसार की इस पैंठ के असली महाजन हैं, वही मेरा सब-कुछ स्वीकार कर रहे हैं, आज मेरे अन्तर में बैठकर उन्होंने यह बात कबूल की है, काश! तब यह जानती होती! अगर संसार के कर्म को उनका समझकर करती, उन्हीं को दे रही हूँ यह समझकर संसार को अपना हृदय देती तो फिर कौन था जो मुझे दु:ख दे सकता है!"

बिस्तर पर पड़ी-पड़ी आशा बड़ी रात तक बहुत बातें सोचती रही। लेकिन तो भी ठीक-ठीक कुछ न समझ सकी।

आशा के बड़े चाचा के लौट जाने का दिन आया। जाने के पहले दिन शाम को अन्नपूर्णा ने आशा को अपनी गोदी में बिठाकर कहा- "चुन्नी, मेरी बिटिया, संसार के शोक-दु:ख से सदा तुझे बचाते रहने की शक्ति मुझमें नहीं है। मेरा इतना ही कहना है कि जहाँ भी, जितना भी कष्ट क्यों न मिले, अपने विश्वास, अपनी भक्ति को दृढ़ रखना, तेरा धर्म जिससे अटूट रहे।"

आशा ने उनके चरणों की धूल ली। बोली- "आशीर्वाद दो मौसी! ऐसा ही हो।"


31

आशा लौट आई। रूठकर विनोदिनी ने कहा- "भई किरकिरी, इतने दिन पीहर रही, खत लिखना भी पाप था क्या?" आशा बोली- "और तुमने तो लिख दिया जैसे!"

विनोदिनी- "मैं पहले क्यों लिखती, पहले तुम्हें लिखना था।"

विनोदिनी के गले से लिपटकर आशा ने अपना कसूर मान लिया। बोली- "जानती तो हो, मैं ठीक-ठीक लिख नहीं पाती। ख़ासकर तुम-जैसी पंडिता को लिखने में शर्म आती है।"

देखते-ही-देखते दोनों का विषाद मिट गया और प्रेम उमड़ आया। विनोदिनी ने कहा- "आठों पहर साथ रहकर तुमने अपने पति-देवता की आदत बिलकुल बिगाड़ रखी है। कोई हरदम पास न रहे, तो रहना मुश्किल।"

आशा- "तभी तो तुम पर ज़िम्मेदारी सौंप गई थी। और साथ कैसे दिया जाता है, यह तुम मुझसे ज़्यादा अच्छी तरह से जानती हो।"

विनोदिनी- "दिन को तो किसी तरह से कॉलेज भेजकर निश्चिं‍त हो जाती थी- मगर साँझ को किसी भी तरह से छुटकारा नहीं किताब पढ़कर सुनाओ, और-और न जाने क्या-क्या? पूछो मत, मचलने का तो अन्त नहीं।"

आशा- "आई न काबू में! जब जी बहलाने में पटु हो, तो लोग छुट्टी क्यों दें?"

विनोदिनी- "मगर सावधान बहन, भाई साहब कभी-कभी तो ऐसी अति कर बैठते हैं कि धोखा होने लगता है, शायद मैं जादू-मन्तर जानती हूँ।" आशा- "जादू तुम नहीं जानतीं तो कौन जानता है! तुम्हारी विद्या जरा मुझे आ जाती, तो जी जाती मैं।"

विनोदिनी- "क्यों, किसके बंटाधार का इरादा है! जो सज्जन घर में है, उन पर रहम करके किसी और को मोहने की कोशिश भी न करना।"

विनोदिनी को तर्जनी दिखाकर आशा बोली- "चुप भी रह, क्या बक-बक करती है!"

काशी से लौटने के बाद पहली बार आशा को देखकर महेन्द्र ने कहा- "तुम्हारी सेहत तो पहले से अच्छी हो गई है। काफ़ी तन्दुरुस्त होकर लौटी हो।" आशा को बड़ी शर्म आई। उसकी सेहत अच्छी नहीं रहनी चाहिए थी- मगर उस ग़रीब का बस नहीं चलता।

आशा ने धीमे-से पूछा- "तुम कैसे रहे?"

पहले की बात होती तो महेन्द्र कुछ तो मज़ाक और कुछ मन से कहता- 'मरा-मरा'। मगर अभी मज़ाक करते न बना- गले तक आकर अटक गया। कहा- "बेजा नहीं अच्छा ही था।"

आशा ने गौर किया, महेन्द्र पहले से कुछ दुबला ही हो गया है। चेहरा पीला पड़ गया है, ऑंखों में कैसी एक तेज़ चमक है। कोई भीतरी भूख मानो आग की जीभ से उसे चाटे जा रही हो। आशा पीड़ित होकर सोचने लगी-"स्वामी अपने दुरुस्त नहीं रहे यहाँ, मैं क्यों काशी चली गई। पति दुबले हो गए और खुद वह तगड़ी हो गई"-इसके लिए उसने अपनी सेहत को धिक्कारा।

महेन्द्र देर तक सोचता रहा कि अब कौन-सी बात की जाए। बोला- "चाची मजे में हैं।"

उत्तर में कुशल-क्षेम पाकर पूछने को दूसरी बात मन में लाना उसके लिए मुहाल हो गया। पास ही एक फटा-पुराना अखबार पड़ा था, उसे उठाकर वह अनमना-सा पढ़ने लगा। आशा सिर झुकाए सोचने लगी, 'इतने दिनों के बाद भेंट हुई, लेकिन उन्होंने मुझसे ठीक से बात क्यों नहीं की? बल्कि लगा, मेरी ओर उनसे ताकते भी न बना।'

महेन्द्र कॉलेज से लौटा। जल-पान करते समय राजलक्ष्मी थीं। आशा भी घूँघट निकाले पास ही दरवाज़ा पकड़े खड़ी थी- लेकिन और कोई न था।

राजलक्ष्मी ने परेशान-सी होकर पूछा- "आज तेरी तबीयत कुछ ख़राब है क्या, महेन्द्र?"

जैसे ऊब गया हो, महेन्द्र बोला- "नहीं ठीक है।"

राजलक्ष्मी- "फिर तू कुछ खा क्यों नहीं रहा है?"

महेन्द्र फिर खीझे हुए स्वर में बोला- "खा तो रहा हूँ- और कैसे खाते हैं?"

गर्मी की साँझ। बदन पर एक हल्की चादर डाल महेन्द्र छत पर इधर-उधर घूमने लगा। बड़ी उम्मीद थी कि इधर जो पढ़ाई नियम से चल रही थी, वह वैसी ही चलेगी। 'आनन्दमठ' लगभग खत्म हो चला है। गिने-चुने कुछ अध्याेय रह गए थे। यों जितनी भी निर्दयी हो विनोदिनी, ये बाकी अध्यादय वह ज़रूर पढ़कर सुनाएगी। लेकिन शाम हो गई और महेन्द्र को कुछ हासिल न हुआ तो वह सोने चला गया। सजी-सँवरी शरमाई आशा धीरे-धीरे कमरे में आई। देखा, महेन्द्र बिस्तर पर सोया है। वह यह न सोच पाई कि किस तरह से आगे बढ़े। जुदाई के बाद ज़रा देर के लिए एक नई लज्जा होती है- जहाँ पर से जुदा होते हैं, दोनों, ठीक वहाँ पर मिलने से पहले एक-दूसरे को नए सम्भाषण की उम्मीद होती है। अपनी उस चिरपरिचिता सेज़ पर आशा आज बेबुलाए कैसे जाय? दरवाज़े के पास देर तक खड़ी रही। महेन्द्र की कोई आहट न मिली। धीमे-धीमे पग-पग बढ़ी। अचानक किसी गहने की आवाज़ हो उठती तो मारे शर्म के मर-सी जाती। धड़कते हृदय से वह मच्छरदानी के पास जा खड़ी हुई। लगा, महेन्द्र सो गया है। उसका सारा साज-श्रृंगार उसे सर्वांग के बन्धन-सा लगा। उसकी यह इच्छा होने लगी कि बिजली की गति से भाग जाय और जाकर और कहीं सो रहे।

अपने जानते भरसक चुपचाप संकुचित होकर आशा बिस्तर पर गई। फिर भी इतनी आवाज़ ज़रूर हुई कि महेन्द्र अगर सचमुच ही सोया होता, तो जग पड़ता। लेकिन आज उसकी ऑंखें न खुलीं, क्योंकि दरअसल वह सो नहीं रहा था। वह पलंग के एक किनारे करवट लिये पड़ा था। लिहाज़ा आशा उसके पीछे लेट गई। पड़ी-पड़ी आशा ऑंसू बहा रही थी। उधर मुँह करके सोने के बावजूद महेन्द्र को इसका साफ़ पता चल रहा था। अपनी बेरहमी से वह चक्की की तरह कलेजे को पीसकर दुखा रहा था। लेकिन वह क्या कहे, कैसे स्नेह जताए- यह उसकी समझ में ही नहीं आ रहा था।

लेकिन आशा ने खुद ही उसकी यह मुसीबत भगा दी। वह तड़के ही अपमानित साज-श्रृंगार लिये उठकर चली गई। वह भी महेन्द्र को अपना मुँह न दिखा सकी।

32

आशा सोचने लगी- 'लेकिन ऐसा क्यों हुआ है?' मैंने क्या किया? लेकिन असली आफत जहाँ थी, वहाँ उसकी नजर न पड़ी। महेन्द्र विनोदिनी को प्यार कर सकता है, इसकी सम्भावना तक उसके मन में न आ सकी थी। दुनिया के अनुभव उसे कुछ थे नहीं। उसके सिवा विवाह के कुछ ही दिन बाद से महेन्द्र को जैसा समझ लिया था, वह उसके सिवा भी कुछ हो सकता है, इसकी उसने कल्पना भी न की थी। महेन्द्र आज कुछ पहले ही कॉलेज गया। कॉलेज जाते वक्त आशा सदा खिड़की के पास आ खड़ी होती और महेन्द्र गाड़ी में से एक बार झाँक लेता- यह उसका सदा का नियम था। इसी आदत के मुताबिक़ यन्त्रवत वह खिड़की के सामने आ खड़ी हुई। अभ्यासवश महेन्द्र ने भी एक बार निगाह उठाकर ताका। देखा, आशा खिड़की पर खड़ी है- देखते ही महेन्द्र नज़र झुकाकर अपनी गोद में रखी किताबें देखने लगा। ऑंखों में वह नीरव भाषा कहाँ थी, कहाँ थी वह बोलती हुई मुस्कान!

गाड़ी निकल गई। आशा वहीं ज़मीन पर बैठ गई। यह दुनिया, यह गिरस्ती- सबका स्वाद फीका पड़ गया। अचानक आशा को लगा- 'हाँ, समझी। बिहारी बाबू काशी गए थे, यही सुनकर शायद वे नाराज़ हैं। इसके सिवा और तो कोई अप्रिय घटना इस बीच नहीं घटी। मगर इसमें मेरा क्या कसूर!'

सोचते-सोचते एक बार अचानक मानो उसके दिल की धड़कन बन्द हो गई। उसे सन्देह हुआ, शायद महेन्द्र को यह शंका हो गई कि बिहारी के काशी जाने में उसकी भी साँठ-गाँठ थी। राम-राम! ऐसी शंका! शर्म की हद!

महेन्द्र अचानक गाड़ी से झाँककर आशा का जो मलिन करुण मुखड़ा देख गया, उसे वह दिन-भर अपने मन से न मेट सका। कॉलेज के लेक्चरों, छात्रों की कतारों में वह खिड़की, आशा का वह सूखा-रूखा चेहरा, बिखरे बाल, मैली धोती और वह आकुल-व्याकुल दृष्टि बार-बार साफ़ लकीरों में खिंच-खिंच आने लगी।

कॉलेज का काम खत्म करके वह गोलदिग्घी के किनारे टहलने लगा। शाम हो गई। वह फिर भी तय न कर सका कि आशा से कैसा बर्ताव किया जाए- दयापूर्ण छल या कपटरहित निष्ठुरता, कौन-सा उचित है? विनोदिनी का वह त्याग करे, या न करे यह बात ही मन में न आई। दया और प्रेम-दोनों का दावा वह कैसे करे?

आखिर उसने यह कहकर अपने मन को समझाया कि आज भी आशा के प्रति उसका जो प्रेम है, वह बहुत ही कम स्त्रियों को नसीब होता है। वह स्नेह, वह प्रेम मिलता रहे, तो आशा सन्तुष्ट क्यों न रहेगी? विनोदिनी और आशा, दोनों को जगह देने की योग्यता महेन्द्र के प्रशस्त हृदय में है। विनोदिनी से उसका सम्बन्ध जिस पवित्रा प्रेम का है, उससे दाम्पत्य में किसी तरह की ऑंच न आएगी।

मन को इस तरह समझाकर उसने एक भार उतार फेंका। 'दोनों में से किसी को छोड़े बिना दो चन्द्रमा वाले ग्रह की तरह वह मजे में जीवन के दिन काट लेगा', यह सोचकर उसका जी खिल उठा। यह सोचकर वह तेज़ीसे क़दम बढ़ाता हुआ घर की ओर चल पड़ा कि आज जरा पहले ही वह बिस्तर पर जा लेटेगा और स्नेह-जतन से, मीठे वचन से आशा के मन की सारी वेदना धो देगा।

उसके खाने के समय आशा मौजूद न थी-' लेकिन सोने तो आएगी ही,' यह सोचकर महेन्द्र बिस्तर पर लेट गया। लेकिन उस सन्नाटे में सूनी सेज पर किस स्मृति ने महेन्द्र के मन को छा लिया? 'विषवृष' के लिए विनोदिनी से उस दिन की छीना-झपटी याद आई। साँझ के बाद विनोदिनी 'कपालकुण्डला' पढ़कर सुनाना शुरू करती- धीरे-धीरे रात हो आती, घर के सारे लोग सो जाते, सूने कमरे की स्तब्ध निर्जनता विनोदिनी की आवाज़-आवेश से मानो धीमी हो आती, रुँध-सी जाती; अचानक वह अपने को जब्त करके उठ खड़ी होती, किताब रख देती- महेन्द्र कहता, "चलो, मैं तुम्हें सीढ़ी तक छोड़ आऊँ।" ये बातें याद आने लगीं और सर्वांग में सिहरन होने लगी। रात क्रमश: ज़्यादा होने लगी- महेन्द्र को रह-रहकर आशंका होने लगी, अब आशा आएगी, अब आएगी। लेकिन वह न आई। महेन्द्र ने सोचा, मैं तो अपने कर्तव्य के लिए तैयार था, अब अगर वह नाहक ही नाराज होकर न आए तो मैं क्या करूँ? और गहरी रात में उसने विनोदिनी के ध्याहन को गाढ़ा कर लिया।

जब एक बज गया, तो महेन्द्र से न रहा गया। मसहरी हटाकर वह बाहर निकला। छत पर गया। देखा, चाँदनी रात बड़ी ही सुहानी हो रही है। महेन्द्र की जमाने से रुकी पड़ी आकांक्षा अब अपने-आपको न रोक सकी। जब से आशा आई, विनोदिनी की झलक भी न दिखाई दी। चाँदनी से उमगी सूनी रात महेन्द्र को मोह से आच्छन्न करके विनोदिनी की तरफ ठेलकर ले जाने लगी। महेन्द्र नीचे उतरा। विनोदिनी के कमरे के पास गया। देखा, कमरा बन्द नहीं है। अन्दर गया। सेज बिछी थी, उस पर कोई सोया न था। कमरे में आहट पाकर दक्खिन वाले खुले बरामदे से विनोदिनी ने पूछा- "कौन है?" रुँधे हुए गीले स्वर से महेन्द्र बोला- "मैं हूँ, विनोद।"

और महेन्द्र सीधा बरामदे में पहुँच गया।

गर्मी की रात। बरामदे में चटाई डालकर विनोदिनी के साथ राजलक्ष्मी सोई थीं। उन्होंने कहा- "महेन्द्र, इतनी रात को तू यहाँ कैसे?"

अपनी काली घनी भौंहों के नीचे से विनोदिनी ने महेन्द्र पर वज्र-कटाक्ष डाला। महेन्द्र ने कोई जवाब न दिया। तेज़ीसे वहाँ से चला गया।

33

दूसरे दिन सुबह से ही घटा घुमड़ी रही। कुछ देर बेहद गर्मी थी, फिर काले-काजल से मेघों में से झुलसा आकाश जुड़ गया। आज महेन्द्र समय से पहले ही कॉलेज चला गया। बदले हुए कपड़े फर्श पर पड़े थे। आशा गिन-गिनकर कपड़े धोबी को देने लगी। हिसाब लिखकर रखने लगी।

महेन्द्र ज़रा लापरवाह है। इसी से आशा को हिदायत थी कि धोबी को कपड़े देते वक्त जेब ज़रूर देख लिया करे। आशा ने उसके एक कुरते की जेब में हाथ डाला कि एक चिट्ठी मिली। वह चिट्ठी अगर ज़हरीला नाग बनकर उसी क्षण आशा की उँगली को काट खाती, तो अच्छा था, क्योंकि तीखा ज़हर शरीर में फैल जाता और कुछ ही मिनटों में शायद उसका काम तमाम कर देता; लेकिन ज़हर मन में फैलता है तो मौत की पीड़ा तो होती है, मौत नहीं होती।

खुली चिट्ठी। निकालकर देखा तो विनोदिनी की लिखावट। पलक मारते आशा का चेहरा पीला पड़ गया। उस चिट्ठी को उसने बगल के कमरे में ले जाकर पढ़ा। "कल रात तुमने जो हरकत की, उससे भी जी न भरा? आज फिर तुमने नौकरानी के हाथ छिपाकर मुझे पत्र भेजा। छि:, उसने मन में क्या समझा होगा! दुनिया में मुझे किसी को भी मुँह दिखाने लायक़ नहीं रहने दोगे तुम?

"मुझसे तुम क्या चाहते हो? प्यार! यह भिखमंगी क्यों आखिर? जन्म से तुम प्यार-ही-प्यार पाते आ रहे हो, फिर भी तुम्हारे लोभ जगह का कोई हिसाब नहीं!

"मेरे प्रेम करने और प्रेम पाने की संसार में कोई जगह नहीं- इसीलिए मैं खेल में प्यार के खेद को मिटाया करती हूँ। जब तुम्हें फुर्सत थी, तुमने भी उस झूठे खेल में हाथ बँटाया था। लेकिन खेल की छुट्टी क्या खत्म नहीं होती? अब गर्द-गुबार झाड़-पोंछकर वापस जाओ? मेरा तो कोई घर नहीं, मैं अकेली ही खेला करूँगी- तुम्हें नहीं बुलाऊँगी।

"तुमने लिखा है, तुम मुझे प्यार करते हो। खेल-कूद में यह बात मान ली जा सकती है- मगर सच कहना हो तो इस पर यकीन नहीं करती! कभी तुम यह सोचते थे कि आशा को प्यार करते हो। वह भी झूठा है। असल में तुम सिर्फ खुद को प्यार करते हो।

"प्यार की प्यास से मेरी छाती तक सूख गई है और वह प्यास मिटाने का सहारा तुम्हारे हाथ में नहीं, यह मैं अच्छी तरह देख चुकी हूँ। मैं बार-बार कहती हूँ, मुझे छोड़ दो, मेरे पीछे मत पड़ो, बेशर्म होकर मुझे शर्मिन्दा न करो! मेरे खेल का शौक़ भी पूरा हो चुका, अब पुकारोगे भी तो जवाब नहीं मिलेगा। खत में तुमने मुझे निर्दयी लिखा है- शायद यह सच हो, लेकिन मुझमें थोड़ी दया भी है, इसलिए आज मैंने दया करके तुम्हें त्याग दिया। कहीं तुमने मेरे इस पत्र का जवाब कोई दिया, तो समझूँगी कि यहाँ से भागे बिना तुमसे बचने का कोई उपाय नहीं।"

चिट्ठी का पढ़ना था कि लमहे-भर में आशा के चारों तरफ के सहारे टूट गिरे, शरीर की सारी शिराएँ मानो एकबारगी थम गईं, साँस लेने के लिए हवा तक मानो न रही- सूरज ने उसकी ऑंखों के सामने से जैसे सारी रोशनी समेट ली। आशा ने पहले दीवार थामी, फिर अलमारी, और फिर कुर्सी पकड़ते-पकड़ते ज़मीन पर गिर पड़ी।

अन्त में कलेजा दबाकर उसाँसें भरती हुई बोल पड़ी-"मौसी!"

स्नेह के इस सम्भाषण के उमड़ते ही उसकी ऑंखों से ऑंसू छलकने लगे। रुलाई पर रुलाई, और फिर रुलाई-आखिर जब रुलाई थमी तो वह सोचने लगी- 'लेकिन इस चिट्ठी का क्या मैं करूँगी? कहीं उन्हें पता चल जाय कि यह चिट्ठी मेरे हाथ लग गई है तो! ऐसे में उनकी शर्मिन्दगी की याद करके आशा बेतरह कुंठित होने लगी। सोचकर आखिर यह तय किया कि चिट्ठी को उसी कुरते की जेब में रखकर उसे खूँटी पर लटका देगी- धोबी को न देगी।

इसी विचार से चिट्ठी लिये वह सोने के कमरे में गई। इस बीच मैले कपड़ों की गठरी से टिककर धोबी सो गया था। वह कुरते की जेब में चिट्ठी डालने की चेष्टा कर रही थी कि आवाज़ सुनाई दी- "भई किरकिरी!" चिट्ठी और कुरते को झटपट पलंग पर डालकर वह उस पर बैठ गई। विनोदिनी अन्दर आकर बोली- "धोबी कपड़े बहुत उलट-पुलट करने लगा है। जिन कपड़ों में निशान नहीं लगाए गए हैं, मैं उन्हें ले जाती हूँ।" आशा विनोदिनी की ओर देख न सकी। चेहरे के भाव से सब-कुछ ज़ाहिर न हो जाए, इसलिए खिड़की की ओर मुँह करके वह आसमान ताकती रही। हांठ-से-होठ दबाए रही कि ऑंखों से ऑंसू न बह आएँ। विनोदिनी ठिठक गई। एक बार आशा को गौर से देखा। सोचा, "ओ, समझी, कल का वाकया मालूम हो गया है। लेकिन सारा गुस्सा मुझी पर! मानो कसूर मेरा ही है।" उसने आशा से बात करने की कोशिश ही न की। कुछ कपड़े उठाकर जल्दी-जल्दी वहाँ से चली गई।

एक बार मिलाकर देखने की इच्छा हुई।

वह खत खोलने लगी कि इतने में लपककर महेन्द्र कमरे में आया। जाने क्या उसे याद आया कि लेक्चर के बीच से ही अचानक उठकर चला आया।

आशा ने पत्र ऑंचल में छिपा लिया। आशा को कमरे में देखकर महेन्द्र भी सहम गया। उसके बाद व्यग्र दृष्टि से कमरे के इधर-उधर देखने लगा। आशा ताड़ गई कि महेन्द्र क्या ढूँढ़ रहा है, लेकिन चिट्ठी को चुपचाप जहाँ थी, वहाँ रखकर वह कैसे भाग खड़ी हो, यह न समझ सकी।

महेन्द्र एक-एक करके मैले कपड़े उठा-उठाकर देखने लगा। महेन्द्र की उस बेकार कोशिश को देखकर आशा से न रहा गया। उसने कुरते और चिट्ठी को फर्श्श पर फेंक दिया और दाएँ हाथ से पलँग के डण्डे को थामकर मुँह गाड़ लिया। महेन्द्र ने बिजली की तेज़ी से चिट्ठी उठाई। एक पल को आशा की ओर कुछ न बोलते हुए लेकिन कुछ कहने के अंदाज़में उसने देखा मगर कुछ कहा नहीं। फिर तुरन्त आशा को सीढ़ियों पर उसके तेज क़दम की आहट मिली। इधर धोबी ने पुकरा- "माँ जी, कपड़े देने में और कितनी देर करेंगी? बड़ी देर हो गई, मेरा घर भी तो पास नहीं।"

टीका टिप्पणी और संदर्भ


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