कोणार्क
कोणार्क
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विवरण | कोणार्क पूर्वी-मध्य उड़ीसा राज्य, पूर्वी भारत, बंगाल की खाड़ी के तट पर भुवनेश्वर से सड़क मार्ग द्वारा 65 किलोमीटर और पुरी से समुद्री मार्ग द्वारा 35 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। |
राज्य | उड़ीसा |
ज़िला | पुरी ज़िला |
भौगोलिक स्थिति | उत्तर- 19.90°, पूर्व- 86.12° |
प्रसिद्धि | कोणार्क सूर्य मन्दिर के लिए विश्व प्रसिद्ध है। |
कब जाएँ | नवम्बर से अप्रैल |
कैसे पहुँचें | बस, रेल, हवाई जहाज़ आदि से पहुँचा जा सकता है। |
नज़दीकी भुवनेश्वर हवाई अड्डा | |
नज़दीकी पुरी रेलवे स्टेशन | |
कोणार्क बस अड्डा | |
क्या देखें | सूर्य मंदिर |
कहाँ ठहरें | होटल, अतिथि ग्रह, धर्मशाला |
एस.टी.डी. कोड | 06758 |
गूगल मानचित्र | |
अद्यतन | 3:55, 20 दिसम्बर 2011 (IST)
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कोणार्क पूर्वी-मध्य उड़ीसा राज्य, पूर्वी भारत, बंगाल की खाड़ी के तट पर भुवनेश्वर से सड़क मार्ग द्वारा 65 किलोमीटर और पुरी से समुद्री मार्ग द्वारा 35 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। कोणार्क उड़ीसा प्रांत में पुरी के निकट, चिल्का झील से प्राची नदी तक फैली हुई रेतीली पट्टी के उत्तरी छोर पर समुद्र तट पर स्थित है। कोणार्क शहर उड़ीसा राज्य की प्राचीन राजधानी था। किंवदन्ती के अनुसार चक्रक्षेत्र (जगन्नाथपुरी) के उत्तरपूर्वी कोण में यहाँ अर्क या सूर्य का मन्दिर स्थित होने के कारण इस स्थान को कोणार्क कहा जाता था। कोणार्क का नाम दो शब्दों को जोड़ कर बना है- कोण जिसका अर्थ है कोना और अर्क जिसका अर्थ है सूर्य। यह हिन्दू मन्दिर के लिए प्रसिद्ध है, जो भारतीय स्थापत्य का सर्वश्रेष्ठ नमूना है। मंदिर में स्थापित कोणार्क की मूर्ति के नाम पर ही इस शहर का नाम कोणार्क पड़ा है।
इतिहास
कोणार्क नगर पहले एक ऐतिहासिक गाँव के रूप में विख्यात था। पुराणों में कोणार्क को मैत्रेयवन और पद्मक्षेत्र भी कहा गया है। एक किंवदन्ती है कि कोणार्क का प्राचीन नाम कोनकोन था। सूर्य (अर्क) के मन्दिर बन जाने से यह नाम कोनार्क या कोणार्क हो गया।
सूर्य मंदिर
कोणार्क अपने 13वीं शताब्दी के सूर्य मंदिर, सूर्य देउला के लिए प्रसिद्ध है। पहले ‘काले पैगोड़ा’ कहलाने वाले इस मंदिर का उपयोग कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) की ओर यात्रा कर रहे नाविकों द्वारा जहाज़रानी सीमाचिह्न के रूप में किया जाता था। यह कहना ग़लत है कि यह कभी पूरा नहीं बना था। इतिहासकार के. एस. बेहोरा, जिन्होंने कोणार्क पर शोध किया था, के अनुसार सूर्य मंदिर नरसिंह प्रथम (1238-41) ने 13वीं शताब्दी में पूर्ण करवाया और देवता की प्राण-प्रतिष्ठा की। यहाँ 16वीं शताब्दी तक पूजा भी की गई, संभवतः उस समय आयी किसी गंभीर प्राकृतिक आपदा के कारण बाद में पूजा रोक दी गई।
- वास्तुकला
वास्तुकला की उड़ीसा शैली के उत्कृष्टतम नमूने इस मंदिर के भग्नावशेषों का बाद में जीर्णोद्धार किया गया। यह मंदिर सूर्य देवता को समर्पित है। इसकी अभिकल्पना उनके रथ को प्रतिबिंबित करने के लिए की गई थी। जिसमें आधार पर उत्कीर्णित पत्थर के 12 विशाल पहिए और सात पत्थर के घोड़े हैं। सूर्य देउला की ऊँचाई लगभग 30 मीटर है और पूर्ण होने पर यह 60 मीटर से अधिक ऊँचा हो जाता है। बाहरी भाग सुसज्जित मूर्तियों से युक्त हैं। जिनमें से अनेक में प्रणय दृश्यों का चित्रण है। बस्ती और मंदिर भगवान कृष्ण के पुत्र सांब की किंवदंती से जुड़े हैं। जो सूर्य देव के आशीर्वाद से कोढ़मुक्त हुए थे। भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण के सूर्य मंदिर संग्रहालय में मंदिर के भग्नावशेषों के मूर्तिशिल्पों का अच्छा संग्रह है।
- कथा
एक कथा में वर्णन है कि इस क्षेत्र में सूर्योपासना के फलस्वरूप श्रीकृष्ण के पुत्र सांब का कुष्ठ रोग दूर हो गया था और यहीं चंद्रभागा में बहते हुए कमल पत्र पर उसे सूर्य की प्रतिमा मिली थी। आइना-ए-अकबरी में अबुल फ़ज़ल लिखता है कि यह मन्दिर अकबर के समय से लगभग सात सौ तीस वर्ष पुराना था, किन्तु मंडलापंजी नामक उड़ीसा के प्राचीन इतिहास-ग्रंथों के आधार पर यह कहना अधिक समीचीन होगा कि इस मन्दिर को गंगावंशीय लांगुल नरसिंह देव ने बंगाल के नवाब तुग़ानख़ाँ पर अपनी विजय के स्मारक के रूप में बनवाया था। इसका शासन काल 1238-1264 ई. में माना जाता है। एक ऐतिहासिक अनुश्रुति में मन्दिर के निर्माण की तिथि शक संवत 1204 (=1126 ई.) मानी गई है। जान पड़ता है कि मूलरूप में इससे भी पहले इस स्थान पर प्राचीन सूर्य मन्दिर था। सातवीं शती ई. में चीनी यात्री युवानच्वांग कोणार्क आया था। उसने इस नगर का नाम चेलितालों लिखते हुए उसका घेरा 20ली बताया है। उस समय यह नगर एक राजमार्ग पर स्थित था और समुद्रयात्रा पर जाने वाले पथिकों या व्यापारियों का विश्राम स्थल भी था। मन्दिर का शिखर बहुत ऊँचा था और उसमें अनेक मूर्तियाँ प्रतिष्ठित थीं। जगन्नाथपुरी मन्दिर में सुरक्षित उड़ीसा के प्राचीन इतिहास ग्रंथों से पता चलता है कि सूर्य और चंद्र की मूर्तियों को भयवंशीय नरेश नृसिंहदेव के समय (1628-1652) में पुरी ले जाया गया था।
यातायात और परिवहन
- वायु मार्ग
कोणार्क का नज़दीकी हवाई अड्डा 64 किलोमीटर की दूरी पर भुवनेश्वर में स्थित है। यह हवाई अड्डा कोलकाता, दिल्ली, हैदराबाद, चैन्नई और नागपुर से सीधी हवाई सेवा द्वारा जुड़ा हुआ है।
- रेल मार्ग
पुरी में कोणार्क का निकटतम रेलवे स्टेशन है जो 31 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह रेलवे स्टेशन भारत के महत्त्वपूर्ण शहरों से अनेक रेलगाड़ियों द्वारा जुड़ा है।
- सड़क मार्ग
राष्ट्रीय राजमार्ग और राज्य राजमार्ग से कोणार्क पहुँचा जा सकता है। समुद्र के किनारे बसा कोणार्क पुरी से 35 किलोमीटर और भुवनेश्वर से 65 किलोमीटर की दूरी पर है। पुरी, भुवनेश्वर और उड़ीसा के अनेक शहरों से सड़क मार्ग से कोणार्क पहुँच सकते हैं।
पर्यटन
अर्क तीर्थ के नाम से विख्यात उड़ीसा का कोणार्क मूल रूप से अपने सूर्य मंदिर के लिए विश्व प्रसिद्ध है। कोणार्क समुद्र तट पर सूर्योदय का दृश्य मनोहारी होता है और अब इसने तटीय नृत्य महोत्सव के लिए अंतर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित कर ली है। यह महोत्सव उस स्थान पर आयोजित किया जाता है, जहाँ अब विलुप्त हो चुकी चंद्रभागा नदी सागर में मिलती थी। समुद्र तट पर 10 किलोमीटर की दूरी पर कुशभद्रा नदी, जो वहाँ सागर में मिलती है के किनारे प्रसिद्ध रामचंडी मंदिर स्थित है। आध्यात्मिक दृष्टिकोण से कोणार्क भारत का प्रमुख पर्यटन स्थल है। अब इसके भग्नावशेष ही उपलब्ध हैं। यह मन्दिर 875 फुट लम्बे और 540 फुट चौड़े प्रांगण में बनाया गया है, इस मन्दिर का अहाता एक दीवार से परिवृत्त है, और इसका मुख्य प्रवेश द्वार पूर्व में है। सम्पूर्ण मन्दिर पहियों वाले रथ की आकृति में बनाया गया है, जिसे सूर्य के सात घोड़े खींच रहे हैं। अंलकृत घोड़े ऐसे दिखायी देते हैं, जैसे अपने भारी बोझ को आगे खींचने के प्रयास में वे अपने पिछले दोनों पैर उठा रहे हैं, तथा ऐंठ रहे हैं। इसमें आधार पर बारह पहिये या चक्र निर्मित हैं। बारह चक्र बारह राशियों के प्रतीक हैं और सूर्य के सात घोड़े उसकी किरणों के रंगों के प्रतीक हैं। सूर्य मन्दिर के दो भाग हैं- रेखा और भद्र। मन्दिर के दोनों भाग पुरुष और स्त्री के वास्तु प्रतीक हैं, जो अभिन्न रुप से जुड़े हैं। रेखा भाग 180 फुट और भद्र 140 फुट ऊँचा है। मुख्य द्वार पर हाथी की पीठ पर आसीन सिंहों की मूर्तियाँ निर्मित हैं। दक्षिणी प्रवेश द्वार पर दो अश्व मूर्तियाँ और उत्तरी द्वार पर मनुष्यों को सूँड पर उठाये दो हाथी प्रदर्शित हैं। पहले सभी द्वारों पर मूर्तियाँ उत्कीर्ण थीं, किंतु अब केवल पूर्वी द्वार की ही नक़्क़ाशी शेष है। यह मन्दिर भारतीय वास्तु शिल्पियों के सबसे सुन्दर वास्तु कलात्मक प्रयासों में से एक है। यह मन्दिर फर्श से छत तक इतने जटिल और सूक्ष्म शैल्पिक अलंकरण से आच्छादित है कि प्रत्येक पत्थर एक अनुपम आभूषण जैसा प्रतीत होता है। अबुल फ़ज़ल ने आइने-अकबरी में इस मन्दिर के स्थापत्य की प्रशंसा की है।
जनसंख्या
2001 की जनगणना के अनुसार इस शहर की जनसंख्या 15,015 है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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