आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध द्वितीय

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द्वितीय आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध (1878-1880 ई.) तक लड़ा गया। यह युद्ध वायसराय लॉर्ड लिटन प्रथम (1876-1880 ई.) के शासन काल में प्रारम्भ हुआ। इस दूसरे युद्ध में विजय के लिए अंग्रेज़ों को भारी क़ीमत चुकानी पड़ी। अंग्रेज़ अफ़ग़ानिस्तान पर स्थायी रूप से क़ब्ज़ा तो नहीं कर सके, लेकिन उन्होंने उसकी नीति पर नियंत्रण बनाये रखा और साथ ही अफ़ग़ानों को अपनी शक्ति और सैन्य संगठन का भी परिचय करा दिया। द्वितीय आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध दो नीतियों की पारस्परिक प्रतिक्रिया का परिणाम था। एक नीति, जिसे 'अग्रसर नीति' (फ़ारवर्ड पालिसी) कहा जाता था, इसके अनुसार कंधार तथा क़ाबुल दोनों ब्रिटिश साम्राज्य के लिए आवश्यक माने गये। दूसरी नीति के अनुसार रूस और इंग्लैंड, जो पूर्व में अपने साम्राज्य का विस्तार करने के कारण एक दूसरे के प्रतिद्वन्द्वी थे, दोनों अफ़ग़ानिस्तान को अपने प्रभाव के अंतर्गत रखना चाहते थे।

रूस का प्रभुत्व

यह युद्ध वायसराय लॉर्ड लिटन प्रथम के शासन काल से प्रारम्भ होकर और उसके उत्तराधिकारी लॉर्ड रिपन (1880-1884 ई.) के शासन काल में समाप्त हुआ। अमीर दोस्त मुहम्मद की मृत्यु 1863 ई. में हो गई थी और उसके बेटों में उत्तराधिकार के लिए युद्ध शुरू हो गया। उत्तराधिकार का यह युद्ध (1863-1868 ई.) पांच वर्ष तक चला। इस बीच भारत सरकार ने पूर्ण निष्क्रियता की नीति का पालन किया और क़ाबुल की गद्दी के प्रतिद्वन्द्वियों में किसी का पक्ष नहीं लिया। अन्त में 1868 ई. में जब दोस्त महम्मद के तीसरे बेटे शेरअली ने क़ाबुल की गद्दी प्राप्त कर ली तो भारत सरकार ने उसको अफ़ग़ानिस्तान का अमीर मान लिया। लेकिन इसी बीच मध्य एशिया में रूस का प्रभाव बहुत बढ़ गया। रूस ने बुखारा पर 1866 में, ताशकंद पर 1867 में और समरकन्द पर 1868 ई. में अधिकार कर लिया। इस प्रकार रूस का प्रभुत्व बढ़ता ही जा रहा था। मध्य एशिया में रूस का प्रभाव बढ़ने से अफ़ग़ानिस्तान और भारत की अंग्रेज़ सरकार को चिन्ता हो गयी।

शेरअली और मेयो की भेंट

अमीर शेरअली मध्य एशिया में रूस के प्रभाव को रोकना चाहता था और भारत की अंग्रेज़ सरकार अफ़ग़ानिस्तान को रूसी प्रभाव से मुक्त रखना चाहती थी। इन परिस्थितियों में 1869 ई. में पंजाब के अम्बाला नगर में अमीर शेरअली और भारत के वायसराय लॉर्ड मेयो (1869-1872 ई.) की भेंट हुई। उस समय अमीर अंग्रेज़ों की यह मांग मान लेने के लिए तैयार हो सकता था कि वह अपने वैदेशिक संबंध में अंग्रेज़ों का नियंत्रण स्वीकार कर ले और रूस के विरुद्ध उसकी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी ले लें और सहायता करें और उसको अथवा उसके नामजद व्यक्तियों को ही अफ़ग़ानिस्तान का अमीर मानें। इंग्लैंड के निर्देश पर ब्रिटिश सरकार ने सुरक्षा की ज़िम्मेदारी लेने की बात नहीं मानी, यद्यपि शस्त्रास्त्र और धन की सहायता देने का वचन दिया। स्वाभाविक रूप से अमीर शेरअली को भारत सरकार से समझौते की शर्तें संतोषजनक नहीं लगीं। लेकिन 1873 ई. में रूसियों ने खीवा पर अधिकार कर लिया और इस प्रकार उनका बढ़ाव अफ़ग़ानिस्तान की ओर होने लगा।

आंग्ल-अफ़ग़ानिस्तान संधि प्रस्ताव

रूस के इस बढ़ते प्रभाव और इन हालातों से चिन्तित होकर अमीर शेरअली ने 1873 ई. में वायसराय लॉर्ड नार्थब्रुक (1872-1876 ई.) के सामने 'आंग्ल-अफ़ग़ानिस्तान संधि' का प्रस्ताव रखा, जिसमें अफ़ग़ानिस्तान को यह आश्वासन देना था कि यदि रूस अथवा उसके संरक्षण में कोई राज्य अफ़ग़ानिस्तान पर आक्रमण करे तो ब्रिटिश सरकार अफ़ग़ानिस्तान की सहायता केवल शस्त्रास्त्र और धन देकर ही नहीं करेगी वरन् अपनी सेना भी वहाँ पर भेजेगी। उस समय इंग्लैंड में ग्लैडस्टोन का मंत्रिमंडल था। उसकी सलाह के अनुसार लॉर्ड नार्थब्रुक इस प्रस्ताव पर राजी नहीं हुआ। नार्थब्रुक इस बात के लिए राजी नहीं हुआ कि अमीर शेरअली के पुत्र अब्दुल्ला जान को उसका वारिस मानकर उसे भावी अमीर मान ले। इन बातों से शेरअली अंग्रेज़ों से नाराज हो गया और उसने रूस से अपने सम्बन्ध सुधारने के लिए लिखा पढ़ी शुरू कर दी। रूसी एजेन्ट जल्दी-जल्दी क़ाबुल आने लगे।

अंग्रेज़ों की नीति

1874 ई. में डिज़रेली ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बना और 1877 ई. में रूस-तुर्की युद्ध शुरू हो गया, जिससे इंग्लैंड और रूस के सम्बन्धों में कटुता उत्पन्न हो गई और दोनों में किसी समय भी युद्ध छिड़ने की आशंका उत्पन्न हो गई। इस हालात में अंग्रेज़ों ने अफ़ग़ानिस्तान पर अपना मज़बूत नियंत्रण रखने का फैसला किया, जिससे अफ़ग़ानिस्तान से होकर भारत में अंग्रेज़ राज्य के लिए कोई ख़तरा न उत्पन्न हो। इस नीति के परिणामस्वरूप अंग्रेज़ों ने क्वेटा पर 1877 ई. में अधिकार कर लिया, क्योंकि कंधार के रास्ते की सुरक्षा के लिए उस पर नियंत्रण रखना ज़रूरी था। लॉर्ड नार्थब्रुक के उत्तराधिकारी लॉर्ड लिटन प्रथम (1876-1880 ई.) ने डिज़रेली मंत्रिमंडल की सलाह से क़ाबुल दरबार में एक ब्रिटिश प्रतिनिधिमंडल भेजने का निश्चय किया, जिसे 1873 ई. में अफ़ग़ानिस्तान के अमीर द्वारा प्रस्तावित शर्तों के आधार पर संधि की बातचीत शुरू करनी थी। उन शर्तों के अलावा यह शर्त भी रखी गयी कि हेरात में भी ब्रिटिश रेजीडेण्ट रखा जाये। लेकिन अमीर ने ब्रिटिश प्रतिनिधिमंडल क़ाबुल भेजने का प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया। उसकी ओर से कहा गया कि यदि अफ़ग़ानिस्तान में ब्रिटिश प्रतिनिधिमंडल आयेगा तो रूस के प्रतिनिधिमंडल को भी आने की इजाजत देनी पड़ेगी।

द्वितीय युद्ध की शुरुआत

इस प्रकार इस मामले में गतिरोध-सा उत्पन्न हो गया। लेकिन अमीर के प्रतिबंध के बावजूद एक रूसी प्रतिनिधिमंडल जनरल स्टोलीटाफ के नेतृत्व में 1878 ई. में अफ़ग़ानिस्तान पहुँचा और उसने अमीर शेरअली से 22 जुलाई, 1878 ई. को संधि की बातचीत शुरू कर दी। उसने अफ़ग़ानिस्तान पर विदेशी हमला होने पर रूस की ओर से सुरक्षा की गारंटी देने का प्रस्ताव रखा। रूसी प्रतिनिधिमंडल के क़ाबुल में हुए स्वागत से लॉर्ड लिटन प्रथम भयंकर रूप से क्रुद्ध हो गया और उसने इंग्लैंड की ब्रिटिश सरकार के परामर्श से अफ़ग़ानिस्तान के अमीर पर इस बात का दबाव डाला कि वह क़ाबुल में ब्रिटिश प्रतिनिधिमंडल का भी स्वागत एक निश्चित तारीख 20 नवम्बर, 1878 ई. को करे। अमीर ने तब नयी संधि के अंतर्गत रूस से मदद मांगी। लेकिन इस बीच रूस-तुर्की युद्ध समाप्त हो गया था और यूरोप में शांति स्थापित हो गई थी और इंग्लैंड और रूस के बीच 1878 ई. की 'बर्लिन की संधि' हो गई थी। रूस अब इंग्लैंड से युद्ध नहीं करना चाहता था। इसलिए उसने शेरअली को अंग्रेज़ों से सुलह करने की सलाह दी, लेकिन शेरअली ने अब सुलह में काफ़ी देर कर दी थी, क्योंकि अंग्रेज़ सेना ने 20 नवम्बर को अफ़ग़ानिस्तान पर हमला बोल दिया और इस प्रकार दूसरा आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध शुरू हो गया।

अंग्रेज़ों की सफलता

जिस प्रकार प्रथम अफ़ग़ान युद्ध (1838-1842 ई.) में ब्रिटिश भारतीय सेना को आरम्भ में सफलताएं मिली थीं, इस प्रकार इस बार भी मिलीं। रूस के साथ न देने के कारण शेरअली अंग्रेज़ी आक्रमण का अधिक प्रतिरोध नहीं कर सका। तीन अंग्रेज़ी सेनाओं ने तीन ओर से क़ाबुल पर चढ़ाई कर दी। जनरल ब्राउन के नेतृत्व में एक सेना ख़ैबर दर्रे से, दूसरी सेना जनरल (बाद में लॉर्ड) राबर्ट्स के नेतृत्व में कुर्रम की घाटी से और तीसरी सेना जनरल बीडल्फ़ के नेतृत्व में क्वेटा से आगे बढ़ी। चौथी ब्रिटिश सेना ने जनरल स्टुअर्ट के नेतृत्व में कंधार पर अधिकार कर लिया। शेरअली की हालत एक महीने में ही इतनी पतली हो गई कि वह अफ़ग़ानिस्तान छोड़कर तुर्कीस्तान भाग गया, जहाँ शीघ्र ही उसकी मृत्यु हो गयी।

गंडमक की संधि

शेर अली की मृत्यु के बाद उसके बेटे याकूब ख़ाँ ने अंग्रेज़ों से सुलह की बातचीत चलायी और मई, 1879 ई. में 'गंडमक की संधि' कर ली। इस संधि में अंग्रेज़ों की सभी शर्तें मंजूर कर ली गईं। इसके अलावा क़ाबुल में ब्रिटिश राजदूतों को रखना तय हुआ और अफ़ग़ानिस्तान की वैदेशिक नीति भारत के वायसराय की राय से तय करने की बात भी मान ली गई। कुर्रम, पिशीन और सिबी के ज़िले भी अंग्रेज़ों को सौंप दिये गए। 'गंडमक की संधि' के अनुसार प्रथम ब्रिटिश राजदूत 'कैवगनरी' जुलाई, 1879 ई. में क़ाबुल पहुँच गया।

अफ़ग़ानों का विद्रोह

कैवगनरी के क़ाबुल आने के समय ऐसा मालूम होता था कि इस युद्ध में अंग्रेज़ों को पूरी सफलता मिली है। लेकिन 3 सितम्बर को क़ाबुल की अफ़ग़ान सेना में विद्रोह हो गया, कैवगनरी की हत्या कर दी गई और फिर से लड़ाई शुरू हो गयी। अंग्रेज़ों ने इस बार तत्काल प्रभावशाली ढंग से कार्रवाही की। राबर्ट्स ने अक्टूबर, 1879 ई. में क़ाबुल पर अधिकार कर लिया और अमीर याकूब ख़ाँ की हालत क़ैदी जैसी हो गई। उसके भाई अयूब ख़ाँ ने अपने को अमीर घोषित कर दिया और उसने जुलाई 1880 ई. में ब्रिटिश सेना को कंधार के निकट भाईबन्द के युद्ध में पराजित कर दिया। लेकिन राबर्ट्स एक बड़ी सेना लेकर क़ाबुल से कंधार पहुँचा। शेरअली के भतीजे अब्दुर्रहमान ने भी अंग्रेज़ों की काफ़ी मदद की और ब्रिटिश सेना ने अयूब ख़ाँ को पूरी तरह से हरा दिया।

युद्ध की समाप्ति

इसी बीच इंग्लैंड में डिज़रेली के स्थान पर ग्लैडस्टोन प्रधानमंत्री बन गया, जिसने भारत के वायसराय लॉर्ड लिटन को वापस बुलाकर लॉर्ड रिपन को भारत का वायसराय (1880-1884 ई.) बनाया। नये वायसराय ने अब्दुर्रहमान के साथ संधि करके दूसरा आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध समाप्त कर दिया। इस संधि में अब्दुर्रहमान ख़ाँ को अफ़ग़ानिस्तान का अमीर मान लिया गया। अमीर ने अंग्रेज़ों से वार्षिक सहायता पाने के बदले में अपनी वैदेशिक नीति पर भारत सरकार का नियंत्रण स्वीकार कर लिया। 'गंडमक की संधि' में जो ज़िले अंग्रेज़ों को मिले थे, वे उनके पास ही बने रहे।

समग्र विश्लेषण

दूसरा आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध दो नीतियों की पारस्परिक प्रतिक्रिया का परिणाम था। एक नीति जिसे 'अग्रसर नीति' (फ़ारवर्ड पालिसी) कहा जाता था, उसके अनुसार भारत की, पश्चिमोत्तर में, प्राकृतिक सीमा हिन्दूकुश होनी चाहिए। इस नीति के अनुसार भारत के ब्रिटिश साम्राज्य में कंधार और क़ाबुल को, जो भारत के दो द्वार माने जाते थे, सम्मिलित करना आवश्यक माना जाता था। दूसरी नीति के अनुसार रूस और इंग्लैंड, जो पूर्व में अपने साम्राज्य का विस्तार करने के कारण एक दूसरे के प्रतिद्वन्द्वी थे, दोनों अफ़ग़ानिस्तान को अपने प्रभाव के अंतर्गत रखना चाहते थे। इंग्लैंड में विशेष रूप से 'कंजरवेटिव पार्टी' को अफ़ग़ानिस्तान होकर भारत की ओर रूसी प्रसार का तीव्र भय था। यद्यपि यह भय कभी साकार नहीं हुआ तथापि इसने अफ़ग़ानिस्तान के प्रति ब्रिटिश नीति को समूची 19वीं शताब्दी भर प्रभावित किया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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