उमास्वामी (अंग्रेज़ी: Umaswami) कुन्दकुन्द स्वामी के प्रमुख शिष्य थे। वह मुख्य जैन ग्रन्थ 'तत्त्वार्थसूत्र' के लेखक थे। वह दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों के द्वारा पूजे जाते हैं। वह दूसरी सदी के गणितज्ञ थे।
- मूलसंघ की पट्टावली में कुन्दकुन्दाचार्य के बाद उमास्वामी चालीस वर्ष 8 दिन तक नन्दिसंघ के पट्ट पर रहे। श्रवणबेलगोला के 65वें शिलालेख में लिखा है- जिनचन्द्र स्वामी जगत प्रसिद्ध अन्वय में पद्मनन्दी प्रथम इस नाम को धारण करने वाले हुए। उन्हें अनेक ऋद्धि प्राप्त हुई थीं, उन्हीं कुन्दकुन्द के अन्वय में उमास्वामी मुनिराज हुए, जो गृद्धपिच्छाचार्य नाम से प्रसिद्ध थे। उस समय गृद्धपिच्छाचार्य के समान समस्त पदार्थों को जानने वाला कोई दूसरा विद्वान नहीं था।
- श्रवणबेलगोलाके 258वें शिलालेख में भी यही बात कही गई है। उनके वंशरूपी प्रसिद्ध खान से अनेक मुनिरूप रत्नों की माला प्रकट हुई। उसी मुनि रत्नमाला के बीच में मणि के समान कुन्दकुन्द के नाम से प्रसिद्ध ओजस्वी आचार्य हुए। उन्हीं के पवित्र वंश में समस्त पदार्थों के ज्ञाता उमास्वामी मुनि हुए, जिन्होंने जिनागम को सूत्ररूप में ग्रथित किया। यह प्राणियों की रक्षा में अत्यन्त सावधान थे। अतएव उन्होंने मयूरपिच्छ के गिर जाने पर गृद्धपिच्छों को धारण किया था। उसी समय से विद्वान लोग उन्हें गृद्धपिच्छाचार्य कहने लगे और गृद्धपिच्छाचार्य उनका उपनाम रूढ़ हो गया। वीरसेनाचार्य ने अपनी धवला टीका में तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता को गृद्धपिच्छाचार्य लिखा है। आचार्य विद्यानन्द ने भी अपने श्लोकवार्तिक में उनका उल्लेख किया है।
- मैसूर प्रान्त के नगर्ताल्लुद के 46वें शिलालेख में लिखा है- "मैं तत्वार्थसूत्र के कर्ता, गुणों के मन्दिर एवं श्रुतकेवली के तुल्य श्रीउमास्वामी मुनिराज को नमस्कार करता हूँ"।
- तत्त्वार्थसूत्र की मूलप्रति के अन्त में प्राप्त होने वाले निम्न पद्य में तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता, गृद्धपिच्छोपलक्षित उमास्वामी या मुनिराज की वन्दना की गई है।
- इस तरह उमास्वाति आचार्य, उमास्वामी और गृद्धपिच्छाचार्य नाम से भी लोक में प्रसिद्ध रहे हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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