कवितावली (पद्य)-सुन्दर काण्ड
सुन्दर काण्ड
सुन्दर काण्ड
अशोक वन
बासव-बरून बिधि-बनतें सुहावनो,
दसाननको काननु बसंत को सिंगारू सेा।
समय पुराने पात परत, डरत बातु,
पालत लालत रति-मारके बिहारू सेा।।
देखें बर बापिका तड़ाग बागको बनाड,
रागबस भो बिरागी पवनकुमारू सो।
सीयकी दसा बिलोकि बिटप असोक तर,
‘तुलसी’ बिलोक्यो सो तिलोक-सोक -सारू सो।1।
मली मेघमाल, बनपाल बिकराल भट,
नींके सब काल सींचे सुधासार नीरके।
मंघनाद तें दुलारो, प्रान तें पियारो बागु,
अति अनुरागु जियँ जातुधान धीर कें।।
‘तुलसी’ सो जानि-सुनि, सीयकेा दरसु पाइ,
पैठेा बाटिकाँ बजाइ बल रघुबीर कें।
बिद्यमान देखत दसाननको काननु सेा ।
तहस -नहस कियो साहसी समीर कें।2।
लंकादहन
(3)
बसन बटोरि बोरि-बोरि तेल तमीचर,
खोरि-खोरि धाइ आइ बाँधत लँगूर हैं।
तैसो कपि कौतुकी डेरात ढीले गात कै-कै,
लातके अधात सहै, जीमें कहै, कूर हैं।।
बाल किलकारी कै-कै, तारी दै-दै गारी देत,
पाछें लागे, बाजत निसान ढोल तूर हैं।।
बालधी बढ़न लागी, ठौर -ठौर दीन्हीं आगी,
बिंधकी दवारि कैधौं कोटिसत सूर हैं।3।
(4)
लाइ-लाइ आगि भागे बालजाल जहाँ तहाँ,
लघु ह्वै निबुकि गिरि मेरूतें बिसाल भो।
कौतुकी कपीसु कुदि कनक-कँगूराँ चढ्यो,
रावन-भवन चढ़ि ठाढ़ेा तेहि काल भो।।
‘तुलसी’ विराज्यो ब्योम बालधी पसारि भारी,
देखें हहरात भट, कालु सो कराल भो।।
तेजको निदानु मानेा कोटिक कृसानु-भानु,
नख बिकराल, मुखु तेसो रिस लाल भो।4।
(5)
बालसी बिसाल बिकराल, ज्वालजाल मानो ।
लंक लीलिबेको काल रसना पसारी हैं।
कैधों ब्योमबीधिका भरे हैं भूरि धूमकेतु,
बीररस बीर तरवारि सो उधारी है।
‘तुलसी’ सुरेस-चापु, कैधों दामिनि-कलापु,
कैंधों चली मेरू तें कृसानु-सरि भारी है।
देखें जातुधान-जातुधानीं अकुलानी कहैं,
काननु उजार्यो, अब नगरू प्रजारिहैं।5।
(6)
जहाँ-तहाँ बुबुक बिलोकि बुबुकारी देत,
जरत निकेत, धावौ, धावौ लागी आगि रे।।
कहाँ तातु-मातु, भ्रात-भगिनी, भामिनी-भाभी,
ढोटा छोटे छोहरा अभागे भोंडे भागि रे।।
हाथी छोरौ, घोरा छोरौ, महिष बृषभ छोरौ,
छेरि छोरौ, सोवै सो जगावौ , जागि, जागि रे।।
‘तुलसी’ बिलोकि अकुलानी जातुधानीं कहैं,
बार-बार कह्यौं , प्रिय! क्पिसों न लागि रे।6।
(7)
देखि ज्वालजालु, हाहाकारू दसकंघ सुनि,
कह्यो धरो धरो, धाए बीर बलवान हैं।
लिएँ सूल-सेल, पास-परिध, प्रचंड दंड,
भोजन सनीर, धीर धरें धनु -बान हैं।
‘तुलसी ’ समिध सौंज, लंक जग्यकुंडु लखि,
जातुधान पुंगीफल जव तिल धान है।
स्त्रुवा सो लँगूल , बलमूल प्रतिकूल हबि,
स्वाहा महा हाँकि हाँकि हुनैं हनुमान हैं।7।
(8)
गाज्यो कपि गाज ज्यों , बिराज्यो ज्वालजालजुत,
भाजे बीर धीर, अकुलाइ उठ्यो रावनो।
धावौं , धावौ, धरौ, सुनि धाए जातुधान धारि,
बारिधारा उलदै जलदु जौन सावनो।।
लपट झपट झहराने, हहराने बात,
भहराने भट, पर्यो प्रबल परावनो।।
ढकनि ढकेलि, पेलि सचिव चले लै ठेलि,
नाथ! न चलैगो बलु, अनलु भयावनो।8।
(9)
बडो़ बिकराल बेषु देखि, सुनि सिंघनादु,
उठ्यो मेघनादु, सबिषाद कहै रावनो।
बेग जित्यो मारूत, प्रताप मारतंड कोटि,
कालऊ करालताँ, बड़ाई जित्यो बावनो।।
‘तुलसी’ सयाने जातुधान पछिताने कहैं,
जाको ऐसो दूतु, सो तो साहेबु अबै आवनो।।
काहेको कुसल रोषें राम बामदेवहू की,
बिषम बलीसों बादि बैरको बढ़ावनो।9।
(10)
पानी!पानी! पानी! स्ब रानी अकुलानी कहैं,
जाति हैं परानी, गति जानी गजचालि है।
बसन बिसारै, मनिभूषन सँभारत न,
आनन सुखाने , कहै , क्योंहू कोऊ पालिहै।।
‘तुलसी’ मँदोवै मीजि हाथ, धुनि माथ कहै,
काहूँ कान कियो न, मैं कह्यो केतो कालि है।
बापुरें बिभीषन पुकारि बार बार कह्यो,
बानरू बड़ी बलाइ घने घर घालिहै।10।
(11)
काननु उजार्यो तो उजार्यो, न बिगार्यो कछु,
बानरू बेचारो बाँधि आन्यो हठि हारसों।
निपट निडर देखि काहू न लख्यो बिसेषि,
दीन्हो ना छड़ाइ कहि कुलके कुठारसों ।
छोटे औ बड़ेरे मेरे पूतऊ अनेरे सब,
साँपनि सों खेलैं, मेलैं गरे छुराधार सों।।
‘तुलसी’ मँदोबै रोइ-रोइ कै बिगोवै आपु,
बार -बार कह्यों मैं पुकारि दाढ़ीजारसों।11।
(12)
रानीं अकुलानी सब डाढ़त परानी जाहिं,
सकैं न बिलोकि बेषु केसरीकुमारको।।
मीजि-मीजि हाथ, धुनैं माथ दसमाथ-तिय,
‘तुलसी’ तिलौ न भयो बाहेर अगारको।।
सबु असबाबु डाढ़ो , मैं न काढ़ो, तैं न काढ़ो,
जिसकी परी, सँभारे सहन-भँडार को।
खीझति मँदोवै सबिषाद देखि मेघनादु,
बयो लुनियत सब याही दाढ़ीजारको।12।
(13)
रावन की रानी विलखानी कहै जातुधानीं,
हाहा! कोऊ कहै बीसबाहु दसमाथसों।
काहे मेंघनाद! काहे, काहे रे महोदर! तूँ,
धीरजु न देत, लाइ लेत क्यों न हाथसों।
काहे अतिकाय!काहे , काहे रे अकंपन!
अभागे तीय त्यागे भोड़े भागे जात साथ सों।
‘तुलसी’ बढ़ाई बादि सालते बिसाल बाहैं,
याहीं बल बालिसो बिरोधु रघुनाथसों।13।
(14)
हाट-बाट कोट-ओट, अटनि, अगार, पौरि,
खोरि-खोरि दौरि -दौरि दीन्हीं अति आगि है।
आरत पुकारत, सँभारत न कोऊ काहू।
ब्याकुल जहाँ सो तहाँ लोक चले भागि हैं।
बालधाी फिरावै , बार बार झहरावै, झरै ,
बुँदिया-सी लंक पघिलाइ पाग पागिहै।
‘तुलसी’ बिलोकि अकुलानी जातुधानी कहैं ,
चित्रहू के कपि सो निसाचरू न लागिहै।14।
(15)
लगी , लागी आगि, भागि-भागि चले जहाँ-तहाँ,
धीयको न माय, बाप पूत न सँभारहीं।
छूटे बार, बसन उघारे, धूम-धुंध अंध,
कहै बारे-बूढे़ ‘बारि ,बारि’ बार बारहीं।।
हय हिहिनात, भागे जात घहरात गज,
भारी भीर ठेलि-पेलि रौंदि -खौंदि डारहीं।
नाम लै चिलात , बिललात, अकुलात अति,
‘तात तात! ’तौंसिअत, झौंसिअत, झारहीं।15।
(16)
लपट कराल ज्वालजालमाल दहूँ दिसि,
धूम अकुलाने, पहिचानै कौन काहि रे।
पानी को ललात बिललात , जरे गात जात,
परे पाइमाल जात ‘भ्रात! तूँ निबाहि रे’।
प्रिया तूँ पराहि, नाथ, तूँ पराहि, बाप!
बाप तूँ पारहि, पूत! पूत! तूँ पराहि रे।।
‘तुलसी’ बिलोकि लोग ब्याकुल बेहाल कहैं ,
लेहि दससीस अब बीस चख चाहि रे।16।
(17)
बीथिका बाज़ार प्रति, अटनि अगार प्रति,
पवरि-पगार प्रति बानरू बिलोकिए।
अध-ऊर्ध बानर, बिदिसि-दिसि बानरू है,
मानेा रह्यो है भरि बाररू तिलोकिएँ।।
मूँदैं आँखि हिय में, उघारें आँखि आगें ठाढ़ो,
धाइ जाइ जहाँ-तहाँ, और कोऊ कोकिए।
लेहु, अब लेहु तब कोऊ न सिखाबो मानेा,
सोई सतराइ जाइ जाहि-जाहि रोकिए।17।
(18)
एक करैं धौज , एक कहै, काढ़ो सौंज,
एक औंजि, पानी पीकै कहै, बनत न आवनो।
एक परे गाढ़े एक डाढ़त हीं काढ़े, एक
देखत हैं ठाढ़े, कहैं, पावकु भयावनो।।
‘तुलसी’ कहत एक ‘नीके हाथ लाए कपि,
अजहूँ न छाडै बालु गालको बजावनेा’।
‘धाओ रे , बुझाओ रे,’ कि ‘बावरे हौ रावरे, या ,
औरै आगि लागी न बुझावै सिंधु सावनो’।18।
(19)
कोपि दसकंध तब प्रलय पयोद बोले,
रावन -रजाइ धाए आइ जूथ जोरि कै।
कह्यो लंकपति लंक बरत, बुताओ बेगि,
बानरू बहाइ मारौ महाबारि बोरि कै।।
भलें नाथ! नाइ माथ चले पाथप्रदनाथ ,
बरषैं मुसलधार बार-बार घोरि कै।
जीवनतें जागी आगी , चपरि चौगुनी लागी,
तुलसी भभरि मेघ भागे मुखु मोरि कै।19।
(20)
इहाँ ज्वाल जरे जात, उहाँ ग्लानि गरे गात,
सूखे सकुचात सब कहत पुकार है।
‘जुग षट भानु देखे प्रलयकृसानु देखे’ ,
सेष-मुख -अनल बिलोके बार-बार हैं।
‘तुलसी’ सुन्यो न कान सलिलु सर्पी -समान,
अति अचिरिजु कियो केसरीकुमार हैं।
बारिद-बचन सुनि सीस सचिवन्ह,
कहैं दससीस! ‘ईस-बामता-बिकार हैं।20।’
(21)
‘पावकु, पवनु, पानी, भानु, हिमवानु, जमु,
कालु, लोकपाल मेरे डर डावाँडोल हैं।
साहेबु महेसु सदा संकित रमेसु मोहिं,
महातप साहस बिरंचि लान्हें मोल हैं। ।
‘तुलसी’ तिलोक आजु दूजो न बिराजै राजु,
बाजे-बाजे राजनिके बेटा-बेटी ओल हैं।
को है ईस नामको, जो बाम होत मोहूसो को,
मालवाल! श्रावरेके बावरे-से बोल हैं।21।’
(22)
भूमि भूमिपाल,ब्यालपालक पताल, नाक-,
पाल , लोकपाल जेते, सुभट-समाजु है।
कहै मालवान, जातुधानपति! रावरे को
मनहूँ अकाजु आनै, ऐसो कौन आजु है।।
रामकोहु पावकु, समीरू सीय-स्वासु, कीसु,
ईस-बामता बिलोकु, बानरको ब्याजु है।
जारत पचारि फेरि-फेरि सो निसंक लंक,
जहाँ बाँको बीरू तोसो सूर-सिरताजु है।22।
(23)
पाक पकवान बिधि नाना के , सँधानो, सीधो,
बिबिध बिधान धान बरत बखारहीं।
कनक किरीट कोटि पलँग , पेटारे, पीठ ,
काढ़त कहार सब जरे भरे भारहीं।।
प्रबल अनल बाढ़े जहाँ काढ़े तहाँ डाढ़े,
झपट-लपट भरे भवन-भँडारहीं।
‘ तुलसी’ अगारू न पगारू न बजारू बच्यो,
हाथी हथसार जरे घोरे घोरसारहीं।23।
(24)
हाट बाट हाटकु पिघ्लिि चलो घी-सो घनो,
कनक-कराही लंक तलफति तायसों।।
नाना पकवान जातुधान बलवान सब ,
पागि पागि ढेरी कीन्ही भलीभाँति भायसों।।
पाहुने कृसानु पवनमासों परोसो, हनुमान
सनमानि कै जेवाए चित -चायसों।
तुलसी निहारि अरिनारि दै -दै गारि कहैं,
बावरें सुरारि बैरू कीन्हौं रामरायसों।24।
(25)
रावनु सो राजरोगु बाढ़त बिराट-उर,
दिनु-दिनु बिकल, सकल सुख राँक सो।
नाना उपचार करि हारे सुर, सिद्ध, मुनि,
होत न बिसोक, औत पावै न मनाक सो।।
रामकी रजाइतें रसाइनी समीरसूनु ,
उतरि पयोधि पार सोधि सरवाक सो।।
जातुधान पुटपाक लंक -जातरूप,
रतन जतन जारि कियो है मृगांक-सो।25।
सीता जी की बिदाई
(26)
जारि-बारि, कै बिधूम, बारिधि बुताइ लूम,
नाइ माथो पगनि, भो ठाढ़ो कर जोरि कै।
मातु! कृपा कीजै, सहिजानि दीजै , सुनि सीय,
दीन्ही है असीस चारू चूडामनि छोरि कै।।
कहा कहौं तात! देखे जात ज्यों बिहात दिन,
बड़ी अवलंब ही , सो चले तुम्ह तोरि कै।।
तुलसी सनीर नैन , नेहसो सिथिल बैन,
बिकल बिलोकि कपि कहत निहोरि कै।26।।
(27)
दिवस छ-सात जात जानिबे न, मातु! धरू,
धीर, अरि -अंतकी अवधि रहि थोरिकै।
बारिधि बँधाइ सेतु ऐहैं भानुकुलकेतु
सानुज कुसल कपिकटकु बटोरि कै।।
बचन बिनीत कहि, सीताको प्रबोधु करि ,
तुलसी त्रिकूट चढ़ि कहत डफोरि कै।
जै जै जानकीस दससीस-करि-केसरी,
कपीसु कूद्यो बात-घात उदधि हलोरि कै।27।।
(28)
साहसी समीरसुनु नीरनिधि लंघि लखि
लंक सिद्धपीठु निसि जागो है मसानु सो ।
तुलसी बिलोकि महासाहसु प्रसन्न भई,
देबी सीय-सारिखी, दियो है बरदानु सो।।
बाटिका उजारि, अछधारि मारि, जारि गढ़,
भानुकुल भानुको प्रतापभानु-भानु-सो।
करत बिलोक लोक-कोकनद, कोक कपि,
कहै जामवंत, आयो, आयो हनुमानु सो।28।
(29)
गगन निहारि , किलकारी भारी सुनि,
हनुमान पहिचानि भए सानँद सचेत हैं।
बूड़त जहाज बच्यो पथिकसमाजु, मानो ,
आजु जाए जानि सब अंकमाल देत हैं।
‘जै जै जानकीस जै जै लखन-कपीस’ कहि,
कूदैं कपि कौतुकी नटत रेत-रेत हैं।
अंगदु मयंदु नलु नील बलसील महा
बालधी फिरावैं, मुख नाना गति लेत है।29।
(30)
आयो हनुमानु, प्रानहेतु अंकमाल देत,
लेत पगधूरि ऐक, चूमत लँगूल हैं।
एक बूझैं बार-बार सीय -समाचार , कहैं ,
पवनकुमारू, भो बिगतश्रम-सूल हैं।।
एक भूखे जानि, आगें आनैं कंद-मूल-फल,
एक पूजैं बाहु बलमूत तोरि फूल हैं।
एक कहैं ‘तुलसी’ सकल सिधि ताकें,
जाकें कृपा-पाथनाथ सीतानाथु सानुकूल हैं।30।
(31)
सीय को सनेहु, सीलु, कथा तथा लंकाकी,
कहत चले चायसों, सिरानो पथु छनमें।
कह्यो जुबराज बोलि बनरसमाजु, आजु,
खाहु फल, सुनि पेलि पैठे मधुबनमें।।
मारे बागवान, ते पुकारत देवान गे,
‘ उजारे बाग अंगद’ देखाए घाय तनमें।
कहै कपिराजु, करि आए कीस, तुल-
सीसकी सपथ महामोदु मेरे मनमें।31।
भगवान् रामकी उदारता
(32)भगवान् रामकी उदारता
नगरू कुबेरको सुमेरूकी बराबरी,
बिरंचि-बुद्धिको बिलासु लंक निरमान भो।
ईसहि चढ़ाइ सीस बीसबाहु बीर तहाँ,
रावनु सो राजा रज-तेजको निधानु भो।।
‘तुलसी’ तिलोककी समृद्धि, सौंज, संपदा ,
सकेलि चाकि राखी, रासि, जाँगरू जहानु भो।
तीसरें उपास बनबास सिंधु पास सो
समाजु महाराजजू को एक दिन दानु भो।32।
इति
(सुन्दरकाण्ड समाप्त)
इन्हें भी देखें: कवितावली -तुलसीदास
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