गोंडा भारत के उत्तर प्रदेश राज्य का एक ज़िला है। सरयू नदी के प्रवाह क्षेत्र में स्थित होने के कारण यह ज़िला उत्तर प्रदेश के सबसे उपजाऊ मिट्टी वाले ज़िलों में सम्मिलित किया जाता है। 15वीं सदी में बिसेन राजपूत राजा मानसिंह ने गोंडा को स्थापित किया था। यहाँ ऐतिहासिक महत्त्व के कई अवशेष अब भी मिलते हैं, जो गड्ढों एवं तालों के रूप में फैले हैं। राजा रामदत्त सिंह के शासन काल तक यह न केवल प्रसिद्ध राजपूत गढ़ था, अपितु एक व्यापारिक संस्थान भी हो गया था। राम शरण शर्मा जैसे इतिहासकारों ने इस नगर को गुप्त काल में नगरों के पतन और सामंतवाद के उदय से जोड़कर देखा है।
इतिहास
प्राचीन काल में गोंडा के वर्तमान भू-भाग पर श्रावस्ती का अधिकांश भाग और कोशल जनपद फैला हुआ था। गौतम बुद्ध के समय इसे एक नयी पहचान मिली। यह उस दौर में इतना अधिक प्रगतिशील एवं समृद्ध था कि महात्मा बुद्ध ने यहाँ 21 वर्ष तक प्रवास किया। गोंडा जनपद प्रसिद्ध उत्तरापथ के एक छोर पर स्थित है। प्राचीन भारत में यह हिमालय के क्षेत्रों से आने वाली वस्तुओं के अग्रसारण स्थल की तरह काम करता था। 'भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण' ने अपने विभिन्न उत्खननों में इस ज़िले की प्राचीनता पर प्रकाश डाला है।[1]
वेद-पुराण उल्लेख
गोंडा एवं बहराइच की सीमा पर स्थित 'सहेत महेत' से प्राचीन श्रावस्ती की पहचान की जाती है। जैन ग्रंथों में श्रावस्ती को उनके तीसरे तीर्थंकर सम्भवनाथ और आठवें तीर्थंकर चंद्रप्रभनाथ की जन्म स्थली बताया गया है। 'वायुपुराण' और 'रामायण' के 'उत्तरकाण्ड' के अनुसार श्रावस्ती उत्तरी कोशल की राजधानी थी, जबकि दक्षिणी कोशल की राजधानी 'साकेत' हुआ करती थी। वास्तव में एक लम्बे समय तक श्रावस्ती का इतिहास ही गोंडा का इतिहास है। सम्राट हर्षवर्धन के राज कवि बाणभट्ट ने अपने प्रशस्तिपरक ग्रन्थ 'हर्षचरित' में श्रुत वर्मा नामक एक राजा का उल्लेख किया है, जो श्रावस्ती पर शासन करता था। दंडी के 'दशकुमारचरित' में भी श्रावस्ती का वर्णन मिलता है। श्रावस्ती को इस बात का श्रेय भी जाता है कि यहाँ से आरंभिक कुषाण काल में बोधिसत्व की मूर्तियों के प्रमाण मिलते हैं।
ऐसा प्रतीत होता है कि कुषाण काल के पश्चात् इस महत्त्वपूर्ण नगर का पतन होने लगा था। राम शरण शर्मा जैसे इतिहासकारों ने इसे गुप्त काल में नगरों के पतन और सामंतवाद के उदय से जोड़कर देखा है। इसके बावजूद जेतवन का बिहार लम्बे समय तक, लगभग आठवीं एवं नौवीं शताब्दियों तक, अस्तित्व में बना रहा। मध्यकालीन भारत में गोंडा एक महत्वपूर्ण स्थान बनाये रखने में सफल रहा था। सन 1033 में राजा सुहेलदेव ने सय्यास सलार मसूद ग़ाज़ी से टक्कर ली थी। यह भी इतिहास का एक रोचक तथ्य है कि दोनों ही शहर- गोंडा और बहराइच पूरे देश में समादृत हैं। एक दूसरी लड़ाई मसूद के भतीजे हटीला पीर के साथ अशोकनाथ महादेव मंदिर के पास भी हुई थी, जिसमें हटीला पीर मारा गया था।[1]
भौगोलिक दशा
गोंडा उत्तर प्रदेश के सरयू पार क्षेत्र में स्थित अपेक्षाकृत विस्तृत जनपद है, जिसका क्षेत्रफल 2,829 वर्ग मील है। इस जनपद को तीन प्रमुख प्राकृतिक खंडों में विभक्त किया जा सकता है-
- राप्ती पार का तराई क्षेत्र, जो उप-पर्वतीय तलहटी में स्थित होने के कारण अधिकतर नदी नालों तथा उनके पुराने त्यक्त मार्गों एवं झीलों से पूर्ण, दक्षिण में दलदली किंतु गाढ़ी मटियार भूमि के कारण धान के लिये अत्यंत उपजाऊ तथा उत्तर में वनों से ढका हुआ है।
- उपरहार क्षेत्र, जो उत्तर में राप्ती तथा ऊपरहार के उत्थित बलुआ किनारे के मध्य उत्तर-पश्चिम से दक्षिण-पूर्व में विस्तृत उत्थापित मैदान है। नदी नालों द्वारा यह उपजाऊ घाटियों में बँट गया है, नदियों के किनारे जंगल तथा बलुई मिट्टी मिलती है। इस क्षेत्र में उतरौला तहसील का दक्षिणी भाग, गोंडा परगने का अधिकांश क्षेत्र तथा तारबगंज तहसील महदेवा एवं नवाबगंज परगने के क्षेत्र पड़ते हैं।
- उपरहार के दक्षिणी छोर से सरयू (घाघरा) तक का क्षेत्र, जो नदी तक 15 फुट निम्नतर होता जाता है और 'तरहार' कहलाता है। इसमें सरयू (घाघरा) तथा उसकी सहायक टेढ़ी नदियों की बाढ़ कभी-कभी भयंकर हो जाती है। इस क्षेत्र में तारबगंज का अधिकांश तथा गोंडा तहसील का पहाड़पुर परगना पड़ता है। यहाँ मिट्टी की निचली परतें बलुई हैं, जिन पर विभिन्न मुटाई की दोमट परतें जमी हुई हैं। कहीं-कहीं बलुए धूस मिलते हैं, जिनके नीचे गहरी तथा उपजाऊ मटियार मिट्टी मिलती है।[1]
कृषि
तराई क्षेत्र में अधिकांशत: गढ़ी मटियार, किंतु कहीं-कहीं उपजाऊ दोमट; उपरहार के लगभग दो तिहाई क्षेत्र में दोमट, ऊपरी तथा नदी तट वाले भागों में बलुई, तरहार में हल्की तथा छिद्र युक्त दोमट, तटीय भागों में बलुई तथा केवल गड्ढों में मटियार मिट्टी मिलती है। तराई में धान, उपरहार में धान, गेहूँ और तिलहन तथा तरहार में मक्का, गेहूँ और जायद की फसलें मुख्य हैं। उपयुक्त भूमि एवं अनुकूल जलवायु होने के कारण कुल भूमि के 67.8 प्रतिशत में कृषि कार्य किया जाता है। 5.7 प्रतिशत वनाच्छादित (अधिकांश तराई के उत्तरी भाग में), 3.2 प्रतिशत चालू परती तथा 9.2 प्रतिशत कृषि के लिये अप्राप्य है, जिसमें 5.2 प्रतिशत जलाशय हैं। चालू धरती के अतिरिक्त 19.9 प्रतिशत भूमि कृष्य बंजर है, जिसका केवल 15 प्रतिशत खेती के लिये समुन्नत किया जा सकता है। धान, मकई, गन्ना आदि खरीफ तथा गेहूँ, जौ, चना, तिलहन प्रमुख रबी की फसलें हैं।
नदियाँ
इस ज़िले में उत्तर-पश्चिम से दक्षिण-पूर्व की ओर बहने वाली नदियाँ बूढ़ी राप्ती, राप्ती, कुवाना, विसूटी, मनवर, तिरही, सरजू (घाघरा) हैं। राप्ती (केवल वर्षा ऋतु में) तथा घाघरा नदी परिवहनीय हैं।
|
|
|
|
|