कुन्दकुन्द

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आचार्य कुन्दकुन्द

कुन्दकुन्द (अंग्रेज़ी: Kundakunda) दिगंबर जैन संप्रदाय के सबसे प्रसिद्ध आचार्य थे। इनका एक अन्य नाम 'कौंडकुंद' भी था। इनके नाम के साथ दक्षिण भारत का कोंडकुंदपुर नामक नगर भी जुड़ा हुआ है। प्रोफेसर ए. एन. उपाध्ये के अनुसार इनका समय पहली शताब्दी ई. है, परंतु इनके काल के बारे में निश्चयात्मक रूप से कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं होता। श्रवणबेलगोला के शिलालेख संख्या 40 के अनुसार इनका दीक्षाकालीन नाम 'पद्मनंदी' था और सीमंधर स्वामी से उन्हें दिव्य ज्ञान प्राप्त हुआ था। आचार्य कुन्दकुन्द ने 11 वर्ष की उम्र में दिगम्बर मुनि दीक्षा धारण की थी। इनके दीक्षा गुरु का नाम जिनचंद्र था। ये जैन धर्म के प्रकाण्ड विद्वान थे। इनके द्वारा रचित समयसार, नियमसार, प्रवचन, अष्टपाहुड और पंचास्तिकाय- पंच परमागम ग्रंथ हैं। ये विदेह क्षेत्र भी गए। वहाँ पर इन्होंने सीमंधर नाथ की साक्षात दिव्य ध्वनि को सुना।

परिचय

लगभग 2100 वर्ष पहले आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी का जन्म आंध्र प्रदेश के अनन्तपुर जिले के कोण्डकुंदु (कुन्दकुन्दपुरम) (कुरुमलई) में माघ शुक्ल पंचमी को ईसवी से 108 वर्ष पूर्व हुआ था। कुन्दकुन्द स्वामी ने मात्र 11 वर्ष की आयु में मुनि दीक्षा ली। उनका मुनि दीक्षा का नाम पद्मनन्दि था। बोधपाहुड ग्रंथ के अनुसार वह आचार्य भद्रबाहु के शिष्य थे। 33 वर्ष तक मुनि और लगभग 53 साल आचार्य पद पर रहे। उनके अन्य नाम- वक्रग्रीव आचार्य, एलाचार्य, गृद्धपिच्छाचार्य व पद्मनन्दि हैं।

रचित ग्रंथ

आचार्य कुन्दकुन्द के द्वारा रचित ग्रंथ निम्नलिखित हैं-

  1. नियमानुसार
  2. पंचास्तिकाय
  3. प्रवचनसार
  4. समयसार
  5. बारस अणुवेक्खा
  6. दंसणपाहुड
  7. चरित पाहुड
  8. सुत्तपाहुड
  9. बोधपाहुड
  10. भावपाहुड
  11. मोक्खपाहुड
  12. सीलपाहुड
  13. लिंगपाहुड
  14. दसभत्तिसंगहो

इनके अतिरिक्त 43 अन्य ग्रंथों का भी पता लगाया गया है।

दृष्टि समन्वय

आचार्य कुन्दकुन्द ने विभिन्न दृष्टियों का समन्वय किया है। द्रव्य का आश्रय लेकर उन्होंने सत्कार्यवाद का समर्थन करते हुए कहा है कि- "द्रव्य दृष्टि से देखा जाये तो भाव वस्तु का कभी नाश नहीं होता और अभाव की उत्पत्ति नहीं होती।" इस प्रकार द्रव्यदृष्टि से सत्कार्यवाद का समर्थन करके आचार्य कुन्दकुन्द ने बौद्ध सम्मत असत्कार्यवाद का भी समर्थन करते हुए कहा है कि- "गुण और पर्यायों में उत्पाद और व्यय होते हैं। अतएव यह मानना पड़ेगा कि पर्याय दृष्टि से सत् का विनाश और असत् की उत्पत्ति होती है।"


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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