विलायत ख़ाँ
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पूरा नाम | उस्ताद विलायत ख़ाँ |
जन्म | 28 अगस्त, 1928 |
जन्म भूमि | बंगाल |
मृत्यु | 13 मार्च, 2004 |
मृत्यु स्थान | मुंबई |
अभिभावक | पिता- इनायत हुसैन ख़ाँ |
संतान | दो पुत्रियाँ, दो पुत्र (सुजात हुसैन ख़ाँ और हिदायत ख़ाँ) |
कर्म भूमि | भारत |
कर्म-क्षेत्र | संगीत |
मुख्य फ़िल्में | बांग्ला फ़िल्म 'जलसाघर' (1958), 'दि गुरु' (1969), हिन्दी फ़िल्म 'कादम्बरी' (1976) |
प्रसिद्धि | सितार वादक |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | आरम्भ में विलायत ख़ाँ का झुकाव गायन की ओर ही था, किन्तु माँ की प्रेरणा ने ही उन्हें अपनी खानदानी परम्परा निभाने के लिए प्रेरित किया। |
विलायत ख़ाँ (अंग्रेज़ी: Vilayat Khan; जन्म- 28 अगस्त, 1928, बंगाल; मृत्यु- 13 मार्च, 2004, मुंबई) भारत के प्रसिद्ध सितार वादक थे, जिन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी बहुत ख्याति प्राप्त की थी। उस्ताद विलायत ख़ाँ की पिछली कई पुश्तें सितार वादन से जुड़ी रही थीं। उनके पिता इनायत हुसैन ख़ाँ से पहले उस्ताद इमदाद हुसैन ख़ाँ भी जाने-माने सितार वादक रहे थे। विलायत ख़ाँ ने सितार वादन की अपनी अलग गायन शैली विकसित की थी, जिसमें श्रोताओं पर गायन का अहसास होता था। उनकी कला के सम्मान में राष्ट्रपति फ़खरुद्दीन अली अहमद ने उन्हें "आफ़ताब-ए-सितार" का सम्मान दिया था। ये सम्मान पाने वाले वे एकमात्र सितार वादक थे।
जीवन परिचय
अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त सितार वादक उस्ताद विलायत ख़ाँ का जन्म 28 अगस्त, 1928 को तत्कालीन पूर्वी बंगाल के गौरीपुर नामक स्थान पर एक संगीतकार परिवार में हुआ था। उनके पिता उस्ताद इनायत हुसैन ख़ाँ अपने समय के न केवल सुरबहार और सितार के विख्यात वादक थे, बल्कि सितार वाद्य को विकसित रूप देने में भी उनका काफ़ी योगदान था। उस्ताद विलायत ख़ाँ के अनुसार सितार वाद्य प्राचीन वीणा का ही परिवर्तित रूप है। इनके दादा उस्ताद इमदाद ख़ाँ अपने समय के रुद्रवीणा वादक थे। उन्हीं के मन में सबसे पहले सितार में तरब के तारों को जोड़ने का विचार आया था, किन्तु इसे पूरा किया, विलायत ख़ाँ के पिता इनायत ख़ाँ ने। उन्होंने संगीत के वाद्यों के निर्माता कन्हाई लाल के माध्यम से इस स्वप्न को साकार किया। सितार के ऊपरी हिस्से पर दूसरा तुम्बा लगाने का श्रेय भी इन्हें प्राप्त है।[1]
शिक्षा
उस्ताद विलायत ख़ाँ ने अपनी शुरुआती संगीत शिक्षा पिता इनायत ख़ाँ से प्राप्त की थी। जब वे मात्र 12 वर्ष की अल्पायु में ही थे, तभी उनके पिता का निधन हो गया। बाद में उनके चाचा वाहीद ख़ाँ ने उन्हें सितार वादन की शिक्षा दी। उनके नाना बन्दे हुसेन ख़ाँ और मामू जिन्दे हुसेन ख़ाँ से भी उन्हें गायन की शिक्षा प्राप्त हुई। यह गायकों का घराना था।
विवाह
विलायत ख़ाँ ने दो विवाह किए थे। वे दो पुत्रियों और दो पुत्रों के पिता बने थे। उस्ताद विलायत ख़ाँ के दोनों बेटे सुजात हुसैन ख़ाँ और हिदायत ख़ाँ भी प्रमुख सितार वादकों में गिने जाते हैं।
माँ की प्रेरणा
आरम्भ में विलायत ख़ाँ का झुकाव गायन की ओर ही था, किन्तु उनकी माँ ने उन्हें अपनी खानदानी परम्परा निभाने के लिए प्रेरित किया। गायन की ओर उनके झुकाव के कारण ही आगे चलकर उन्होंने अपने वाद्य को गायकी अंग के अनुकूल परिवर्तित करने का सफल प्रयास किया। यही नहीं, अपने मंच-प्रदर्शन के दौरान प्रायः वे गाने भी लगते थे। 1993 में लन्दन के रॉयल फ़ेस्टिवल हॉल में आयोजित एक कार्यक्रम में ख़ाँ साहब ने 'राग हमीर' के वादन के दौरान पूरी बन्दिश का गायन भी प्रस्तुत कर दिया था।[1]
वादन की नई शैली का विकास
विलायत ख़ाँ के सितार वादन में तंत्रकारी कौशल के साथ-साथ गायकी अंग की स्पष्ट झलक मिलती है। सितार को गायकी अंग से जोड़कर उन्होंने अपनी एक नई वादन शैली की नींव रखी थी। वादन करते समय उनके मिज़राब के आघात से 'दा' के स्थान पर 'आ' की ध्वनि का स्पष्ट आभास होता था। उनका यह प्रयोग वादन को गायकी अंग से जोड़ देता है। विलायत ख़ाँ ने सितार के तारों में भी प्रयोग किए थे। सबसे पहले उन्होंने सितार के जोड़ी के तारॉ में से एक तार निकाल कर एक पंचम स्वर का तार जोड़ा। पहले उनके सितार में पाँच तार हुआ करते थे। बाद में एक और तार जोड़ कर संख्या छ: हो गई थी। अपने वाद्य और वादन शैली के विकास के लिए वे निरन्तर प्रयोगशील रहे। एक अवसर पर उन्होंने स्वयं भी स्वीकार किया कि वर्षों के अनुभव के बावजूद अपने हर कार्यक्रम को एक चुनौती के रूप में लेते थे और मंच पर जाने से पहले दुआ माँगते थे कि इस परीक्षा में भी वे सफलता पायें।
फ़िल्मों में संगीत
उस्ताद विलायत ख़ाँ ने कुछ प्रसिद्ध फ़िल्मों में भी संगीत दिया था। 1958 में निर्मित सत्यजीत रे की बांग्ला फ़िल्म 'जलसाघर', 1969 में मर्चेन्ट आइवरी की फ़िल्म 'दि गुरु' और 1976 में मधुसूदन कुमार द्वारा निर्मित हिन्दी फ़िल्म 'कादम्बरी' उस्ताद विलायत ख़ाँ के संगीत से सुसज्जित था। वे वास्तव में सरल, सहज और सच्चे कला साधक थे।[1]
पुरस्कार व सम्मान
सितार वादन व संगीत के क्षेत्र में विलायत ख़ाँ के विशेष योगदान के लिए उन्हें 1964 में 'पद्मश्री' और 1968 में 'पद्मविभूषण' सम्मान दिये गए थे, किंतु उन्होंने ये कहते हुए कि भारत सरकार ने हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में उनके योगदान का समुचित सम्मान नहीं किया, दोनों सम्मान ठुकरा दिए।
निधन
एक सितार वादक के रूप विलायत ख़ाँ ने पाँच दशक से भी अधिक समय तक अपना जादू बिखेरा। सितार के इस महान् वादक को फेफड़े के कैंसर ने अपनी चपेट में ले लिया था। इसके इलाज के लिए वे मुंबई के 'जसलोक अस्पताल' में भर्ती हुए थे। यहीं पर उन्होंने अपने जीवन की अंतिम साँसें लीं। 13 मार्च, 2004 को उनका निधन हुआ।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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