गुप्तकालीन सामाजिक स्थिति

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गुप्तकालीन भारतीय समाज परंपरागत 4 जातियों -

  1. ब्राह्मण,
  2. क्षत्रिय,
  3. वैश्य एवं
  4. शूद्र में विभाजित था।
  • कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में तथा वराहमिहिर ने वृहतसंहिता में चारों वर्णो के लिए अलग अलग बस्तियों का विधान किया है।
  • न्याय संहिताओं में यह उल्लेख मिलता है कि ब्राह्मण की परीक्षा तुला से, क्षत्रिय की परीक्षा अग्नि से, वैश्य की परीक्षा जल से तथा शूद्र की विषय से की जानी चाहिए। पहले की तरह ब्राह्मणों का इस समय भी समाज में सर्वोच्च स्थान प्राप्त था। गुप्त काल में जाति प्रथा उतनी जटिल नहीं रह गई थी जितनी परवर्ती कालों। ब्राह्मणों ने अन्य जातियों के व्यवसायों को अपनाना आरम्भ कर दिया था।
  • मृच्छकटिकम के उल्लेख से यह प्रमाणित होता है कि चारुदत्त नामक ब्राह्मण वाणिज्य का कार्य करता था। उसे ब्राह्मण का ‘आपद्धर्म‘ कहा गया है। इसके अतिरिक्त कुछ ब्राह्मण वंश जैसे वाकाटक एवं कदम्ब का उल्लेख मिलता है। गुप्त काल के पूर्व ब्राह्मण केवल छह कार्य - अध्ययन, अध्यापन, पूजा-पाठ, यज्ञ कराना, दान देना और दान लेना, माना जाता था।
  • ब्राह्मणों के अतिरिक्त कुछ वैश्य शासक जैसे हर एवं सौराष्ट्र, अवन्ति, मालवा के शूद्र शासकों आदि के विषय में भी जानकारी प्राप्त होती है। स्कन्दगुप्त के इंदौर ताम्रपत्र अभिलेख में कुछ क्षत्रियों द्वारा वैश्य का कार्य करने का उल्लेख मिलता है।
  • [ह्वेनसांग]] ने क्षत्रियों के कर्मनिष्ठा की प्रशंसा की है तथा उन्हें निर्दोष, सरल, पवित्र, सीधा और मितव्ययी कहा है। उसके अनुसार क्षत्रिय राजा की जाति थी। कुछ गुप्तकालीन ग्रंथों में ब्राह्मणों को निदेर्शित किया गया है कि वे शूद्रों द्वारा दिए गए अन्न को ग्रहण न करें, जबकि बृहस्पति ने संकट के क्षणों में ब्राह्मणों द्वारा शूद्रों और दासों से अन्न ग्राहण करने की आज्ञा दी। इस काल में शूद्रों द्वारा सैनिक वृत्ति अपनाने हुए इन्हें व्यापारी, कारीगर एवं कृषक होने की अनुमति प्रदान की।
  • ह्नेनसांग के विवरण एवं नृसिंह पुराण के उल्लेख से यह संकेत मिलता है कि शूद्रों ने कृषि कार्य को अपना लिया था। इस प्रकार गुप्त काल में इन्हें रामायण, महाभारत, एवं पुराण सुनने का अधिकार मिल गया।
  • याज्ञवल्क्य ने लिखा है कि शूद्र वर्ग नमः शब्द का प्रयोग कर पंच महायज्ञ कर एकता है।
  • मार्कण्डेय पुराण में दान करना और यज्ञ करना शूद्र का कर्तव्य बताया गया है।

मिश्रित जातियाँ

  • गुप्त काल में अनेक मिश्रित जातियों का भी उल्लेख मिलता है जैसे - मूर्द्धावषिक्त, अम्बष्ठ, पारशव, उग्र एवं करण। इनमें मुख्य रूप से अम्बष्ठ, उग्र, पारशव की संख्या गुप्तकालीन समाज में अधिक थी।

अम्बष्ठ

  • ब्राह्मण पुरुष एवं वैष्य से उत्पन्न संतान अम्बष्ठ कही गई।
  • विष्णु पुराण में इन्हें नदी तट का निवासी माना गया है।
  • मनु ने इनका मुख्य व्यवसाय चिकित्सा बताया है।

पराशव

  • इस जाति की उत्पत्ति ब्राह्मण पुरुष एवं शूद्र स्त्री से हुई है इन्हें निषाद भी कहा जाता है।
  • पुराणों में इनके विषय में जानकारी मिलती है।

उग्र

  • गौतम के अनुसार वैश्य पुरुष एवं शूद्र स्त्री से उत्पन्न जाति उग्र कहलाई पर स्मृतियों का मानना है कि इस जाति की उत्पत्ति क्षत्रिय पुरुष एवं शूद्र जाति की स्त्री से हुई है।
  • इनका मुख्य कार्य था बिल के अन्दर से जानवरों को बाहर निकाल कर जीवन-यापन करना।
  • फ़ाह्यान ने गुप्तकालीन समाज में अस्पृश्य (अछूत) जाति के होने की बात कही है। स्मृतियों में इन्हें 'अन्त्यज' व 'चाण्डाल' कहा गया है।
  • पाणिनी ने इसका उल्लेख ‘निरवसित‘ शूद्र के रूप में किया है। सम्भवत इस जाति के उत्पत्ति शूद्र पुरुष एवं ब्राह्मण स्त्री से हुई। यह जाति के बाहर निवास करती थी, इनका मुख्य कार्य था शिकार करना एवं शमशान घाट की रखवाली करना।
  • गुप्त काल में लेखकीय, गणना, आय-व्यय का हिसाब रखने आदि कार्यो को करने वाले वर्ग को कायस्थ कहा गया। सम्भवतः इनकी उत्पत्ति भूमि एवं भू राजस्व के हस्तान्तरण के कारण हुई । गुप्त काल के प्राप्त अभिलेखों में नाम उल्लेख प्रथम कायस्थ या ज्येष्ठ कायस्थ में रूप में हुआ।

दास प्रथा

गुप्त काल में दास प्रथा का प्रचलन था। नारद ने 18 प्रकार के दासों का उल्लेख किया है जिनमें मुख्य थे-

  1. प्राप्त किया हुआ दास (उपहार आदि से ),
  2. स्वामी द्वारा प्रदत्त दास,
  3. ऋण का चुकता न करने पाने के कारण बना दास,
  4. दांव पर लगाकर हारा हुआ दास (पास आदि खेलों),
  5. स्वयं से दासत्व ग्राहण स्वीकार करने वाला दास,
  6. एक निश्चित समय के लिए अपने को दास बनाना,
  7. दासी के प्रेमजाल में फंस कर बनने वाला दास एवं
  8. आत्म-विक्रयी दास (स्वयं को बेचकर)।
  • मनु के सात प्रकार के दासों का उल्लेख किया है। दासियों के बारे में भी जानकारी मिलती है।
  • अमरकोष में दासी समग्र का वर्णन आया है।

इस समय दासों को उत्पादन कार्यो से अलग रखा गया था जबकि मौर्यो के समय में दास उत्पादन के कार्यो में लोग सक्रिय रूप से भाग लेते थे। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि दासों की स्थिति गुप्तों के समय ठीक नहीं थी। अमरकोष में 'दासीसभम्' शब्द के उल्लेख से यह संकेत मिलता है कि गुप्तकाल में दासियों का भी आस्तित्व था। दासों को दासत्व भाव से मुक्त कराने का प्रथम प्रयास नारद ने किया।

स्त्रियों की स्थिति

गुप्तकालीन समाज में स्त्रियों की स्थिति के विषय में इतिहासकार 'रोमिला थापर' ने लिखा है कि 'साहित्य और कला में तो नारी का आदर्श रूप झलकता है पर व्यावहारिक दृष्टि से देखने पर समाज में उनका स्थान गौण था। पितृप्रधान समाज में पत्नी को व्यक्तिगत सम्पत्ति समझा जाता था। पति के मरने पर पत्नी को सती होने के लिए प्रेरित किया जाता था। उत्तर भारत की कुछ सैनिक जातियों के परिवारों में बड़े पैमाने पर सती होने की प्रथा उल्लेख है। प्रथम सती होने का प्रमाण 510 ई. के भानुगुप्त के एरण के अभिलेख से मिलता है जिसमें किसी गोपराज (सेनापति) की मृत्यु पर उसकी पत्नी के सती होने का उल्लेख है। गुप्त काल में पर्दा प्रथा का प्रचलन केवल उच्च वर्ग की स्त्रियों में था।'

स्त्रियों के अधिकारों की वृद्धि

  • फ़ाह्यान एवं ह्वेनसांग के अनुसार इस समय पर्दा प्रथा प्रचलन नहीं था।
  • नारद एवं पराशर स्मृति में 'विधवा विवाह' के प्रति समर्थन जताया गया है।
  • गुप्तकालीन समाज में वेश्याओं के अस्तित्व के भी प्रमाण मिलते हैं, पर इनकी वृत्ति की निन्दा की गई।
  • गुप्त काल में वेश्यावृति करने वाली स्त्रियों को ‘गणिका‘ कहा जाता था। ‘कुट्टनी‘ उन वेश्याओं को कहा जाता था जो वृद्ध हो जाती थी।
  • किन्तु गुप्त काल में स्त्रियों के धन संबधी अधिकारों की वृद्धि हुई। स्त्री धन का दायरा बढ़ा।
  • कात्यायन ने स्त्री को अचल सम्पत्ति की स्वामिनी माना है।
  • गुप्त काल के स्मृतिकारों के अनुसार पुत्र की अचल सम्पत्ति की स्वामिनी माना है।
  • गुप्त काल के स्मृतिकारों के अनुसार पुत्र के अभाव में पुरुष की सम्पत्ति पर उसकी पत्नी का प्रथम अधिकार होता था। (याज्ञवल्क्य स्मृति)
  • अपुत्र पति के मरने पर विधवा पत्नी को उसको उत्तराधिकारी - याज्ञवल्क्य, बृहस्पति और विष्णु मानते हैं।
  • स्त्रियों के स्त्रीधन पर प्रथम अधिकार उसकी पुत्रियों का होता है। (विज्ञानेश्वर)
  • स्त्रियों की सम्पत्ति के अधिकार पर सर्वाधिक व्याख्या याज्ञवल्क्य ने दी है। गुप्तकाल में ब्राह्मण और क्षत्रिय को संयुंक्त रूप से 'द्विज' कहा गया है।
  • याज्ञवल्क्य एवं बृहस्पति ने स्त्री को पति की सम्पत्ति का उत्तराधिकारिणी माना है।
  • इस समय उच्च वर्ग की कुछ स्त्रियों के विदुषी और कलाकार होने का उल्लेख मिलता है।
  • अभिज्ञान शकुन्तलम् में अनुसूया को इतिहास का ज्ञाता बताया गया है।
  • मालवी माधव में मालती को चित्रकला में निपुण बताया गया है।
  • अमरकोष स्त्री शिक्षा के लिए 'आचार्यी', 'अपाध्यायीय' तथा 'उपाध्यया' शब्दों को व्यवहार किया गया है।
  • गुप्तकाल के सिक्कों पर स्त्रियों जैसे - कुमारदेवी, तथा लक्ष्मी के चित्र उच्च वर्ग के स्त्रियों के सम्मानसूचक है।
  • पर्दा प्रथा का प्रचलन था।
  • बाल विवाह एवं बहुविवाह की प्रथा व्यापक हो गई थी।
  • 'मेघदूत' में उज्जयिनी के महाकाल मंदिर में कार्यरत देवदासियों का वर्णन मिलता है।
  • मनु के अनुसार जिस स्त्री को पति ने छोड़ दिया हो या जो विधवा हो गई हो, यदि वह अपनी इच्छा से दूसरा विवाह करें तो वह 'पुनर्भू' तथा उसकी संतान 'पनौर्भव' कहा जाता था।


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