आँख की किरकिरी उपन्यास भाग-8

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें
इस लेख का पुनरीक्षण एवं सम्पादन होना आवश्यक है। आप इसमें सहायता कर सकते हैं। "सुझाव"
51

शाम को महेन्द्र जब उस यमुना के तट पर जा बैठा, तो प्रेम के आवेश ने उसकी नज़रों में, साँसों में, नस-नस में, हड्डीयों के बीच गाड़े मोह रस का संचार कर दिया आसमान में डूबने सूरज की किरणों की सुनहरी वीणा वेदना की मूच्छना से झरती जोत के संगीत से झंकृत हो उठी!

बारिश जैसा हो रहा था। नदी अपने उद्दाम यौवन में। महेन्द्र के पास निर्दिष्ट कुछ नहीं था। उसे वैष्णव कवियों का वर्षाभिसार याद आया। नायिका बाहर निकली है; यमुना के किनारे वह अकेली खड़ी है। उस पार कैसे जाए? अरे ओ, पार करो, पार कर दो। महेन्द्र की छाती के अन्दर यही पुकार पहुँचने लगी- 'पार करो'।

नदी से उस पार बड़ी दूर पर वह अभिसारिका खड़ी थी- फिर भी महेन्द्र उसे साफ़ देख पाया। उसका कोई काल नहीं, उम्र नहीं, वह चिरंतन गोपबाला है, मगर महेन्द्र ने उसे फिर भी पहचान लिया- पहचाना कि वह विनोदिनी है। सारा विरह, सारी वेदना यौवन का सारा भार लिये वह उस युग के अभिसार के लिए चली थी और आज के युग के किनारे आ निकली है। आज के इस सूने यमुना-तट के ऊपर आकाश में वही स्वर सुनाई पड़ रहा है। 'अरे ओ, पार करो, पार कर दो!'

महेन्द्र मतवाला हो गया। विनोदिनी उसे ठुकरा देगी, चाँदनी रात के इस स्वर्ग-खण्ड को वह लक्ष्मी बनकर पूरा न करेगी, वह सोच भी नहीं सका। वह तुरन्त उठकर विनोदिनी को ढूँढ़ने चल दिया। सोने के कमरे में गया। कमरा फूलों की खुशबू से महमहा रहा था। खुली खिड़कियों से छनकर चाँदनी सफेद बिछौने पर आ पड़ी थी। बगीचे के फूलों से सजी वह बसंत की बिखरी लता-जैसी चाँदनी में बिस्तर पर लेटी हुई थी।

महेन्द्र का मोह दुगुना हो गया। उसने रुँधे गले से कहा- "विनोद, मैं यमुना के तट पर तुम्हारी राह देख रहा था और तुम यहाँ इन्तज़ार कर रही हो, यह सन्देशा मुझे चाँद ने दिया। इसी से मैं यहाँ आ गया।" यह कहकर महेन्द्र बिस्तर पर बैठने ही जा रहा था कि विनोदिनी उठ बैठी और दायाँ हाथ बढ़ाकर बोली-"जाओ; इस बिस्तर पर मत बैठो।" पाल वाली नाव मानो चौंर में अटक गई- महेन्द्र कहा न माने, इसीलिए विनोदिनी बिस्तर से उतरकर खड़ी हो गई।

महेन्द्र ने पूछा- "तो तुम्हारा यह श्रृंगार किसके लिए है? किसका इन्तज़ार कर रही हो?"

विनोदिनी ने अपनी छाती को दबाकर कहा- "मैं जिसके लिए सजी-सँवरी, वह मेरे अंतस्तल में है।" महेन्द्र ने पूछा- "आखिर कौन? बिहारी।"

विनोदिनी बोली- "उसका नाम तुम अपनी ज़बान पर मत लाओ!"

महेन्द्र- "उसी के लिए तुम पछाँह का दौरा कर रही हो?"

विनोदिनी- "हाँ, उसी के लिए।"

महेन्द्र- "उसका पता मालूम है?"

विनोदिनी- "मालूम नहीं, मगर जैसे भी हो, मालूम करूँगी।"

महेन्द्र- "तुम्हें यह हर्गिज़ न मालूम होने दूँगा।"

विनोदिनी- "न सही, मगर मेरे हृदय से उसे निकाल नहीं पाओगे।"

यह कहकर विनोदिनी ने ऑंखें बन्द करके अपने हृदय में एक बार बिहारी का अनुभव कर लिया।

फूलों से सजी विरह-विधुरा विनोदिनी से एक साथ ही खिंचकर और ठुकराया जाकर महेन्द्र अचानक भयंकर हो उठा; वह मुट्ठी कसकर बोला- "छुरी से चीरकर मैं उसे तुम्हारे कलेजे से निकाल बाहर करूँगा।" विनोदिनी ने दृढ़ता से कहा- "तुम्हारे प्रेम से तुम्हारी यह छुरी मेरे हृदय में आसानी से घुस सकेगी।"

महेन्द्र- "तुम मुझसे डरती क्यों नहीं? यहाँ तुम्हें बचाने वाला कौन है?"

विनोदिनी- "बचाने वाले तुम हो! तुम्हीं मुझे अपने से बचाओगे।"

महेन्द्र- "इतनी श्रद्धा, इतना विश्वास अब भी है!"

विनोदिनी- "यह न होता तो मैं खुदकुशी कर लेती, तुम्हारे साथ परदेस न आती।"

महेन्द्र- "क्यों न कर ली खुदकुशी- उस विश्वास की फाँस मेरे गले में डाल कर मुझे देश-देशान्तर में घसीटकर क्यों मार रही हो? सोच देखो, तुम मर जाती तो कितना कल्याण होता!" विनोदिनी- "जानती हूँ, मगर जब तक बिहारी की उम्मीद है, मर न पाऊँगी।"

महेन्द्र- "जब तक तुम नहीं मरतीं, तब तक मेरी आशा भी नहीं मरने की, मैं भी छुटकारा नहीं पाने का। आज से मैं हृदय से भगवान से तुम्हारी मृत्यु की कामना करता हूँ। तुम मेरी भी न बनो, बिहारी की भी नहीं! जाओ, मुझे मुक्ति दो। मेरी माँ रो रही है, स्त्री रो रही है, उनके ऑंसू दूर से ही मुझे जला रहे हैं। जब तक तुम मर नहीं जातीं; मेरी और दुनिया-भर की आशा से परे नहीं हो जातीं, तब तक मुझे उनके ऑंसू पोंछने का अवसर नहीं मिलेगा।"

इतना कहकर महेन्द्र बड़ी तेज़ी से बाहर निकल गया। अकेली पड़ी विनोदिनी अपने चारों तरफ माया का जाल बुन रही थी, उसे वह फाड़ गया। विनोदिनी खड़ी-खड़ी चुपचाप बाहर देखती रही- आकाश-भरी चाँदनी को ख़ाली करके उसका सारा संचित अमृत कहीं चला गया? वह क्यारियों वाला बगीचा, उसके बाद रेती-भरा किनारा, उसके बाद नदी का काला-काला पानी, उसके बाद सारा पार का धुँधलापन- सब मानो एक सादे काग़ज़ पर पेंसिल का बना चित्र हो- नीरस, बेमानी।

उसने महेन्द्र को किस बुरी तरह अपनी ओर खींचा है खौफनाक तूफ़ान की तरह कैसे उसे जड़ समेत उखाड़ लिया है- यह अनुभव करके आज उसका हृदय मानो और भी बेचैन हो गया। उसमें यह सारी शक्ति तो है, फिर भी बिहारी पूर्णिमा की रात में उमड़े हुए समुद्र की तरह उसके सामने आकर पछाड़ क्यों नहीं खाता? क्यों बे-मतलब प्यार की कचोट रोज़ उसके ध्यान में आकर रोती है? उसे लगा सब बेकार और निरर्थक है। इतनी व्यर्थता के बावजूद जो जहाँ है, वहीं खड़ा है- दुनिया में किसी बात का कोई कार्यक्रम नहीं। सूरज तो कल भी उगेगा और दुनिया अपने छोटे-से काम को भी न भूलेगी। और बिहारी जैसे दूर रहा है, वैसे ही दूर रहेगा और उस ब्राह्मण के बच्चे को किताब का नया पाठ पढ़ाता रहेगा।

उसकी ऑंखों से ऑंसू फूटकर झरने लगे। अपनी इच्छा और शक्ति लिये वह किस पत्थर को ढकेल रही है? उसका हृदय लहू से नहा उठा, लेकिन उसकी तकदीर सुई की नोक के बराबर भी न खिसकी।

52

रात में महेन्द्र सोया नहीं- थकावट के मारे सुबह-सुबह उसे नींद आई। सुबह आठ-नौ बजे के क़रीब जगकर वह झट उठ बैठा। पिछली रात की कोई अधूरी पीड़ा नींद के भीतर-ही-भीतर घूमती रही थी। सचेतन होते ही महेन्द्र उसकी तकलीफ महसूस करने लगा। कुछ ही देर में रात की सारी घटना मन में जाग पड़ी। सुबह की उस धूप में, पूरी नींद न आ पाने की थकावट से सारी दुनिया और ज़िन्दगी बड़ी सूखी-सी लगी। घर छोड़ने की ग्लानि, धर्म छोड़ने का परिताप और इस उद्भ्रांत जीवन की ये ज़िल्लतें आखिर वह किसके लिए झेल रहा है! मोह के आवेश से रहित सुबह की इस धूप में महेन्द्र को लगा, वह विनोदिनी को प्यार नहीं करता। उसने रास्ते की ओर झाँका- सारी दुनिया परेशान-सी काम के पीछे भाग रही है और आत्म-गौरव को कीचड़ में डुबोकर एक बेरुखी औरत के पैरों से लिपटे रहने की जो नादानी है, वह महेन्द्र की निगाहों में स्पष्ट हो उठी। आवेग के किसी बड़े झोंके के बाद हृदय में अवसाद आता है, ऐसे वक्त थका-हारा हृदय अनुभूति के विषय को कुछ समय के लिए दूर हटाना चाहता है।

फिर तो धिक्कार के इस मार-चक्र से अपने को छुडाकर घर जाने के लिए महेन्द्र ललक उठा, बिहारी को निर्भर करने योग्य अडिग मिताई बड़ी बेशकीमती लगने लगी। महेन्द्र मन-ही-मन कह उठा- 'जो वास्तव, गम्भीर और स्थायी होता है, उसमें अनायास, बाधा-विहीन-सा अपने को पूरी तरह खोया जा सकता है, इसीलिए उसके गौरव को हम नहीं समझते। जो महज धोखा है, जिसकी तृप्ति में भी सुख का नाम नहीं, चूँकि वह हमें अपने पीछे घुड़दौड़-सी कराता है, इसलिए हम उसे अपनी चरम कामना का धन समझते हैं।'

महेन्द्र ने तय किया- 'मैं आज ही अपने घर जाऊँगा। विनोदिनी जहाँ भी रहना चाहेगी, वहीं उसका इन्तज़ाम करके मैं मुक्त हो जाऊँगा'- यह ज़ोर से उच्चारण करते ही उसके मन में एक आनन्द का उदय हुआ। लगातार दुविधा का जो भार वह ढोता चला आ रहा था, हल्का हो गया। अब तक होता ऐसा रहा कि, अभी-अभी जो बात उसे रुचती न थी, दूसरे ही क्षण उसे मानने को मजबूर होना पड़ता था, हाँ- ना कहते न बनता; उसकी अन्तरात्मा उसे जो आदेश देती, सदा बलपूर्वक उसे दबाकर वह दूसरी ही राह पर चला करता। अभी जैसे ही उसने ज़ोर से कहा- 'मैं मुक्त हो जाऊँगा'-वैसे ही शरण पाकर उसके झकझोरे हुए हृदय ने उसे बधाई दी।

महेन्द्र बिस्तर से उठा, मुँह-हाथ धोया और विनोदिनी से मिलने गया। देखा, कमरा अन्दर से बन्द है। दरवाज़े पर धक्का देकर पूछा- "सो रही हो?" विनोदिनी बोली- "नहीं, अभी जाओ!"

महेन्द्र ने कहा- "तुमसे ज़रूरी बात करनी है। ज़्यादा देर न रुकूँगा।" विनोदिनी बोली- "बात अब मैं नहीं सुनना चाहती, तुम जाओ, मुझे तंग मत करो- अकेली रहने दो।"

और दिन होता, तो इससे महेन्द्र का आवेग और बढ़ ही जाता। लेकिन आज उसे बेहद घृणा हुई। सोख, इस मामूली औरत के आगे अपने- आपको मैंने ऐसा गया-बीता बना छोड़ा है कि अब उसमें मुझे बुरी तरह दुत्कारकर दूर कर देने की हिम्मत हो गई है? यह अधिकार इसका स्वाभाविक नहीं। मैंने ही यह अधिकार देकर इसके मिज़ाज को सातवें आसमान पर पहुँचा दिया है।

विनोदिनी की इस झिड़की से महेन्द्र ने अपने में अपनी श्रेष्ठता के अनुभव की कोशिश की। उसके मन ने कहा- "मैं विजयी होऊँगा- इसके बन्धन तोड़कर चला जाऊँगा।"

भोजन करके महेन्द्र रुपया निकालने बैंक गया। रुपया निकाला और आशा तथा माँ के लिए कुछ नई चीज़ें ख़रीदने के ख्याल से वह बाज़ार की दुकानों में घूमने लगा।

विनोदिनी के दरवाज़े पर एक बार फिर धक्का पड़ा। पहले तो आजिज़ी से उसने कोई जवाब ही न दिया; लेकिन जब बार-बार धक्का पड़ने लगा तो आग-बबूला होकर दरवाज़ा खोलते हुए उसने कहा- "नाहक क्यों बार-बार मुझे तंग करने आते हो तुम?"

बात पूरी करने के पहले ही उसकी नज़र पड़ी- बिहारी खड़ा था। कमरे में महेन्द्र है या नहीं, यह देखने के लिए बिहारी ने एक बार भीतर की तरफ झाँका। देखा, कमरे में सूखे फूल और टूटी मालाएँ बिखरी पड़ी थीं। उसका मन जबर्दस्त ढंग से विमुख हो उठा। यह नहीं कि बिहारी जब दूर था, तो उसके मन में विनोदिनी के रहन-सहन के बारे में सन्देह का कोई चित्र आया ही नहीं, लेकिन कल्पना की लीला ने उस चित्र को ढककर भी एक दमकती हुई मोहिनी छवि खड़ी कर रखी थी। बिहारी जिस समय इस बगीचे में क़दम रख रहा था, उस समय उसका दिल धड़कने लगा था- कल्पना की प्रतिमा को कहीं चोट न पहुँचे इस आंशका से उसका हृदय संकुचित हो रहा था। और विनोदिनी के सोने के कमरे के द्वार पर खड़े होते ही वही चोट लगी।

दूर रहते हुए बिहारी ने सोचा था कि अपने प्रेम के अभिषेक से मैं विनोदिनी के जीवन की सारी कालिमा को धो दूँगा। लेकिन पास आकर देखा, यह आसान नहीं। मन में करुणा की वेदना कहाँ उपजी? बल्कि एकाएक घृणा ने जगकर उसे अभिभूत कर दिया। बिहारी ने उसे बड़ा मलिन देखा।

वह तुरन्त मुड़कर खड़ा हो गया और उसने 'महेन्द्र-महेन्द्र' कहकर पुकारा। इस अपमान से विनोदिनी ने नम्र स्वर में कहा- "महेन्द्र नहीं है, शहर गया है।" बिहारी लौटने लगा। विनोदिनी बोली- "भाई साहब, मैं पैर पड़ती हूँ, ज़रा देर बैठना पड़ेगा।"

बिहारी ने सोच रखा था, वह कोई आरजू-मिन्नत नहीं सुनेगा। तय कर लिया था कि नफरत के इस नज़ारे से तुरन्त अपने को अलग कर लेगा। लेकिन विनोदिनी की करुण विनती से उसके क़दम क्षण-भर के लिए उठ न सके।

विनोदिनी बोली- "आज अगर तुम मुझे इस तरह ठुकराकर चल दिए, तो तुम्हारी कसम खाकर कहती हूँ, मैं मर जाऊँगी।"

बिहारी पलटकर खड़ा हो गया, बोला- "तुम अपने जीवन से मुझे जकड़ने की कोशिश क्यों करती हो? मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? मैं तो कभी तुम्हारी राह में नहीं आया, तुम्हारे सुख-दु:ख में कभी दख़ल नहीं दिया।"

विनोदिनी बोली- "तुमने मुझ पर कितना अधिकार कर रखा है, एक बार तुमसे कहा था मैंने- तुमने विश्वास नहीं किया। तो भी तुम्हारी बेरुखी में भी फिर वही कहती हूँ। बिना बोले जताने का शर्म से बताने का मौक़ा तो तुमने मुझे दिया नहीं। तुमने मुझे पैरों से झटक दिया है, मैं फिर भी तुम्हारे पाँव पकड़कर कहती हूँ- मैं तुम्हें..."

बिहारी ने टोकते हुए कहा- "बस-बस, रहने दो, यह बात जबान पर मत लाओ। एतबार की गुंजाइश नहीं रही।"

विनोदिनी- "इतर लोग इस पर विश्वास न करें, पर तुम करोगे। इसीलिए मैं तुम्हें ज़रा देर बैठने को कह रही हूँ।"

बिहारी- "मेरे विश्वास करने, न करने से क्या आता-जाता है। तुम्हारी ज़िन्दगी तो जैसी चल रही है, चलती रहेगी।"

विनोदिनी- "इससे तुम्हारा कुछ आता-जाता नहीं, मैं जानती हूँ? अपना नसीब ही ऐसा है कि तुमसे मुझे सदा दूर ही रहना होगा। बस मैं केवल इतना हक नहीं छोड़ना चाहती कि मैं चाहे जहाँ रहूँ, मुझे ज़रा माधुर्य के साथ याद करना। मुझे मालूम है, मुझ पर तुम्हें थोड़ी-सी श्रद्धा हुई थी, मैं उसी को अपना अवलम्ब बनाए रहूँगी। इसीलिए मेरी पूरी बात तुम्हें सुननी होगी। मैं हाथ जोड़ती हूँ, ज़रा देर बैठो!" "अच्छा चलो!" कहकर बिहारी उस कमरे से और कहीं जाने को तैयार हुआ।

विनोदिनी बोली- "भाई साहब, जो सोच रहे हो, वह बात नहीं है। इस कमरे को कलंक की छाया नहीं छू सकी है। कभी यहाँ सोए थे- इसे मैंने तुम्हारे ही लिए उत्सर्ग करके रखा है। सूखे पड़े ये फूल तुम्हारी ही पूजा के हैं। तुम्हें यहीं बैठना होगा।"

सुनकर बिहारी के मन में पुलक का संचार हुआ। वह कमरे में गया। विनोदिनी ने दोनों हाथों से उसे खाट का इशारा किया। बिहारी खाट पर बैठा। विनोदिनी उसके पैरों के पास ज़मीन पर बैठी। विनोदिनी ने बिहारी को व्यस्त होते देखकर कहा- "तुम बैठो, भाई साहब! सिर की कसम तुम्हें, उठना मत। मैं तुम्हारे पैरों के पास भी बैठने लायक़ नहीं- दया करके ही तुमने मुझे यह जगह दी है। दूर रहूँ, तो भी इतना अधिकार मैं रखूँगी।"

यह कहकर विनोदिनी जरा देर चुप रही। उसके बाद अचानक चौंककर बोली- "तुम्हारा खाना?"

बिहारी बोला- "स्टेशन से खाकर आया हूँ।"

विनोदिनी- "मैंने गाँव से तुम्हें जो पत्र दिया था, उसे खोलकर पढ़ा और कोई जवाब न देकर उसे महेन्द्र के मार्फत लौटा क्यों दिया?"

बिहारी- "कहाँ, वह चिट्ठी तो मुझे नहीं मिली।"

विनोदिनी- "इस बार कलकत्ता में महेन्द्र से तुम्हारी भेंट हुई थी।"

बिहारी- "तुम्हें गाँव पहँचाकर लौटा, उसके दूसरे दिन भेंट हुई थी। उसके बाद मैं पछाँह की ओर सैर को निकल पड़ा, उससे फिर भेंट नहीं हुई।"

विनोदिनी- "उससे पहले और एक दिन मेरी चिट्ठी पढ़कर बिना उत्तर के वापिस कर दी?"

बिहारी- "नहीं, ऐसा कभी नहीं हुआ।"

विनोदिनी बुत-सी बैठी रही। उसके बाद लम्बी साँस छोड़कर बोली- "सब समझ गई। अब अपनी बात बताऊँ-मगर यकीन करो तो अपनी खुशकिस्मती समझूँ और न कर सको तो तुमको दोष न दूँगी, मुझ पर यकीन करना मुश्किल है।"

बिहारी का हृदय पसीज गया। भक्ति से झुकी विनोदिनी की पूजा का वह किसी भी तरह अपमान न कर सका। बोला- "भाभी, तुम्हें कुछ कहना न पडेग़ा। बिना कुछ सुने ही मैं तुम्हारा विश्वास करता हूँ। मैं तुमसे घृणा नहीं कर सकता। तुम अब एक भी शब्द न कहना!"

सुनकर विनोदिनी की ऑंखों से ऑंसू बहने लगे। उसने बिहारी के चरणों की धूल ली। बोली- "सब न सुनोगे, तो मैं जी न सकूँगी। थोड़ा धीरज रखकर सुनना होगा-तुमने मुझे जो आदेश दिया था, मैंने उसी को सिर माथे उठा लिया था। तुमने मुझे पत्र तक न लिखा, तो भी अपने गाँव में मैं लोगों की निंदा सहकर ज़िन्दगी बिता देती, तुम्हारे स्नेह के बदले तुम्हारे शासन को ही स्वीकार करती- लेकिन विधाता उसमें भी वाम हुए। जिस पाप को मैंने जगाया, उसने मुझे निर्वासन में भी न टिकने दिया। महेन्द्र वहाँ पहुँचा, मेरे घर पर जाकर उसने सबके सामने मेरी मिट्टीपलीद की। गाँव में मेरे लिए जगह न रह गई। मैंने दुबारा तुम्हें बेहद तलाशा कि तुम्हारा आदेश लूँ, पर तुमको न पा सकी। मेरी खुली चिट्टी तुम्हारे यहाँ से लाकर मुझे देते हुए महेन्द्र ने धोखा दिया। मैंने समझा, तुमने मुझे एकबारगी त्याग दिया। इसके बाद मैं बिलकुल नष्ट हो सकती थी-मगर पता नहीं तुममें क्या है, तुम दूर रहकर भी बचा सकते हो। मैंने दिल में तुम्हें जगह दी है, इसी से पवित्रा वही कठिन परिचय सख्त सोने की तरह, ठोस मणि की तरह मेरे मन में है, उसने मुझे मूल्यवान बनाया है। देवता, तुम्हारे पैर छूकर कहती हूँ, वह मूल्य नष्ट नहीं हुआ है।"

बिहारी चुप रहा। विनोदिनी भी और कुछ न बोली। तीसरे पहर की धूप पल-पल पर फीकी पड़ने लगी। ऐसे समय महेन्द्र दरवाज़े पर आया और बिहारी को देखकर चौंक पड़ा। विनोदिनी के प्रति उसमें जो उदासीनता आ रही थी,ईर्ष्या से वह जाने-जाने को हो गई। विनोदिनी को बिहारी के पाँवों के पास बैठी देखकर ठुकराए हुए महेन्द्र को चोट पहुँची।

व्यंग्य के स्वर में महेन्द्र ने कहा- "तो अब रंगमंच से महेन्द्र का प्रस्थान हुआ, बिहारी का प्रवेश! दृश्य बेहतरीन है। तालियाँ बजाने को जी चाहता है। लेकिन उम्मीद है, यही अन्तिम अंक है। इसके बाद अब कुछ भी अच्छा न लगेगा।"

विनोदिनी का चेहरा तमतमा उठा। महेन्द्र की शरण जब उसे लेनी पड़ी है, तो इस अपमान का क्या जवाब दे-व्याकुल होकर उसने केवल बिहारी की ओर देखा। बिहारी खाट से उठा। बोला- "महेन्द्र, कायर की तरह विनोदिनी का यों अपमान न करो- तुम्हारी भलमनसाहत अगर तुम्हें नहीं रोकती, तो रोकने का अधिकार मुझको है।" महेन्द्र ने हँसकर कहा- "इस बीच अधिकार भी हो गया? आज तुम्हारा नया नामकरण है- विनोदिनी!"

अपमान करने का हौंसला बढ़ता ही जा रहा है, यह देखकर बिहारी ने महेन्द्र का हाथ दबाया। कहा- "महेन्द्र, मैं विनोदिनी से ब्याह करूँगा, सुन लो! लिहाज़ा संयत होकर बात करो।" महेन्द्र अचरज के मारे चुप हो गया और विनोदिनी चौंक उठी। उसकी छाती के अन्दर का लहू खलबला उठा।

बिहारी ने कहा- "और एक खबर देनी है तुम्हें। तुम्हारी माँ मृत्यु-सेज पर हैं। बचने की कोई उम्मीद नहीं। मैं आज रात को ही गाड़ी से जाऊँगा- विनोदिनी भी मेरे साथ जाएगी।" विनोदिनी ने चौंककर पूछा- "बुआ बीमार हैं?"

बिहारी बोला- "हाँ, सख्त। कब क्या हो जाय कुछ कहा नहीं जा सकता।"

यह सुनकर महेन्द्र ने और कुछ न कहा! चुपचाप कमरे से बाहर निकल गया।

विनोदिनी ने बिहारी से पूछा- "अभी-अभी तुमने जो कहा, तुम्हारी जुबान पर यह बात कैसे आई? मज़ाक तो नहीं?" बिहारी बोला- "नहीं, मैंने ठीक ही कहा है। मैं तुमसे ब्याह करूँगा।"

विनोदिनी- "किसलिए? उद्धार करने के लिए।"

बिहारी- "नहीं, मैं तुम्हें प्यार करता हूँ, इसलिए।"

विनोदिनी- "यही मेरा पुरस्कार है। इतना-भर स्वीकार किया, मेरे लिए यही बहुत है, इससे ज़्यादा मैं कुछ नहीं चाहती। ज़्यादा मिले भी तो रहने का नहीं।" बिहारी- "क्यों?"

विनोदिनी- "वह सोचते हुए भी शर्म आती है। मैं विधवा हूँ, बदनाम हूँ- सारे समाज के सामने तुम्हारी फजीहत करूँ, यह हर्गिज नहीं होगा। छि:, यह बात जबान पर न लाओ।" बिहारी- "तुम मुझे छोड़ दोगी?"

विनोदिनी- "छोड़ने का अधिकार मुझे नहीं। चुपचाप तुम बहुतों की बहुत भलाई किया करते हो-अपने वैसे ही किसी व्रत का कोई-सा भार मुझे देना, उसी को ढोती हुई मैं अपने-आपको तुम्हारी दासी समझा करूँगी। लेकिन विधवा से तुम ब्याह करोगे, छि:! तुम्हारी उदारता से सब-कुछ मुमकिन है, लेकिन मैं यह काम करूँ, समाज में तुम्हें नीचा करूँ तो ज़िन्दगी में यह सिर कभी उठा न सकूँगी।" बिहारी- "मगर मैं तुम्हें प्यार करता हूँ।"

विनोदिनी- "उसी प्यार के अधिकार से आज मैं एक ढिठाई करूँगी।"

इतना कहकर विनोदिनी झुकी। उसने पैर की उँगली को चूम लिया। पैरों के पास बैठकर बोली- "तुम्हें अगले जन्म में पा सकूँ, इसके लिए मैं तपस्या करूँगी। इस जन्म में अब कोई उम्मीद नहीं। मैंने बहुत दु:ख उठाया-काफ़ी सबक मिला। यह सबक अगर भूल बैठती, तो मैं तुम्हें नीचा दिखाकर और भी नीची बनती। लेकिन तुम ऊँचे हो, तभी आज मैं फिर से सिर उठा सकी हूँ- अपने इस आश्रय को मैं धूल में नहीं मिला सकती।"

बिहारी गंभीर हो रहा।

विनोदिनी ने हाथ जोड़कर कहा- "ग़लती मत करो-मुझसे विवाह करके तुम सुखी न होगे, अपना गौरव गँवा लोगे- मैं भी अपना गर्व खो बैठूँगी। तुम सदा निर्लिप्त रहो, प्रसन्न रहो। आज भी तुम वही हो-मैं दूर से ही तुम्हारा काम करूँगी। तुम खुश रहो, सदा सुखी रहो।"

53

महेन्द्र माँ के कमरे में जा रहा था कि आशा दौड़ी-दौड़ी आई। कहा- "अभी वहाँ मत जाओ!" महेन्द्र ने पूछा- "क्यों?"

आशा बोली- "डॉक्टर ने बताया है, माँ चाहे दु:ख का हो चाहे सुख का- अचानक कोई धक्का लगने से आफत हो सकती है।"

महेन्द्र बोला- मैं दबे पाँवों उनके सिरहाने की तरफ जाकर एक बार देख आऊँ जरा। उन्हें पता न चलेगा।"

आशा- "नहीं, अभी आप माँ से नहीं मिल सकते।"

महेन्द्र- "तो तुम करना क्या चाहती हो?"

आशा- "पहले बिहारी बाबू उन्हें देख आएँ, वे जैसा कहेंगे, वही करूँगी।"

इतने में बिहारी आ गया। आशा ने उसे बुलवाया था।

बिहारी को देखकर आशा को थोड़ा भरोसा हुआ। बोली- "तुम्हारे जाने के बाद से माँ और भी अकुला उठी हैं, भाई साहब। पहले दिन जब तुम न दिखाई पड़े उन्होंने पूछा- 'बिहारी कहाँ गया?' मैंने कहा- 'वे एक ज़रूरी काम से बाहर गए हैं। बृहस्पति तक लौट आएँगे।' उसके बाद से वे रह-रहकर चौंक-चौंक पड़ती हैं। मुँह से कुछ नहीं कहतीं लेकिन अन्दर-ही-अन्दर मानो किसी की राह देख रही हैं। कल तुम्हारा तार मिला। मैंने उन्हें बताया, तुम आ रहे हो। उन्होंने आज तुम्हारे लिए ख़ासतौर से खाने का इन्तज़ाम करवाने को कहा है। तुम्हें जो-जो चीज़ें अच्छी लगती हैं, सब मँगवाई हैं, सामने बरामदे पर रसोई का प्रबन्ध कराया है, अन्दर से वह खुद बनाती रहेंगी। डॉक्टर ने लाख मना किया, एक न सुनीं। अभी-अभी ज़रा देर पहले मुझे बुलाकर कहा, 'बहू, रसोई तुम अपने हाथों बनाना, आज बिहारी को मैं अपने सामने बैठाकर खिलाऊँगी'।

सुनते ही बिहारी की ऑंखें छलछला उठीं। पूछा- "माँ हैं कैसी?"

आशा ने कहा- "तुम खुद चलकर देखो, मुझे तो लगता है, बीमारी और बढ़ गई है।"

बिहारी अन्दर गया। महेन्द्र खड़ा अचरज में पड़ गया। आशा ने मजे में गृहस्थी सम्हाल ली है- कितनी आसानी से महेन्द्र को अन्दर जाने से रोक दिया। न संकोच किया, न रूठी। महेन्द्र आज कितना सकुचा गया है! वह अपराधी है-चुपचाप खड़ा रहा, बाहर। माँ के कमरे में न घुस सका।

फिर भी यह अजीब बात-बिहारी से वह कैसे बे-खटके बोली। सलाह-परामर्श सब उसी से। वही आज इस घर का सबसे बड़ा शुभचिंतक है, एकमात्र रक्षक है। उसको कहीं रोक नहीं, उसी के निर्देश पर सब-कुछ चलता है। कुछ दिनों के लिए महेन्द्र जो स्थान छोड़कर चला गया था, लौटकर देखा, वह स्थान अब ठीक वैसा ही नहीं है।

बिहारी के अन्दर जाते ही राजलक्ष्मी ने पूछा- "तू आ गया, बेटे?"

बिहारी बोला- "हाँ माँ, लौट आया।"

राजलक्ष्मी ने पूछा- "काम हो गया तेरा?"

खुश होकर बिहारी बोला- "हाँ माँ, हो गया। अब मुझे कोई चिन्ता नहीं रही।"

और उसने एक बार बाहर की तरफ देखा।

राजलक्ष्मी- "बहू आज तेरे लिए खुद खाना पकाएगी-मैं यहाँ से उसे बताती जाऊँगी। डॉक्टर ने मना किया है-मगर अब काहे की मनाही, बेटे! मैं क्या इन ऑंखों से एक बार तुम लोगों का खाना भी न देख पाऊँगी!"

बिहारी ने कहा- "डॉक्टर के मना करने की बात तो समझ में नहीं आती- तुम न बताओगी तो चलेगा कैसे? छुटपन से तुम्हारे हाथ की ही रसोई हमें भाई है- महेन्द्र भैया का जी तो पश्चिम की दाल-रोटी से ऊब गया है-तुम्हारे हाथ की बनाई मछली मिलेगी, तो वह जी जाएगा। आज हम दोनों भाई जैसे बचपन में करते थे, होड़ लगाकर खाएँगे। तुम्हारी बहू जुटा सके, तब जानो।" राजलक्ष्मी समझ तो गई थी कि बिहारी के साथ महेन्द्र आया है, फिर भी उसकी धड़कन बढ़ गई।

बिहारी ने कहा- "पछाँह जाकर महेन्द्र की सेहत बहुत-कुछ सुधर गई है। आज सफर से आया है, इसलिए थका-माँदा लगता है। नहाने से ठीक हो जाएगा।"

राजलक्ष्मी ने फिर भी महेन्द्र के बारे में कुछ न कहा। इस पर बिहारी ने कहा- "माँ, महेन्द्र बाहर ही खड़ा है। जब तक तुम नहीं बुलाओगी वह नहीं आएगा।"

राजलक्ष्मी कुछ बोलीं नहीं, सिर्फ दरवाज़े की तरफ नज़र उठाई। उनका उधर देखना था कि बिहारी ने कहा-"महेन्द्र भैया, आ जाओ!"

महेन्द्र धीरे-धीरे अन्दर आया। कलेजे की धड़कन कहीं एकाएक थम जाए, इस डर से राजलक्ष्मी तुरन्त महेन्द्र की ओर न देख सकी। ऑंखें अधमुँदी रहीं। बिस्तर की तरफ ताककर महेन्द्र चौंक उठा। उसे मानो किसी ने पीटा हो।

माँ के पैरों के पास सिर रखकर उनका पैर पकड़े पड़ा रहा। कलेजे की धड़कन से राजलक्ष्मी का सर्वांग काँपता रहा। कुछ देर बाद अन्न्पूर्णा ने धीमे-से कहा-"दीदी, तुम महेन्द्र को कहो कि वह उठे, नहीं तो वह यहीं बैठा रहेगा।"

बड़ी मुश्किल से उन्होंने कहा- "महेन्द्र उठ!" बहुत दिनों के बाद महेन्द्र का जो नाम लिया तो उनकी ऑंखों से ऑंसू की धारा फूट पड़ी। ऑंसू बहने से मन की पीड़ा कुछ हल्की हुई। महेन्द्र उठा, ज़मीन पर घुटना गाड़, खाट की पाटी पर छाती रखकर माँ के पास बैठा। राजलक्ष्मी ने बड़ी तसल्ली से करवट बदली। दोनों हाथों से अपनी ओर खींचकर उन्होंने महेन्द्र का सिर सूँघा, और ललाट को चूम लिया। महेन्द्र ने रुँधे कंठ से कहा- "मैंने तुम्हें बड़ी तकलीफ पहुँचाई है, माँ मुझे माफ करो।"

कलेजा ठंडा हुआ तो राजलक्ष्मी ने कहा- "ऐसा मत कह बेटे, तुझे माफ किए बिना मैं जी सकती हूँ भला! बहू कहाँ गई? बहू!" आशा पास ही दूसरे कमरे में पथ्य तैयार कर रही थी। अन्नपूर्णा उसे बुला लाई।

राजलक्ष्मी ने महेन्द्र को ज़मीन पर से उठकर बिस्तर पर बैठने का इशारा किया। महेन्द्र बैठा, तो उसकी बगल की जगह दिखाती हुई राजलक्ष्मी ने कहा-"तुम यहाँ बैठो, बहू! आज तुम दोनों को मैं पास-पास बिठाकर देख लूँ, तभी मेरी तकलीफ मिटेगी। बहू, आज मुझसे शर्म न करो! महेन्द्र के लिए जो मलाल है, उसे भी भुला दो। उसके पास बैठो।

इस पर आशा घूँघट निकाले धड़कते दिल से लजाती हुई आकर महेन्द्र के पास बैठ गई। राजलक्ष्मी ने महेन्द्र का दाहिना हाथ लिया और आशा के दाहिने हाथ से मिलाकर दबाया। बोली- "अपनी इस बिटिया को मैं तेरे हाथों सौंप जाती हूँ, महेन्द्र- इसका ख्याल रखना, ऐसी लक्ष्मी तुझे और कहीं नहीं मिलेगी। मँझली आओ, दोनों को आशीर्वाद दो, तुम्हारे पुण्य से ही दोनों का मंगल हो।" अन्नपूर्णा उनके सामने गईं। दोनों ने ऑंसू-भरे नेत्रों से उनके चरणों की धुल ली। उन्होंने दोनों के माथे को चूमा- "ईश्वर तुम्हारा मंगल करे!" राजलक्ष्मी- "बिहारी, आगे आओ बेटे, महेन्द्र को तुम माफी दो।"

बिहारी ज्यों ही महेन्द्र के सामने जाकर खड़ा हुआ, उसने उसे बाँहों में लपेटकर कसकर छाती से लगा लिया।

राजलक्ष्मी ने कहा- "मैं आशीर्वाद देती हूँ महेन्द्र, बिहारी छुटपन से तेरा जैसा मित्र था, सदा वैसा ही रहे।"

इसके बाद राजलक्ष्मी थकावट के मारे और कुछ न कह सकीं। चुप हो गईं। बिहारी कोई उत्तेजक दवा उनके होठों तक ले गया। हाथ हटाकर राजलक्ष्मी ने कहा- "अब दवा नहीं बेटे, अब मैं भगवान को याद करूँ- वही मुझे दुनिया की सारी जलन की दवा देंगे। महेन्द्र, तुम लोग थोड़ा आराम कर लो बेटे! बहू, रसोई चढ़ा दो!"

शाम को महेन्द्र और बिहारी राजलक्ष्मी की खाट के पास नीचे खाने बैठे। परोसने का ज़िम्मा राजलक्ष्मी ने आशा को दे रखा था। वह परोसने लगी। महेन्द्र का कौर नहीं उठ रहा था, कलेजे में ऑंसू उमड़े आ रहे थे। राजलक्ष्मी बोलीं- "तू ठीक से खा क्यों नहीं रहा है, महेन्द्र? खा, मैं ऑंखें भरकर देखूँ।" बिहारी ने कहा- "तुम तो जानती ही हो माँ, महेन्द्र भैया का सदा का यही हाल है। वह खा नहीं सका। भाभी, जरा यह घंट थोड़ा-सा और दो मुझे, बेहतरीन बना है।" खुश होकर राजलक्ष्मी ज़रा हँसी।...."मुझे मालूम है, बिहारी को यह बेहद पसंद है। बहू, भला उतने से क्या होगा, और दो।" बिहारी बोला- "तुम्हारी यह बहू अहले दर्जे की कंजूस है। इसके हाथ से कुछ निकलता ही नहीं।"

राजलक्ष्मी बोलीं- "सुन लो बहू, तुम्हारा ही नमक खाकर बिहारी तुम्हारी ही निंदा करता है।"

आशा बिहारी की पत्तल में सब्जी डाल गई।

बिहारी बोल उठा- "हाय राम, मुझे तो सब्जी देकर ही धता बतानी चाहती है, अच्छी-अच्छी चीज़ें सब महेन्द्र भैया के हिस्से।" आशा फुसफुसाकर कह गई- "कुछ भी करो, निन्दक की जबान बन्द नहीं होने की।" बिहारी बोला- "मिठाई देकर देखो, बंद होती है या नहीं।"

दोनों दोस्त खा चुके तो राजलक्ष्मी को बड़ी तृप्ति मिली। बोलीं- "बहू, अब तुम जाकर खा लो।" आशा उनके हुक्म पर खाने चली गई। उन्होंने महेन्द्र से कहा- "तू थोड़ा सो ले, महेन्द्र!" महेन्द्र बोला- "सो जाऊँ अभी से!"

महेन्द्र ने सोच रखा था, रात को वह माँ की सेवा में रहेगा। मगर राजलक्ष्मी ने धीमे-से कहा- "बहू, देख जाओ कि महेन्द्र का बिस्तर ठीक भी है या नहीं। वह अकेला है।" आशा लाज के मारे मरी-सी किसी तरह कमरे से बाहर चली गई। वहाँ केवल बिहारी और अन्न्पूर्णा रह गए। तब राजलक्ष्मी ने कहा- "तुमसे एक बात पूछनी है, बिहारी। विनोदिनी का क्या हुआ, पता है। कहाँ है वह?" बिहारी ने कहा- "वह कलकत्ता में है।"

राजलक्ष्मी ने ऑंखों की मौन दृष्टि से ही प्रश्न किया। बिहारी समझ गया। बोला- "उसकी तुम अब फ़िक्र ही न करो, माँ!"

राजलक्ष्मी बोलीं- "उसने मुझे बहुत दु:ख दिया है बिहारी, फिर भी मैं अंदर से उसे प्यार करती हूँ।" बिहारी बोला- "वह भी मन-ही-मन तुम्हें प्यार करती है, माँ!"

राजलक्ष्मी- "मुझे भी यही लगता है, बिहारी। दोष-गुण सबमें होता है, लेकिन वह मुझे प्यार करती थी। ढोंग करके कोई उस तरह की सेवा नहीं कर सकती।" बिहारी बोला- "तुम्हारी सेवा करने के लिए वह तड़प रही है।"

राजलक्ष्मी ने लम्बी साँस ली। कहा- "महेन्द्र, आशा, सब तो सोने चले गए। रात में उसे एक बार ले आओ तो क्या हर्ज है?"

बिहारी ने कहा- "वह तो इसी घर के बाहर वाले कमरे में छिपी बैठी है, माँ। उसने प्रतिज्ञा की है कि जब तक तुम उसे बुलाकर माफ नहीं कर दोगी, वह पानी भी न पिएगी।" राजलक्ष्मी परेशान हो उठीं। बोलीं- "सारे दिन से भूखी है? अरे तो जा उसे बुला लो!"

ज्योंही विनोदिनी कमरे में आई, राजलक्ष्मी बोल उठीं- "राम-राम, तुमने यह किया क्या बहू, दिन-भर बे-खाए-पिए बैठी हो। जाओ, पहले खा लो, फिर बात-चीत होगी।" विनोदिनी ने उनके चरणों की धूल ली। बोली- "पहले इस पापिन को तुम माफ करो बुआ, तभी मैं खाऊँगी।"

राजलक्ष्मी- "माफ कर दिया बिटिया, माफ कर दिया- अब मुझे किसी से भी कोई मलाल नहीं।"

विनोदिनी का दाहिना हाथ पकड़कर उन्होंने कहा-"बहू, तुमसे जीवन में किसी का बुरा न हो और तुम भी सुखी रहो!"

विनोदिनी- "तुम्हारा आशीर्वाद झूठा न होगा बुआ, मैं तुम्हारे पाँव छूकर कहती हूँ, मुझसे इस घर का बुरा न होगा।"

झुककर अन्नपूर्णा को प्रणाम करके विनोदिनी खाने गई। लौटने पर राजलक्ष्मी ने पूछा- "तो अब तुम चलीं?"

विनोदिनी- "मैं तुम्हारी सेवा करूँगी, बुआ। ईश्वर साक्षी है, मुझसे किसी बुराई की शंका न करो।"

राजलक्ष्मी ने बिहारी की तरफ देखा। बिहारी ने कुछ सोचा। फिर कहा- "भाभी रहें, कोई हर्ज नहीं।"

रात में बिहारी, अन्नपूर्णा और विनोदिनी- तीनों ने मिलकर राजलक्ष्मी की सेवा की।

इधर रात को आशा राजलक्ष्मी के पास नहीं आई, इस शर्म से वह तड़के ही उठी। महेन्द्र को सोता ही छोड़कर उसने जल्दी से मुँह धोया, कपड़े बदले और तैयार होते ही आई। तब भी धुँधलका था। दरवाज़े पर आकर उसने जो कुछ देखा, वह अवाक् रह गई। स्वप्न तो नहीं!"

स्पिरिट-लैंप जलाकर विनोदिनी पानी गरम कर रही थी। रात को बिहारी ने पलकें भी न झपकाई थीं। उनके लिए चाय बनानी थी।

आशा को देखकर विनोदिनी खड़ी हो गई। बोली-"सारे अपराधों के साथ मैंने आज तुम्हारी शरण ली है-और कोई तो जाने की न कह सकेगा, मगर तुम अगर कह दो, 'जाओ', तो मुझे तुरंत जाना पड़ेगा।" आशा कोई जवाब न दे सकी। वह यह भी ठीक-ठीक न समझ सकी कि उसका मन क्या कह रहा है- इसलिए वह हक्की-बक्की हो गई।

विनोदिनी- "मुझे तुम कभी माफ नहीं कर पाओगी-इसकी कोशिश भी मत करना। मगर मुझे अब कोई ख़तरा मत समझना। जिन कुछ दिनों के लिए बुआ को ज़रूरत है, मुझे इनकी सेवा करने दो, फिर मैं चली जाऊँगी।" कल जब राजलक्ष्मी ने आशा का हाथ महेन्द्र के हाथों में दिया तो उसने मन का सारा मलाल हटाकर सोलहों आने को महेन्द्र के हाथों सौंप दिया था। आज विनोदिनी को अपनी नज़र के सामने खड़ी देखकर उसके खंडित प्रेम की ज्वाला शांत न हो सकी। इसे कभी महेन्द्र ने प्यार किया था, शायद अब भी मन-ही-मन प्यार करता हो- यह बात उसके कलेजे में लहर की तरह फूल-फूल उठने लगी। जरा ही देर बाद महेन्द्र जगेगा और वह विनोदिनी को देखेगा, जाने किस नज़र से देखेगा।

भारी हृदय लिये आशा राजलक्ष्मी के कमरे में पहुँची। बहुत शर्माती हुई बोली- "मौसी, तुम रात-भर सोई नहीं, जाओ सो जाओ!" अन्नपूर्णा ने एक बार अच्छी तरह से आशा के चेहरे को देखा। उसके बाद सोने जाने के बजाय आशा को साथ लिये अपने कमरे में गई। बोलीं- "चुन्नी, खुलकर बात करना चाहती है, तू अब बातों को मन में मत रख। गैर को दोषी बनाने का जो सुख है, मन में दोष रखने का दु:ख उससे कहीं बड़ा है।"

आशा ने कहा- "मन में कोई गाँठ मैं रखना तो नहीं चाहती हूँ मौसी, सब भूल जाना ही चाहती हूँ, मगर भूलते ही तो नहीं बनता।"

अन्नपूर्णा बोलीं- "तू ठीक ही कहती है बिटिया, उपदेश देना आसान है, कर दिखाना ही मुश्किल है। फिर भी मैं तुझे एक उपाय बताती हूँ। जी-जान से इस भाव को कम-से कम रखो, मानो भूल गई है। पहले बाहर से भुलाना शुरू कर, तभी भीतर से भी भूल सकेगी।"

आशा ने सिर झुकाए हुए कहा-"बताओ, मुझे क्या करना होगा?"

अन्नपूर्णा बोलीं- "बिहारी के लिए विनोदिनी चाय बना रही है तू। दूध, चीनी, प्याला-सब-कुछ लेकर जा। मिलकर काम करो!"

आशा आदेश-पालन के लिए उठी। अन्नपूर्णा ने कहा- "यह आसान है- लेकिन मुझे एक बात और कहनी है, वह और भी सख्त है और उसका पालन तुझे करना ही पड़ेगा। जब-तब महेन्द्र से विनोदिनी की मुलाकात होगी ही और तब तेरे मन में क्या होगा, मैं जानती हूँ-लेकिन वैसे मैं कभी कनखियों से भी महेन्द्र या विनोदिनी के भाव को देखने की कोशिश तक न करना। कलेजा फटता रहे, लेकिन अडिग रहना पड़ेगा। महेन्द्र यह समझेगा कि तुझे कोई शक नहीं रहा।- टूटने के पहले जैसा था, जोड़ वैसा ही जुड़ गया है। महेन्द्र या और कोई तेरी शक्ल देखकर अपने को दोषी नहीं समझेगा। चुन्नी, यह कोई मेरा उपदेश नहीं, आग्रह नहीं, यह तेरी मौसी का आदेश है। मैं जब काशी चली जाऊँ, तब तू एक दिन को भी यह बात न भूलना!"

चाय का प्याला लिये आशा विनोदिनी के पास पहुँची। पूछा- "उबल गया पानी? मैं दूध ले आई हूँ।"

विनोदिनी अचरज से आशा का मुँह ताकने लगी। बोलीं- "बिहारी भाई साहब बरामदे में बैठे हैं। तुम उनको चाय भेज दो। इतने में बुआ का मुँह धुलाने का इंतजाम करती हूँ। अब जग जायें शायद।" विनोदिनी चाय लेकर बिहारी के पास नहीं गई। उसके प्रेम को कबूल करने के नाते बिहारी ने जो अधिकार उसे दिया था, उसके मनमाने इस्तेमाल में उसे संकोच हुआ। अधिकार पाने की जो मर्यादा है, उसे बचाना हो तो अधिकार के प्रयोग को संयत होना चाहिए। जितना मिलता है, उतने के लिए छीना-झपटी करना कँगले को ठीक लगता है।

इतने में महेन्द्र आ पहुँचा। आशा का दिल धक् कर उठा, तो भी अपने को जब्त करके उसने स्वाभाविक स्वर में महेन्द्र से कहा- "तुम इतनी जल्दी जग गए। रोशनी न आए इस वजह से मैंने खिड़कियाँ बन्द कर दी थीं।"

विनोदिनी के सामने ही इस सहज भाव से आशा को बात करते देखकर महेन्द्र के कलेजे पर मानो कोई पत्थर उतर गया। वह खुश होकर बोला- "देखने आ गया कि माँ कैसी है। वे सो रही हैं अभी तक?" आशा ने कहा, "हाँ, सो रही हैं। अभी वहाँ मत जाना! भाई साहब ने बताया- आज वे पहले से अच्छी हैं। बहुत दिनों के बाद कल रात-भर वे मजे में सोई हैं।" महेन्द्र निश्चिन्त हुआ। पूछा- "चाची कहाँ हैं?" आशा ने चाची का कमरा दिखा दिया।

आशा की यह दृढ़ता और संयम देखकर विनोदिनी को भी हैरत हुई।

महेन्द्र ने पुकारा- "चाची!"

अन्नपूर्णा स्नान करके पूजा करने की सोच रही थी। फिर भी उन्होंने कहा- "आ महेन्द्र, आ!"

महेन्द्र ने उन्हें प्रणाम किया। कहा- "चाची, मैं पापी हूँ। तुम लोगों के सामने आते मुझे शर्म आती है।"

अन्नपूर्णा बोलीं- "ऐसा नहीं कहते, बेटे! बच्चे तो गर्द में सनकर भी माँ की गोद में बैठते हैं।"

महेन्द्र- "मगर मेरी यह धूल कभी धुलने की नहीं, चाची!"

अन्नपूर्णा- "दो-एक बार झाड़ देने से यह झड़ जाएगी। अच्छा ही हुआ, महेन्द्र। तुझे अपने भले होने का अभिमान था। अपने पर तुझे बेहद विश्वास था। पाप की ऑंधी ने तेरे उस गर्व को तोड़ गिराया है, और कुछ नहीं बिगाड़ा।"

महेन्द्र- "अब तुम्हें मैं न जाने दूँगा, चाची। तुम्हारे चले जाने से ही मेरी यह दुर्गति हुई।"

अन्नपूर्णा- "मैं रहकर तुझे जिस दुर्गति से बचाती, वह हो गई, अच्छा हुआ। अब तुमको मेरी कोई ज़रूरत न पड़ेगी।" दरवाज़े पर फिर पुकार मची- "चाची पूजा करने बैठी हो, क्या?"

अन्नपूर्णा ने कहा- "नहीं, तू आ!"

बिहारी अन्दर आया। इतने तड़के महेन्द्र को जगा देखकर वह बोला- "जीवन में आज शायद पहली बार तुमने सूर्योदय देखा, भैया!"

महेन्द्र ने कहा- "हाँ भाई, मेरे जीवन में यह पहला सूर्योदय है। तुम्हें चाची से कोई राय करनी है शायद- मैं चलता हूँ।"

बिहारी ने हँसकर कहा- "तुम्हें भी कैबिनेट को मिनिस्टर बना लिया गया समझो। तुमसे तो मैंने कभी कुछ छिपाया नहीं- ऐतराज न हो तो आज भी न छिपाऊँ।"

महेन्द्र- "मैं और ऐतराज! हाँ, दावा ज़रूर नहीं कर सकता। तुम अगर मुझसे कुछ न छिपाओ, तो मैं भी फिर से आप अपने ऊपर श्रद्धा करने का मौक़ा पाऊँ।"

बहरहाल बिहारी के लिए बे-हिचक सब-कुछ कहना मुश्किल था। बिहारी की ज़बान रुक-सी गई, मगर उसने ज़ोर देकर कहा- "ऐसी बात आई थी कि मैं विनोदिनी से विवाह करूँगा- चाची से उसी के बारे में फैसला लेना था।"

महेन्द्र सकुचा गया। अन्नपूर्णा चौंककर बोलीं- "यह कैसी बात है, बिहारी?"

महेन्द्र ने बड़ा बल डालकर अपने संकोच को हटाया। कहा- "बिहारी, यह विवाह नहीं होगा।"

अन्नपूर्णा ने कहा- "इस प्रस्ताव में क्या विनोदिनी का हाथ है?"

बिहारी ने कहा- "बिलकुल नहीं।"

अन्नपूर्णा बोलीं- "वह भला क्या राज़ी होगी इस पर?"

महेन्द्र बोला- "वह भला राजी क्यों न होगी, चाची! मैं जानता हूँ, वह हृदय से बिहारी की भक्ति करती है। ऐसे आश्रय को वह छोड़ सकती है भला!" बिहारी ने कहा- "विवाह का प्रस्ताव विनोदिनी से मैंने किया था, भैया उसने शर्म से इन्कार कर दिया है।"

सुनकर महेन्द्र चुप रह गया।

54

भले-बुरे राजलक्ष्मी के दो दिन निकल गए। एक दिन सुबह उनका चेहरा खिला-खिला दिख रहा था। पीड़ा का नामोनिशान नहीं था। उसी दिन उन्होंने महेन्द्र को बुलाकर कहा- "मैं अब ज़्यादा देर की मेहमान नहीं, बेटे-मगर मैं बड़े सुख से मर सकूँगी, महेन्द्र मुझे अब कोई दु:ख नहीं है। तू जब छोटा था, तो तुझे पाकर जो खुशी मुझे थी, आज उसी खुशी से मेरा हृदय भर उठा है-तुम मेरी गोदी का लाड़ला है, मेरे कलेजे का रत्न-मैं तेरी सारी बला साथ लिये जा रही हूँ, यही मेरा सबसे बड़ा सुख है।"

इतना कहकर वह महेन्द्र के मुखडे और बदन पर हाथ फेरने लगीं। महेन्द्र की रुलाई का बाँध टूट गया।

राजलक्ष्मी ने कहा- "रो मत बेटे! लक्ष्मी घर में रही। कुंजी मेरी बहू को देना। मैंने सब-कुछ सँजोकर रखा है, गिरस्ती में किसी बात की कमी न पड़ेगी तुम्हें। एक बात और कह लूँ, मेरी मौत से पहले किसी को मत बताना। मेरे बक्स में दो हज़ार के नोट पड़े हैं। वे रुपये विनोदिनी को दे रही हूँ। वह विधवा है, अकेली है, इन रुपयों के सूद से उसके दिन मज़े में कट जायेंगे। मगर उसे अपने यहाँ मत रखना। राजलक्ष्मी ने बिहारी को बुलवाया। कहा- "बेटे बिहारी, कल महेन्द्र बता रहा था, तूने लाचार जनों की चिकित्सा के लिए एक बगीचा लिया है- भगवान तुम्हें लम्बी आयु देकर ग़रीबों का भला करे। मेरे ब्याह के समय मेरे ससुर ने मुझे एक गाँव दिया था; वह गाँव मैं तुझे देती हूँ, उसे ग़रीबों की सेवा में लगाना। इससे मेरे ससुर का पुण्य होगा।"

55

राजलक्ष्मी की मृत्यु के बाद श्राद्धादि खत्म कहके महेन्द्र ने कहा- "भई बिहारी, मैं डॉक्टरी जानता हूँ। तुमने जो काम शुरू किया है, मुझे भी उसमें शामिल कर लो! चुन्नी अब ऐसी गृहिणी बन गई है कि वह भी तुम्हारी मदद कर सकेगी। हम सब लोग वहीं रहेंगे।"

बिहारी ने कहा- "खूब अच्छी तरह सोच देखो, भैया-यह काम हमेशा के लिए कर सकोगे। वैराग्य के इस क्षणिक आवेश में ऐसा स्थायी भाव मत ले बैठो!" महेन्द्र बोला- "तुम भी ज़रा सोचकर देखो, जीवन को मैंने इस तरह बखेड़ा किया है कि अब बैठे-बैठे उसके उपभोग की गुंजाइश न रही। इसे अगर सक्रियता में न खींचता चलूँ तो जाने किस रोज़ यह मुझे अवसाद में खींच ले जायगा। अपने काम में मुझे शामिल करना ही पड़ेगा।" यही बात तय रही।

अन्नपूर्णा और बिहारी दोनों बैठकर शान्त उदासी लिये पिछले दिनों की चर्चा कर रहे थे। दोनों के एक-दूसरे से अलग होने का समय क़रीब था। विनोदिनी ने दरवाज़े के पास आकर पूछा- "चाची, मैं यहाँ बैठ सकती हूँ।"

अन्नपूर्णा बोलीं- "आ जाओ बिटिया, आओ!"

विनोदिनी आई। उसने दो-चार बातें करके बिछौना उठाने का बहाना करके अन्नपूर्णा चली गई।

विनोदिनी ने बिहारी से कहा- "अब मेरे लिए तुम्हारा जो आदेश हो, कहो!"

बिहारी ने कहा- "भाभी, तुम्हीं बताओ, तुम क्या चाहती हो?"

विनोदिनी बोली- "मैंने सुना है, ग़रीबों के इलाज के लिए तुमने कोई बगीचा लिया है। मैं वहीं तुम्हारा कोई काम करूँगी और कुछ न बने तो खाना पकाऊँगी।" बिहारी बोला- "मैंने बहुत सोच देखा है, भाभी! इन-उन हंगामों से अपने जीवन के जाल में बेहद गाँठें पड़ गई हैं। अब एकान्त में बैठकर एक-एक करके उन्हीं गाँठों को खोलने का समय आ गया है। पहले सबकी सफशई कर लेनी होगी।

अब जी जो चाहता है, सबको मान लेने की हिम्मत नहीं पड़ती। अब तक तो गुज़रा, जितना कुछ झेला, उन सबके आवर्तन और आन्दोलन को शान्त न कर लूँ तो जीवन की समाप्ति के लिए तैयार न हो सकूँगी। अगर सारे बीते दिन अनुकूल हों, तो संसार में केवल तुमसे ही मेरा जीवन पूर्ण हो सकता था। अब तुमसे मुझे वंचित होना ही पड़ेगा। सुख की कोशिश अब बेकार है ...अब तो धीरे-धीरे टूट-फूटकर मरम्मत कर लेनी है।"

इतने में अन्नपूर्णा आई। उनके आते ही विनोदिनी ने कहा, "माँ, तुम्हें अपने चरणों में मुझे शरण देनी पड़ेगी। पापिन के नाते तुम मुझे मत ठुकराओ।" अन्नपूर्णा बोली, "चलो मेरे ही साथ चलो।"

अन्नपूर्णा और विनोदिनी जिस दिन काशी जाने लगीं, मौक़ा ढूँढ़कर बिहारी ने अकेले में विनोदिनी से भेंट की। कहा, "भाभी, तुम्हारी कोई यादगार मैं अपने पास रखना चाहता हूँ।" विनोदिनी बोली, "अपने पास ऐसा क्या है, जिसे निशानी की तरह पास रखो।"

बिहारी ने शर्म और संकोच के साथ कहा, "अंग्रेजों में ऐसी रिवाज है, अपनी प्रिय पात्रा की कोई लट याद के लिए रख लेते हैं- तुम अगर..."

विनोदिनी- "छि: कैसी घिनौनी बात! मेरे बालों का तुम क्या करोगे? वह मुई नापाक चीज़ कुछ ऐसी नहीं कि तुम्हें दूँ। अभागिन मैं, तुम्हारे पास रह नहीं सकती-मैं ऐसा कुछ देना चाहती हूँ, जो मेरा होकर तुम्हारे काम में आए।"

बिहारी ने कहा, "लूँगा।"

इस पर विनोदिनी ने ऑंचल की गाँठ से खोलकर हज़ार-हज़ार के दो नोट बिहारी को दिए।

बिहारी गहरे आवेश के साथ विनोदिनी के चेहरे की ओर एकटक देखता रहा। जरा देर बाद बोला- "और मैं क्या तुम्हें कुछ न दे पाऊँगा?"

विनोदिनी ने कहा- "तुम्हारी निशानी मेरे पास है, वह मेरे अंग का भूषण है, उसे कभी कोई छीन नहीं सकता। मुझे और कुछ नहीं चाहिए।"

यह कहकर उसने अपने हाथ की चोट का वह दाग़ दिखाया।

बिहारी हैरान रह गया। विनोदिनी बोली, "तुम नहीं जानते, यह आघात तुम्हारा है और यह आघात तुम्हारे ही योग्य है। इसे तुम भी वापस नहीं ले सकते।" मौसी के इतना समझाने-बुझाने के बावजूद विनोदिनी के लिए आशा अपने मन को निष्कण्टक न कर सकी थी। राजलक्ष्मी के सेवा-जतन में दोनों साथ जुटी रहीं, पर जब से उसकी नजर विनोदिनी पर पड़ी, तभी उसके दिल को चोट लगी-ज़बान से आवाज़ न निकली और हँसने की कोशिश ने उसे दुखाया। विनोदिनी की कोई मामूली सेवा लेने में भी उसका मन नाराज़ रहता। शिष्टता के नाते विनोदिनी का लगाया पान उसे लेना पड़ा, लेकिन बाद में तुरन्त थूक दिया है। लेकिन आज जब जुदाई की घड़ी आई, मौसी दोबारा घर-बार छोड़कर जाने लगीं और आशा का हृदय ऑंसू से गोला हो उठा, तो विनोदिनी के लिए भी उसका मन भर आया। जो सब-कुछ छोड़-छोड़कर एकबारगी जा रहा हो, उसे माफ न कर सके, ऐसे लोग दुनिया में कम ही हैं। उसे मालूम था, विनोदिनी महेन्द्र को प्यार करती है, क्यों न करे महेन्द्र को प्यार! महेन्द्र को प्यार करना कितना ज़रूरी है यह बात उससे ज़्यादा कौन जान सकता है।

वह धीरे-धीरे विनोदिनी के पास जाकर विषाद से बोली, "दीदी, जा रही हो?"

आशा की ठोड़ी पकड़कर विनोदिनी ने कहा, "हाँ बहन, जाने का समय आ गया। कभी तुमने मुझे प्यार किया था, अब अपने सुख के दिनों में उस प्यार का थोड़ा-सा अंश मेरे लिए रखना बहन, बाकी सब भूल जाना।"

महेन्द्र ने आकर नमस्ते करके कहा, "माफ करना, भाभी!"

उसकी ऑंखों के कोनों से ऑंसू की बूंदें ढुलक पड़ीं। विनोदिनी ने कहा, "तुम भी मुझे माफ करना भाई-साहब, भगवान तुम लोगों को सदा सुखी रखें!"

टीका टिप्पणी और संदर्भ


बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख