आदिकाल में लोकविश्वास

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लोकविश्वास लोक और विश्वास दो शब्दों से बना है, जिसका अर्थ है-लोकमान्य विश्वास। वे विश्वास जो लोक द्वारा स्वीकृत और लोक में प्रचलित होते हैं, लोकविश्वास कहलाते हैं। वैसे विश्वास किसी प्रस्थापना या मान्यता की व्यक्तिपरक स्वीकृति है, लेकिन जब उसे लोक की स्वीकृति प्राप्त हो जाती है, तब वह लोक का होकर लोकविश्वास बन जाता है।

आदिकाल में लोकविश्वास

आदिकाल से तात्पर्य उस कालखंड से है, जिसमें प्रागैतिहासिक से लेकर रामायण-काल तक के लोकविश्वासों के उद्भव और विकास का संपूर्ण लेखा-जोखा आ जाता है। इस युग में बुंदेलखंड आदिवासी लोकसंस्कृति का पालना रहा है। यहाँ पुलिंद, निषाद, शबर, रामठ, राउत और उनके बाद गोंड़, कोल, भील, सहारिया जैसी जनजातियाँ मूल निवासी होने के कारण आदिकालीन लोकविश्वासों को ढ़ालने में प्रमुख रहीं। रामायण-काल के अंत में आर्यों के लोकविश्वास आश्रमों से निकलकर बाहर आए और उन्होंने लोक को प्रभावित करना शुरु कर दिया। अतएव यह युग इस अंचल में आदिवासियों के लोकविश्वासों का युग है। प्रागैतिहासिक लोकविश्वासों का अध्ययन गुहाचित्रों के आधार पर संभव है। छतरपुर (जटाशंकर, भीमकुंड, देवरा, किशुनगढ़), पन्ना (बराछ-पंडवन, इटवा, मझपहरा-टपकनिया, हाथीदौल, पुतरयाऊ घाटी, कल्याणपुर-बिलाड़ी), सागर (आबचंद, नरयावली, भापेल, बरोदा), रायसेन (बरखेड़ा, खरवई, हाथीटोल, पुतलीकरार) और होशंगाबाद (आदमगढ़, पंचमढ़ी) में स्थित शैलाश्रयों में प्राप्त चित्रों से स्पष्ट है कि उस समय पशु, आयुध, शिकार और आमोद-प्रमोद-संबंधी विश्वासों का विकास हुआ था और वे प्रत्यक्ष अनुभवों पर आधारित थे। शिकार मुख्य आजीविका थी, इसलिए पशुओं का सामना, भोजन और उसके बाद गीत-नृत्य-सब समूह में किये जाते थे। निश्चित है कि 'सहकारिता' का विश्वास प्रधान रहा और साथ ही हींसक पशुओं से रक्षा के लिए शारीरिक वीरता का भी। 'प्रकृति से रक्षा' के प्रयोजन में प्रकृति-पूजा-संबंधी लोकविश्वासों का उद्भव भी इसी समय हुआ। ये लोकविश्वास धर्म के अंग नहीं थे, वरन् उनका आधार 'उपयोगिता' और 'क्षति' थे। धीरे-धीरे प्रकृति के उपयोगी अंग लोकदेवों में परिवर्तित होते गए। उनके लिए दी जा रही फल या माँस की भेंट 'बलि' के रूप में स्वीकृत हुई। गुहाचित्रों में प्रकृति की वस्तुओं के अंकन से उनकी प्रकृति-पूजा का भाव प्रमाणित होता है। गुफा-युग के बाद आदिवासी मैदानों में उतर आए और कृषि-युग में नाना प्रकार के लोकविश्वास जन्मे तथा पलपुस कर बड़े हुए। पशु, जल, नदी, वर्षा और पशुपति एवं जलदेवता की पूजा इसी समय शुरु हुई। भूदेवी या भुइयाँ रानी को फसल की उत्पादक देवी की मान्यता मिली। कृषि, धर्म और अतिप्राकृत विषयक लोकविश्वास इसी समय लोक में फैले। वस्तुत: लोकविश्वासों का इतिहास एक समस्या है, क्योंकि उनके लोकप्रचलन के प्रमाण दुर्लभ हो गए हैं।
आदिकाल के लोकविश्वासों का सही स्वरूप स्थिर करने के लिए इस अंचल के गोंड़ों, सौंर, भील, सहारिया आदि का सर्वेक्षण ज़रूरी है। गोंड़ों के लोकविश्वास 'भय' की मानसिकता से फूटे हैं। इसीलिए हर 'भय' का एक लोकदेवता उनकी सर्जना का अंग है। प्रकृति की सभी शक्तिसंपन्ना वस्तुओं की पूजा उनके जीवन की आस्था है। उनका विश्वास है कि यह संसार ही सब कुछ है, इसके सिवा दूसरा लोक नहीं। संसार का सृजन और संचालन बड़े देव करते हैं, उन्हीं को लोकगीतों में परभू (प्रभु) कहा गया है। प्रभु की माया संसार में अनेक लीलाएँ करती हैं। गोंड़, केवट, ब्राह्मण, क्षत्रिय-सब जातियाँ उसी की बनाई हैं। मानव का शरीर क्षणभागुर है। उसका सबसे बड़ा सुख मानसिक संतोष है, जो अपने धंधे (कर्म) के बाद मिलता है। इस मानसिकता के बावजूद गोंड़ छोटी-बड़ी बाधाओं से भयभीत रहते हैं और उन्हें दूर करने के लिए झाड़-फूँक, जादू-टोना और जंत्र-मंत्र का सहारा लेते हैं। उनकी मान्यता है कि बीमारियाँ झाड़-फूँक, जंत्र-मंत्र से ठीक हो जाती हैं। आश्चर्य तो यह है कि हमारे बहुत से शकुन-अपशकुन गोंड़ों से आए हैं। उदाहरणार्थ के लिए पुरुष का दाहिना ओर स्त्री का बायाँ अंग फड़कना, किसी काम के लिए जाते समय पानी से भरा घड़ा या मछली लिए ढीमर अथवा बछड़े को दूध पिलाती गाय मिल जाना शुभ है। ये शकुन बुंदेलखंड में यत्र-तत्र आज भी प्रचलित हैं। इसी तरह सामने ख़ाली घड़ा दिखना, काना मिलना, बिल्ली का रास्ता काटना, निकलते समय सामने छींक होना, कौआ सिर पर बैठना आदि अशुभ गोंड़ों में प्रचलित रहे हैं। कुछ भविष्यसूचक विश्वास भी गोंड़ों में थे और आज भी हैं, जैसे गौरैया का धूल में लोटना, बगुलों का एक पंक्ति में उड़ना और चंद्रमा के चारों तरफ मंडल बनना वर्षा की सूचना देता है।
सौंरों का विश्वास है कि महादेव ने हल, बैल और संसार की सृष्टि की है। जिस तरह गोंड़ कर्म और भाग्य पर विश्वास करते हैं, उसी तरह सौंर भी। सौंर प्रेतयोनि को मानते हैं। उनका विश्वास है कि मनुष्य मृत्यु के बाद प्रेतयोनि पाता है, इसीलिए वे मृतक को खेतों के पास या सागैन के वृक्षों के नीचे गाड़ते हैं। मृतक की आत्मा खेतों और वृक्षों की रक्षा करती है। सौंर जंत्र-मंत्र और जादू-टोना में कुशल होते हैं। दृष्ट आत्माओं को मंत्र- और जादू से बाँध देते हैं। भील भी आत्मवादी हैं। वे आत्मा की अमरता में विश्वास रखते हैं। उनके अनुसार पर्वतों नदियों, वनों-सभी में आत्माएँ हैं। दृष्ट आत्माएँ मनुष्य को सताती हैं। बीमारी या दूर्घटना किसी देवता के क्रोध का फल है अथवा भूत या चुड़ैल का कार्य है। तात्पर्य यह है कि आदिवासियों के लोकविश्वासों में काफ़ी समानता मिलती है। बुंदेलखंड के उत्तरी क्षेत्रों में बसने वाली सहरिया जनजाति के पाप-पुण्य और पवित्र-अपवित्र-संबंधी लोकविश्वास पूरे प्रदेश में प्रचलित हैं। गाय की हत्या सबसे बड़ा पाप है, जिसके दंडस्वरूप जहाँ जाति-बिरादरी में रोटी देनी पड़ती है, वहाँ गंगा-स्नान भी अनिवार्य है। मासिक धर्म, बच्चे का जन्म या परिवार में किसी की मृत्यु अपवित्रता का कारण माना जाता है और व्यक्ति या परिवार पवित्र होने पर ही शुभ कार्य कर पाता है। इस प्रकार बहुत-से विश्वास एवं अंधविश्वास इन्हीं जनजातियों के प्रभाव से विकसित हुए हैं।


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