लोकविश्वास

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लोकविश्वास लोक और विश्वास दो शब्दों से बना है, जिसका अर्थ है-लोकमान्य विश्वास। वे विश्वास जो लोक द्वारा स्वीकृत और लोक में प्रचलित होते हैं, लोकविश्वास कहलाते हैं। वैसे विश्वास किसी प्रस्थापना या मान्यता की व्यक्तिपरक स्वीकृति है, लेकिन जब उसे लोक की स्वीकृति प्राप्त हो जाती है, तब वह लोक का होकर लोकविश्वास बन जाता है। प्रश्न उठता है कि लोक की स्वीकृति कब और कैसे मिलती है। वस्तुत: विश्वास (व्यक्तिपरक या वैयक्तिक) और लोकविश्वास में अंतरक्रिया (interaction) होती रहती है। कोई भी व्यक्तिपरक विश्वास समाजीकरण की प्रक्रिया से गुजर कर सामूहिक या सामाजिक होता है। अतएव लोकविश्वास सामूहिक अनुभव का ही परिणाम है। एक उदाहरण पर्याप्त है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक गैलिलियो गैलीली (1564 - 1642 ई.)के पहले बाइबिल जैसे पवित्र ग्रंथ से प्रमाणित विश्वास था कि पृध्वी अपने स्थान पर अडिग है और सूर्य उसके चोरों ओर घूमता है। गौलीलियो ने इसके विपरीत यह स्थापित किया कि सौर-मंडल का आधार-केन्द्र सूर्य है और उसका उगना एवं अस्त होना पृध्वी के घूमने के कारण प्रतीत होता है। दरअसल, यह उसका वैयक्तिक विश्वास था, और इसकी वजह से उसे धर्मविरोधी कहा गया तथा उस पर धर्म के विरुद्ध प्रचार करने का आरोप मढ़ा गया। परंतु बाद में, यह व्यक्तिपरक विश्वास लोकविश्वास के रूप में परिणत हो गया। वैज्ञानिक अनुभवों के प्रमाण की परख ने लोक को विश्वास की परिधि में लाकर खड़ा कर दिया और धीरे-धीरे विश्वलोक ने अपनी स्वीकृति का मोहर लगा दी।
उक्त उदाहरण से एक तथ्य और स्पष्ट हो जाता है कि इस विशिष्ट विश्वास का जन्म गैलिलियो के समय 16वीं शती में हुआ था और फिर उसका विकास होता गया। दूसरे, लोकविश्वास एक गतिशील तत्त्व है। लोक की आवश्यकता के अनुसार उसमें परिवर्तन होता रहता है। कभी-कभी उसका रूप बदलता है, तो कभी उसके स्थान पर दूसरा खड़ा हो जाता है। परिवर्तन की दिशा का नेतृत्व पहले व्यक्ति में निहित लोकशक्ति करती है, बाद में लोक। सूक्ष्मता से देखा जाय, तो लोकविश्वास की जड़ लोकमान्यता है और लोकमान्यता आधारहीन कभी नहीं होती। या तो उसका आधार वेद, पुराण या लोकमान्य ग्रंथों में लिखा कोई प्रमाण या साक्ष्य होता है या फिर लोक के बीच से आया कोई लोकमान्य तर्क या प्रमाण। बहरहाल, बिना किसी ठोस आधार के लोकविश्वास का उद्भव नहीं होता।

पौराणिक लोकविश्वास

सर्वप्रथम पौराणिक लोकविश्वासों के उदाहरण लेना उचित है। घड़े या दौने में मानव का उत्पत्ति का लोकविश्वास पुराणों के साक्ष्य पर टँगा रहा, फिर भी उसके विरुद्ध शंकाओं और तर्कों की चुनौती खड़ी होती रही और उसे कई बार नकारा गया। नये बौद्धिक जागरण ने उसे बिल्कुल गौण बना दिया, लेकिन नवीन वैज्ञानिक खोजों ने यह सिद्ध कर दिया है कि परखनली में भी जीवोत्पत्ति होती है और इस आधार पर वह पुराना लोकविश्वास पुन: संजीवनी पा गया है। दूसरी तरफ, शेषनाग के फन या कच्छप की पीठ पर पृथ्वी के रखे होने का लोकविश्वास अब लोकमान्य नहीं रहा। यह बात अलग है कि वह एक सीमित लोक में आज भी प्रचलन में हो। तात्पर्य यह है कि पौराणिक लोकविश्वासों को ज्यों-का-त्यों मान लेना या उनके संबंध में कोई प्रश्न न करना इस युग में संभव नहीं रहा। यहाँ तक कि देवी-देवताओं से संबंधित अद्भुत या चमत्कारपूर्ण लोकविश्वासों की चीड़-फाड़ होने लगी है और आस्था पर आधारित लोकविश्वासों के लिए नये-नये तर्क खोजे जा रहे हैं।

वर्गीकरण

स्थूल रूप में लोकविश्वासों के दो रूप होते हैं-एक वह है जो प्रामाणिक आधारों पर प्रतिष्ठित रहता है और दूसरा वह जो प्रामाणिक आधार से वंचित रहता है। प्रथम वर्ग के लोकविश्वासों को भी दो वर्गों में रखा जा सकता है-प्रथम के अंतर्गत वे लोकविश्वास आते हैं, जो पौराणिक मान्यताओं या तथ्यों पर आधारित होते हैं और दूसरे में वे होते हैं, जो लोकानुभवों, लोकप्रमाणों और लोकमान्यताओं पर निर्भर करते हैं। द्वितीय वर्ग के वे हैं जिनके प्रामाणिक आधार नहीं मिलते और बिना किसी तर्क या तथ्य के परम्परा से प्राप्त होने के कारण ही जीवित रहते हैं। लेकिन जब लोक उन आधारहीन लोकविश्वासों में निरर्थक तत्त्वों की बाढ़ देखता है और लोक में उनकी उपयोगिता नहीं पाता, तब वह उन्हें स्वीकृति की परिधि से बाहर कर देता है। इतने पर भी वे छुटपुट सीमित दायरे में चलते रहते हैं और समझदार या उनसे अप्रभावित वर्ग उन्हें 'अंधविश्वास' के नाम से अभिहित करता है। वस्तुत: लोकविश्वास इतने अधिक और इतने विविध हैं कि उन्हें वर्गबद्ध करना कठिन है, फिर भी अध्ययन की सुविधा के लिए निम्न वर्गीकरण किया गया है-

  1. मानव और जगत् संबंधी लोकविश्वास
  2. प्रकृति-संबंधी लोकविश्वास
  3. धार्मिक लोकविश्वास
  4. अतिप्राकृत लोकविश्वास
  5. कृषि-संबंधी लोकविश्वास
  6. ज्योतिष-संबंधी लोकविश्वास
  7. घर-परिवार-संबंधी लोकविश्वास
  8. शकुनापशकुन
  9. स्वास्थ्य-संबंधी लोकविश्वास
  10. नीतिपरक लोकविश्वास
  11. अंधविश्वास

परम्परा और प्रगति

'पथरीलौ पिया तोरो देस, मोयी अनी तौ मुरक गयी बिछिया की' गाती ग्रामवधू बुंदेलखंड की पथरीला-कँकरीली धरती को इसलिए कोसती है कि उसके बिछिया की अनी मुरक जाती है। शायद उसका विश्वास यहाँ आते ही बदलने लगता है, क्योंकि इस भूमि की संस्कृति किसी को बदलने की अपार क्षमता रखती है। अपने लोकविश्वासों की दृढ़ता के कारण। यहाँ के लोकविश्वास बहुत प्राचीन हैं। आदिम मानव की प्रारंभिक आस्थाओं से लेकर आटविक या वन्य संस्कृति के मूल्यों तक पुलिंदों, शबरों, गोंडों आदि अनार्य-जातियों से हिलमिल कर ये विश्वास-शिशु बड़े हुए हैं। दाँगी, राउत, खपरिया जातियों के साथ खेलकर उन्होंने आर्यों के आश्रमों में शिक्षा पायी और नाग, वाकाटकों, शुंगों आदि के संरक्षण में संपुष्ट होकर चंदेलों की कल्पवृक्षी छाया में वे युवा हो गए। फिर जैन, बौद्ध, इस्लाम-धर्मों के प्रभावों में साँस लेते हुए अपनी जीवन-यात्रा जारी रखी और बुंदेलों, मराठों, अंग्रेजों आदि के साथ आगे बढ़ते गए। तात्पर्य यह है कि लोकविश्वासों की यात्रा कईं पड़ावों पर ठहरकर आगे बढ़ी है और आज भी अपने सारे संघर्षों के बावजूद निरंतर गतिशील है। इस गत्यात्मकता और ऐतिहासिक सचेतनता को सामने रखकर ही लोकविश्वासों का परीक्षण आवश्यक है।
इसमें संदेह नहीं है कि लोकविश्वासों की एक दीर्घ परम्परा रही है और उनकी व्यापक परिधि में आदिम, वैदिक, पौराणिक, मध्ययुगीन और आधुनिक भावनाओं तथा चिन्तन के कई स्तर वर्तमान हैं। अतएव उनमें पुराने और नये विविध तत्त्वों का संघटन स्वाभाविक है। एक तरफ परम्परित तत्त्वों की आधारभूमियाँ हैं, तो दूसरी तरफ बदलाव की गतिशील दिशाएँ। एक तरफ परम्परा का अनुसरण है, तो दूसरी तरफ प्रगति का चाव। परम्परा और प्रगति के तानों-बानों से ही लोकविश्वासों की बुनावट होती रही हे, अतएव उन्हें रूढिबद्ध, परम्परित और स्थिर मान लेना उचित नहीं है। कुछ लोकविश्वास ऐसे हैं, जो स्थिर रहे हैं, लेकिन उनके स्वरूप में कुछ-न-कुछ परिवर्तन हुआ है। कुछ बिल्कुल बदल गए हैं, क्योंकि लोक ने उनकी मान्यता निरस्त कर दी है। इस रूप में लोकविश्वासों का अपना इतिहास रहा है, जिसे अनदेखा करने से उनके साथ अन्याय होगा। युग-चेतना की दृष्टि से देखा जाय, तो लोकविश्वासों में तत्कालीन लोक के विश्वासों की सच्ची तस्वीर मिलती है, जिससे उस समय की लोकसंस्कृति और लोकचेतना की सही दशा का पता चलता है। अगर किसी अंचल की लोकसंस्कृति का हृदय और मस्तिष्क एक साथ परखना हो, तो उसके लोकविश्वासों को जानना अत्यंत आवश्यक है। लोकविश्वासों के विकास की रेखाएँ लोकसंस्कृति के इतिहास का रेखाचित्र अंकित करती हैं और लोक की प्रगति के आरोह-अवरोह का लेखा बताती है।

आदिकाल

आदिकाल से तात्पर्य उस कालखंड से है, जिसमें प्रागैतिहासिक से लेकर रामायण-काल तक के लोकविश्वासों के उद्भव और विकास का संपूर्ण लेखा-जोखा आ जाता है। इस युग में बुंदेलखंड आदिवासी लोकसंस्कृति का पालना रहा है। यहाँ पुलिंद, निषाद, शबर, रामठ, राउत और उनके बाद गोंड़, कोल, भील, सहारिया जैसी जनजातियाँ मूल निवासी होने के कारण आदिकालीन लोकविश्वासों को ढ़ालने में प्रमुख रहीं। रामायण-काल के अंत में आर्यों के लोकविश्वास आश्रमों से निकलकर बाहर आए और उन्होंने लोक को प्रभावित करना शुरु कर दिया। अतएव यह युग इस अंचल में आदिवासियों के लोकविश्वासों का युग है।

सांस्कृतिक संघर्ष

रामायण-काल में इस अंचल की भूमि पर तीन संस्कृतियों का संघर्ष रहा। एक थी प्राचीन जनजातीय संस्कृति, दूसरी यक्ष संस्कृति और तीसरी आर्यों की अश्रमी संस्कृति। बुंदेलखंड की जनजातियाँ रक्ष संस्कृति के प्रतिनिधि राक्षसों से निरंतर युद्ध करती रहीं, पर वह संघर्ष बाहरी था, इसलिए उन पर रक्ष संस्कृति का असर नहीं हुआ। असली संघर्ष त्रिकोणीय था। गोंड़ों के देवता 'ठाकुर' हर गाँव में प्रतिष्ठित थे, जिनसे गोंड़ी लोकसंस्कृति का उत्कर्ष प्रकट होता है। लेकिन 'गाँव-गाँव कौ ठाकुर' के साथ 'गाँव-गाँव कौ बीर' जुड़ा होने से यक्ष संस्कृति का प्रतिष्ठा का लोकप्रमाण भी मिलता है। रामायण के उत्तरकांड में भी यक्षों का साक्ष्य है। अतएव इस अंचल में सबसे पहले यक्षों के विश्वासों ने प्रवेश किया था। एक तो यक्षों का सुंदर, स्वस्थ और शक्तिमान शरीर तथा चमत्कारिक रूप था, दूसरे उनके संबंध में यह लोकविश्वास प्रचलित था कि उनके पास 'अमृत' है, जिसे पीने पर मनुष्य अमर हो जाता है। इसी 'अमृत' या 'अमरत्व' के लिए इस अंचल में यक्ष-पूजा प्रारंभ हुई। महाभारत में 'कुबेर' (यक्ष) को अमरत्व, धन और लोकपालन का स्वामी बताया गया है। इस तरह यक्ष भौतिक और अभौतिक सुखों के वरदानी रूप में पूजित हुए। लोक का विश्वास था कि अमृत से वृद्धावस्था और मृत्यु की पीड़ा का समाधान मिल जाता है। यक्ष को प्रसन्न करने के लिए, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य और प्रार्थना (संगीत) को पूजा की विशेष सामग्री के रूप में स्वीकार किया गया। इस वजह से पूजा में 'बलि' का विश्वास कुछ कम हुआ। साथ ही आदिवासी इहलौकिकता-संबंधी विश्वासों से कुछ ऊपर उठे।
आर्यों की आश्रमी संस्कृति का इस अंचल में आना एक ऐतिहासिक घटना है क्योंकि उसके मूल्यों मान्यताओं और विश्वासों ने यहाँ की लोकसंस्कृति को परिवर्तन के द्वार तक पहुँचाया है। रामायण की कथा में शबरी द्वारा राम का स्वागत जहाँ आर्यों के विश्वासों का स्वागत है, वहाँ महाभारत के आदि पर्व में वर्णित चेदिनरेश उपरिचर वसु द्वारा इंद्र की पूजा के लिए इंद्रमह का आयोजन[1] आर्यों के धार्मिक विश्वासों की स्वीकृति है। लेकिन इंद्र के साथ-साथ आदिकालीन देव शिव की पूजा भी जारी थी। बुंदेलखंड में यक्षों के चबूतरों का स्थान शिव के चबूतरों ने ले लिया था। इंद्र की पूजा लोक में उतनी प्रचलित न हो सकी जितनी शिव की। वासुदेव कृष्ण ने इंद्र की जगह पर गोवर्धन की पूजा को प्रतिष्ठित किया था। चेदि यादवों के अधीन था और उस समय चरागाही लोकसंस्कृति के संस्कार प्रबल थे। यक्ष और शिव के साथ-साथ कारसदेव के प्रति पशुपालकों की आस्था दृढ़ थी। वन, वृक्ष, नदी आदि की पूजा के साथ नाग-पूजा भी बहुत प्राचीन है और उनसे संबद्ध लोकविश्वास भी तभी से प्रचलित रहे हैं। वस्तुत: जहाँ शिव के साथ नाग जुड़े हुए थे, वहाँ वैदिक देवता रुद्र का सान्निध्य भी उन्हें प्राप्त था। विष्णु का संबंध शेषनाग से स्थिर हो जाने पर दो तरह के विश्वासों का समन्वय एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। नागों का संबंध पहले क्षेत्र से था, बाद में धन से हुआ। लोक में यह विश्वास था कि नाग भूमि में गड़े धन का रक्षा करते हैं। धन के देवता यक्ष कुबेर थे, इसलिए यक्षों और नागों में सामंजस्य की स्थिति रही होगी। तात्पर्य यह है कि बहुत से लोकविश्वास समन्वय और एकता की भावना से संपुष्ट रहे हैं। पुनर्जन्म का लोकविश्वास बहुत पुराना है। उसका उद्भव उत्तरप्रस्तर-युग में हो चुका था। बुंदेलखंड की जनजातियों में मृतक संस्कार के अंतर्गत शव के साथ सुख देने वाली सामग्री का गाड़ना या शव-दाह के बाद हड्डियों को चुनकर किसी पात्र में सँजोना, इस विश्वास का प्रतीक है कि मृत्यु के बाद व्यक्ति नयी यात्रा करता है। आर्यों के आने के साथ इस लोकविश्वास का और विकास हुआ। पितृलोक के बाद यमलोक और फिर स्वर्ग-नरक की मान्यताएँ उसके साथ जुड़ गईं। तदुपरांत पुनर्जन्म का विश्वास भी दृढ़ हो गया, जिसके कारण भोज्यपदार्थ तक पुरखों को अर्पित किये जोने लगे। लोगों को विश्वास था कि अपंण की सामग्री पुरखों तक पहुँच जाती है।
मूर्ति-पूजा, बलि, प्रेत-पूजा से संबंधित विश्वासों का उत्स जनजातियों में मिलता है। तंत्र-मंत्र यक्ष, गंधर्व आदि किरात जातियों से आये। इन सबको अपनाकर आश्रमी संस्कृति के आर्यों ने वैदिक लोकविश्वासों का प्रसार किया। इस प्रकार लोकविश्वासों की विभिन्न धाराएँ एक हो गयीं और एक नये प्रवाह का जन्म हुआ। वैदिक संस्कृति से आयी 'कर्म' की नयी लहर ने उसे नया मेड़ दिया था, जिसका उत्कर्ष महाभारत-काल में दिखाई पड़ता है। महाभारत में लिखा है कि दुष्कर्मों से द्विज का अपने पद से स्खलन हो जाता है। अपने कर्म से च्युत होने वाला ब्राह्मण शुद्र हो जाता है, किंतु सत्कर्म करने से शुद्र ब्राह्मण बन जाता है। कर्म पर ऐसी आस्था सामाजिक चेतना की प्रमुख शक्ति थी। महाभारत के युद्ध में बुंदेलखंड के जनपद- चेदि और दशार्ण सम्मिलित हुए थे। 'युद्ध में जूझ जाने पर सूर्यलोक या स्वर्ग मिलता है' जैसा लोकविश्वास आर्यों की देन था, जिसे यहाँ लोकमान्यता मिली और जिसने वीरता की अमिट परंपरा खड़ी कर दी। लोकविश्वासों की मजबूत नींव पर ही लोकमूल्यों के महल खड़े होते हैं। बुंदेलखंड के संघर्षों के पिछे लोकविश्वासों की ही प्रेरणा थी।

सूत्रों और स्मृतियों के बंधन तथा धार्मिक जागृति

लोकविश्वासों की उठापटक और समन्वय की स्थिति के बाद सूत्रों और स्मृतियों ने उन सबको समेटकर एक नये विधान में संयोजित करने का प्रयत्न किया। हर जाति के अलग-अलग विधान थे और उनसे संबद्ध लोकविश्वास भी उसके अंतर्गत सम्मिलित थे। जैसे ब्राह्मण से संबंधित विश्वासों में कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं। ब्राह्मण श्रेष्ठ होता है; ब्राह्मण को भोजन, दान आदि से प्रसन्न कर आशीर्वाद लेने से पुण्य होता है; ब्राह्मण देवता की पूजा करने और करवाने का अधिकारी है आदि। इसी तरह संस्कारों के साथ भी लोकविश्वासों का मेल किया गया। उदाहरण के लिए, विवाह-संस्कार में वधू का दाहिने पाँव के सिरे से पत्थर को चलाना पत्थर की तरह दृढ़ बनने का प्रतीक है। शत्रु को भगाना, मारना और उस पर विजय पाना; यात्रा में सुरक्षित पहुँचना; छिपा खजाना पाना; रोग का उपचार आदि में जादू का प्रयोग होता था। अपशकुनों के बुरे प्रभावों से बचने के लिए अनुष्ठान किये जाते थे। अनेक प्रकार के लोकविश्वासों का प्रभाव भी उस समय ज्ञात था। वंशी बजाने से गर्भ सुरक्षित रहता है। गर्भवती के सिर के पास जलपात्र रखने से सुरक्षित और शीघ्र प्रसव होता है। देहरी पर खड़े होना अशुभ है। दक्षिण दिशा मृत्यु की दिशा है और अशुभ है। इस तरह के लोकविश्वास लोकनीति से जाँचकर लोकहित के लिए प्रचलित हुए थे। कुछ लोकविश्वासों के केन्द्र पशु, पक्षी, वृक्ष आदि होते थे। सियार, भेड़िया और कुत्ते अपवित्र माने जाते थे, अतएव उनका बोलना अशुभ था। उल्लू भी अशुभ समझा जाता था। पीपल, नीम, वट, बेल, ऊमर, पलाश और शमी वृक्षों को पवित्र माना गया था। शायद इसलिए कि वे मानव के लिए किसी-न-किसी रूप में उपयोगी थे। पीपल में बरमदेव का वास रहता है। नीम के पत्ते मृत व्यक्ति के दाह के बाद उसके द्वार पर चबाये जाते थे। कुश और घास या दूबा को भी पवित्र ठहराया गया था। तात्पर्य यह है कि प्रचलित लोकविश्वासों और शकुनापशकुनों को सूत्रों और स्मृतियों में सार्थकता के साथ पिरोकर उन्हें व्यवस्थित करने का काम किया गया था। साथ ही मानव के दैनिक जीवन से उन्हें जोड़कर एक नियंत्रक बंधन का रूप भी दिया गया था।
महात्मा महावीर और बुद्ध के पहले धर्म में अनेक अंधविश्वासों, कर्मकांडों और आडम्बरों का समावेश हो गया, जिसकी वजह से मानव जाति में एक जड़ ठहराव आ चुका था। इसीलिए इस संकटकाल में नयी धार्मिक जागृति नयी रोशनी लेकर आई। लोकविश्वासों में भी परिवर्तन हुआ, किंतु उसका असर जनता पर नहीं हुआ, इसीलिए जैन और बौद्ध ग्रंथों में पुराने लोकविश्वासों को अंधविश्वास मानकर स्थान दिया गया है। जातक कथाओं में ज्योतिष पर विश्वास, शकुन देखना, मंत्र और जादू-टोना, भूतों के लिए बलि, वृक्षों पर देवताओं का निवास, पुत्रप्राप्ति की कामना से यक्ष-पूजा, रोगों का मंत्रों और पूजा से उपचार आदि लोकविश्वासों का यत्र-तत्र वर्णन है। नागों और बुद्ध का संबंध इतिहास-ग्रंथों से पुष्ट है। ऐसा प्रतीत होता है कि बुद्ध ने नागों को अपने प्रभाव में कर लिया था। जातकों में तो नागों की कई कथाएँ दी गयी हैं, जिनसे नाग-संबंधी लोकविश्वास स्पष्ट हो जाते हैं। नाग के पास अमूल्य मणि होना, नाग का अपनी केंचुली छोड़कर आदमी बन जाना आदि विश्वास इस युग में प्रचलित थे। रुढ़ और अंधविश्वासों के समानान्तर कुछ नये विश्वासों का विकास हो रहा था, जिनमें प्रमुख थे अहिंसापरक। जैन-धर्म के अनुसार मानव, पशु, वृक्ष, वायु, अग्नि, प्रस्तर-सभी में आत्मा होती है और सभी में मानव की तरह दु:ख अनुभव करने की शक्ति, अतएव सभी को एक समान समझना चाहिए। जन्म-मरण के चक्र में सभी फँसे हैं। उन्हें तभी मुक्ति मिल सकती है, जब वे दुष्कर्मों से छुटकारा पा लेते हैं। बौद्ध धर्म मानव की इच्छा और क्षणभंगुरता को दु:ख का कारण मानता है। स्वार्थ के त्याग, अहंकार के अंत और शांति के द्वारा इस दु:ख से मुक्ति संभव है। तात्पर्य यह है कि मूर्तिपूजा, यज्ञ, मंत्र, बलि आदि के अंधविश्वासों के खिलाफ बुद्ध ने लोक को जगाया और अहिंसा एवं सत्य तथा कर्म से संबद्ध लोकविश्वासों की प्रतिष्ठा की।

नाग-वाकाटक युग

महात्मा महावीर और बुद्ध के उपदेश बुंदेलखंड की धरती पर बाद में ही फैले और उनके अंकुर और भी बाद में फूटे। अतएव इस अंचल में उनका प्रभाव यत्र-तत्र ही मिलता है। उनकी अधोगति के बाद भागवतों और शैवों ने इस अंचल, के लोकविश्वासों में एक नयी क्रांति खड़ी कर दी। लोकविश्वासों के संदर्भ में क्रांति का अर्थ है-कुछ ऐसे विश्वासों का बदलाव, जो जीवन-दर्शन के बदलने में प्रधान हों। जैन और बौद्ध-धर्म में गृहत्याग और निर्वाण परममूल्य थे, लेकिन नाग-वाकाटक युग में धर्म के साथ घर, समाज और राष्ट्र जुड़ा था। प्रसिद्ध इतिहासकार काशीप्रसाद जायसवाल ने लिखा है- "उस समय राष्ट्र की जैसी प्रवृत्तियाँ और जैसे भाव थे, उन्हीं के अनुरूप ईश्वर का एक विशिष्ट रूप उन लोगों ने चुन लिया था और उसी रूप को उन्होंने अपनी सारी सेवा समर्पित कर दी थी"[2]। इतना ही नहीं, इस युग में गार्हस्थिक आस्था को प्रमुख महत्त्व मिलता। लोक भक्ति पर विश्वास रखता हुआ शिव, विष्णु, सूर्य, यक्ष देवताओं और गंगा, नंदी, गाय आदि परिकरों की पूजा करने लगा था। नाग और वाकाटक शैव थे, पर वे अन्य धर्मों के प्रति उदार थे। इस कारण लोक में योग, भक्ति, कर्म और भुक्ति-सभी की मान्यता थी। लोगों में यह विश्वास दृढ़ था कि शरीर के द्वारा ही योग, भोग, कर्म और भक्ति की जा सकती है। जगत् सुखों और दु:खों का भंडार है। मृत्यु सबसे बड़ा दु:ख है, जिससे छुटकारा तभी मिलता है, जब मानव इसी जगत् में रहकर सत्कर्म करे।

मध्य काल

मध्यकाल में या तो बुंदेलों कार शासन रहा है या गोंड़ों का। इस कारण गोंड़ों में प्रचलित लोकविश्वासों का प्रभाव इस अंचल पर अधिक रहा है। गोंड़ चंदेलों के समय और उनके पूर्व भी रहे हैं। गोड़ों की गढियाँ पूरे अंचल में फैली हुई हैं, उनके अवशेष आज तक वर्तमान हैं। फिर गढ़-मंडला के गोंड़ सत्ता में रहे हैं। इसलिए उनके विश्वास इस अंचल के विश्वासों के साथ हिल-मिलकर आगे बढ़े हैं। गोंड़ों में रजस्वला स्री पाँच दिन तक घर के बाहर ही रखी जाती है। उसकी छाया पड़ना ही खराब माना जाता है। छुआछूत की यह मान्यता हमारे परिवारों में कुछ परिवर्तन के साथ आज तक जीवित है। भूत-प्रेतों पर गोंड़ों का विश्वास दृढ़ है, क्योंकि उनके कुपित होने पर मनुष्यों पर आपत्तियाँ आती हैं-आज भी लोक में यह विश्वास प्रचलित है। मूर्तिपूजा की कल्पना इस अंचल में गोंड़ों से आई थी, जो आज हिंदुओं के धार्मिक लोकविश्वासों की धुरी है।

चंदेल युग

चंदेल-काल बुंदेलखंड का स्वर्णयुग रहा है। इसी समय उसकी राजनीतिक इकाई का जन्म हुआ और इसी समय उसकी सांस्कृतिक इकाई की पहचान बनी। युग की परिस्थितियों के अनुसार उसके लोकमूल्य और लोकविश्वास आ खड़े हुए। बाहरी आक्रमणों का सामना करने के लिए चंदेलों ने केवल सैनिक और शस्र ही नहीं तैयार किए, वरन् भीतरी ऊर्जा को कायम रखने के लिए लोक के संकल्पों और विश्वासों के दुर्ग खड़े कर दिए। इन दुर्गों की नींव ऐसे लोकविश्वासों के कंधों पर थी, जो व्यक्ति और लोक को वज्र की तरह सूदृढ़ बना देते हैं। आल्हाखण्ड की हर गाथा में उनका स्पष्ट सेकेत है-

  1. मानुस देइया जा दुरलभ है आहै समै न बारंबार।
  2. मरद बनाये मर जैबै कों खटिया परकें मरै बलाय।

जे मर जैहें रनखेतन मा साखौ चलो अँगारुँ जाय।।
मानव शरीर एक दुर्लभ वस्तु है। मानव योनि बार-बार नहीं मिलती। अतएव लोकविश्वास है कि जीवन में जो करना है, इसी कीमती समय में कर लेना चाहिए। मर्द वह है, जो मृत्यु का वरण करे। जो युद्धक्षेत्र में प्राण देते हैं, उनका यश अमर रहता है। पुरुष के जूझने के समानांतर नारी के सतीत्व पर लोगों को गहन आस्था थी। आल्हा में सिरसा के महावीर मलखान की मृत्यु पर रानी गजमोतिन के सती होने का वर्णन है। इतिहासकार अलबेरूनी ने लिखा है कि 'विधवाएँ या तो अपने पतिदेव की चिता पर अपने को झोंक देती हैं या तपस्विनी का जीवन व्यतीत करती हैं।' वत्सराज के 'रूपकषटकम्' में सती का स्पष्ट प्रमाण मिलता है।[3] इन दोनों के विपरीत आत्महत्या करने को पाप माना जाता था। देश-जाति के प्रति लोगों का विश्वास था कि 'यदि कोई देश है तो उनका, जाति है तो उनकी, यदि शासक हैं तो उनके।'[4] लोक का यह आत्मविश्वास उस समय बहुत ज़रूरी था।

तोमर काल

तोमरनरेशों के समय इस अंचल पर आक्रमणों की दृष्टि लगी हुई थी, अतएव ऐसे लोकविश्वासों का सतत् जागरण ज़रूरी था, जो लोक और लोकसंस्कृति को शक्तिसंपन्न बनाते। तत्कालीन काव्य-ग्रंथों और ऐतिहासिक प्रमाणों तथा लोकगीतों से पता चलता है कि उस समय लोक में शौर्य, कर्म, सतीत्व और प्रेम-संबंधी लोकविश्वास प्रमुख थे। विदेशी संस्कृति की तलवार से बचने के लिए दो मार्ग ही थे-एक युद्ध और दूसरा प्रेम। कविवर विष्णुदास के महाभारत से स्पष्ट है कि लोगों का विश्वास क्षात्र धर्म का पालन था। अगर क्षत्रिय शत्रुओं को देखकर भागता है, तो सात पीढ़ीयों केर पूर्वज लज्जित होते हैं। पृथ्वी पर उसे न तो नाम मिलता है और न गति।[5] मोक्ष पाने के लिए क्षत्रिय (सैनिक या वीर) रणक्षेत्र में जूझता है, राजा दान देने में कृपणता नहीं दिखाता और विप्र अपने मन में जीवों पर दया रखता है।[6] कवि ने सीता से कहलाया है-

       ध्रिगु रे ध्रिगु मानुस कौ जन्म। ध्रिगु जु बंस जिहि होत अकम्र्म।।
       ध्रिगु जीवन जो परबस रहै। दुक्ख बियापै सीता कहै।।

उस जीवन को धिक्कार है, जो परतंत्र होता है। सिद्ध है कि कवि लोकविश्वास को कथा के माध्यम से व्यक्त करता है और तत्कालीन लोकचेतना का प्रतिबिम्बन करता है। सारी परिस्थिति के ध्यान में रखकर ही उसने कथाकाव्य चुना है और कथा का फल बताते हुए कथा सुनने की अनिवार्यता प्रमाणित की है। कथा सुनने से पाप नष्ट होता है, मन और बुद्धि स्थिर होते हैं, युद्ध में पराजय नहीं होती और तीर्थ-स्नान का फल मिलता है। 'सत्त' और 'पत' उस समय के लोकजीवन के केन्द्रीय मंत्र थे। 'सत्त' और 'पत' से संबंधित अनेक लोकविश्वास हैं। देवता और देवी में सत्त होता है। पुरुष सत्त पर टिका रहता है। नारी में सत्त होता है, तभी वह सती होती है। नारी अपनी पत की रक्षा सबकुछ देकर करती है। कुल की पत, राज की पत, देस की पत की रक्षा करना सबका धर्म है।

बुंदेल काल

भक्ति आंदोलन की लहर इस अंचल के लोकविश्वासों में एक नया परिवर्तन अंकित करती है। भक्तिपरक लोकविश्वास तो बहुत पहले से मौजूद थे, लेकिन सीताराम और राधेश्याम की लीलाओं ने उनकी भावना को अधिक व्यापक और गहरा बना दिया था। लोकगीतों में राम-कृष्ण और सीता-राधा का नायकत्व लोकमय होकर लोक से इतना जूड़ चुका था कि हर पुरुष राम-कृष्ण और हर स्त्री सीता-राधा हो गयी थी। इस तरह लोकसंस्कृति की रक्षा के लिए एक नया आत्मविश्वास और नयी ऊर्जा का द्वार खुल गया। अंतर केवल इतना था कि लोकभक्ति संप्रदायमुक्त और निरपेक्ष थी। वह संपूर्ण लोक की थी, इसलिए लोक की शक्ति बनी। दूसरे, उससे हिंदू-मुस्लिम और नीची जातियों की भेद-भावविहीन एकता का सूत्रपात हुआ। तोमरकालीन ग्रंथ 'छिताई चरित' में कथाकार ने इस एकता के भाव का स्पष्ट संकेत किया था, और उसी परंपरा में लोकभक्ति से संबंद्ध लोकविश्वास ढल गये। जात-पाँत पूँछे न कोई, हरि को भजै सो हरि को होई (जाति-पाँति कोई नहीं पूछता, जो भगवान् को भजता है, वह उसी का हो जाता है), राम भरोसें खेती (सब राम का भरोसा है), राम भरोसे जे रहें परबत पै हरयायँ (जो राम के भरोसे रहते हैं, वे पर्वत पर भी हरे रहते हैं यानी कि विषम परिस्थिति में भी सुखी रहते हैं), राम राखे कोऊ न चाखे (राम रखवाला है, तो कोई क्या बिगाड़ सकता है) आदि विश्वास कहावतों के रूप में इसलिए प्रचलित हुए कि वे लोक द्वारा लोकजीवन के प्रमुख सूत्र बन चुके थे।

आधुनिक काल

बीसवीं शती के प्रारंभ में ही इस अंचल की सांस्कृतिक चेतना में बदलाव दिखाई पड़ता है। मैथिलीशरण गुप्त के राष्ट्रीय मुक्तक 1903-04 ई. में रचे गये थे। 1907-08 ई. में उनके मुक्तक और गीत लोकप्रिय हो चुके थे। 1912-14 ई. में भारत-भारती के मुक्तक एक क्रांतिकारी अध्याय जोड़ चुके थे। तात्पर्य यह है कि दूसरे दशक से एक नये परिवर्तन का चरण अपने अंगदी पाँव रोप चुका था। दो दिशाएँ बिल्कुल स्पष्ट थीं-एक तो राष्ट्रीय चेतना का जागरण और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष तथा दूसरी वैज्ञानिक युग की बौद्धिकता का लोकजीवन में प्रभाव। फलस्वरूप लोकविश्वासों में भी परिवर्तन हुआ। एक तरफ रुढिबद्ध लोकविश्वासों का विरेध किया गया, तो दूसरी तकफ नये लोकविश्वासों का प्रसव प्रारंभ हुआ। पुराने और नये के बीच द्विविधा का भाव भी नयी मानसिकता की तीसरी दिशा थी। लोककाव्य में राष्ट्रीय चेतना की धारा 1842 ई. की पारीछत की अंग्रेज़ों से लड़ाई के बाद ही फूट चुकी थी और बुंदेलखंड के हरबोलों ने 1857 ई. के पहले घर-घर और गाँव-गाँव जाकर उसे प्रवाहित कर दिया था। ईसुरी के पहले खान फकीरे, दादूराम और गंगासिंह ने सत्तावन के संघर्ष का वर्णन किया था।[7] सन् 1942 एवं 1947 के गीतों के अनेक उदाहरण मिलते हैं। महात्मा गांधी, सुभाष और चरखा, खादी, स्वदेशी आंदोलन, राजाओं का अत्याचार, स्वराज्य-प्राप्ति आदि उनके प्रमुख विषय रहे हैं। महात्मा गांधी के लिए अवतार का परम्परित लोकविश्वास इस समय भी लोकमुख में रहा है। स्वर्ग और मोक्ष के स्थान पर यश छा गया है। परम्परित लोकविश्वासों में मानव का क्षणभंगुरता (इक दिन चलो सबई कों जानें), राम ही रक्षक है (कीको को है संग सहेला, रक्षक राम अकेला), मानव का शरीर दुर्लभ है (गंगा फिर पाई ना पाई दुरलभ देइया मानस की), जन्मभूमि इंद्रपुरी (स्वर्ग) से भी बढ़कर है, अब सतयुग चला गया और कलियुग आ गया है (आ गओ अब कलजुग को पारो, सतजुग दै गओ टारो) आदि आज भी मान्य हैं, लेकिन रुढियों के प्रति विद्रोह भी जारी है-

       कैसी छाई हिये नादानी, करत सदा मनमानी।
       खीर खांड़ को पिंड खाँय को देत बनाकर सानी।
       ढोर समान मान पित्रन कों देत तलैया पानी।
       जियों पिता की बात न पूँछी मरें भये बरदानी।
       'बलदेव' तजो पोप लीला कों तुम सों कहत बखानी।। 1।।

       का मिल जात पथरिया पूजें, तुम्हें कछू नी सूजें।
       पूजन करत सदा जड़ केरो, जड़ बुद्धी बन गूँजें ।। 2।।

उक्त पंक्तियों में पिंड देना, तर्पण करना, पत्थर पूजना आदि को पोप लीला या पाखंड बताकर उसके विरुद्ध विद्रोह किया गया है। वैज्ञानिक आविष्कारों से आयी बौद्धिकता ने पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक आदि के प्रति प्रश्नचिन्ह खड़े कर दिए हैं। फिर भी कुछ वर्गों में परम्परित लोकविश्वास जमे हुए हैं। इस दृष्टि से इस अंचल में तीन प्रकार के वर्ग बनाये जा सकते हैं-

  1. परम्परित लोकविश्वासों के अनुयायी, जिन्हें हम परम्परावादी कह सकते हैं
  2. रूढिबद्ध लोकविश्वासों या अंधविश्वासों के विरोधी तथा परम्परित लोकविस्वासों को मान्यता देने वाले, जिन्हें हम परम्पराशील मान सकते हैं
  3. पुराने लोकविश्वासों के स्थान पर नये लोकविश्वासों के समर्थक, जिन्हें परंपरामुक्त या स्वच्छंद के रूप में अभिहित किया जा सकता है।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत, आदिपर्व, 57/27
  2. (अंधकारयुगीन भारत, पृ. 104)
  3. रूपकषटकम् (समुद्र.), पृ. 183 एवं गढ़ा सती अभिलेख सं. 1342
  4. अलबेरूनी का उद्धरण, चंदेल और उनका राजत्वकाल, केशवचंद्र मिश्र, पृ. 187
  5. महाभारत, पृ. 134 एवं 165
  6. रामायण-कथा, पृ. 68, छंद 30
  7. सुराज, म. प्र. आदिवासी लोककला परिषद, भोपाल, बुंदेली लोकगीत के अंतर्गत संकलित

बाहरी कड़ियाँ

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