आँख की किरकिरी उपन्यास -रविन्द्र नाथ टैगोर
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विनोद की माँ हस्मिती महेन्द्र की माँ राजलक्ष्मी के पास जाकर धरना देने लगी। दोनों एक ही गाँव की थीं, छुटपन में साथ खेली थीं।
राजलक्ष्मी महेन्द्र के पीछे पड़ गई- "बेटा महेन्द्र, इस ग़रीब की बिटिया का उध्दार करना पड़ेगा। सुना है, लड़की बड़ी सुन्दर है, फिर लिखी-पढ़ी भी है। उसकी रुचियाँ भी तुम लोगों जैसी हैं।
महेन्द्र बोला- "आजकल के तो सभी लड़के मुझ जैसे ही होते हैं।"
राजलक्ष्मी- "तुझसे शादी की बात करना ही मुश्किल है।"
महेन्द्र- "माँ, इसे छोड़कर दुनिया में क्या और कोई बात नहीं है।"
महेन्द्र के पिता उसके बचपन में ही चल बसे थे। माँ से महेन्द्र का बर्ताव साधारण लोगों जैसा न था। उम्र लगभग बाईस की हुई, एम.ए. पास करके डॉक्टरी पढ़ना शुरू किया है, मगर माँ से उसकी रोज-रोज की ज़िद का अन्त नहीं। कंगारू के बच्चे की तरह माता के गर्भ से बाहर आकर भी उसके बाहरी थैली में टँगे रहने की उसे आदत हो गई है। माँ के बिना आहार-विहार, आराम-विराम कुछ भी नहीं हो पाता।
अबकी बार जब माँ विनोदिनी के लिए बुरी तरह उसके पीछे पड़ गई तो महेन्द्र बोला, "अच्छा, एक बार लड़की को देख लेने दो!"
लड़की देखने जाने का दिन आया तो कहा, "देखने से क्या होगा? शादी तो मैं तुम्हारी खुशी के लिए कर रहा हूँ। फिर मेरे अच्छा-बुरा देखने का कोई अर्थ नहीं है।" महेन्द्र के कहने में पर्याप्त गुस्सा था, मगर माँ ने सोचा, "'शुभ-दृष्टि'1 के समय जब मेरी पसन्द और उसकी पसन्द एक हो जाएगी, तो उसका स्वर भी नर्म हो जाएगा।" राजलक्ष्मी ने बेफिक्र होकर विवाह का दिन तय किया। दिन जितना ही क़रीब आने लगा, महेन्द्र का मन उतना ही बेचैन हो उठा। मात्रा दो-चार दिन पहले वह कह बैठा- "नहीं माँ, यह मुझसे हर्गिज न होगा।"
छुटपन से महेन्द्र को हर तरह का सहारा मिलता रहा है। इसलिए उसकी इच्छा सर्वोपरि है। दूसरे का दबाव उसे बर्दाश्त नहीं। अपनी स्वीकृति और दूसरों के आग्रह ने उसे बेबस कर दिया है, इसीलिए विवाह के प्रस्ताव के प्रति नाहक ही उसकी वितृष्णा बढ़ गई और विवाह का दिन नज़दीक आ गया तो उसने एकबारगी 'नाही' कर दी। महेन्द्र का जिगरी दोस्त था बिहारी; वह महेन्द्र को 'भैया' और उसकी माँ को 'माँ' कहा करता था। माँ उसे स्टीमर के पीछे जुड़ी डोंगी- जैसा भारवाही सामान मानती थीं और वैसी ही उस पर ममता भी रखती थीं। वे बिहारी से बोलीं- "बेटे, यह तो अब तुम्हें ही करना है, नहीं तो उस बेचारी लड़की...."
बिहारी ने हाथ जोड़कर कहा- "माँ, यह मुझसे न होगा। अच्छी न लगी कहकर महेन्द्र जो मिठाई छोड़ देता है वह मैंने बहुत खाई; मगर लड़की के बारे में ऐसा नहीं हो सकता।"
राजलक्ष्मी ने सोचा, 'भला बिहारी विवाह करेगा! उसे तो बस एक महेन्द्र की पड़ी है, बहू लाने का ख्याल भी नहीं आता उसके मन में।'
यह सोचकर बिहारी के प्रति उनकी कृपा-मिश्रित ममता कुछ और बढ़ गई।
विनोदिनी के पिता कुछ ख़ास धनी न थे, परन्तु अपनी इकलौती बेटी को मिशनरी मेम रखकर बड़े जतन से पढ़ाया-लिखाया। इतना ही नहीं घर के काम में भी चाक-चौबंद किया। वे गुजर गए और बेचारी विधवा माँ बेटी के विवाह के लिए परेशान हो गई। पास में रुपया-पैसा नहीं, ऊपर से लड़की की उम्र भी ज़्यादा।
आखिर राजलक्ष्मी ने अपने मैके में गाँव के एक रिश्ते के भतीजे से विनोदिनी का विवाह करा दिया।
कुछ ही दिनों में वह विधवा हो गई। महेन्द्र ने हँसकर कहा, "गनीमत थी कि शादी नहीं की।"
कोई तीन साल बाद माँ-बेटे में फिर एक बात हो रही थी।
"बेटा, लोग तो मेरी ही शिकायत करते हैं।"
"क्यों भला, तुमने लोगों का ऐसा क्या बिगाड़ा है?"
"बहू के आने से बेटा पराया न हो जाए, मैं इसी डर से तेरी शादी नहीं करती- लोग यही कहा करते हैं।"
महेन्द्र ने कहा, "डर तो होना ही चाहिए। मैं माँ होता, तो जीते-जी लड़के का विवाह न करता। लोगों की शिकायतें सुन लेता।"
माँ हँसकर बोली- "सुनो, जरा इसकी बातें सुन लो।"
महेन्द्र बोला- "बहू तो आकर लड़के को अपना बना ही लेती है। फिर इतना कष्ट उठाने वाली माँ अपने-आप दूर हो जाती है। तुम्हें यह चाहे जैसा लगे मुझे तो ठीक नहीं लगता।"
राजलक्ष्मी ने मन-ही-मन गद्गद होकर हाल ही आई अपनी विधवा देवरानी से कहा, "सुनो मँझली, जरा महेन्द्र की सुनो! कहीं बहू आकर माँ पर हावी न हो जाए, इसी डर से वह विवाह नहीं करना चाहता। ऐसी बात कभी सुनी है तुमने?"
चाची बोलीं, "यह तुम्हारी ज्यादती है बेटे! जबकि जो बात हो, वही अच्छी लगती है। माँ का दामन छोड़कर अब घर-गृहस्थी बसाने का समय आ गया है। अब नादानी अच्छी नहीं लगती उल्टी शर्म आती है।"
राजलक्ष्मी को यह बात अच्छी नहीं लगी। इस सिलसिले में उन्होंने जो कुछ कहा, वह जैसा हो मगर स्वमर भीगा तो नहीं था। बोलीं- "मेरा बेटा अगर और लड़कों की अपेक्षा अपनी माँ को ज़्यादा स्नेह करता है, तो तुम्हें शर्म क्यों लगती है, मँझली बहू? कोख का लड़का होता तो समझ में आता।"
राजलक्ष्मी को लगा, 'निपूती बेटे के सौभाग्यवाली सेईर्ष्या कर रही है।'
मँझली बहू ने कहा- "तुमने बहू लाने की चर्चा चलाई इसीलिए यह बात निकल गई, वर्ना मुझे क्या हक है?"
राजलक्ष्मी बोलीं- "मेरा बेटा अगर विवाह नहीं करता, तो तुम्हारी छाती क्यों फटती है! ठीक तो है, लड़के की जैसे आज तक देख-भाल करती आई हूँ, आइन्दा भी कर लूँगी- इसके लिए और किसी की मदद की ज़रूरत न होगी।"
मँझली बहू आँसू बहाती चुपचाप चली गई। महेन्द्र को मन-ही-मन इससे चोट पहुँची। कॉलेज से कुछ पहले ही लौटकर वह अपनी चाची के कमरे में दाखिल हुआ।
वह समझ रहा था कि चाची ने जो कुछ कहा था, उसमें सिवाय स्नेह के और कुछ न था। और उसे यह भी पता था कि चाची की एक भानजी है, जिसके माता-पिता नहीं हैं। वे चाहती हैं कि महेन्द्र से उसका ब्याह हो जाए। हालाँकि शादी करना उसे पसन्द न था। फिर भी चाची की यह आंतरिक इच्छा उसे स्वाभाविक और करुण लगती है। उसे मालूम था कि उनकी कोई संतान नहीं है।
महेन्द्र कमरे में पहुँचा, तो दिन ज़्यादा नहीं रह गया था। चाची अन्नपूर्णा खिड़की पर माथा टिकाए उदास बैठी थी। बगल में कमरे में खाना ढका रखा था। शायद उन्होंने खाया नहीं।
बहुत थोड़े में ही महेन्द्र की आँखें भर आतीं। चाची को देखकर उसकी आँखें छलछला उठीं। क़रीब जाकर स्निग्ध स्वर से बोला- "चाची!"
अन्नपूर्णा ने हँसने की कोशिश की। कहा, "आ बेटे, बैठ!"
महेन्द्र का मन भीगा हुआ था। चाची को दिलासा देने के विचार से वह अचानक बोल उठा, "अच्छा चाची, तुमने अपनी भानजी की बात बताई थी, एक बार दिखा सकती हो?" कहकर महेन्द्र डर गया।
अन्नपूर्णा हँसकर बोलीं- "क्यों? शादी के लड्डू फूट रहे हैं बेटा!"
महेन्द्र झटपट बोल उठा- "नहीं-नहीं, अपने लिए नहीं, मैंने बिहारी को राज़ी किया है। लड़की देखने का कोई दिन तय कर दो!"
अन्नपूर्णा बोलीं- "अहा, उस बेचारी का ऐसा भाग्य कहाँ? भला उसे बिहारी-जैसा लड़का नसीब हो सकता है!"
महेन्द्र चाची के कमरे से निकला कि दरवाज़े पर माँ से मुलाकात हो गई। राजलक्ष्मी ने पूछा, "क्यों रे, क्या राय-मशविरा कर रहा था?"
महेन्द्र बोला- "राय-मशविरा नहीं, पान लेने गया था?"
माँ ने कहा- "तेरा पान तो मेरे कमरे में रखा है।"
महेन्द्र ने कुछ नहीं कहा। चला गया।
राजलक्ष्मी अन्दर गई और अन्नपूर्णा की रुलाई से सूजी आँखें देखकर लमहे-भर में बहुत सोच लिया। छूटते ही फुफकार छोड़ी- "क्यों मँझली बहू महेन्द्र के कान भर रही थी, है न?"
और बिना कुछ सुने तत्काल तेज़ी से निकल गई।
- 2
कन्या देखने की बात महेन्द्र ने की ज़रूर मगर वह भूल गया फिर भी अन्नपूर्णा नहीं भूली। उन्होंने लड़की के अभिभावक, उसके बड़े चाचा को जल्दी में श्यामबाज़ार पत्र भेजा और एक दिन तय कर लिया।
महेन्द्र ने जब सुना कि देखने का दिन पक्का हो गया है तो बोला- "चाची, इतनी जल्दी क्यों की! बिहारी से तो मैंने अभी तक ज़िक्र नहीं किया।"
अन्नपूर्णा बोलीं- "ऐसा भी होता है भला! अब अगर तुम लोग न जाओ तो वे क्या सोचेंगे?"
महेन्द्र ने बिहारी को बुलाकर सारी बातें बताईं कहा-"चलो तो सही, लड़की न जँची, तो तुम्हें मजबूर नहीं किया जाएगा।"
बिहारी बोला- "यह मैं नहीं कह सकता। चाची की भानजी को देखने जाना है। देखकर मेरे मुँह से यह बात हर्गिज न निकल सकेगी कि लड़की मुझे पसन्द नहीं।"
महेन्द्र ने कहा- "फिर तो ठीक ही है।"
बिहारी बोला- "लेकिन तुम्हारी तरफ से यह ज्यादती है, महेन्द्र भैया! खुद तो हल्के हो जाएँ और दूसरे के कन्धे पर बोझ रख दें, यह ठीक नहीं। अब चाची का जी दुखाना मेरे लिए बहुत कठिन है।"
महेन्द्र कुछ शर्मिन्दा और नाराज होकर बोला-"आखिर इरादा क्या है तुम्हारा?"
बिहारी बोला- "मेरे नाम पर जब तुमने उन्हें उम्मीद दिलाई है तो मैं विवाह करूँगा। यह देखने जाने का ढोंग बेकार है।"
बिहारी अन्नपूर्णा की देवी की भांति भक्ति करता था। आखिर अन्नपूर्णा ने खुद बिहारी को बुलवाकर कहा- "ऐसा भी कहीं होता है, बेटे! लड़की देखे बिना ही विवाह करोगे। यह हर्गिज न होगा। लड़की पसन्द न आए तो तुम हर्गिज 'हाँ' नहीं करोगे। समझे। तुम्हें मेरी कसम....!"
जाने के दिन कॉलेज से लौटकर महेन्द्र ने माँ से कहा- "जरा मेरा वह रेशमी कुरता और ढाका वाली धोती निकाल दो!"
माँ ने पूछा- "क्यों, कहाँ जाना है?"
महेन्द्र बोला- "काम है, तुम ला दो, फिर बताऊँगा।"
महेन्द्र थोड़ा सँवरे बिना न रह सका। दूसरे के लिए ही क्यों न हो, लड़की का मसला जवानी में सभी से थोड़ा सँवार करा ही लेता है।
दोनों दोस्त लड़की देखने निकल पड़े।
लड़की के बड़े चाचा अनुकूल बाबू ने अपनी कमाई से अपना बाग वाला तिमंजिला मकान मुहल्ले में सबसे ऊँचा बना रखा है।
गरीब भाई की माँ-बाप-विहीना बेटी को उन्होंने अपने ही यहाँ रखा है। उसकी मौसी अन्नपूर्णा ने कहा था, मेरे पास रहने दो। इससे खर्च की कमी ज़रूर होती, लेकिन गौरव की कमी के डर से अनुकूल राज़ी न हुए। यहाँ तक कि मुलाकात के लिए भी कभी उसे मौसी के यहाँ नहीं जाने देते थे। अपनी मर्यादा के बारे में इतने ही सख्त थे वे।
लड़की के विवाह की चिन्ता का समय आया। लेकिन इन दिनों विवाह के विषय में 'यादृशी भावना यस्य सिध्दर्भवति तादृशी' वाली बात लागू नहीं होती। चिन्ता के साथ-साथ लागत भी लगती। परन्तु दहेज की बात उठते ही अनुकूल कहते, 'मेरी भी तो अपनी लड़की है, अकेले मुझसे कितना करते बनेगा।' इसी तरह दिन निकलते जा रहे थे। ऐसे में बन-सँवरकर खुशबू बिखेरते हुए रंग-भूमि में अपने दोस्त के साथ महेन्द्र ने प्रवेश किया।
चैत का महीना। सूरज डूब रहा था। दुमंजिले का दक्षिणी बरामदा चिकने चीनी टाइलों का बना, उसी के एक ओर दोनों मेहमानों के लिए फल-फूल, मिठाई से भरी चाँदी की तश्तरियाँ रखी गईं। बर्फ़ के पानी-भरे गिलास जैसे ओस-बूँदों से झलमल। बिहारी के साथ महेन्द्र सकुचाते हुए खाने बैठा। नीचे माली पौधों में पानी डाल रहा था और भीगी मिट्टी की सोंधी सुगन्ध लिये दक्खिनी बयार महेन्द्र की धप-धप धुली चादर के छोर को हैरान कर रही थी। आसपास के दरवाज़े के झरोखों की ओट से कभी-कभी दबी हँसी, फुसफुसाहट, कभी-कभी गहनों की खनखनाहट सुनाई दे रही थी।
खाना खत्म हो चुका तो अन्दर की तरफ देखते हुए अनुकूल बाबू ने कहा- "चुन्नी, पान तो ले आ, बेटी!"
जरा देर में संकोच से पीछे का दरवाज़ा खुल गया और सारे संसार की लाज से सिमटी एक लड़की हाथ में पानदान लिये अनुकूल बाबू के पास आकर खड़ी हुई। वे बोले, "शर्म काहे की बिटिया, पानदान उनके सामने रखो!"
उसने झुककर काँपते हुए हाथों से मेहमानों की बगल में पानदान रख दिया। बरामदे के पश्चिमी छोर से डूबते हुए सूरज की आभा उसके लज्जित मुखड़े को मंडित कर गई। इसी मौके से महेन्द्र ने उस काँपती हुई लड़की के करुण मुख की छवि देख ली।
बालिका जाने लगी। अनुकूल बाबू बोले- "ज़रा ठहर जा, चुन्नी! बिहारी बाबू, यह है छोटे भाई अपूर्व की लड़की, अपूर्व तो चल बसा, अब मेरे सिवाय इसका कोई नहीं।" और उन्होंने एक लम्बी उसाँस ली।
महेन्द्र का मन पसीज गया। उसने एक बार फिर लड़की की तरफ देखा।
उसकी उम्र साफ-साफ कोई न बताता। सगे-सम्बन्धी कहते, बारह-तेरह होगी। यानी चौदह-पन्द्रह होने की सम्भावना ही ज़्यादा थी। लेकिन चूँकि दया पर चल रही थी इसलिए सहमे से भाव ने उसके नवयौवन के आरम्भ को ज़ब्त कर रखा था।
महेन्द्र ने पूछा- "तुम्हारा नाम?"
अनुकूल बाबू ने उत्साह दिया- "बता बेटी, अपना नाम बता!"
अपने अभ्यस्त आदेश-पालन के ढंग से झुककर उसने कहा- "जी, मेरा नाम आशालता है।"
"आशा!" महेन्द्र को लगा, नाम बड़ा ही करुण और स्वर बड़ा कोमल है।
दोनों मित्रों ने बाहर सड़क पर आकर गाड़ी छोड़ दी। महेन्द्र बोला- "बिहारी, इस लड़की को तुम हर्गिज मत छोड़ो?"
बिहारी ने इसका कुछ साफ़ जवाब न दिया। बोला-"इसे देखकर इसकी मौसी याद आ जाती है। ऐसी ही भली होगी शायद!"
महेन्द्र ने कहा- "जो बोझा तुम्हारे कन्धे पर लाद दिया, अब वह शायद वैसा भारी नहीं लग रहा है।"
बिहारी ने कहा- "नहीं, लगता है तो ढो लूँगा।"
महेन्द्र बोला- "इतनी तकलीफ उठाने की क्या ज़रूरत है? तुम्हें बोझा लग रहा हो तो मैं उठा लूँ।"
बिहारी ने गम्भीर होकर महेन्द्र की तरफ ताका। बोला- "सच? अब भी ठीक-ठीक बता दो! यदि तुम शादी कर लो तो चाची कहीं ज़्यादा खुश होंगी- उन्हें हमेशा पास रखने का मौक़ा मिलेगा।"
महेन्द्र बोला- "पागल हो तुम! यह होना होता तो कब का हो जाता।"
बिहारी ने कोई एतराज न किया। चला गया और महेन्द्र भी यहाँ-वहाँ भटककर घर पहुँच गया।
माँ पूरियाँ निकाल रही थीं। चाची तब तक अपनी भानजी के पास से लौटकर नहीं आई थीं।
महेन्द्र अकेला सूनी छत पर गया और चटाई बिछाकर लेट गया। कलकत्ता की ऊँची अट्टालिकाओं के शिखरों पर शुक्ला सप्तमी का आधा चाँद टहल रहा था। माँ ने खाने के लिए बुलाया, तो महेन्द्र ने अलसाई आवाज़ में कहा- "छोड़ो, अब उठने को जी नहीं चाहता।"
माँ ने कहा- "तो यहीं ले आऊँ?"
महेन्द्र बोला- "आज नहीं खाऊँगा। मैं खाकर आया हूँ।"
माँ ने पूछा- "कहाँ खाने गया था?"
महेन्द्र बोला- "बाद में बताऊँगा।"
वे लौटने लगीं तो थोड़ा सोचते हुए महेन्द्र ने कहा-"माँ! खाना यहीं ले आओ।"
- 3
रात में महेन्द्र ठीक से सो नहीं पाया। आज ही वह बिहारी के घर पहुँच गया। बोला- "भई यारो, मैंने बड़ी ध्या न से सोचा ओर देखा- कि चाची यही चाहती है कि शादी मैं ही करूँ।"
बिहारी बोला- "इसके लिए सोचने की ज़रूरत नहीं थी। यह बात तो वे खुद कई बार कह चुकी हैं।"
महेन्द्र बोला- "तभी तो कहता हूँ, मैंने आशा से विवाह न किया तो उन्हें दु:ख होगा।"
बिहारी बोला- "हो सकता है!"
महेन्द्र ने कहा, "मेरा ख्याल है, यह तो ज्यादती होगी।"
"हाँ! बात तो ठीक है।" बिहारी ने कहा- "यह बात थोड़ी देर से आपकी समझ में आई। कल आ जाता तो अच्छा होता।"
महेन्द्र- "एक दिन बाद ही आया, तो क्या बुरा हो गया।"
विवाह की बात पर मन की लगाम को छोड़ना था कि महेन्द्र के लिए धीरज रखना कठिन हो गया। उसके मन में आया- इस बारे में बात करने का तो कोई अर्थ नहीं है। शादी हो ही जानी चाहिए।
उसने माँ से कहा- "अच्छा माँ, मैं विवाह करने के लिए राजी हूँ।"
माँ मन-ही-मन बोलीं- "समझ गई, उस दिन अचानक क्यों मँझली बहू अपनी भानजी को देखने चली गई। और क्यों महेन्द्र बन-ठनकर घर से निकला।"
उनके अनुरोध की बार-बार उपेक्षा होती रही और अन्नपूर्णा की साजिश कारगर हो गई, इस बात से वह नाराज़ हो उठीं। कहा- "अच्छा, मैं अच्छी-सी लड़की को देखती हूँ।"
आशा का ज़िक्र करते हुए महेन्द्र ने कहा- "लड़की तो मिल गई।"
राजलक्ष्मी बोलीं- "उस लड़की से विवाह नहीं हो सकता, यह मैं कहे देती हूँ।"
महेन्द्र ने बड़े संयत शब्दों में कहा- "क्यों माँ, लड़की बुरी तो नहीं है।"
राजलक्ष्मी- "उसके तीनों कुल में कोई नहीं। ऐसी लड़की से विवाह रचकर कुटुम्ब को सुख भी न मिल सकेगा।"
महेन्द्र- "कुटुम्ब को सुख मिले न मिले लड़की मुझे खूब पसन्द है।" उससे शादी न हुई तो मैं दुखी हो जाऊँगा।"
लड़के की ज़िद से राजलक्ष्मी और सख्त हो गईं। वह अन्नपूर्णा से भिड़ गईं- "एक अनाथ से विवाह कराकर तुम मेरे लड़के को फँसा रही हो। यह हरकत है।"
अन्नपूर्णा रो पड़ी- "उससे तो शादी की कोई बात ही नहीं हुई, उसने तुम्हें क्या कहा, इसकी मुझे जरा भी खबर नहीं।"
राजलक्ष्मी इसका रत्ती- भर यकीन न कर सकीं।
अन्नपूर्णा ने बिहारी को बुलवाया और आँसू भरकर कहा- "तय तो सब तुमसे हुआ था, फिर तुमने पासा क्यों पलट दिया? मैं कहे देती हूँ शादी तो तुम्हें ही करनी पड़ेगी। यह बेड़ा तुम न पार करोगे तो मुझे बड़ी शर्मिन्दगी उठानी होगी। वैसे लड़की अच्छी है।"
बिहारी ने कहा- "चाची, तुम्हारी बात मंजूर है। वह तुम्हारी भानजी है, फिर मेरे 'ना' करने की कोई बात ही नहीं। लेकिन महेन्द्र..."
अन्नपूर्णा बोलीं- "नहीं-नहीं बेटे, महेन्द्र से उसका विवाह किसी भी हालत में न होगा। यकीन मानो, तुमसे विवाह हो, तभी मैं ज़्यादा निश्चिंत हो सकूँगी। महेन्द्र से रिश्ता हो यह मैं चाहती भी नहीं।"
बिहारी बोला- "तुम्हीं नहीं चाहतीं तो कोई बात नहीं।"
और वह राजलक्ष्मी के पास जाकर बोला- "माँ, चाची की भानजी से मेरी शादी पक्की हो गई। सगे-सम्बन्धियों में तो कोई महिला है नहीं इसलिए मैं ही खबर देने आया हूँ।"
राजलक्ष्मी- "अच्छा! बड़ी खुशी हुई बिहारी, सुनकर। लड़की बड़ी भली है। तेरे लायक। इसे हाथ से जाने मत देना!"
बिहारी- "हाथ से बाहर होने का सवाल ही क्या! खुद महेन्द्र भैया ने लड़की पसन्द करके रिश्ता पक्का किया है।"
इन झंझट से महेन्द्र और भी उत्तेजित हो गया। माँ और चाची से नाराज़ होकर वह मामूली-से छात्रावास में जाकर रहने लगा।
राजलक्ष्मी रोती हुई अन्नपूर्णा के कमरे में पहुँचीं; कहा- "मँझली बहू, लगता है, उदास होकर महेन्द्र ने घर छोड़ दिया, उसे बचाओ!"
अन्नपूर्णा बोली- "दीदी, धीरज रखो, दो दिन के बाद गुस्सा उतर जाएगा।"
राजलक्ष्मी बोलीं- "तुम उसे जानती नहीं बहन, वह जो चाहता है, न मिले तो कुछ भी कर सकता है। जैसे भी हो, अपनी बहन की लड़की से...."
अन्नपूर्णा- "भला यह कैसे होगा दीदी, बिहारी से बात लगभग पक्की हो चुकी।"
राजलक्ष्मी बोलीं- "हो चुकी, तो टूटने में देर कितनी लगती है?"
और उन्होंने बिहारी को बुलवाया। कहा- "तुम्हारे लिए मैं दूसरी लड़की ढूँढ़ देती हूँ- मगर इससे तुम्हें बाज आना पड़ेगा।"
बिहारी बोला- "नहीं माँ, यह नहीं होगा। सब तय हो चुका है।"
राजलक्ष्मी फिर अन्नपूर्णा के पास गईं। बोलीं- "मेरे सिर की कसम मँझली, मैं तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ... तुम्हीं बिहारी से कहो! तुम कहोगी तो बिगड़ी बन जाएगी।" आखिर अन्नपूर्णा ने बिहारी से कहा- "बेटा, तुमसे कुछ कहने का मुँह नहीं है, मगर लाचारी है क्या करूँ। आशा को तुम्हें सौंपकर ही मैं निश्चिंत होती, मगर क्या बताऊँ, सब तो तुम्हें पता है ही।"
बिहारी- "समझ गया। तुम जो हुक्म करोगी, वही होगा। लेकिन फिर कभी किसी से विवाह करने का मुझसे आग्रह मत करना!"
बिहारी चला गया। अन्नपूर्णा की आँखें छलछला गईं। महेन्द्र का अमंगल न हो, इस आशंका से उन्होंने आँखें पोंछ लीं। बार-बार दिल को दिलासा दिया- "जो हुआ, अच्छा ही हुआ।"
और इस तरह राजलक्ष्मी- अन्नपूर्णा- महेन्द्र में किल-किल चलते-चलते आखिर विवाह का दिन आया। रोशनी हँसती हुई जली, शहनाई उतनी ही मधुर बजी जितनी वह बजा करती है। यानी उसके दिल के साथ कोई न था।
सज-सँवरकर लज्जित और मुग्ध-मन आशा अपनी नई दुनिया में पहली बार आई। उसके कंपित कोमल हृदय को पता ही न चला कि उसके इस बसेरे में कहीं काँटा है। बल्कि यह सोचकर भरोसे और आनन्द से उसके सारे ही संदेह जाते रहे कि इस दुनिया में एकमात्र माँ- जैसी अपनी मौसी के पास जा रही है।
विवाह के बाद राजलक्ष्मी ने कहा- "मैं कहती हूँ, अभी कुछ दिन बहू अपने बड़े चाचा के घर ही रहे।"
महेन्द्र ने पूछा- "ऐसा क्यों, माँ?"
माँ ने कहा- "तुम्हारा इम्तहान है। पढ़ाई-लिखाई में रुकावट पड़ सकती है।"
महेन्द्र बोला- "आखिर मैं कोई नन्हा-नादान हूँ। अपने भले-बुरे की समझ नहीं मुझे?"
राजलक्ष्मी- "जो हो, साल-भर की ही तो बात है।"
महेन्द्र ने कहा- "इसके माँ-बाप रहे होते, तो मुझे कोई एतराज न होता लेकिन चाचा के यहाँ इसे मैं नहीं छोड़ सकता।"
राजलक्ष्मी-(अपने आप) "बाप रे आप ही मालिक, सास कोई नहीं! कल शादी और आज ही इतनी हमदर्दी! आखिर हमारी भी तो शादी हुई थी। मगर तब ऐसी बेहयाई न थी।"
महेन्द्र ने दृढ़ता से कहा- "तुम बिल्कुल मत सोचो, माँ! इम्तहान में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा।"
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आखिर राजलक्ष्मी असीम उत्साह से बहू को गृहस्थी के काम-काज सिखाने में जुट गई। भण्डार रसोई और पूजा-घर में आशा के दिन कटने लगे, रात को अपने साथ सुलाकर वह उसके आत्मीय बिछोह की कमी को पूरा करने लगीं।
काफ़ी सोच-समझकर अन्नपूर्णा आशा से दूर ही रहा करतीं। कोई अभिभावक जब खुद सारी ईख का रस चूसने लगता है, तब निराश बच्चे की रंजिश कम नहीं होती। महेन्द्र की हालत भी वैसी ही हो गई। उसकी आँखों के सामने ही नवयुवती वधू का सारा मीठा रस गिरस्ती के कामों में निचुड़ता रहे, यह भला कैसे सहा जा सकता है।
अन्नपूर्णा जानती थीं कि राजलक्ष्मी ज्यादती कर रही है। फिर भी उन्होंने कहा- "क्यों बेटे, बहू को गृहस्थी के धन्धे सिखाए जा रहे हैं; अच्छा ही तो है। आजकल की लड़कियों की तरह उपन्यास पढ़ना, कार्पेट बुनना और सिर्फ बाबू बने रहना क्या अच्छा है?"
महेन्द्र उत्तेजित होकर बोला- "आजकल की लड़कियाँ आजकल की लड़कियों की तरह ही रहेंगी। वह चाहे भली हों, चाहे बुरी। मेरी स्त्री अगर मेरी ही तरह उपन्यास पढ़कर रस ले सके तो इसमें क्या बुरी बात है। यह न तो परिहास की बात है न पछतावे की।"
अन्नपूर्णा के कमरे में बेटे की आवाज़ सुनकर राजलक्ष्मी सब छोड़कर आ गईं। रूखे स्वर में बोलीं- "क्या मनसूबे बनाए जा रहे हैं?"
महेन्द्र ने वैसे ही उत्तेजित भाव से कहा, "मनसूबे क्या होंगे, बहू को घर में नौकरानी की तरह काम मैं न करने दूँगा।"
माँ ने अपनी तीखी जलन को दबाकर बड़े ही तीखे धीर भाव से कहा- "आखिर उससे क्या कराना होगा?"
महेन्द्र बोला- "मैं उसे लिखना-पढ़ना सिखाऊँगा।"
राजलक्ष्मी कुछ न बोलीं। तेज़ी से क़दम बढ़ाती हुई चली गईं और बहू का हाथ पकड़कर खींचती हुई महेन्द्र के पास लाकर बोलीं- "यह रही तुम्हारी बहू, सिखाओ लिखना-पढ़ना!"
और अन्नपूर्णा की तरफ पलटकर गले में अचरा डालकर कहा- "माफ करो मँझली बहू, माफ करो! तुम्हारी भानजी की मर्यादा मेरी समझ में न आई। मैंने इसके कोमल हाथों में हल्दी लगाई है। अब तुम इसे धो-पोंछकर परी बनाकर रखो- महेन्द्र को सौंपो- ये आराम से लिखना-पढ़ना सीखे, नौकरानी का काम मैं करूँगी।"
राजलक्ष्मी अपने कमरे में चली गईं और दरवाज़ा ज़ोर से बन्द कर लिया।
क्षोभ से अन्नपूर्णा ज़मीन पर बैठ गई। अचानक यह क्या हो गया, आशा के पल्ले नहीं पड़ा कि माजरा क्या है? महेन्द्र नाराज़ हो गया। मन-ही-मन बोला- "जो हुआ सो हुआ, अब से अपनी स्त्री का भार अपने हाथों में लेना पड़ेगा, नहीं तो जुल्म होगा।"
मन और कर्तव्य बोध दोनों मिल जाएँ तो अच्छा लगता है। पत्नी की उन्नति के चक्कर में महेन्द्र रम गया। न तो उसे काम का ध्याहन रहा न लोगों की परवाह।
घमण्डी राजलक्ष्मी ने अपने- आप कहा- 'अब अगर महेन्द्र बीवी को लेकर मेरे दरवाज़े पर सिर पीटकर जान दे दे तो भी मैं मुड़कर नहीं देखूँगी। देखती हूँ, माँ को छोड़कर बीवी के साथ कैसे रहेगा?'
दिन बीतने लगे। राजलक्ष्मी के दरवाज़े पर किसी अनुतप्त के पाँवों की आहट न सुनाई पड़ी।
राजलक्ष्मी ने अपने मन में तय किया- 'अच्छा माफी माँगने आएगा तो माफ कर दूँगी, नहीं तो कहाँ जाएगा। बहुत दुखी हो जाएगा बेचारा। लेकिन माफी कोई माँगे तभी तो आप माफ कर सकते हैं। कोई माफी के लिए दहलीज पर आया ही नहीं। राजलक्ष्मी ने सोचा कि मैं ही जाकर उसे क्षमा कर आऊँगी। लड़का रूठ गया है तो क्या माँ भी रूठी रहे!'
तिमंजिले पर एक कोने के छोटे-से कमरे में महेन्द्र सोया करता था, वही उसकी पढ़ने की जगह भी थी। इधर कई दिनों से माँ ने उसके कपड़े सहेजने, बिस्तर बिछाने, झाड़ने-बुहारने में कोई दिलचस्पी नहीं ली। मातृ-स्नेह के जिन कर्तव्यों की वह आदी थीं, बहुत दिनों तक उन कामों को न करने से वही दुखी हो गई। उस दिन दोपहर को एकाएक मन में आया, 'अभी महेन्द्र कॉलेज गया होगा, इसी बीच उसका कमरा ठीक कर आऊँ, लौटकर वह समझ जाएगा कि कमरे से माँ का हाथ फिरा है।'
सीढ़ियों से राजलक्ष्मी ऊपर गई। महेन्द्र के कमरे में दरवाज़े का एक पल्ला खुला था। सामने जाते ही मानो काँटा चुभ गया। चौंककर ठिठक गई। देखा, फर्श पर महेन्द्र लेटा है और दरवाज़े की तरफ पीठ किए बहू धीरे-धीरे उसके पाँव सहला रही है। दोपहर की तेज़ धूप में खुले कमरे में दाम्पत्य-लीला देखकर राजलक्ष्मी शर्म और धिक्कार से सिमट गई और चुपचाप नीचे उतर आई।
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कुछ दिन सूखा पड़ने से नाज के जो पौधे सूखकर पीले पड़ जाते हैं, बारिश आने पर वे तुरन्त बढ़ जाते हैं। आशा के साथ भी ऐसा ही हुआ। जहाँ उसका रक्त सम्बन्ध था, वहाँ वह कभी भी आत्मीयता का दावा न कर सकी, आज पराए घर में जब उसे बिन माँगे हक मिला, तो उसने इसे लेने में देर न की।
उस दिन दोपहर में राजलक्ष्मी नीचे उतर आई। उसने सोचा अन्नपूर्णा को जलाया जाए। बोली- "अरी ओ मँझली, जाकर देख ज़रा तुम्हारी नवाब की बेटी नवाब के घर से कैसा पाठ पढ़कर आई है! घर के बड़े-बूढ़े आज होते तो ।"
अन्नपूर्णा ने कातर होकर कहा- "दीदी, अपनी बहू को तुम शिक्षा दो, या हुकूमत चलाओ मुझे क्या? मुझसे क्यों कह रही हो।"
राजलक्ष्मी धनुष की तनी डोरी-सी टंकार उठी- "हूँ, मेरी बहू! जब तक तुम मंत्री हो, वह मुझे कैसे मान सकती है!"
यह सुनकर अन्नपूर्णा पैर पटकती हुई महेन्द्र के कमरे में पहुँच गई। आशा से बोली- "तू इस तरह से मेरा सिर नीचा करेगी री, मुँहजली! शर्म नहीं, हया नहीं, समय-असमय का ख्याल नहीं, बूढ़ी सास पर सारा गृहस्थी का बोझ डालकर तुम यहाँ आराम फरमा रही हो? मेरा ही नसीब जला कि मैं तुझे इस घर में ले आई।"
कहते-कहते उनकी आँखों से आँसू बहने लगे और आशा भी सिर झुकाए आँचल के छोर को नाखून से नोंचती हुई चुपचाप रोने लगी।
महेन्द्र ने कहा- "यह देखो, इसके लिए मैं स्लेट, बही, किताब सब ख़रीद लाया हूँ। इसे मैं लिखना-पढ़ना सिखाऊँगा, चाहे लोग मेरी निन्दा करें।"
अन्नपूर्णा बाली- "ठीक है, लेकिन यह क्या तमाम दिन? शाम के बाद घण्टा-आधा घण्टा पढ़ लिया बस! घण्टा-आधा घण्टा पढ़ना ही तो काफ़ी होगा।"
महेन्द्र- "इतना आसान नहीं है चाची, पढ़ने-लिखने में समय लगता है।"
अन्नपूर्णा खीझकर चली गई। आशा भी उनके पीछे-पीछे चल पड़ी। महेन्द्र दरवाज़ा रोककर खड़ा हो गया-उसने आशा की गीली आँखों की विनती न मानी। वैसे आशा को नहीं लगता कि लिखना-पढ़ना ज़रूरी भी है फिर भी वह अपनी पति की खातिर किताबों पर एकबारगी झुककर सिर हिलाती हुई बताई चीज़ें याद करती रहती। कमरे के कोने में छोटी-सी मेज़ पर डॉक्टरी की किताब खोले मास्टर साहब कुर्सी पर बैठे होते, बीच-बीच में कनखियों से छात्रा को देखते रहते। अचानक अपनी किताब बन्द करके आवाज़ दी- "चुन्नी!" यह आशा का ही घरेलू नाम था।
चौंककर आशा ने उधर देखा। वह बोला, "जरा लाओ तो किताब देखूँ, कहाँ पढ़ रही हो? आशा को लगा जाँच होगी और उसमें पास होने की उम्मीद कम ही थी। आगे-आगे पाठ और पीछे सपाट कुछ यही हाल था। एक हाथ से उसकी कमर को कसकर लपेटकर दूसरे हाथ से किताब पकड़कर पूछा- "आज कितना पढ़ गई- देखूँ तो।"
जितनी पंक्तियों पर वह सरसरी निगाह फेर गई थी, दिखा दिया। महेन्द्र ने अचरज से कहा- "ओह, इतना पढ़ गई! मैंने कितना पढ़ा, बताऊँ?"
और अपनी किताब के किसी अध्याईय का शीर्षक-भर दिखा दिया। अचरज से आँखें बड़ी-बड़ी करके आशा ने पूछा- "तो इतनी देर से कर क्या रहे थे?"
उसकी ठोढ़ी पकड़कर महेन्द्र ने कहा- "मैं किसी के बारे में सोच रहा था; और जिसके बारे में सोच रहा था, वह दीमक का वर्णन पढ़ने में मशगूल थी!"
इस बे-वजह शिकायत का सटीक जवाब आशा न दे सकी, लेकिन प्रकम की प्रतियोगिता में झूठी हार मान लेनी पड़ती है।
ऐसे ही एक रोज़ महेन्द्र मौजूद नहीं था। मौक़ा पाकर आशा पढ़ने बैठ गई कि अचानक कहीं से आकर उसने आँखें मींच लीं और किताब छीनकर कहने लगा, "बे-रहम, मैं नहीं होता हूँ तो तुम मेरे बारे में सोचती तक नहीं। किताबों में डूब जाती हो!"
आशा ने कहा- "तुम मुझे गँवार बनाए रखोगे?"
महेन्द्र ने कहा- "तुम्हारी कृपा से अपनी ही विद्या कौन आगे बढ़ रही है!" बात आशा को लग गई। फौरन चल देने का उपक्रम करती बोली- "मैंने तुम्हारी पढ़ाई में ऐसी कौन-सी रुकावट डाली है?"
उसका हाथ थामकर महेन्द्र ने कहा- "यह तुम नहीं समझोगी? मुझे भूल कर तुम जितनी आसानी से पढ़-लिख लेती हो, तुम्हें भूलकर उतनी आसानी से मैं नहीं पढ़-लिख पाता।"
शिक्षक ही जब शिक्षा की सबसे बड़ी बाधा हो तो छात्रा की क्या मजाल कि विद्या के वन में राह बनाकर चल सके। कभी-कभी मौसी की झिड़की याद आती और चित्त विचलित हो जाता। सास को देखकर शर्म से गड़ जाती लेकिन सास उसे किसी काम को न कहती। अपने मन से उनकी मदद करना चाहती तो वह पढ़ाई के हर्जे की बात कहकर वापस भेज देती।
आखिर अन्नपूर्णा ने आशा से कहा- "तेरी जो पढ़ाई चल रही है, वह तो देख ही रही हूँ, महेन्द्र को क्या डॉक्टरी का इम्तहान न देने दोगी?"
यह सुनकर आशा ने अपने जी को कड़ा किया। महेन्द्र से कहा- "तुम्हारे इम्तहान की तैयारी नहीं हो पा रही है। आज से मैं नीचे मौसी के कमरे में रहा करूँगी।"
इस उम्र में ऐसा कठोर सन्न्यास-व्रत! सोने के कमरे से एकबारगी मौसी के कमरे में निर्वासन! ऐसी कठोर प्रतिज्ञा करते हुए उसकी आँखों के कोनों में आँसू झलक पड़े, बेबस होठ काँप उठे और गला रुँध गया। महेन्द्र बोला- "बेहतर है, चाची के कमरे में ही चलो! मगर तब उन्हें हमारे कमरे में ऊपर आना पड़ेगा।"
ऐसा एक गम्भीर प्रस्ताव मज़ाक बन गया, आशा इससे नाराज़ हुई। महेन्द्र ने कहा- "इससे तो अच्छा है कि तुम रात-दिन मुझे आँखों-आँखों में रखो और निगरानी करो! फिर देखो कि मेरी इम्तहान की पढ़ाई चलती है कि नहीं।"
एक दिन बारिश हो रही थी। बादल घिरे थे। ऐसे में बदन पर एक सुवासित महीन चादर और जुही की माला गले में डाले महेन्द्र मगन-मन अपने सोने के कमरे में पहुँचा। अचानक आशा को चौंका देने के विचार से- जूतों की आवाज़ न होने दी। झाँककर देखा, पूरब की खुली खिड़की से पानी के छींटे लिये हवा के तीखे झोंके कमरे में आ रहे हैं, दीया बुझ गया है और आशा नीचे बिछावन पर पड़ी रो रही है।
महेन्द्र जल्दी से उसके क़रीब गया और पूछा- "क्या बात है?" वह दूने आवेग से रोने लगी। बड़ी देर के बाद महेन्द्र को जवाब मिला कि "मौसी से और बर्दाश्त न हो सका। वह अपने फुफेरे भाई के यहाँ चली गईं।"
महेन्द्र के मन में आया, 'गईं तो गईं, लेकिन बदली की ऐसी सुहानी साँझ को ख़राब कर गईं।'
अन्त में सारा गुस्सा माँ पर आया। वही तो इन सारे अनर्थों की जड़ है।
महेन्द्र ने कहा- "हम भी वहीं चले जाएँगे, जहाँ चाची गई हैं। देखते हैं, माँ किससे झगड़ती है?"
और उसने नाहक ही शोर-गुल के साथ असबाब बाँधने के लिए कुली को बुलाना शुरू कर दिया।
राजलक्ष्मी समझ गईं। धीरे-धीरे महेन्द्र के पास आईं। शान्त स्वर में पूछा- 'कहाँ जा रहा है?"
महेन्द्र ने पहले कोई जवाब ही न दिया। दो-तीन बार पूछे जाने पर बताया- "चाची के पास।"
राजलक्ष्मी बोलीं- "अरे तो मैं ही उन्हें यहाँ बुला देती हूँ।"
राजलक्ष्मी उसी समय पालकी पर सवार होकर अन्नपूर्णा के घर गईं। गले में कपड़ा डालकर हाथ जोड़ते हुए कहा- "खुश हो मँझली बहू, मुझे माफ करो!"
अन्नपूर्णा ने जल्दी-जल्दी उनके पैरों की धूल ली। कातर स्वर में कहा- "दीदी, मुझे दोषी क्यों बना रहीं? तुम जैसा हुक्म दोगी, वैसा ही करूँगी।"
राजलक्ष्मी ने कहा- "तुम चली आई हो, तो मेरे बेटा-पतोहू भी घर छोड़कर यहीं आ रहे हैं।"
कहते-कहते वह रो पड़ी।
जिठानी-देवरानी दोनों घर लौट आईं। तब भी वर्षा हो रही थी। अन्नपूर्णा जब महेन्द्र के कमरे में पहुँची, आशा का रोना थम चुका था। महेन्द्र बातों से उसे हँसाने की कोशिश कर रहा था। आसार थे कि बदलियाँ यूँ ही नहीं गुजर जाएँगी।
अन्नपूर्णा ने कहा- "चुन्नी, तू मुझे घर में भी न रहने देगी और कहीं जाऊँ तो भी पीछे लग जाएगी। क्या मेरे लिए कहीं चैन नहीं!"
आशा चौंक पड़ी।
महेन्द्र बड़ा ही खीझकर बोला- "क्यों चाची, चुन्नी ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है?"
अन्नपूर्णा ने कहा- "बहू की ऐसी बेहयाई बर्दाश्त न हो सकी तभी यहाँ से चली गई थी। फिर अपनी सास को रुलाकर मुँहजली ने मुझे क्यों बुलवाया?"
जीवन के अध्याीय में माँ-चाची ऐसी विघ्नकारिणी होती हैं, महेन्द्र को इसका पता न था।
दूसरे दिन राजलक्ष्मी ने बिहारी को बुलवाकर कहा-"बेटा बिहारी, तुम एक बार महेन्द्र से पूछ देखो, जमाने से गाँव नहीं गए। मैं एक बार बारासत जाना चाहती हूँ।"
बिहारी ने कहा- "जमाने से नहीं गईं तो क्या हुआ? खैर, मैं पूछ देखता हूँ। मगर वह राजी भी होगा, ऐसा नहीं लगता।"
महेन्द्र ने कहा- "जन्म-भूमि को देखने की इच्छा ज़रूर होती है। लेकिन माँ का वहाँ ज़्यादा दिन न रहना ही अच्छा होगा। बरसात के मौसम में वह जगह अच्छी नहीं।"
महेन्द्र बड़ी आसानी से राजी हो गया, इससे बिहारी कुढ़ गया। बोला- "माँ अकेली जाएँगी, वहाँ उनकी देख-भाल कौन करेगा?"
"भाभी को भी साथ भेज दो न?"
कहकर बिहारी हँसा।
बिहारी के इस गहरे व्यंग्य से कुण्ठित होकर महेन्द्र ने कहा- "मेरे लिए यह कोई मुश्किल है क्या?"
मगर बात इससे आगे न बढ़ी।
बिहारी इसी तरह आशा के मन को विमुख कर दिया करता और यह जानकर कि आशा इससे कुढ़ती है, उसे मजा आता।
कहना बेकार होगा, राजलक्ष्मी जन्म-भूमि के दर्शन के लिए उतनी बेताब न थीं। गर्मी के दिनों में जब नदी का पानी सूख जाता है, तो मल्लाह कदम-कदम पर लग्गी से थाह लेता है कि कहाँ कितना पानी है। राजलक्ष्मी ने सोचा न था कि उनके बारासत जाने का प्रस्ताव इतनी जल्दी मंजूर हो जाएगा। सोचा, 'अन्नपूर्णा और मेरे दोनों के घर से बाहर जाने में फ़र्क़ है।'
अन्नपूर्णा भीतरी मतलब समझ गई। कहने लगी, "दीदी जाएँगी, तो मैं भी न रह सकूँगी।"
महेन्द्र ने माँ से कहा- "सुन लिया तुमने? तुम जाओगी तो चाची भी जाएँगी। अपनी गृहस्थी का क्या होगा फिर?"
राजलक्ष्मी विद्वेष के ज़हर से जर्जर होकर बोलीं- "तुम भी- जा रही हो मँझली? तुम्हारे जाने से काम कैसे चलेगा? नहीं, तुम्हें रहना ही पड़ेगा।"
राजलक्ष्मी उतावली हो गई। दूसरे दिन दोपहर को ही तैयार हो गई। महेन्द्र ही उन्हें पहुँचाने जाएगा, इसमें किसी को भी शुबहा न था। लेकिन रवाना होते वक्त मालूम पड़ा महेन्द्र ने माँ के साथ जाने के लिए प्यादे और दरबान तक कर रखे हैं।
बिहारी ने पूछा- "तुम अभी तक तैयार नहीं हुए क्या, भैया?"
महेन्द्र ने लजाकर कहा- "मेरे कॉलेज की..."
बिहारी ने कहा- "खैर, तुम छोड़ दो! माँ को मैं वहीं छोड़ आता हूँ।"
महेन्द्र मन-ही-मन नाराज हुआ। अकेले में आशा से बोला, "सचमुच, बिहारी ने ज्यादती शुरू कर दी है। वह यह दिखाना चाहता है कि वह माँ का ख्याल मुझसे ज़्यादा रखता है।"
अन्न्पूर्णा को रह जाना पड़ा। परन्तु लाज, कुढ़न और खीझने से वह सिमटी-सी रहीं। चाची में यह दुराव देखकर महेन्द्र नाराज हुआ और आशा भी रूठी रही।
राजलक्ष्मी मैके पहुँची। तय था कि उन्हें छोड़कर बिहारी आ जाएगा लेकिन वहाँ की हालत देखकर वह ठहर गया।
- 7
राजलक्ष्मी के मैके में महज दो-एक बूढ़ी विधवाएँ थीं। चारों तरफ घना जंगल और बाँस की झाड़ियाँ; पोखर का हरा-भरा पानी; दिन-दोपहर में स्यार की 'हुआं-हुआं' से राजलक्ष्मी की रूह तड़प उठती।
बिहारी ने कहा- "माँ, जन्म-भूमि यह ज़रूर है, मगर इसे 'स्वर्गादपि गरीयसी' तो हरगिज नहीं कहा जा सकता। तुम्हें यहाँ अकेली छोड़कर लौट जाऊँ तो मुझे पाप लगेगा।" राजलक्ष्मी के प्राण भी काँप उठे। ऐसे में विनोदिनी भी आ गई। विनोदिनी के बारे में पहले ही कहा जा चुका है। महेन्द्र से, और कभी बिहारी से उसके विवाह की बात चली थी। विधाना की लिखी भाग्य-लिपि से जिस आदमी से उसका विवाह हुआ वह जल्दी ही चल बसा।
उसके बाद से विनोदिनी घने जंगल में अकेली लता-सी, इस गाँव में घुटकर जी रही थी। वही अनाथ, राजलक्ष्मी के पास आई, उन्हें प्रणाम किया और उनके सेवा-जतन में जुट गई। सेवा तो सेवा है, घड़ी को आलस नहीं। काम की कैसी सफाई, कितनी अच्छी रसोई, कैसी मीठी बातचीत! राजलक्ष्मी कहती- "काफ़ी देर हो चुकी बिटिया, तुम भी थोड़ा-सा खा लो जाकर!"
वैसे राजलक्ष्मी उसकी फुफिया सास थी।
अपने प्रति बड़ी लापरवाही दिखाती हुई विनोदिनी कहती- "हमारे दु:ख- सहे शरीर में नाराजगी की गुंजाइश नहीं। अहा, कितने दिनों के बाद तो अपनी जन्म-भूमि आई हो! यहाँ है भी क्या? काहे से तुम्हारा आदर करूँ!"
बिहारी तो दो ही दिनों में मुहल्ले-भर का बुजुर्ग बन बैठा। कोई दवा-दारू, तो कोई मुकदमे के राय-मशविरे के लिए आता; कोई उसकी इसलिए खुशामद करता कि किसी बड़े दफ़्तर में उसके बेटे को नौकरी दिला दे; कोई उससे अपनी दरखास्त लिखवाता। बूढ़ों की बैठक और कुली-मजूरों के ताड़ी के अड्डे तक वह समान रूप से जाता-आता। सभी उसका सम्मान करते।
गँवई-गाँव में आए कलकत्ता के उस नवयुवक के निर्वासन-दण्ड को भी विनोदिनी अंत:पुर की ओट से हल्का करने की भरसक कोशिश किया करती। मुहल्ले का चक्कर काटकर जब भी वह आता तो पाता कि किसी ने उसके कमरे को बड़े जतन से सहेज-सँवार दिया है; काँसे के एक गिलास में कुछ फूलों-पत्तों का गुच्छा सजा रखा है। और सिरहाने के एक तरफ पढ़ने योग्य कुछ किताबें रख दी हैं। किताबों में किसी महिला के हाथ से बड़ी कंजूसी के साथ छोटे अक्षरों में लिखा है।
गाँवों में अतिथि-सत्कार का जो आम तरीका है, उससे इसमें थोड़ा फ़र्क़ था। उसी का ज़िक्र करते हुए बिहारी जब तारीफ करता, तो राजलक्ष्मी कहतीं- "और ऐसी लड़की को तुम लोगों ने कबूल नहीं किया!"
हँसते हुए बिहारी कहता- "बेशक हमने अच्छा नहीं किया माँ, ठगा गया। मगर एक बात है, विवाह न करके ठगाना बेहतर है, ब्याह करके ठगाता तो मुसीबत थी!" राजलक्ष्मी के जी में बार-बार यही आता रहा, "यही तो मेरी पतोहू होने योग्य थी। क्यों न हुई भला!"
राजलक्ष्मी कलकत्ता लौटने का ज़िक्र करतीं कि विनोदिनी की आँखें छलछला उठतीं। कहतीं- "आखिर तुम दो दिन के लिए क्यों आईं, बुआ? अब तुम्हें छोड़कर मैं कैसे रहूँगी?"
भावावेश में राजलक्ष्मी कह उठतीं- "तू मेरी बहू क्यों न हुई बेटी, मैं तुझे कलेजे से लगाए रखती।"
सुनकर शर्म से विनोदिनी किसी बहाने वहाँ से हट जाती। राजलक्ष्मी इस इन्तजार में थीं कि कलकत्ता से विनीत अनुरोध का कोई पत्र आएगा। माँ से अलग महेन्द्र आज तक इतने दिन कभी न रहा था। माँ के इस लम्बे बिछोह ने निश्चय ही उसके सब्र का बाँध तोड़ दिया होगा। राजलक्ष्मी बेटे के गिड़गिड़ाहट-भरे पत्र का इन्तजार कर रही थीं।
बिहारी के नाम महेन्द्र का पत्र आया। लिखा था, 'लगता है माँ बहुत दिनों के बाद मैके गई हैं, शायद बड़े मजे में होंगी।'
राजलक्ष्मी ने सोचा, 'महेन्द्र ने रूठकर ऐसा लिखा है। बड़े मजे में होंगी। महेन्द्र को छोड़कर बदनसीब माँ भला सुख से कैसे रह सकती है?'
"अरे बिहारी, उसके बाद क्या लिखा है उसने, पढ़कर सुना तो जरा!"
बिहारी बोला- "और कुछ नहीं लिखा है, माँ!"
और उसने पत्र को मुट्ठी से दबोचकर एक कापी में रखा और कमरे में एक ओर धप्प से पटक दिया।
राजलक्ष्मी अब भला थिर रह सकती थीं! हो न हो, महेन्द्र माँ पर इतना नाराज हुआ है कि बिहारी ने पढ़कर सुनाया नहीं।
गौ के थन पर चोट करके बछड़ा जिस प्रकार दूध और वात्सल्य का संचार करता है, उसी प्रकार महेन्द्र की नाराजगी ने आघात पहुँचाकर राजलक्ष्मी के घुटे वात्सल्य को उभार दिया। उन्होंने महेन्द्र को माफ कर दिया। बोलीं- "अहा, अपनी बहू को लेकर महेन्द्र सुखी है, रहे-जैसे भी हो, वह सुख से रहे। जो माँ उसे छोड़कर कभी एक पल नहीं रह सकती, वही उसे छोड़कर चली आई है, इसलिए महेन्द्र अपनी माँ से नाराज हो गया है।"
रह-रहकर उनकी आँखों में आँसू उमड़ने लगे।
उस दिन वह बार-बार बिहारी से जाकर कहती रहीं-"बेटे, तुम जाकर नहा लो। यहाँ बड़ी बदपरहेजी हो रही है तुम्हारी।"
राजलक्ष्मी अड़ गईं- "नहीं-नहीं, नहा डालो!"
बार-बार ज़िद करने से बिहारी नहाने गया। उसका कमरे से बाहर क़दम रखना था कि झपटकर राजलक्ष्मी ने वह किताब उठा ली और उसके अन्दर से पत्र को निकाला। पढ़कर विनोदिनी सुनाने लगी। शुरू में महेन्द्र ने माँ के बारे में लिखा था, लेकिन बड़ा मुख्तसर। बिहारी ने जितना-भर सुनाया, उससे ज़्यादा कुछ नहीं।
उसके बाद आशा का ज़िक्र था। मौज-मजे और खुशियों से विभोर होकर लिखा था।
विनोदिनी ने थोड़ा पढ़ा और शर्म से थक गई। कहा-"यह क्या सुनोगी, बुआ!"
राजलक्ष्मी का स्नेह से अकुलाया चेहरा पल-भर में जमकर पत्थर-जैसा सख्त हो गया। जरा देर चुप रहीं, फिर बोलीं- "रहने दो!"
और चिट्ठी उन्होंने वापस न ली। चली गईं।
चिट्ठी लेकर विनोदिनी को क्या रस मिला, वही जाने। पढ़ते-पढ़ते उसकी आँखें दोपहर के तपे बालू-सी जलने लगी- उसका नि:श्वास रेगिस्तान की बयार- जैसी गर्म हो उठी।
'कैसा है महेन्द्र, कैसी है आशा और इन दोनों का प्रेम ही कैसा है!' यही बात उसके मन को मथने लगी। पत्र को गोद में डाले, पाँव फैलाए, दीवार से पीठ टिकाकर सामने ताकती वह देर तक सोचती रही।
महेन्द्र की वह चिट्ठी बिहारी को फिर ढूँढ़े न मिली।
अचानक उसी दिन दोपहर में अन्नपूर्णा आ धमकीं। किसी बुरी खबर की आशंका से राजलक्ष्मी का कलेजा सहसा काँप उठा। कुछ पूछने की उन्हें हिम्मत न हुई। वह फक पड़े चेहरे से अन्नपूर्णा की तरफ ताकती रह गईं।
अन्नपूर्णा ने पूछा- "कलकत्ता का समाचार ठीक है।"
राजलक्ष्मी ने पूछा- "फिर तुम यहाँ कैसे?"
अन्नपूर्णा बोली- "दीदी, अपनी गृहस्थी तुम जाकर सम्हालो। संसार से अपना जी उचट गया है। मैं काशी जाने की तय करके निकली हूँ। तुम्हें प्रणाम करने आ गई। जान में, अनजान में जाने कितने कसूर हो गए हैं माफ करना। और तुम्हारी बहू...," कहते-कहते आँखों से आँसू उफन उठे- "वह नादान बच्ची है, उसके माँ नहीं। वह दोषी हो चाहे निर्दोष, तुम्हारी है।"
अन्नपूर्णा और न बोल सकी।
राजलक्ष्मी जल्दी से उनके नहाने-खाने का इन्तज़ाम करने गई। बिहारी को मालूम हुआ तो वह घोष की मठिया से दौड़ आया। अन्नपूर्णा को प्रणाम करके बोला-"ऐसा भी होता है भला, हम सबको निर्दयी की तरह ठुकराकर तुम चल दोगी?"
आँसू जब्त करके अन्नपूर्णा ने कहा- "मुझे अब फेरने की कोशिश मत करो बिहारी, तुम लोग सुखी रहो, मेरे लिए कुछ रुका न रहेगा।"
बिहारी कुछ क्षण चुप रहा। फिर बोला- "महेन्द्र की किस्मत खोटी है उसने तुम्हें रुख़्सत कर दिया।"
अन्नपूर्णा चौंककर बोलीं- "ऐसा मत कहो, मैं उस पर बिल्कुल नाराज नहीं हूँ। मेरे गए बिना उनका भला न होगा।"
बहुत दूर ताकता हुआ बिहारी चुप बैठा रहा। अपने आँचल से सोने की दो बालियाँ निकालकर अन्नपूर्णा बोलीं- "बेटे, ये बालियाँ रख लो! बहू आए तो मेरा आशीर्वाद जताकर इन्हें पहना देना!"
बालियाँ मस्तक से लगाकर आँसू छिपाने के लिए बिहारी बगल के कमरे में चला गया।
जाते वक्त बोलीं- "मेरे महेन्द्र और मेरी आशा का ध्याकन रखना, बिहारी!"
राजलक्ष्मी के हाथों उन्होंने एक काग़ज़ दिया। कहा--'ससुर की जायदाद में मेरा जो हिस्सा है, वह मैंने इस वसीयत में महेन्द्र को लिख दिया है। मुझे हर माह सिर्फ पन्द्रह रुपए भेज दिया करना!"
झुककर उन्होंने राजलक्ष्मी के पैरों की धूल माथे लगाई और तीर्थ-यात्रा को निकल पड़ी।
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