काह कामरी पामड़ी -रहीम

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काह कामरी पामड़ी, जाड़ गए से काज ।
‘रहिमन’ भूख बुताइए, कैस्यो मिले अनाज ॥

अर्थ

क्या तो कम्बल और क्या मखमल का कपड़ा। असल में काम का तो वही है, जिससे कि जाड़ा चला जाय। खाने को चाहे जैसा अनाज मिल जाय, उससे भूख बुझनी चाहिए।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. तुलसीदास जी ने भी यही बात कही है कि- "का भाषा, का संस्कृत, प्रेम चाहिए साँच। काम जो आवै कामरी, का लै करै कमाच ॥"

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