ऊतक विज्ञान

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ऊतक विज्ञान या ऊतिकी (Histology) की परिभाषा देते हुए स्टोरर ने लिखा है : ऊतक विज्ञान या सूक्ष्म शरीर (microscopic anatomy) अंगों के भीतर ऊतकों की संरचना तथा उनके विन्यास (arrangement) के अध्ययन को कहते हैं। अँगरेजी का हिस्टोलॉजी शब्द यूनानी भाषा के शब्द हिस्टोस्‌ (histos) तथा लॉजिया (logia) से मिलकर बना है, जिनका अर्थ होता है ऊतकों (tissues) का अध्ययन। अत: ऊतक विज्ञान वह विज्ञान है, जिसके अंतर्गत ऊतकों की सूक्ष्म संरचना तथा उनकी व्यवस्था अथवा विन्यास का अध्ययन किया जाता है। 'ऊतक' शब्द फ्रांसीसी भाषा के शब्द टिशू (tissu) से निकला है, जिसका अर्थ होता है संरचना या बनावट (texture)। इस शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम फ्रांसीसी शारीर वैज्ञानिक (anatomist) बिशैट (Bichat) ने 18वीं शताब्दी के अंत में शारीर या शरीर-रचना विज्ञान के प्रसंग में किया था। उन्होंने अपनी पुस्तक में लगभग बी प्रकार के ऊतकों का उल्लेख किया है। किंतु, आजकल केवल चार प्रकार के मुख्य ऊतकों (द्र. ऊतक) को मान्यता प्राप्त है, जिनके नाम हैं : इपीथिलियमी (epithelial), संयोजक (connective), पेशीय (musclar) और तंत्रिकीय ऊतक (nervous tissues)।

आदिकाल से ही मनुष्य पशु - पक्षियों और पेड़-पौधों को उनकी आकृति तथा आकार के द्वारा पहचानता रहा है। विज्ञान के विकास के साथ वनस्पतियों तथा जंतुओं के शरीर के भीतर की संरचना जानने की भी जिज्ञासा उत्पन्न होती गई। इसी जिज्ञासा के फलस्वरूप शल्यक्रिया (surgery) का विकास हुआ। चिकित्सा तथा जीववैज्ञानिकों ने पशु और वनस्पतियों की चीरफाड़ करके उनके अंग की संरचनाओं-अंग प्रतयंगों-का अध्ययन आरंभ किया। इसी अध्ययन के फलस्वरूप संपूर्ण शारीर (gross anatomy) की उत्पत्ति हुई। इसी के साथ जब सूक्ष्मदर्शी यंत्रों (microscopes) का विकास हुआ तो जटिल आंतरिक संरचनाएँ भी स्पष्ट होती गई। इस सूक्ष्मदर्शीय यांत्रिक अध्ययन को भौतिकी की संज्ञा प्रदान की गई। अत: ब्लूम तथा फॉसेट के शब्दों में 'ऊतिकी या सूक्ष्मदर्शी शारीर के अंतर्गत शरीर की वह आंतरिक संरचना आती है जो नंगी आँखों से नहीं दिखलाई देती

समस्त सजीव प्राणियों की संरचनात्मक तथा क्रियात्मक (functional) इकाई कोशिका (cell) होती है। इसी कोशिका के अध्ययन को कोशिका विज्ञान (cytology) कहा जाता है। कोशिकाओं के पुंजों (groups) से ऊतकों और ऊतकों से अंगों की रचना होती हैं। ऊतकों की संरचना का अध्ययन करनेवाले विज्ञान को औतिकी तथा अंगों की संरचना का अध्ययन करनेवाले विज्ञान को शारीर कहते हैं। ऊतिकी तथा कोशिका विज्ञान के अध्ययनों के कारण शरीर के दुर्भेद्य रहस्यों का भेदन होता गया। इन दोनों के संमिलित अध्ययन से ऊतिकी-रोग-विज्ञान (histopathology) का विकास हुआ।

सन्‌ 1932 में नॉल एवं रस्का ने इलेक्ट्रान माइक्रॉस्कोप का आविष्कार किया, जिससे कोशिकाओं तथा ऊतकों की जटिलतम संरचनाओं का स्पष्टीकरण हुआ। इसी के साथ साथ शरीरक्रियाविज्ञान (physiology) का भी विकास होता गया और नए नए रहस्यों का निरावरण संभव हुआ। इस प्रकार इन तीनों विज्ञानों के सम्मिलित प्रयास से जीववैज्ञानिक क्षेत्र में अभूतपूर्व क्रांति आई है। ऊतिकी और कोशिकाविज्ञान मुख्य रूप से सूक्ष्म संरचनाओं के आकारकीय स्वरूप को स्पष्ट करते हैं। किंतु जब से एनिलीन रंजकों (aniline dyes) का अन्वेषण हुआ तब से कोशिकाओं की जटिल संरचनाओं का भी ज्ञान प्राप्त होने लगा है। आज सैंकड़ों प्रकार के रंजकों का प्रयोग करके सूक्ष्म से सूक्ष्म संरचनाओं पर प्रकाश डाला जा रहा है। इस प्रकार, ऊतिकी के क्षेत्र में अब रसायनविज्ञान का भी प्रवेश हो गया है। भाँति भाँति के स्थायीकरों (fixatives) के प्रयोग से रंजकों की रासायनिक प्रतिक्रियाओं का समुचित ज्ञान प्राप्त हो रहा है। जीवद्रव्य (protoplasm), कोशिका द्रव्य (cytoplasm) तथा उनमें और कोशिकाओं के अनेक अंगकों (organelles) की रासायनिक संरचनाओं का ज्ञान अब सर्वसाधारण के लिए सुलभ है। ये अंगक किस प्रकार विशेषीकृत कार्य संपादित करते हैं, यह अब अज्ञात नहीं रह गया। सूक्ष्म संरचनाओं (microscopic structure) की रासायनिक प्रकृति के अध्ययन को ऊतिकीरसायन (histochemistry) या कोशिकारसायन (cytochemistry) कहा जाता है और अब ऊतिकी तथा ऊतिकीरसायन का एक साथ अध्ययन किया जाता है।

हेलेन डीन के मतानुसार इस प्रकार की अध्ययनविधियों की तीन प्रमुख कोटियाँ हैं: (1) ऊतकों के आंतरिक रासायनिक पदार्थो की, उनके वर्ण की परीक्षा (colour test) की प्रतिक्रियाओं और उनकी प्रकाशिक विशेषताओं (optic characters) की पृष्ठभूमि में पहचान (identification)। ये विधियाँ सामान्यतया गुणात्मक (qualitative) ही होती हैं, संख्यात्मक (quantitative) नहीं। इसका कारण यह है कि इन विधियों से रासायनिक पदार्थों के विस्तार (distribution) का ही पता चलता है, उनकी सांद्रता (concentration) कितनी है, इसका ज्ञात नहीं हो पाता। (2) लिंगरस्ट्रोम तथा लैंग द्वारा विकसित अनस्थायीकृत (undixed) तथा आलग्न विच्छेदों (frozen sections) की जैवरासायनिक क्रियाओं (biological activities) की माप इस विधि की दूसरी विशेषता है। (3) अंत में, इस विधि द्वारा यह पता लगाया जाता है कि कोशिकाओं के एकल घटकों (isolated constituents) की क्या प्रतिक्रियाएँ होती हैं। इस विधि को बेन्स्ले ने विकसित किया था। इसके अंतर्गत कोशिकाओं के केंद्रकों (nuclei), माइटोकॉण्ड्रिया (mitochondria) स्रावी कणिकाओं (secietory granules) आदि को पृथक करके उनकी रासायनिक तथा एंजाइमी (enzymatically) परीक्षाएँ की जाती हैं।

बेली की ऊतिकी विषय पर लिखी पुस्तक में ऊतक विज्ञान के साथ ही कोशिका वैज्ञानिक अध्ययन पर भी बल दिया गया है। बेली के मतानुसार, चूँकि ऊतक-विज्ञान संरचना संबंधी अध्ययन (structural science) है और विच्छेदन (disection) द्वारा प्राप्त शरीररचना संबंधी ज्ञान की पूर्ति करता है, अत: इसके शरीर-क्रिया-विज्ञान (physiology) तथा रोगविज्ञान (pathology) से घनिष्ठ संबंध पर भी बल देना आवश्यक है। (बेलीज़ टेक्स्ट बुक ऑव हिस्टोलॉजी, संशोधक विल्फ़ेड एम. कोपेनहावर एवं डोरोथी डी. जॉनसन, विलियम्स ऐंड विल्किन्स कं. बाल्टीमोर, 14वीं आवृत्ति, 1958)। इनके मतानुसार भी ऊतक विज्ञान का आधार कोशिकाशारीर (cell anatomy) अथवा कोशिकाविज्ञान (cytology) ही है।

उपर्युक्त विवरण से यह प्रकट होता है कि कोशिकाविज्ञान तथा ऊतकविज्ञान का एक साथ अध्ययन किया जाना चाहिए। चूँकि कोशिकाएँ अतिसूक्ष्म संरचनाएँ होती हैं, अत: हम ऊतक विज्ञान को सूक्ष्मशारीर (microscopic anatomy) का ही पर्याय मानकर ऊतिकी का अध्ययन करेंगे। चूँकि ऊतक कोशिकाओं द्वारा ही बने होते हैं, अत: ऊतिकी का अध्ययन हम कोशिकाओं के ही माध्यम से करेंगे।

ऊतिकीय विधियाँ - ऊतकों के सम्यक्‌ अध्ययन के लिए यह आवश्यक है कि सूक्ष्मदर्शक यंत्र तक उन्हें लाने के पूर्व उनको विशेष पद्धतियों द्वारा उपचार (treatment) किया जाए। ऊतक का सूक्ष्म अध्ययन करने के लिए यह अनिवार्य है कि वह अति पतला हो। जीवित ऊतक के विभिन्न भागों में बहुत समानताएँ पाई जाती हैं। अत: उसका ठीक ठीक अध्ययन संभव नहीं होता। इन कठिनाइयों को दूर करने के लिए सर्वप्रथम ऊतक को 4 से 8 माइक्रॉन तक विच्छेदित कर लिया जाता है। इस कार्य के लिए 'माइक्रोटोम' यंत्र का प्रयोग किया जाता है। जीवित ऊतक का इतना सूक्ष्म विच्छेद तब तक संभव नहीं होता, जब तक वह कड़ा न हो। अत: ऊतक को कड़ा करने के लिए उसे विशेष प्रकार के रसायनों के घोल में स्थायीकृत (fix) किया जाता है। स्थायीकरण के उपरांत इस ऊतक को अलकोहलों के विभिन्न घोलों, अभिरंजकों (stains) तथा अन्य रसायनों में उपचार (treat) करके निर्जल कर लिया जाता है। अंत में इसे विशेष ताप पर पहले से ही गलाकर तैयार रखा जाता है, डाल दिया जाता है। कुछ समय बाद मोम के साथ ही ऊतक के टुकड़ों को चतुर्भुजाकार (rectangular) साँचे में डाल दिया जाता है। जब मोम जमकर कड़ा हो जाता है, तो उसके छोटे छोटे टुकड़े काट लिए जाते हैं। अंत में इन टुकड़ों को माइक्रोटोम के विशेष भाग में जमाकर उसमें एक अति धारदार चाकू (razor) से विशेष मोटाई के अनेक सेक्शन काट लिए जाते हैं। इन सेक्शनों को काँच की पट्टियों पर रखकर अध्ययन के लिए रख लिया जाता है। काँच की पट्टियों को हीटिंग प्लेट पर रखकर उनका मोम गला लिया जाता है और ऊतक का सेक्शन काँच की पट्टी पर जम जाता है। इन सेक्शनों से लदी काँच की पट्टियों को विशेष रसायनों तथा अल्कोहल के घोलों में निर्जल कर लिया जाता है। फिर इसे डाइलीन या सेडार उड आयल में भिगो दिया जाता है। अब यह सेक्शन सूक्ष्म अध्ययन के लिए तैयार हो गया।

इन सेक्शनों के सूक्ष्म अध्ययन के लिए भाँति-भाँति के माइक्रॉस्कोपों (जैसे, फ़ेज़ कन्ट्रास्ट, इलेक्ट्रॉन आदि) का प्रयोग किया जाता है। आजकल ऊतकों का अध्ययन करने के लिए इस प्रकार के माइक्रॉस्कोपों का अत्यधिक प्रयोग होने लगा है। इस सूक्ष्म अध्ययन के लिए ऊतिकीरसायन (histochemestry) और विकिरण स्वचित्रण (radioau ography) विधियों का प्रयोग किया जाने लगा है।

ऊतिकीरसायन के अंतर्गत ऊतकों के विभिन्न भागों की रासायनिक संरचना का अध्ययन होता है। विकिरण स्वचित्रण विधि में जीवित जतु के विशेष ऊतक में विशेष प्रकार के रेडियोआइसोटोपों का प्रवेश कराया जाता है। इस प्रकार से उपचारीकृत ऊतकों को जंतुशरीर से बाहर निकालकर सेक्शन बना लिए जाते हैं। इन सेक्शनों को डार्क रूम में ले जाकर फोटोग्राफी के विशेष रसायनों द्वारा अनुलेपित कर लेते हैं, या फिल्म के नीचे रखकर मजबूती से बाँध देते हैं। कुछ समय बाद इन्हें अँधेरे कक्ष (dark room) से बाहर निकालकर स्थायीकृत कर लिया जाता है। तत्पश्चात्‌ इन्हें प्रकाश में लाकर इनका अध्ययन किया जाता है।

ऊतकों का अध्ययन उनकी सूक्ष्म संरचना का ज्ञान प्राप्त करने के लिए किया जाता है। अत: ऊतकी की संरचना का संक्षिप्त उल्लेख आवश्यक है।

ऊतकों की संरचना (structure of tissues)-ऊतकों की संरचना में तीन प्रकार के मुख्य घटक दिखलाई देते हैं : कोशिकाएँ, मैट्रिक्स तथा तरल द्रव्य।

(1) कोशिकाएँ (cell) -ऊतकों की इकाई कोशिका होती है। कोशिकाएँ सजीव होती हैं तथा वे सभी कार्य करती हैं, जिन्हें सजीव प्राणी करते हैं। इनका आकार अतिसूक्ष्म तथा आकृति गोलाकार, अंडाकार, स्तंभाकार, रोमकयुक्त, कशाभिकायुक्त, बहुभुजीय आदि प्रकार की होती है। ये जेली जैसी एक वस्तु द्वारा आवृत्त होती हैं। इस आवरण को कोशिकावरण (cell membrane) या कोशिका-झिल्ली कहते हैं। इसे कभी-कभी जीव-द्रव्य-कला (plasma membrane) भी कहा जाता है। इसके भीतर निम्नलिखित संरचनाएँ पाई जाती हैं:-

(1) केंद्रक एवं केंद्रिका

(2) जीवद्रव्य

(3) गोल्गी सम्मिश्र या यंत्र

(4) कणाभ सूत्र

(5) अंतर्प्रद्रव्य डालिका

(6) पित््रयसूत्र एवं जीन

(7) रिबोसोम तथा सेन्ट्रोसोम

(8) लवक

(1) केंद्रक (nucleus)-एक कोशिका में सामान्यतया एक ही केंद्रक होता है, किंतु कभी-कभी एक से अधिक केंद्रक भी पाए जाते हैं। कोशिका के समस्त कार्यों का यह संचालन केंद्र होता है। जब कोशिका विभाजित होती है तो इसका भी विभाजन हो जाता है। केंद्रक कोशिका के भीतर एक तरल पदार्थ कोशिकाद्रव्य (cytoplasm) में प्राय: तैरता रहता है। इसका यद्यपि कोई निश्चित स्थान नहीं होता, तथापि यह अधिकतर लगभग मध्यभाग में ही स्थित होता है। कुछ कोशिकाओं में इसकी स्थिति आधारीय (basal) और कुछ में सीमांतीय (peripheral) भी होती है। केंद्रक की आकृति गोलाकार, वर्तुलाकार या अंडाकार होती है। तथापि, कभी-कभी यह बेलनाकार, दीर्घवृत्ताकार, सपात, शाखान्वित, नाशपाती जैसा, भालाकार आदि स्वरूपों का भी हो सकता है। इसके भीतर केंद्रकरस (nuclear sap) केंद्रिका (nucleolus) तथा पित््रयसूत्र (chromosomes) पाए जाते हैं। केंद्रक के आवरण को केंद्रककला (nuclear membrance or nucleolemma) कहते हैं।

केंद्रिका (Nucleolus)-प्रत्येक केंद्रक में एक या अधिक केंद्रिकाएँ पाई जाती हैं। कोशिकाविभाजन की कुछ विशेष अवस्था में केंद्रिका लुप्त हो जाती, किंतु बाद में पुन: प्रकट हो जाती है। केंद्रिका के भीतर रिबोन्यूक्लीइक अम्ल (ritioncleric acid or RNA) तथा कुछ विशेष प्रकार के एंज़ाइम अधिक मात्रा में पाए जाते हैं। केंद्रिका सूत्रण (mitosis) या सूत्रीविभाजन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं।

(2) जीवद्रव्य (protoplasm)-यह एक गाढ़ा तरल पदार्थ होता है जो स्थानविशेष पर विशेष नामों द्वारा जाना जाता है; जैसे, द्रव्यकला (plasma membrane) तथा केंद्रक के मध्यवर्ती स्थान में पाए जानेवाले जीवद्रव्य को कोशिकाद्रव्य (cyt plasm) और केंद्रक झिल्ली (nuclear membrane) के भीतर पाए जानेवाले जीवद्रव्य को केंद्रक द्रव्य (nucleoplasm) कहते हैं। कोशिका का यह भाग अत्यंत चैतन्य और कोशिका की समस्त जैवीय प्रक्रियाओं का केंद्र होता है। इसे इसीलिए 'सजीव' (living) कहा जाता है। जीववैज्ञानिक इसे 'जीवन का भौतिक आधार' (physcial basis of life) नाम से संबोधित करते हैं। आधुनिक जीववैज्ञानिकों ने जीवद्रव्य का रासायनिक विश्लेषण करके यह तो पता लगा लिया है कि उसका निर्माण किन-किन घटकों द्वारा हुआ है, किंतु आज तक किसी भी वैज्ञानिक को उसमें (जीवद्रव्य) प्राण का संचार करने में सफलता हाथ नहीं लगी है। ऐसा है यह प्रकृति का रहस्यमय पदार्थ।

जीवद्रव्य का निर्माण कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन तथा अनेक कार्बनिक (organic) तथा अकार्बनिक (inorganic) पदार्थो द्वारा हुआ होता है। इसमें जल की मात्रा लगभग 80% प्रोटीन 15% ,वसाएँ 3% तथा कार्बोहाइड्रेट 1% और अकार्बनिक लवण की 1 होती है। जीवद्रव्यों के कई प्रकार होते हैं, जैसे कोलाइड (colloid), कणाभ (granular), तंतुमय (fibrillar), जालीदार (reticular), कूपिकाकार (alveolar), आदि।

(3) गोल्गी सम्मिश्र या यंत्र (Golgi complex or apparatus)-इस अंग का यह नाम इसके आविष्कारक, कैमिलो गोल्गी, के नाम पर पड़ा है, जिन्होंने 1898 में सर्वप्रथम इसकी खोज की। यह अंग साधारणतया केंद्रक के समीप, अकेले या समूहों में पाया जाता है। इसकी रचना तीन तत्वों (elements) या घटकों (components) द्वारा हुई होती है : सपाट कोश (flattened sacs), बड़ी बड़ी रिक्तिकाएँ (large vacueles) तथा आशय (vesicles)। यह एक प्रकार के जाल (network) जैसा दिखलाई देता है। इनका मुख्य कार्य कोशिकीय स्रवण (cellular secretion) और प्रोटीनों, वसाओं तथा कतिपय किण्वों (enzymes) का भडारण करना (storage) है।

(4) कणाभसूत्र (Mitochondria)-ये कणिकाओं (granules) या शलाकाओं (rods) की आकृतिवाले होते हैं। ये अंगक (organelle) कोशिकाद्रव्य (cytoplasm) में स्थित होते हैं। इनकी संख्या विभिन्न जंतुओं में पाँच लाख तक हो सकती है। इनका आकार 1/2 माइक्रॉन से लेकर 2 माइक्रॉन के बीच होता है। विरल उदाहरणों (rare cases) में इनकी लंबाई 40 माइक्रॉन तक हो सकती है। इनके अनेक कार्य बतलाए गए हैं, जो इनकी आकृति पर निर्भर करते हैं। तथापि इनका मुख्य कार्य कोशिकीय श्वसन (cellular respiration) बतलाया जाता है। इन्हें कोशिका का 'पावर प्लांट' (power plant) कहा जाता है, क्योंकि इनसे आवश्यक ऊर्जा (energy) की आपूर्ति होती रहती है।

(5) अंतर्प्रद्रव्य जालिका (fndoplasmic reticulum)-यह जालिका कोशिकाद्रव्य (cytoplasm) में आशयों (vesicles) और नलिकाओं (tubules) के रूप में फैली रहती है। इसकी स्थिति सामान्यतया केंद्रकीय झिल्ली (nuclear membrane) तथा द्रव्यकला (plasma membrane) के बीच होती है, किंतु यह अकसर संपूर्ण कोशिका में फैली रहती है। यह जालिका दो प्रकार की होती है : चिकनी सतहवाली (smooth surfaced) और खुरदुरी सतहवाली (rough surfaced)। इसकी सतह खुरदुरी इसलिए होती है कि इसपर रिबोसोम (ribosomes) के कण बिखरे रहते हैं। इसके अनके कार्य बतलाए गए हैं, जैसे यांत्रिक आधारण (mechanical support), द्रव्यों का प्रत्यावर्तन (exchange of materials), अंत: कोशिकीय अभिगमन (intracellular transport), प्रोटोन संश्लेषण (protein synthesis) इत्यादि।

(6) पित्यसूत्र (chromosomes)–यह शब्द क्रोम (chrom) तथा सामा (soma) शब्दों से मिलकर बना है, जिसका अर्थ होता है : रंगीन पिंड (colour bodies)। पित््रयसूत्र केंद्रकों के भीतर जोड़ों (pairs) में पाए जाते हैं और कोशिकाविभाजन के साथ केंद्रक सहित बाँट जाया करते हैं। इनमें स्थित जीवों की पूर्वजों के पैत्रिक गुणों का वाहक कहा जाता है। इनकी संख्या जीवों में निश्चित होती है, जो एक दो जोड़ों से लेकर कई सौ जोड़ों तक हो सकती है। इनका आकार 1 माइक्रॉन से 30 माइक्रॉन तक (लंबा) होता है। इनकी आकृति साधारणतया अंग्रेजी भाषा के अक्षर S जैसी होती हैं। इनमें न्यूक्लिओ-प्रोटीन (nucleoprotein) मुख्य रूप से पाए जाते हैं। पित््रयसूत्रों के कुछ विशेष प्रकार भी पाए जाते हैं, जिन्हें लैंपब्रश पित््रयसूत्र (lampbrush chromosomes) और पोलोटीन क्रोमोसोम (polytene chromosomes) की संज्ञा दी गई है। इन्हें W, X, Y, Z, आदि नामों से संबोधित किया जाता है।

जीन (gene)-जीनों को पैत्रिक गुणों का वाहक (carriers of hereditary characters) माना जाता है। कोमोसोम या पित््रयसूत्रों का निर्माण हिस्टोन प्रोटीन तथा डिऑक्सीरिबोन्यूक्लीइक ऐसिड (DNA) तथा रिबोन्यूक्लीइक ऐसिड (RNA) से मिलकर हुआ होता है। जीन का निर्माण इन्हीं में से एक, डी एन,ए, द्वारा होता है। कोशिका विभाजनों के फलस्वरूप जब नए जी के जीवन का सूत्रपात होता है, तो यही जीन पैत्रिक एवं शरीरिक गुणों के साथ माता पिता से निकलकर संततियों में चले जाते हैं। यह आदान प्रदान माता के डिंब (ovum) तथा पिता के शुक्राणु (sperms) में स्थित जीनों के द्वारा संपन्न होता है। सन्‌ 1970 के जून मास में अमरीका स्थित भारतीय वैज्ञानिक श्री हरगोविंद खुराना को कृत्रिम जीन उत्पन्न करने में अभूतपूर्व सफलता मिली थी। इन्हें सन्‌ 1978 में नोबेल पुरस्कार मिला था।

(7) रिबोसोम (ribosomes)-सूक्ष्म गुलिकाओं के रूप में प्राप्त इन संरचनाओं को केवल इलेक्ट्रॉन माइक्रॉस्कोप के द्वारा ही देखा जा सकता है। इनकी रचना 50% प्रोटीन तथा 50% आर एन ए द्वारा हुई होती है। ये विशेषकर अंतर्प्रद्रव्य जालिका के ऊपर पाए जाते हैं। इनमें प्रोटीनों का संश्लेषण होता है।

सेंट्रोसोम (centrosomes)–ये केंद्रक के समीप पाए जाते हैं। इनके एक विशेष भाग को सेंट्रोस्फीयर (centrosphere) कहते हैं, जिसके भीतर सेंट्रिओलों (centrioles) का एक जोड़ा पाया जाता है। कोशिकाविभाजन के समय ये विभाजक कोशिका के ध्रव (pole) का निर्धारण और कुछ कोशिकाओं में कशाभिका (flagella) जैसी संरचनाओं को उत्पन्न करते हैं।

(8) लवक (plastids)-लवक अधिकतर पौधों में ही पाए जाते हैं। ये एक प्रकार के रंजक कण (pigment granules) हैं, जो जीवद्रव्य (protoplasm) में यत्रतत्र बिखरे रहते हैं। क्लोरोफिल (chlorophyll) धारक वर्ण के लवक को हरित्‌ लवक (chloroplas) कहा जाता है। इसी के कारण वृक्षों में हरापन दिखलाई देता है। क्लोरोफिल के ही कारण पेड़ पौधे प्रकाश संश्लेषण (photosynthesis) करते हैं। कुछ वैज्ञानिकों के मतानुसार लवक कोशिकाद्रव्यीय वंशानुगति (cytoplasmic inheritance) के रूप में कोशिका विभाजन के समय संततिकोशिकाओं में सीधे सीधे स्थानांतरित हो जाते हैं।

(2) मैट्रिक्स (matrix)-मैट्रिक्स या आधात्री को इंटर्सेल्यूलर (intercellular) या ग्राउंड सब्स्टैंस (ground substance) भी कहा जाता है। जैसा नाम से ही स्पष्ट है, यह कोशिकाओं के मध्य भाग में स्थित होकर उन्हें परस्पर जोड़ने का कार्य करती है। ये सजीव तथा निर्जीव दोनों प्रकार की होती हैं। साधारणतया आधातृ संयोजक ऊतकों (connective tissues) में पाई जाती हैं। यह तंतु या रेशों द्वारा बनी होती है, जो तीन प्रकार के होते हैं : कॉलाजनी (collagenous), जालीदार (reticluar) तथा एलास्टिक (elastic)। यह सजातीय या समांगी (homogenous) पदार्थ होता है जो तरल अथवा जिलेटिन जैसी स्थित में रहता है। यह उपकला (epithelium), कोशिकाओं (capillaries) तथा छोटी-छोटी शिराओं (veins) के नीचे जमी रहती है। इसमें म्यूकोपोलीसैक्केराइड अम्ल (mucopolysaccharide acids) पाए जाते हैं। आधात्री कोमल (soft) तथा दृढ़ (firm) दोनों प्रकार की होती है।[1]

(3) तरल पदार्थ-ऊतकों में तरल पदार्थ भी होते हैं, जिनमें रक्त और लसीका (lymph) मुख्य हैं। ये दोनों आशयों (vesicles) अथवा नलिकाओं (tubules) से होकर प्रवाहित होते हैं। ऊतक तरल (tissue fluid) कोशिकाओं को तर रखता है। अधातु के ही कारण शरीर का स्वरूप (Form) बना रहता है। जंतु का शरीर वस्तुत: और कुछ नहीं, अपितु अंत: कोशिकीय पदार्थ अथवा आधातृ का महल मात्र है, जिसमें अनेक रंग रूप और आकार प्रकार की अरबों कोशिकाओं की ईटें चुनी होती हैं। ये कोशिकाएँ अपने उत्पादों का आदान प्रदान करती हुई अपना जीवन व्यतीत करती रहती हैं।

ऊतक विज्ञान शरीर के अंगतंत्रों की भी सम्यक्‌ जानकारी देता है। अंगतंत्रों की संरचना, रासायनिक प्रकृति एवं कार्यविधियों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए ऊतक विज्ञान का सहारा लेना पड़ता है।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 2 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 179 |
  2. सं.ग्रं.-बेलीज़ टेक्स्ट बुक ऑव हिस्टोलॉजी; रिवाइज्ड़ बाइविल्फ्रडे एम. कोपेनहैवर (संपादक) एवं डोरोथी डी. जॉनसन; 14वीं आवृत्ति; विलियम्स ऐंड विल्किन्स कं., बाल्टीमोर, 1958; बोर्न, जी.एच. (संपादक); साइटोलॉजी; ऐंड सेल फ़िज़िओलॉजी; तृतीय आवृत्ति; एकेडेमिक प्रेस, न्यूयार्क; 1964; ब्लूम, विलियम एवं डॉन डब्ल्यू. फॉसेट, ए टेक्स्ट बुक आफॅ हिस्टोलॉजी; 9वीं एशियन आवृत्ति; डब्ल्यू.वी.सॉण्डर्स कं., फ़िलॉडेल्फ़िया (इगाकू शोइन लि. टोकियो), 1970; डी. रॉबर्टीज़ ई. पी.डी. डब्ल्यू, डब्ल्यू., नोपिन्स्की ऐंड एफ़.ए.सेज : जेनरल साइटोलॉजी, तृतीय आवृत्ति, डब्ल्यू.बी.सॉण्डर्स कं. फिला., 1960; ग्रीप, आर.ओ. (संपादक) : हिस्टोलॉजी, मैक्ग्रा हिल बुक कं. न्यूयॉर्क, 1954।

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