उत्पत्ति पुस्तक

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उत्पत्ति पुस्तक बाइबिल के प्रथम ग्रंथ का नाम इसलिए उत्पत्ति (जेनेसिस) रखा गया है कि इसमें संसार तथा मनुष्य की उत्पत्ति[1] और बाद में यहूदी जाति की उत्तपत्ति तथा प्रारंभिक इतिहास [2] का वर्णन किया गया है। इस ग्रंथ की बहुत सी समस्याओें का अब तक सर्वमान्य समाधान नहीं हुआ है, फिर भी ईसाई व्याख्याता प्राय: सहमत हैं कि उत्तपत्ति पुस्तक में निम्नलिखित धार्मिक शिक्षा दी जाती है-केवल एक ही ईश्वर है जिसने काल के प्रारंभ में, किसी भी उपादान का सहारा न लेकर, अपनी सर्वशक्तिमान्‌ इच्छाशक्ति मात्र द्वारा विश्व की सृष्टि की है। बाद में ईश्वर ने प्रथम मनुष्य आदम और उसकी पत्नी हव्वा की सृष्टि की, और इन्हीं दोनों से मनुष्य जाति का प्रवर्तन हुआ[3]। शैतान की प्रेरणा से आदम और हव्वा ने ईश्वर की आज्ञा का उल्लंघन किया, जिससे संसार में पाप, विषयवासना तथा मृत्यु का प्रवेश हुआ[4]। ईश्वर ने उस पाप का परिणाम दूर करने की प्रतिज्ञा की और अपनी इस प्रतिज्ञा के अनुसार संसार को एक मुक्तिदाता प्रदान करने के उद्देश्य से उसने अब्राहम को यहूदी जाति का प्रवर्तक बना दिया (द्र. 'अब्राहम)।[5]

यद्यपि उत्पति पुस्तक की रचनाशैली पर सुमेरी-बाबुली महाकाव्य एन्‌मा-एलीश तथा गिल्गमेश की गहरी छाप है और उसके प्रथम रचयिता ने उसमें अपने से पहले प्रचलित सामग्री का उपयोग किया है जिसका उद्गम स्थान मेसोपोटेमिया माना जाता है, तथापि उत्तपति पुस्तक की मुख्य धार्मिक शिक्षा मौलिक ही है। उस ग्रंथ की रचना पर मूसा[6] का प्रभाव सबसे महत्वपूर्ण प्रतीत होता है किंतु उसकी मिश्रित शैली से स्पष्ट है कि मूसा के बाद परवर्ती परिस्थितियों से प्रभावित होकर अनेक लेखकों ने उस प्राचीन सामग्री को नए ढाँचे में ढालने का प्रयत्न किया है। ग्रंथ का वर्तमान रूप संभवत: आठवीं शताब्दी ई. पू. का है। इसकी व्याख्या करने के लिए दो तथ्यों को ध्यान में रखना चाहिए : (1) समस्त बाइबिल की भॉति उत्पत्ति पुस्तक का दृष्टिकोण वैज्ञानिक न होकर धार्मिक ही है। रचयिताओं ने अपने समय को भौगोलिक तथा वैज्ञानिक धारणाओं का सहारा लेकर स्पष्ट करना चाहा है कि ईश्वर ही विश्व तथा उसके समस्त प्राणियों का सृष्टिकर्त्ता है। अत: उस ग्रंथ में विश्व के प्रारंभ का समय अथवा विज्ञान के अनुसार विश्व का विकासक्रम ढूँढ़ना व्यर्थ है। (2) उत्पत्ति पुस्तक में प्राय: प्रतीकों तथा रूपकों का प्रयोग हुआ है। उदाहरणार्थ, आदम की उत्पत्ति का वर्णन करने के लिए सृष्टिकर्ता को कुम्हार के रूप में प्रस्तुत किया गया है। उस प्रतीकात्मक रचनाशैली का ध्यान रखे बिना उसकी धार्मिक शिक्षा समझना नितांत असंभव है। अत: मध्यपूर्व की प्राचीन भाषाओं तथा उनकी साहित्यिक शैलियों के अनुशीलन के बाद ही उत्पत्ति पुस्तक के प्रतीकों तथा रूपकों का आवरण हटाकर उसमें प्रतिपादित धार्मिक शिक्षा का स्वरूप निर्धारित किया जा सकता है।[7]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (अध्याय 1-11)
  2. (अध्याय 12-50)
  3. (द्रं. 'आदम')
  4. (द्र.'आदिपाप')
  5. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 2 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 81 |
  6. (15वीं शताब्दी ई. पू.)
  7. सं.ग्रं.-ए कैथोलिक कमेंटरी ऑन होली स्क्रिप्चर, लंदन, 1953; एच.जे. जॉनसन : द बाइबिल ऐंड दि अर्ली हिस्ट्री ऑव मैनकाइंड, लंदन, 1943; बी. वाटेर : ए पाथ थ्राू जेनेसिस, लंदन, 1957।

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