कवितावली (पद्य)-लंका काण्ड
लंका काण्ड
लंका काण्ड प्रारंभ
राक्षसों की चिंता
बड़े बिकराल भालु- बानर बिसाल बड़े,
‘तुलसी’ बड़े पहार लै पयोधि तोपिहैं।
प्रबल प्रचंड बरिबंड बाहुदंड खंडि ।
मंडि मेदिनी को मंडलीक-नीक लोपिहैं।।
लंकदाहु देखें न उछाहु रह्यो काहुन को,
कहैं सब सचिव पुकारि पाँव रोपिहैं ।।
बाँचिहै न पाछैं तिपुरारिहू मुरारिहू के,
को है रन रारिको जौं कोसलेस कोपिहैं।1।
त्रिजटा का आश्वासन
त्रिजटा कहति बार-बार तुलसीस्वरीसों,
‘राधौ बान एकहीं समुद्र सातौं सोषिहै।
सकुल सँघारि जातुधान -धारि जम्बुकादि,
जोगिनी-जमाति कालिकाकलाप तोषिहैं।।
राजु दै नेवाजिहैं बजाइ कै बिभीषनै,
बजैंगे ब्योम बाजने बिबुध प्रेम पोषिहैं।।
कौन दसकंधु, कौन मेधनादु बापुरो,
को कुंभकर्नु कीटु, जब रामु रन रोषिहैं’।।
(3)
बिनय -सनेह सों कहति सीय त्रिजटासों ,
पाए कछु समाचार आरजसुवनके।
पाए जू, बँधायो सेतु उतरे भानुकुलकेतु,
आए देखि -देखि दूत दारून दुवनके।।
बदन मलीन, बलहीन, दीन देखि, मानो,
मिटै घटै तमीचर-तिमिर भुवनके।
लोकपति-कोक-सोक मुँदे कपि-कोकनद,
दंड द्वै रह हैं रघु -आदित-उवनके।।
झूलना
सुभुजु मारीचु खरू त्रिसिरू दूषनु बालि,
दलत जेहिं दूसरो सरू न साँध्यो।
आनि परबाम बिधि बाम तेहि रामसों ,
समि संग्रामु दसकंघु काँध्यो।।
समुझि तुससीस-कपि-कर्म घर-घर घैरू,
बिकल सुनि सकल पाथोधि बाँध्यो।
बसत गढ़ बंक, लंकेस नायक अछत,
लंक नहिं खात कोउ भात राँध्यो।4।
(5)
‘बिस्वजयी’ भृगुनाथ-से बिनु हाथ भए हनि हाथ हजारी।
बातुल मातुलकी न सुनी सिख का ‘तुलसी’ कपि लंक न जारी।
अजहूँ तौ भलो रघुनाथ मिलें, फिरि बूझिहै, को गज , कौन गजारी।
कीर्ति बड़ो, करतूति बड़ो, जन-बात बड़ो, सो बड़ोई बजारी।5।
समुद्रोचरण
जब पाहन भे बनबाहन-से, उतरे बनरा, ‘जय राम’ रढै।
‘तुलसी’ लिएँ सैल-सिला सब सोहत, सागरू ज्यों बल बारि बढैं।।
करि कोपु करैं रघुबीर को आयसु, कौतुक ही गढ़ कूदि बढ़ै।
चतुरंग चमू पलमें दलि कै रन रावन-राढ़-सुहाड़ गढै।6।
(7)
बिपुल बिसाल बिकराल कपि-भालु, मानो
कालु बहु बेष धरें, धाए किएँ करषा।
लिए सिला-सैल, साल, ताल औ तमाल तोरि,
तोपैं तोयनिधि, सुरको समाजु हरषा।।
डरे दिगकुंजर कमठु कोलु कलमले,
डोरे धराधर धारि, धराधरू धरषा।
‘तुलसी’ तमकि चलै, राधौं की सपथ करैं,
को करै अटक कपिकटक अमरषा।7।
(8)
आए सुकु, सारनु, बोलाए ते कहन लागे,
पुलक सरीर सेना करत फहम हीं।
‘महाबली बानर बिसाल भालु काल-से,
कराल हैं , रहैं कहाँ, समाहिंगे कहाँ महीं’।।
हँस्यो दसकंधु रघुनाथको प्रताप सिनि,
‘तुलसी’ दुरावे मुखु, सूखत सहम हीं।
रामके बिरोधें बुरो बिधि-हरि -हरहू को,
सबको भलो है राजा रामके रहम हीं।8।
(9)
‘आयो! आयो! आयो सोई बानर बहोरि!’ भयो,
सोरू चहुँ ओर लंका आएँ जुबराजकें।
एक काढैं़ सौंज, एक धौंज करैं, ‘कहा ह्वैहै,
पोच भाई’, महासोचु सुभअसमाज कें।।
गाज्यो कपिराजु रघुनाथकी सपथ करि ,
मूँदे कान जातुधान मानो गाजें गाजकें।
सहमि सुखात बातजातकी सुरति करि,
लवा ज्यों लुकात, तुलसी झपेटें बाजकें।9।
(10)
तुलसी बल रघुबीरजू कें बालिसुतु
वाहि न गनत, बात कहत करेरी -सी।
‘बकसीस ईसजू की खीस होत देखिअत,
रिस काहें लागति, कहत हौं मै तेरी-सी।।
चढ़ि गढ़-मढ़ दृढ़, कोटकें कँगूरें,
कोपि, नेकु धका देहैं ढेलनकी ढेरी-सी।।
सुनु दसमाथ! नाथ-साथके हमारे मपि
हाथ लंका लाइहैं तौ रहेगी हथेरी-सी।10।
(11)
दूषनु, बिराधु, खरू, त्रिसिरा, कबंधु बधे,
तालाऊ बिसाल बेधे, कौतुकु है कालिको।
एक ही बिसिष बस भयो बीर बाँकुरो सो,
तोहू है बिदित बलु महाबली बालिको।।
‘तुलसी’ कहत हित मानतो न नेकु संक,
मेरो कहा जैहै, फलु पैहै तू कुचालिको।
बीर-करि -केसरी कुठारपानि मानी हारि,
तेरी कहा चली, बिड़! तेासे गनै घालि को।।
(12)
तोसों कहौं दसकंघर रे, रघुनाथ बिरोधु न कीजिए बौरे।
बालि बली, खरू, दूषनु और अनेक गिरे जे-जे भीतिमें दौरे।।
ऐसिअ हाल भई तोहि धौं, न तु लै मिलु सीय चहै सुखु जौं रे।
रामके रोष न राखि सकैं तुलसी बिधि, श्रीपति, संकरू सौ रे।12।
(13)
तूँ रजनीचरनाथ महा, रघुनाथके, सेवकको जनु हौं हौं।
बलवान है स्वानु गलीं अपनीं, तोहिं लाज न गालु बजावत सौहौं।
बीस भुजा, दस सीस हरौं, न डरौं , प्रभु -आयसु -भंग तें जौं हौं।
खेतमें केहरि ज्यों गजराज दलौं दल, बालिको बालकु तौ हौं।13।
(14)
कोसलराजके काज हौं आजु त्रिकूटु उपारि , लै बारिधि बोरौं।
महाभुजदंड द्वै अंडकटाह चपेटकीं चोट चटाक दै फोरौं।
आयस भंगतें जौं न डरौं , सब मीजि सभासद श्रोनित घोरौं।
बालिको बालकु जौं, ‘तुलसी’ दसहू मुखके रनमें रद तोरौं।14।
(15)
अति कोपसों रोप्यो है पाउ सभाँ, सब लंक ससंकित, सोरू मचा ।
तमके घननाद-से बीर प्रचारि कै, हारि निसाचर-सैनु पचा।।
न टरै पगु मेरूहु तें गरू भो, सो मनो महि संग बिरंचि रचा।
‘तुलसी’ सब सूर सराहत हैं, जग में बल सालि है बालि-बचा।15।
(16)
रोप्यो पाउ पैज कै, बिचारि रघुबीर बलु,
लागे भट समिटि, न नेकु टसकतु है।
तज्यो धीरू-धरनीं, धरनीधर धसकत,
धराधरू धीर भारू सहि न सकतु है।।
महाबली बालिकें दबत दलकति भूमि,
‘तुलसी’ उछाल सिंधु, मेरू मसकतु है।
कमल कठिन पीठि घट्ठा पर्यो मंदरको,
आयो सोई काम, पै करेजो कसकतु है।16।
रावण ओर मंदोदरी
कनकगिरिसृंग चढ़ि देखि मर्कटकटकु,
बदत मंदोदरी परम भीता।
सहसभुज-मत्तगजराज-रनकेसरी,
परसुधर गर्बु जेहि देखि बीता।।
दास तुलसी समरसूर कोसलधनी,
ख्याल हीं बालि बलसालि जीता।
रे कंत! तृन गहि ‘सरन श्रीरामु’ कहि,
अजहूँ एहि भाँतिल ै सौंपु सीता।17।
(18)
रे नीचु! मरीचु बिचलाइ, हति ताड़का,
भंजि सिवचापु सुखु सबहि दीन्हों ।
सहज दसचारि खल सहित खर-दूषनहिं,
पैठै जमधाम, तैं तउ न चीन्ह्यों।।
मैं जो कहौं, कंत! स्ुनु मंतु भगवंतसो,
बिमुख ह्वै बालि फलु कौन लीन्ह्यो।
बीस भुज, दस सीस खीस गए तबहिं जब,
ईसके ईससों बैरू कीन्ह्यो।18।
(19)
बालि दलि, काल्हि जलजान पाषान किये,
कंत! भगवंतु तैं तउ न चीन्हें।
बिपुल बिकराल भट भालु -कपि काल-से,
संग तरू तुंग गिरिसृंग लीन्हें।
आइगो कोसलाधीसु तुलसीस जेहिं
छत्र मिस मौलि दस दुरि कीन्हें।
ईस बससीस जनि खीस करू,
ईस! सुनु, अजहूँ कुलकुसल बैदेहि दीन्हें।19।
(20)
सैनके कपिन को को गनै ,
अर्बुदै महाबलबीर हनुमान जानी।
भूलिहै दस दिसा, सीस पुनि डोलिहैं,
कोपि रघुनाथु जब बान तानी।
बालिहूँ गर्बु जिय माहिं ऐसो कियो
मारि दहपट दियो जमकी घानीं।
कहति मंदोदरी, सुनहि रावन!
मतो बेगि लै देहि बैदेहि रानी।20।
(21)
गहनु उज्जारि , पुरू जारि, सुतु मारि तव,
कुसल गो कीसु बर बैरि जाको।
दूसरो दूतु पनु रोपि कोपेउ सभाँ,
खर्ब कियो सर्बको , गर्बु थाको।।
दासु तुलसी सभय बदत मयनंदिनी,
मंदमति कंत, सुनु मंतु म्हाको।
तौलौं मिलु बेगि, नहि जौलौं रन रोष भयो,
दासरथि बीर बिरूदैत बाँको।21।
(22)
काननु उजारि , अच्छु मारि, धारि धूरि कीन्हीं,
नगरू प्रजार्यो , सो बिलोक्यो बलु कीसको।
तुम्हैं बिद्यमान जातुधानमंडली कपि,
कोपि रोप्यो पाउ, सो प्रभाउ तुलसीको।।
कंत! स्ुनु मंतु कुल-अंतु किएँ अंत हानि,
हातो कीजै हीयतें भरोसो भुज बीसको।
तौलौं मिलु बेगि जौलौं चापु न चढ़ायो राम,
रोषि बानु काढ्यो न दलैया दससीसको।22।
(23)
पवनको पूतु देख्यो दूतु बीर बाँकुरो, जो
बंक गढ़ लंक-सो ढकाँ ढकेलि ढाहिगो।
बालि बलसालिको सो काल्हि दापु दलि कोपि,
रोप्यो पाउ चपरि, चमूको चाउ चाहिगो।।
सोई रघुनाथु कपि साथ पाथनाथु बाँधि,
आयो आयो नाथ! भागे तें खिरिरि खेह खाहिगो।
‘तुलसी’ गरबु तजि मिलिबेकेा साजु सजि,
देहि सिय, न तौ पिय! पाइमाल जाइगो।23।
(24)
उदधि अपार उतरत नहिं लागी बार,
केसरीकुमारू सो अदंड-कैसो डाँड़िगो।
बाटिका उजारि , अच्छु , रच्छकनि मारि भट,
भारी भारी राउरेके चाउर-से काँडिगो।।
‘तुलसी’ तिहारें बिद्यमान जुबराज आजु,
कोपि पाउ रोपि, सब छूछे कै कै छाँडिगो।
कहेकी न लाज , पिय ! आजहूँ न आज बाज,
सहित समाज गढु राँड-कैसो भाँड़िगो।24।
(25)
जाके रोष-दुसह-त्रिदोष-दाह दुरि कीन्हे,
पैअत न छत्री-खोज खोजत खलकमें।
माहिषमतीको नाथ साहसी सहस बाहु,
समर-समर्थ नाथ! हेरिए हलकमें।।
सहित समाज महाराज सो जहाजराजु
बूड़ि गयो जाके बल-बारिधि -छलकमें।
टूटत पिनाककें मनाक बाम रामसे, ते,
नाक बिनु भए भृगुनायकु पलकमें।25।
(26)
कीन्हीं छोनी छत्री बिनु छोनिप-छपनिहार,
कठिन कुठार पानि बीर-बानि जानि कै।
परम कृपाल जो नृपाल लोकपालन पै,
जब धनुहाई ह्वैहै मन अनुमानि कै।।
नाकमें पिनाक मिस बामता बिलोकि राम,
रोक्यो परलोक लोक भारी भ्रमु भानि कै।
नाइ दस माथ महि, जोरि बीस हाथ,
पिय! मिलिए पै नाथ! रघुनाथ पहिचानि कै।27।
(27)
कह्यो मातु मातुल, बिभीषनहूँ बार-बार,
आँचरू पसार पिय! पायँ लै-लै हौं परी।
बिदित बिदेहपुर नाथ! भृगुनाथगति,
समय सयानी कीन्ही जैसी आइ गौं परी।
बायस, बिराध, खर, दूषन, कबंध, बालि,
बैर रघुबीरकें न पूरी काहूकी परी।।
कंत बीस लोयन बिलोकिए कुमंतफलु,
ख्याल लंका लाई कपि राँड़की-सी झोपरी।27।
(28)
राम सों सामु किएँ नितु है हितू,
कोमल काज न कीजिए टाँठे।
आपनि सूझि कहौं , पिय!
बूझिबे जोगु न ठाहरू, नाठे।।
नाथ! सुनी भृगुनाथकथा,
बलि बालि गए चलि बातके साँठे।
भाइ बिभीषनु जाइ मिल्यो,
प्रभु आइ परे सुनि सायर काँठे।28।
(29)
पालिबेको कपि-भालु-चमू जम काल करालहुको पहरी है।
लंक-से बंक महा गढ़ दुर्गम ढाहिबे-दाहिबेको कहरी है।।
तीतर-तोम तमीचर-सेन समीर को सूनु बड़ो बहरी है।
नाथ! भलो रधुनाथ मिलें रजनीचर-सेन हिएँ हहरी हैं।29।
राक्षस बानर संग्राम
रोष्यो रन रावनु , बोलाए बीर बानइत,
जानत जे रीति सब संजुग समाजकी।
चली चतुरंग चमु, चपरि हने निसान,
सेना सराहन जोग रातिचरराजकी।
तुलसी बिलोकि कपि-भालु किलकत,
ललकत लखि ज्यों कँगाल पातरी सुनाजकी।
रामरुख़निरखि हरष्यो हियँ हनूमानु,
मानो खेलवार खोली सीसताज बाजकी।।
(31)
साजि कै सनाह -गजगाह सउछाह दल,
महाबली धाए बीर जातुधान धीरके।।
तुलसी तमकि-ताकि भिरे भारी जुद्ध क्रु्द्ध,
सेनप सराहे निज निज भट भीरके।
रूंडनके झुंड झूमि-झूमि झुकरे-से नाचैं,
समर सुमार सूर मारैं रघुबीरके।31।
(32)
तीखे तुरंग कुरंग सुरंगनि साजि चढ़े छँटि छैल छबीले।
भारी गुमान जिन्हें मनमें, कबहूँ न भए रनमें तन ढीले। ।
तुलसी लखि कै गज केेहरि ज्यों झपटे, पटके सब सूर सलीलें।
भूमि परे भट भूमि कराहत, हाँकि हने हनुमान हठीले।32।
(33)
सूर सँजोइल साजि सुबाजि, सुसल धरैं बगमेल चले हैं।
भारी भुजा भरी, भारी सरीर, बली बिजयी सब भाँति भले हैं ।।
‘तुलसी’ जिन्ह धाएँ धुकै धरनी, धरनीधर धौर धकान हले हैं।
ते रन-तीक्खल लक्खन लाखन दानि ज्यों दारिद दाबि दले हैं।33।
(34)
गहि मंदर बंदर-भालु चले,
सो मनो उनये घन सावनके।
‘तुलसी’ उत झुंड प्रचंड झुके,
झपटैं भट जे सुरदावनके। ।
बिरूझे बिरूदैत जे खेत अरे,
न टरे हठि बैरू बढ़ावनके।
रन मारि मची उपरी- उपरा
भलें बीर रघुप्पति रावनके।34।
(35)
सर तोमर सेलसमूह पँवारत, मारत बीर निसाचरके।
इत तें तरू-ताल-तमाल चले, खर खंड प्रचंड महीधरके। ।
‘तुलसी’ करि केहरिनादु भिरे भट, खग्गा खगे , खपुबा खरके।
नख-दंतन सों भुजदंड बिहंडत , मुंडसों मुंड परे झरकै।35।
(36)
रजनीचर -मत्तगयंद-घटा बिघटै मृगराजके साज लरै।
झपटै भट कोटि महीं पटकैं , गरजैं रघुबीरकी सौंह करैं।।
तुलसी उत हाँक दसाननु देत, अचेत भे बीर, को धीर धरैं।
बिरूझो रन मारूतको बिरूदैत , जो कालहु कालु सो बूझि परै।36।
(37)
जे रघुबीर बीर बिसाल, कराल बिलोकत काल न खाए।
ते रन-रोर कपीसकिसोर बड़े बरजोर परे फग पाये।
लूम लपेटि, अकास निहारि कै, हाँकि हठी हनुमान चलाए।
सूखि गे गात, चले नभ जात, परे भ्रमबात, न भूतल आए।37।
(38)
जो दससीसु महीधर ईस को बीस भुजा खुलि खेलनिहारो।
लोकप, दिग्गज, दानव, देव सबै सहमे सुनि साहसु भारो।
बीर बड़ो बिरूदैत बली, अजहूँ जग जागत जासु पँवारो।
सो हनुमान हन्यो मुठिकाँ गिरि गो गिरिराजु ज्यों गाजको मारो।38।
(39)
दुर्गम दुर्ग, पहारतें भारें, प्रचंड भारे, प्रचंड महा भुजदंड बने हैं।
लक्खमें पक्खर, तिक्खन तेज, जे सूरसमाजमे गाज गने हैं।।
ते बिरूदैत बली रनबाँकुरे हाँकि हठी हनुमान हने हैं।
नामु लै रामु देखावत बंधुको घूमत घायल घायँ घने हैं।39।
(40)
हाथिन सों हाथी मारे, घोरेसों सँघारे घोरे,
रथनि सों रथ बिदरनि बलवानकी।।
चंचल चपेट, चोट चरन चकोट चाहें,
हहरानी फौजें भहरानी जातुधानकी।।
बार-बार सेवक-सराहना करत रामु,
‘तुलसी’ सराहै रीति साहेब सुजानकी।
लाँबी लूम लसत, लपेटि पटकत भट,
देखौ देखौ , लखन! हनुमानकी।40।
(41)
जबकि दबोरे एक, बारिधि में बोरे ऐक,
मकन महीमें , एक गगन उड़ात हैं।
पकरि पछाारे कर, चरन उखारे एक,
चीरि-फारि डारे, एक मीजि मारे लात हैं।।
‘तुलसी’ लखत , रामु , रावनु, बिबुध , बिधि,
चक्रपानि, चंडीपति, चंडिका सिहात हैं।।
बड़े-बड़े , बनाइत बीर बलवान बड़े,
जातुधान , जूथप निपाते बातजात हैं।41।
(42)
प्रबल प्रचंड बारिबंड बाहुदंड बीर,
धाए जातुधान, हनुमानु लियो घेरि कै।
महाबलपुंज कंुजरारि ज्यों गरजि , भट,
जहाँ-तहाँ पटके लँगूर फेरि-फेरि कै।
मारे लात, तोरे गात, भागे जात हाहा खात,
कहैं, ‘तुलसीस! राखि’ रामकी सौं टेरि कै।
ठहर-ठहर परे, कहरि-कहरि उठैं,
हहरि -हहरि हरू सिद्ध हँसे हेरि कै।42।
(43)
जाकी बाँकी बीरता सुनत सहमत सूर,
जाकी आँच अबहूँ लसत लंक लाह-सी।
सोइ हनुमान बलवान बाँको बानइत,
जोहि जातुधान-सेना चल्यो लेत थाह-सी।
कंपत अकंपन, सुखाय अतिकाय काय,
कुंभऊकरन आइ रह्यो पाइ आह-सी।
देखें गजराज मृगराजु ज्यों गरजि धायो,
बीर रघुबीर को समीरसूनु साहसी।43।
झूलना
मत्त-भट-मुकुट, दसकंठ-साहस-सइज,
सृंग-बिद्दरनि जनु बज्र-टाँकी।
दसन धरि धरनि चिक्करत दिग्गज, कमठु,
सेषु संकुचित, संकित पिनाकी।।
चलत महि-मेरू, उच्छलत सायर सकल,
बिकल बिधि बधिर दिसि-बिदिसि झाँकी।
रजनिचर-घरनि घर गर्भ-अर्भक स्त्रवत,
सुनत हनुमानकी हाँक बाँकी।44।
(45)
कौनकी हाँकपर चौंक चंडीसु, बिधि,
चंडकर थकित फिरि तुरग हाँके।
कौनके तेज बलसीम भट भीम-से ,
भीमता निरखि कर नयन ढ़ाँके।।
दास-तुलसीसके बिरूद बरनत बिदुष,
बीर बिरूदैत बर बैरि धाँके।
नाक नरलोक पाताल कोउ कहत किन,
कहाँ हनुमानु-से बीर बाँके।45।
(46)
जातुधानवली-मत्तकुंजरघटा,
निरखि मृगराजु ज्यों गिरितें टूट्यो।
बिकट चटकन चोट , चरन गहि, पटकि महि,
निघटि गए सुभट, सतु सबको छूट्यो।।
‘दास तुलसी’ परत धरनि धरकत ,झुकत,
हाट-सी उठति जंबुकनि लूट्यो।
धीर रघुबीरको बीर रनबाँकुरो,
हाँकि हनुमान कुलि कटकु कूट्यो।46।
छप्पै
क्तहूँ बिटप -भूधर उपारि परसेन बरषत।
कतहुँ बाजिसों बाजि मर्दि, गजराज करषत।।
चरनचोट चटकन चकोट अरि-उर-सिर बज्जत।
बिकट कटकु बिद्दरत बीरू बारिदु जिमि गज्जत।।
लंगूर लपेटत पटकि भट, ‘जयति राम, जय!’ उच्चरत।
तुलसीस पवननंदनु अटल जुद्ध क्रुद्ध कौतुक करत।47।
(48)
अंग-अंग दलित ललित फूले किंसुक-से,
हने भट लाखन लखन जातुधानके।
मारि कै, पछारि कै, उपारि भुजदंड चंड,
खंडि-खंडि डारे ते बिदारे हनुमानके।
कूदत कबंधके कदम्ब बंब -सी करत,
धावत दिखावत हैं लाघौ राघौबानके।
तुलसी महेसु, बिधि, लोकपाल , देवगन,
देखत बेवान चढ़े कौतुक मसानके।48।
(49)
लोथिन सों लोहूके प्रबाह चले जहाँ-तहाँ,
मानहुँ गिरिन्ह गेरू झरना झरत हैं।
श्रोनितसरित घोर कुंजर-करारे भारे,
कूलतें समूल बाजि-बिटप परत हैं।।
सुभट-सरीर नीर-चारी भारी-भारी तहाँ,
सूरनि उछाहु, क्रूर कादर डरत हैं।
फेकरि-फेकरि फेरू फारि-फारि पेट खात,
काक-कंक बालक कोलाहलु करत हैं।49।
(50)
ओझरीकी झोरी काँधे, आँतनिकी सेल्ही बाँधे,
मूँड़के कमंडल खपर किएँ कोरि कै।
जोगिनि झुटंुग झुंड- झुंड बनीं तापसीं -सी,
तीर-तीर बैठीं सो समर-सरि खोरि कै।।
श्रोनित सों सानि-सानि गूदा खात सतुआ -से,
प्रेत एक कपअत बहोरि घोरि-घोरि कै।
‘तुलसी’ बैताल-भूत साथ लिए भूतनाथु,
हेरि-हेरि हँसत हैं हाथ-हाथ जोरि कै।50।
(51)
राम सरासन तें चले तीर रहे न सरीर, हड़ावरि फूटीं।
रावन धीर न पीर गनी, लखि लै कर खप्पर जोगिनी जूटीं।।
श्रोनित -छीट छटानि जटे तुलसी प्रभु सोहैं महा छबि छूटीं।
मानो मरक्कत सैल बिसालमें फैलि चलीं बर बीरबहूटीं।51।
लक्ष्मण मूर्च्छा
मानी मेघनादसों प्रचारि भिरे भारी भट,
आपने अपन पुरुषारथ न ढील की।।
घायल लखनलालु लखि बिलखाने रामु,
भई आस सिथिल जगन्निवास-दीलकी।।
भाई को न मोहु छोहु सीयको न तुलसीस,
कहैं ‘मैं बिभीषनकी कछु न सबील की’।
लाज बाँह बोलेकी, नेवाजेकी सँभार-सार,
साहेबु न रामु-से बलाइँ सीलकी।52।
(53)
कानन बासु! छसाननु सो रिपु,
आननश्री ससि जीति लियो है।
बालि महा बलसालि दल्यो,
कपि पालि बिभीषनु भूपु कियो है।।
तीय हरी, रन बंधु पर्यो ,
पै भर्यो सरनागत सोच हियो है।
बाँह पगार उदार कृपालु
कहाँ रघुबीरू सो बीरू बियो है।53।
(54)
लील्यो उखारि पहारू बिसाल,
चल्यो तेहि काल, बिलंबु न लायो।
मारूत नंदन मारूत को, मनको,
खगराजको बेगु लजायो।
तीखी तुरा ‘तुलसी’ कहतो ,
पै हिएँ उपमाको समाउ न आयो।
मानो प्रतच्छ परब्बतकी नभ,
लीक लसी, कपि यों धुकि धायो।54।
(55)
चल्यो हनुमानु, सुनि जातुधान कालनेमि,
पठयो सो मुुनि भयो, फलु छलि कै।
सहसा उखारो है पहारू बहु जोजनको,
रखवारे मारे भारे भूरि भट दलि कै।।
बेगु, बलु, साहस सराहत कृपालु रामु,
भरतकी कुसल, अचलु ल्यायो चलि कै।
हाथ हरिनाथके बिकाने रघुनाथ जनु ,
सीलसिंधु तुलसीस भलो मान्यो भलि कै।55।
युद्व का अंत
बाप दियो काननु, भो आननु सुभाननु सो,
बैरी भो दसाननु सो, तीयको हरनु भो।
बालि बलसालि दलि , पालि कपिराज को,
बिभीषनु नेवाजि, सेत सागर-तरनु भो।।
घोर रारि हेरि त्रिपुरारि-बिधि हारे हिएँ,
घायल लखन बीर बानर बरनु भो।
ऐसे सोकमें तिलोकु कै बिसोक पलही में,
सबहीं को तुलसीको साहेबु सरनु भो।56।
(57)
कुम्भकरन्नु हन्यो रन राम,दल्यो दसकंधरू कंधर तोरे।
पुषनबंस बिभूषन-पूषन-तेज-प्रताप गरे अरि-ओरे।
देव निसान बजावत, गावत, साँवतु गो मनभावत भो रे।
नाचत-बानर-भालु सबै ‘तुलसी’ कहि ‘हा रे! ळहा भैं अहो रे’।57।
(58)
मारे रन रातिचर रावनु सकुल दलि,
अनुकूल देव-मुनि फूल बरषतु हैं।
नाग, नर, किंनर, बिरंचि, हरि , हरू हेरि,
पुलक सरीर हिएँ हेतु हरषतु हैं।
बाम ओर जानकी कृपानिधानके बिराजैं,
देखत बिषादु मिटै, मोदु करषतु हैं।
आयसु भो, लोकनि सिधारे लोकपाल सबै,
‘तुलसी’ निहाल कै कै दिये सरखतु हैं।58।
(लंका काण्ड समाप्त)
इन्हें भी देखें: कवितावली -तुलसीदास
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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