गोरा उपन्यास भाग-12

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वरदासुंदरी जब-तब अपनी ब्रह्म सहेलियों को निमंत्रण देने लगीं। बीच-बीच में उनकी सभा छत पर ही जुटती। हरिमोहिनी अपनी स्वाभाविक देहाती सरलता से स्त्रियों की आव-भगत करतीं, लेकिन यह भी उनसे छिपा न रहता कि वे सब उनकी अवज्ञा करती हैं। यहाँ तक कि उनके सामने ही वरदासुंदरी हिंदुओं के सामाजिक आचार-व्यवहार के बारे में तीखी आलोचना शुरू कर देतीं और उनकी सहेलियाँ भी विशेषरूप से हरिमोहिनी को निशाना बनाकर उसमें योग देतीं।

मौसी के पास रहकर सुचरिता चुपचाप से यह आक्रमण सह लेती। बल्कि हठ करके वह यही दिखाने की कोशिश करती कि वह भी अपनी मौसी के पक्ष में है। जिस दिन कुछ खाने-पीने का आयोजन होता उस दिन बुलाए जाने पर सुचरिता कहती, "नहीं, मैं नहीं खाती!"

"यह क्या बात है? हम लोगों के साथ बैठकर नहीं खाओगी तुम?"

"नहीं।"

वरदासुंदरी कहतीं, "सुचरिता आजकल महा हिंदू हो गई है, यह शायद तुम्हें मालूम नहीं? वह तो हमारा छुआ हुआ नहीं खाती।"

घबराकर हरिमोहिनी कहतीं, "राधारानी, बेटी आओ! तुम जाओ, खाओ बेटी!"

गुट के लोगों में उन्हीं के कारण सुचरिता की ऐसी बदनामी होती है, इससे उन्हें बहुत दु:ख होता था। लेकिन सुचरिता अटल रहती। एक दिन किसी ब्रह्म लड़की ने कौतूहलवश जूता पहने हुए हरिमोहिनी के कमरे में प्रवेश करेन की कोशिश की। पर सुचरिता ने रास्ता रोकरकर खड़े होते हुए कहा, "इस कमरे में मत जाओ!"

"क्यों?"

"उस कमरे में ठाकुर हैं।"

"ठाकुर हैं! तो तुम रोज़ ठाकुर-पूजा करती हो?"

हरिमोहिनी ने कहा, "हाँ बेटी, पूजा तो करती ही हूँ।"

"ठाकुर पर विश्वास है?"

"मुझ हतभागिनी में विश्वास कहाँ! विश्वास होता तो तर न जाती।"

ललिता भी उस दिन उपस्थिति थी। तैश में आकर प्रश्न करने वाली लड़की से पूछा उठी, "तुम जिसकी उपासना करती हो क्या उस पर विश्वास करती हो?"

"वाह! विश्वास नहीं करती तो क्या!"

"ज़ोर से सिर हिलाकर ललिता ने कहा, "विश्वास तो करतीं ही नहीं, यह भी नहीं जानतीं कि विश्वास नहीं करती।"

आचार-व्यवहार के मामले में सुचरिता अपने समाज के लोगों से अलग न हो, हरिमोहिनी इसका बड़ा ध्‍यान रखतीं, लेकिन सफलता उन्हें किसी तरह न मिली।

अब तक भीतर-ही-भीतर हरानबाबू और वरदासुंदरी में एक विरोध का भाव रहता आया था। लेकिन इन घटनाओं से दोनों का अच्छा मेल हो गया। वरदासुंदरी ने कहा, "कोई कुछ भी न कहे, किंतु ब्रह्म-समाज के आदर्श को शुध्द रखने की ओर अगर किसी की नज़र है तो पानू बाबू की।" हरानबाबू ने भी सबके सामने अपना यह विचार प्रकट किया कि ब्रह्म-परिवार को सब तरह निष्कलंक रखने के लिए वरदासुंदरी की एकल दर्द-भरी सजगता ब्रह्म गृहिणी-मात्र के लिए एक उत्तम उदाहरण है। उनकी इस प्रशंसा में परेशबाबू पर एक कटाक्ष भी था।

एक दिन हरानबाबू ने परेशबाबू के सामने ही सुचरिता से कहा, "मैंने सुना है कि आजकल तुमने ठाकुरजी का प्रसाद खाना शुरू कर दिया है?"

सुचरिता का चेहरा लाल हो आया, लेकिन वह ऐसे शुरू कर दिया है?"

सुचरिता का चेहरा सजाकर रखने आया, लेकिन वह ऐसे ढंग से मेज़ पर रखे हुए कलमदान में कलम सजाकर रखने लगी जैसे उसने यह बात सुनी ही न हो। एक करुणा-भरी नज़र से परेशबाबू ने उसकी ओर देखकर हरानबाबू से कहा, "पानू बाबू, जो कुछ हम लोग खाते हैं सभी ठाकुर का प्रसाद है।"

हरानबाबू बोले, "लेकिन सुचरिता तो हमारे ठाकुर का परित्याग करने की कोशिश कर रही हैं।"

परेशबाबू ने कहा, "ऐसा भी यदि संभव हो तब उसके बारे में विवाद खड़ा करने से क्या प्रतिकार होगा?"

हरानबाबू ने कहा, "जो बाढ़ में बहा जा रहा हो क्या उसे किनारे पर लगाने की कोशिश नहीं की जाय?"

परेशबाबू ने कहा, "सब मिलकर उसके सिर पर ढेले फेंकने लगें, इसे किनारे लगाने की कोशिश नहीं कहा जा सकता। पानू बाबू, आप निश्चिंत रहिए, सुचरिता को मैं उसे बचपन से देखता आ रहा हूँ- वह अगर पानी में ही गिरी होती तो आप सब लोगों से पहले ही जान जाता, और उदासीन भी न रहता।"

हरानबाबू, "सुचरिता तो यहीं मौजूद हैं- उनसे ही आप पूछ लीजिए न। सुनता हूँ हर किसी का छुआ वह नहीं खातीं- यह बात क्या झूठ है?"

कलमदान पर अनावश्यक मनोयोग छोड़कर सुचरिता ने कहा, "बाबा तो जानते हैं, मैं हर किसी का छुआ नहीं खाती। मेरे इस आचरण को वह बर्दाश्त कर लेते हैं तो इतना ही बहुत है। आप लोगों को अच्छा न लगे तो आप सब मेरी चाहे जितनी निंदा कर लीजिए, बाबा को क्यों तंग करते हैं? वह आप लोगों का कितना कुछ क्षमा कर देते हैं, यह क्या आप जानते हैं? यह क्या उसी का प्रतिफल है?"

हरानबाबू अचंभे में आ गए। सोचने लगे, सुचरिता भी आजकल जवाब देना सीख गई है!

स्वभाव से परेशबाबू शांतिप्रिय थे। अपने या दूसरों के संबंध में अधिक चर्चा उन्हें पसंद नहीं थी। अभी तक उन्होंने ब्रह्म-समाज में किसी तरह का कोई प्रधान पद स्वीकार नहीं किया, अपने को किसी तरह सामने न लाकर एकांत में ही जीवन-यापन करते रहे। हरानबाबू परेशबाबू की इस प्रवृत्ति को उत्साहहिनता और उदासीनता समझते रहे हैं और इसके लिए परेशबाबू की निंदा भी करते रहे हैं। जवाब में परेशबाबू ने इतना ही कहा है कि "ईश्वर ने सचल और अचल दो प्रकार के पदार्थ रचे हैं, मैं बिल्‍कुल अचल हूँ। मुझ-जैसे आदमी से जो काम लिया जा सकता है, वह ईश्वर पूरा करा लेंगे। और जो संभव नहीं है, उसकी चिंता से क्या फ़ायदा? मेरी उम्र अब काफ़ी हो गई है, मुझमें किस काम की सामर्थ्य है और किसकी नहीं, इसका फैसला हो चुका है। अब ठेल-ठालकर मुझे कहीं ले जाने की कोशिश बेकार है।"

हरानबाबू की धारणा थी कि शिथिल हृदय में भी उत्साह का संचार कर दे सकते हैं, जड़मति को भी रास्ते लगा देने और पथभ्रष्ट जीवन को अनुताप से विगलित कर देने की उनमें सहज क्षमता है। उनका विश्वास था कि उनकी शुभ-इच्छा इतनी एकाग्र और बलवान है कि कोई उसके विरुध्द अधिक नहीं टिक सकता। उन्हें यकीन था कि उनके समाज के लोगों के व्यक्तिगत चरि‍त्र में जो सब अच्छा परिवर्तन हुए हैं, किसी-न-किसी तरह वह स्वयं उसके मुख्य कारण रहे हैं। उन्हें इसमें कोई संदेह न था कि भीतर-ही-भीतर उनका अलक्षित प्रभाव भी असर करता रहता है। अभी तक उनके सामने जब भी किसी ने सुचरिता की विशेष प्रशंसा की है, उन्होंने उसे कुछ ऐसे भाव से ग्रहण किया है जैसे वह उन्हीं की प्रशंसा हो। उनकी इच्छा रही है कि उपदेश, दृष्टांत और संगति के प्रभाव से सुचरिता के चरित्र को वह ऐसा गठित कर देंगे कि इसी सुचरिता के जीवन के द्वारा लोक-समाज में उनका आश्चर्यमय प्रभाव प्रमाणित हो जाएगा।

उसी सुचरिता के इस शोचनीय पतन से स्वयं अपनी क्षमता के बारे में उनका गर्व ज़रा भी कम नहीं हुआ, बल्कि इसका सारा दोस उन्होंने परेशबाबू के सिर मढ़ दिया। परेशबाबू की प्रशंसा लोग बराबर करते आए हैं, लेकिन हरानबाबू ने कभी उसमें योग नहीं दिया। इसमें भी उन्होंने कैसी दूरदर्शिता का परिचय दिया है, यह अब सब पर खुलासा हो जाएगा, इसकी भी उन्हें आशा थी।

हरानबाबू जैसे लोग और सब-कुछ सह सकते हैं, लेकिन जिन्हें वह विशेष रूप से हित के मार्ग पर चलाना चाहते हों वे ही अपनी बुध्दि के अनुसार स्वतंत्र मार्ग का अवलंबन करें, इस अपराध को वे किसी तरह क्षमा नहीं कर सकते। सहज ही उन्हें छोड़ देना भी उनके लिए असंभव होता है; जितना ही वह देते हैं कि उपदेश का कुछ फल नहीं हो रहा है उतना ही उनकी हठ बढ़ती जाती है और वह लगातार आक्रमण करते जाते हैं। जैसे जब तक चाभी न खत्म हो जाय तब तक मशीन नहीं रुकती, वैसे ही वे भी किसी तरह अपने को नहीं सँभाल सकते। जो कान उनसे विमुख हैं उनमें एक ही बात को हज़ार बार दुहराकर भी वह हार मानना नहीं चाहते।

इससे सुचरिता को बड़ा कष्ट होता- अपने लिए नहीं, परेशबाबू के लिए। सारे ब्रह्म-समाज में परेशबाबू टीका-टिप्पणी के विषय हो गए हैं, इस अशांति को कैसे दूर किया जा सकता है? दूसरी ओर सुचरिता की मौसी भी प्रतिदिन समझती जा रही थीं कि वह जितना ही झुककर अपने को बचा रखने की कोशिश करती हैं, उतना ही इस परिवार के लिए और भी समस्या बनती जाती हैं। इसको लेकर मौसी की लज्जा और संकोच सुचरिता को बेचैन किए रहते। इस संकट से कैसे छुटकारा हो, यह सुचरिता किसी तरह सोच नहीं पाती।

इधर शीघ्र ही सुचरिता का विवाह कर डालने के लिए वरदासंदरी परेशबाबू पर बहुत दबाव डालने लगीं। उन्होंने कहा, "सुचरिता की ज़िम्मेदारी अब हम लोग और नहीं उठा सकते, क्योंकि‍ वह अपने मनमाने ढंग से चलने लगी है। उसके विवाह में यदि अभी देर हो तो बाकी लड़कियों को लेकर मैं और कहीं चली जाऊँगी- सुचरिता का अद्भुत उदाहरण लड़कियों के लिए बहुत ही कुप्रभावी सिध्द होगा। तुम देखना, इसके लिए आगे चलकर तुम्हें पछताना पड़ेगा। ललिता पहले ऐसी नहीं थी, अब तो जो उसके मन में आता है कर बैठती है, किसी की नहीं सुनती, सोचो, उसकी जड़ में क्या है? उस दिन जो करनी वह कर बैठी उसके लिए मैं शर्म से मरी जा रही हूँ। तुम्हारा क्या ख्याल है कि उसमें सुचरिता का कोई हाथ नहीं था? तुम हमेशा सुचरिता को ही अधिक चाहते रहे हो, तब भी मैंने कभी कुछ नहीं कहा, लेकिन अब और ऐसा नहीं चलेगा यह मैं स्पष्ट कहे देती हूँ।"

सुचरिता के लिए तो नहीं किंतु पारिवारिक अशांति के कारण परेशबाबू चिंतित हो उठे। वरदासुंदरी जिस बात को पकड़ लेंगी उसे पूरा करने की कोई कोशिश बाकी न रखेंगी और जितना ही देखेंगी कि आंदोलन से कोई नतीजा नहीं निकलता है उतना ही और हठ पकड़ती जाएँगी, इसमें उन्हें कोई संदेह नहीं था। सुचरिता का विवाह किसी तरह जल्दी हो सके तो वर्तमान अवस्था में सुचरिता के लिए भी वह शांति-दायक हो सकता है, इसमें भी संदेह नहीं। उन्होंने वरदासुंदरी से कहा, "अगर पानू बाबू सुचरिता को राज़ी कर सकें तो विवाह के बारे में मैं कोई आपत्ति नहीं करूँगा।"

वरदासुंदरी ने कहा, "और कितनी बार उसे राज़ी करना होगा? तुम तो हद करते हो! और इतनी खुशामद भी किसलिए? मैं पूछती हूँ, पानू बाबू जैसा पात्र तुम्हें और मिलेगा कहाँ? चाहे तुम गुस्सा ही करो, लेकिन सच बात यही है कि सुचरिता पानू बाबू के योग्य नहीं है!"

परेशबाबू बोले, "सुचरिता के मन का भाव पानू बाबू के प्रति कैसा है, यह मैं ठीक-ठीक नहीं समझ सका। इसीलिए जब तक वे लोग आपस में ही बात साफ़ न कर लें, तब तक मैं इसमें कोई दख़ल नहीं दे सकता।"

वरदासुंदरी ने कहा, "नहीं समझ सके! इतने दिन बाद आख़िर स्वीकार करना ही पड़ा। उस लड़की को समझना आसान नहीं है- वह बाहर से कुछ और है, भीतर से कुछ और!"

वरदासुंदरी ने हरानबाबू को बुला भेजा।

अख़बार में उस दिन ब्रह्म-समाज की वर्तमान दुर्गति की आलोचना छपी थी। उसी में परेशबाबू के परिवार की ओर से ऐसे इशारा किया गया था कि कोई नाम न रहने पर भी यह बिल्‍कुल स्पष्ट हो गया था कि आक्रमण किस पर किया गया है। और लिखने के ढंग से यह अनुमान करना भी मुश्किल न था कि उसका लेखक कौन है। एक बार उसे सरसरी नज़र से देखकर सुचरिता उस अख़बार के टुकड़े-टुकड़े कर रही थी। उसे इतना क्रोध आ रहा था मानो फाड़ते-फाड़ते अख़बार की चिंदियों को जब तक कणों में परिणत न कर लेगी तब तक रुकेगी नहीं।

उसी समय हरानबाबू आकर एक कुर्सी खींचकर सुचरिता के पास बैठ गए। एक बार चेहरा उठाकर भी सुचरिता ने नहीं देखा, जैसे अखबार फाड़ रही थी वैसे ही फाड़ती रही। हरानबाबू बोले, "सुचरिता, आज एक गंभीर बात करनी है। मेरी बात ज़रा ध्‍यान से सुननी होगी।"

सुचरिता काग़ज़ फाड़ती रही। हाथों से जब और टुकड़े करना असंभव हो गइया, तब कैंची निकालकर उससे और टुकड़े करने लगी। ठीक इसी समय ललिता ने कमरे में प्रवेश किया।

हरानबाबू ने कहा, "ललिता, मुझे सुचरिता से कुछ बात करनी है।"

ललिता कमरे से जाने लगी, तो सुचरिता ने उसका ऑंचल पकड़ लिया। ललिता ने कहा, "पानू बाबू को तुमसे कुछ बात जो करनी है।"

कोई जवाब दिए बिना सुचरिता ललिता का ऑंचल पकड़े रही। इस पर ललिता सुचरिता के आसन के कोने पर बैठ गई।

हरानबाबू किसी भी बाधा से दबने वाले शख़्स नहीं हैं। उन्होंने और भूमिका बाँधे बिना सीधे ही बात छेड़ दी। बोले, "विवाह में और देर करना मैं उचित नहीं समझता। परेशबाबू से मैंने कहा था, उन्होंने कहा है कि तुम्हारी सम्मति मिलते ही और कोई बाधा न रहेगी। मैंने तय किया है कि इस रविवार से अगले रविवार को ही.... "

उन्हें बात पूरी न करने देकर सुचरिता ने कहा, "नहीं।"

सुचरिता के मुँह से यह अत्यंत संक्षिप्त लेकिन स्पष्ट और उध्दत 'नहीं' सुनकर हरानबाबू चौंक गए। वह सुचरिता को अत्यंत आज्ञाकारिणी ही जानते आए थे। वह अपनी एकमात्र 'नहीं' के बाण से उनके प्रस्ताव को आधे रास्ते में ही बेधकर ध्‍वस्त कर देगी, इसकी उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी। उन्होंने रुखाई से पूछा, "नहीं! नहीं माने क्या? तुम और देर करना चाहती हो?"

सुचरिता ने कहा, 'नहीं।"

विस्मित होकर हरानबाबू ने कहा, "तो फिर?"

सिर झुकाकर सचरिता ने कहा, "विवाह में मेरी सम्मति नहीं सके माने?"

व्यंग्यपूर्वक ललिता ने कहा, "पानू उसे बाबू, आज आप बंगला भाषा भूल गए हैं क्या?"

एक कठोर दृष्टि से हरानबाबू ने ललिता को चुप करना चाहते हुए कहा, "मातृभाषा भूल गया हूँ यह बात स्वीकार करना उतना कठिन नहीं है जितना यह स्वीकार करना कि जिस व्यक्ति की बात पर हमेशा विश्वास करता आया हूँ उसे मैंने ग़लत समझा।"

ललिता ने कहा, "व्यक्ति को समझने में समय लग़ता है, शायद यह बात आपके बारे में भी कही जा सकती है।"

हरानबाबू बोले, "मेरी बात या राय या व्यवहार में शुरू से ही कभी कोई भेद नहीं रहा है- कभी मैंने किसी को ग़लत समझने का कोई अवसर नहीं दिया, यह बात मैं ज़ोर देकर कह सकता हूँ। सुचरिता ही कहे कि मैं सही कह रहा हूँ या नहीं।"

ललिता फिर कुछ जवाब देने जा रही थी कि उसे रोकते हुए सुचरिता ने कहा, "आप ठीक कहते हैं। आपको मैं कोई दोष नहीं देती।"

हरानबाबू ने कहा, "अगर दोष नहीं देतीं तो फिर मेरे साथ ऐसी ज्यादती क्यों करती है?"

दृढ़ स्वर में सुचरिता ने कहा, "अगर आप इसे ज्यादती कहते हैं तो मेरी ज्यादती ही है.... लेकिन...."

तभी बाहर से पुकार आई, "दीदी, आप कमरे में हैं?"

सुचरिता ने चहककर जल्दी से उठते हुए कहा, "आइए, विनय बाबू, आइए।"

"आप भूल रही हैं, दीदी! विनय बाबू नहीं आए हैं, निरा विनय आया है, मुझे मान देकर शर्मिंदा न करें", कहते हुए विनय ने कमरे में प्रवेश करते ही हरानबाबू को देखा। हरानबाबू के चेहरे पर अप्रसन्नता देखकर बोला, "मैं इतने दिन आया नहीं, शायद इसलिए नाराज़ हो रहे हैं?"

हँसी में योग देने की कोशिश करते हुए हरानबाबू ने कहा, "नाराज़गी की बात तो है ही। लेकिन आज ज़रा असमय में आए हैं- सुचरिता के साथ मेरी कुछ ख़ास बात हो रही थी।"

हड़बड़ाकर विनय उठ खड़ा हुआ। बोला, "यही देखिए न, मेरे कब आने से असमय आना नहीं होगा मैं यह आज तक समझ ही नहीं सका। इसीलिए कभी आने का ही साहस नहीं होता", कहकर विनय बाहर जाने को मुड़ा।

सुचरिता ने कहा, "विनय बाबू, जाइए नहीं, हमारी जो बात थी खत्म हो गई है। आप बैठिए!"

विनय समझ गया कि उसके आने से सुचरिता को एक विशेष संकट से छुटकारा मिल गया है। वह खुश होकर एक कुर्सी पर बैठ गया और बोला, "मुझे प्रश्रय देने से मैं किसी तरह विमुख नहीं रह सकता- मुझे बैठने को कहने पर मैं ज़रूर बैठूगा, मेरा ऐसा ही स्वभाव है। इसीलिए दीदी से यही मेरा निवेदन है कि ऐसी बात मुझे सोच-समझकर ही कहें, नहीं तो मुश्किल में पड़ जाएंगे।"

कुछ कहे बिना हरानबाबू ऑंधी से पहले के सन्नाटे-जैसे स्तब्ध बैठे रहे। उनका मन मानो कह रहा था- अच्छी बात है, मैं बैठकर इंतज़ार करता हूँ। मुझे जो कहना है पूरा कहकर ही उठूँगा।

द्वार के बाहर से ही विनय का कंठ-स्वर सुनकर ललिता के हृदय में जैसे खलबली मच गई थी। वह अपना सहज स्वाभाविक भाव बनाए रखने की बड़ी कोशिश कर रही थी किंतु सफल नहीं हो रही थी। विनय जब कमरे में आ गया तब ललिता परिचित बंधु की तरह सहज भाव से कोई बात उससे न कह सकी। वह किधर देखे, अपने हाथों को क्या करे, यही मानो एक समस्या हो गई थी। एक बार उसने उठकर चलने की कोशिश की, किंतु सुचरिता ने किसी तरह उसका पल्ला न छोड़ा।

विनय ने भी जो कुछ बातचीत की, सुचरिता से ही- ललिता से कोई बात चलाना आज उस जैसे वाक् पटु व्यक्ति के लिए भी मुश्किल हो उठा। मानो इसी कारण वह दुगुने ज़ोर से सुचरिता के साथ बातचीत करने लगा- बातों का क्रम उसने कहीं टूटने न दिया।

लेकिन ललिता और विनय का यह नया संकोच हरानबाबू से छिपा न रहा। जो ललिता आजकल उनके प्रति इतनी प्रगल्भ हो उठी है वही आज विनय के सामने इतनी सकुचा रही है, यह देखकर मन-ही-मन वह जल उठे। ब्रह्म-समाज के बाहर के लोगों से लड़कियों को मिलने की खुली छूट देकर अपने परिवार को परेशबाबू कैसे ग़लत रास्ते पर ले जा रहे हैं- यह सोचकर उनकी घृणा परेशबाबू के प्रति और भड़क उठी और अभिशाप-सी यह कामना मन में जाग उठी कि एक दिन परेशबाबू को इसके लिए विशेष पश्चात्ताप करना पड़े।

ऐसे ही बहुत देर तक रहने पर यह बात स्पष्ट हो गई कि हरानबाबू टलने वाले नहीं हैं। तब सुचरिता ने विनय से कहा, "मौसी की बात मुझे याद नहीं है, ऐसा झूठा इलज़ाम मुझ पर न लगाइए!"

जब सुचरिता विनय को अपनी मौसी के पास ले गई तब ललिता ने कहा, "पानू बाबू, मैं समझती हूँ, मुझसे तो आपको कोई ख़ास काम होगा नहीं।"

हरानबाबू ने कहा, "नहीं। लेकिन जान पड़ता है और कहीं तुम्हें कुछ ख़ास काम है- तुम जा सकती हो।"

ललिता यह इशारा समझ गई। तत्काल ही उध्दत भाव से सिर उठाकर इशारे को बिल्‍कुल स्पष्ट करते हुए कहा, "आज विनय बाबू बहुत दिन बाद आए हैं, उनसे बातें करने जा रही हूँ। तब तक यदि आप अपना ही लिखा हुआ पढ़ना चाहते हों तो- लेकिन नहीं, वह अख़बार तो देखती हूँ कि दीदी ने काट-कूटकर फेंक दिया है। दूसरे का कुछ लिखा हुआ आप सह सकते हों तो ये चीज़ें देख सकते हैं।" कहकर कोने की मेज़ पर से सँभालकर रखी हुई गोरा की रचनाएँ हरानबाबू के सामने रखती हुई वह तेज़ी से बाहर निकल गई।

हरिमोहिनी विनय को देखकर अत्यंत प्रसन्न हुईं। वह केवल इसलिए नहीं कि इस प्रियदर्शन युवक के प्रति उन्हें स्नेह था, इसलिए भी कि इस घर के जो भी लोग हरिमोहिनी के पास आए हैं, सभी उन्हें मानो किसी दूसरी ही श्रेणी के प्राणी की तरह देखते रहे है। वे सभी कलकत्ता के लोग रहे हैं अंग्रेजी और बंगला की लिखाई-पढ़ाई में प्राय: सभी उनसे श्रेष्ठ। उनकी दूरी और अवज्ञा के आघात से वह सदा संकुचित होती रही हैं। विनय में मानो उन्हें इससे आश्रय मिल गया हो। विनय भी कलकत्ता का ही है, और हरिमोहिनी ने सुन रखा है कि पढ़ने में वह किसी से कम नहीं है- फिर भी उनके प्रति विनय अश्रध्दा नहीं रखता, बल्कि अपनापा रखता है, इससे उनके आत्म-सम्मान को एक सहारा मिला। इसीलिए विनय थोड़े से परिचय से ही उनके लिए आत्मीय-सा हो गया। उन्हें ऐसा लगने लगा कि विनय उनका कवच बनकर दूसरों की उध्दतता से उनकी रक्षा करेगा। वह इस घर में मानो सभी की ऑंखों से बहुत अधिक खटकती रही थीं- और विनय उन्हें ओट देकर बचाए रखेगा।

हरिमोहिनी के पास विनय के जाने के तुरंत बाद ललिता वहाँ कभी न जाती- लेकिन आज वह हरानबाबू के विद्रूप की चोट से सारा संकोच छोड़कर मानो हठपूर्वक ऊपर के कमरे में गई। केवल गई ही नहीं, जाते ही उसने विनय के साथ बातचीत की झड़ी लगा दी। नकी महफिल खूब जम गई, यहाँ तक कि उनकी हँसी का स्वर बीच-बीच में निचले कमरे में अकेले बैठे हुए हरानबाबू के कानों से होता हुआ उनके मर्मस्थल को बेधने लगा। अधिक देर तक वह अकेले न बैठ सके। वरदासुंदरी से बातचीत करके अपना गुस्सा प्रकट करने की चेष्टा करने लगे। वरदासुंदरी ने जब सुना कि सुचरिता ने हरानबाबू के साथ विवाह के बारे में अपनी असहमति प्रकट की है तो यह सुनकर उनके लिए धैर्य रख पाना असंभव हो गया। बोलीं "पानू बाबू, भलमनसाहत दिखाने से यहाँ नहीं चलेगा। जब वह बार-बार सम्मति दे चुकी है और पूरा ब्रह्म-सूमाज जब इस विवाह की प्रतीक्षा कर रहा है, तब आज उसके सिर हिला देने से ही यह सब बदल जाय, ऐसा होने देने से नहीं चलेगा। आप किसी तरह अपना अधिकार न छोड़ें, मैं कहे देती हूँ। देखूँ वह क्या कर लेगी।"

हरानबाबू को इस मामले में बढ़ावा देने की कोई ज़रूरत भी नहीं थी। क्योंकि वह पहले ही काठ की तरह अकड़कर बैठे हुए सिर उठाए मन-ही-मन कह रहे थे- सिध्दांतत: अपना दावा छोड़ने से नहीं चलेगा-सुचरिता का त्याग मेरे लिए कोई बड़ी बात नहीं है, लेकिन ब्रह्म-समाज का सिर नीचा नहीं होने दूँगा।

हरिमोहिनी के साथ आत्मीयता पक्की करने के लिए विनय कुछ खाने की हठ लगाए बैठा था। हरिमोहिनी ने हड़बड़ाकर एक छोटी थाली में थोड़े-से भिगोए हुए चने, छैना, मक्खन, थोड़ी-सी चीनी और एक केला, और काँसे के कटोरे में थोड़ा दूध लाकर विनय के सामने रख दिया। विनय ने हँस कर कहा, "मैंने तो सोचा था बेवक्त भूख की बात कहकर मौसी को मुश्किल में डालूँगा, लेकिन मैं ही पकड़ा गया।'

यह कहकर विनय ने बड़े आडंबर के साथ खाना शुरू किया ही था कि उसी समय वरदासुंदरी आ पहुँचीं। अपनी थाली पर भरसक झुककर विनय ने नमस्कार करते हुए कहा, "मैं तो बहुत देर से नीचे था, आपसे भेंट नहीं हुई।"

उसे कोई जवाब न देकर वरदासुंदरी ने सुचरिता की ओर लक्ष्य करके कहा, "यह तो यहाँ बैठी है। मैं पहले ही समझ गई थी कि यहाँ मजलिस जमी है- मजे हो रहे हैं। उधर बेचारे हरानबाबू सबेरे से इनका रास्ता देखते बैठे हैं, जैसे वह इनके बगीचे के माली हों। बचपन से सबको पाल-पोसकर बड़ा किया- उनमें से तो किसी को ऐसा व्यवहार करते कभी देखा नहीं। आजकल न जाने यह सब कहाँ से सीख रही हैं। हमारे परिवार में जो कभी न हो सकता, आज-कल वही सब शुरू हो गया है- समाज में मुँह दिखाने लायक़ न रहे। इतने दिनों से इतनी मेहनत से जो कुछ सिखाया था दो दिन में सब चौपट कर दिया! कैसा अंधेरा है!"

हड़बड़ाकर हरिमोहिनी ने उठते हुए सुचरिता से कहा, "नीचे कोई बैठे हैं, मुझे तो मालूम नहीं था। यह तो बड़ी भूल हो गई। बेटी, तुम जाओ, जल्दी जाओ-मुझसे बड़ा अपराध हो गया।"

हरिमोहिनी का बिल्‍कुल अपराध नहीं है, ललिता यह कहने के लिए उसी क्षण तैयार हो गई, लेकिन सुचरिता ने छिपे-छिपे उसका हाथ पकड़ कर ज़ोर से दबाकर उसे चुप करा दिया और कोई जवाब दिए बिना नीचे चली गई।

यह पहले ही बताया जा चुका है कि वरदासुंदरी का स्नेह विनय ने अपनी ओर कर लिया था। उनके परिवार के प्रभाव में आकर आगे चलकर विनय ब्रह्म-समाज में प्रवेश करेगा, इसमें वरदासुंदरी को शक नहीं था। वह विनय को मानो अपने हाथों से गढ़कर बना रही हैं, इसका गर्व भी उन्हें था, वह गर्व उन्होंने अपने किसी-किसी बंधु के सामने प्रकट भी किया था। आज उसी विनय को दुश्मन के शिविर में प्रतिष्ठित देखकर उनके मन में जलन हुई, और अपनी ही लड़की ललिता को विनय के फिर से पतन में सहायता करते देखकर उनके भीतर की ज्वाला और भी भड़क उठी। उन्होंने रूखे स्वर में कहा, "ललिता, यहाँ क्या तुम्हारा कोई काम है?"

ललिता ने कहा, "हाँ, विनय बाबू आए हैं इसलिए.... "

वरदासुंदरी ने कहा, "जिनके पास विनय बाबू आए हैं वही उनकी खातिर करेंगी। तुम नीचे चलो, काम है।"

मन-ही-मन ललिता ने तय किया कि हरानबाबू ने ज़रूर विनय का और उसका नाम लेकर माँ से कुछ ऐसी बात कही है जिसे कहने का उन्हें कोई अधिकार नहीं हैं इस अनुमान से उनका मन अत्यंत सख्त पड़ गया और उसने अनावश्यक ढिठाई से कहा, "विनय बाबू बहुत दिनों के बाद आए हैं, उनसे दो-चार बाते कर लूँ, फिर आती हूँ।"

वरदासुंदरी ललिता के बात कहने के ढंग से यह समझ गईं कि ज़बरदस्ती नहीं चलेगी। कहीं हरिमोहिनी के सामने ही उनकी हार न हो जाए, इस भय से कुछ और कहे बिना और विनय से कोई बात किए बिना वह चली गईं।

विनय के साथ बातें करने का उत्साह माँ के सामने तो ललिता ने प्रकट किया किंतु वरदासुंदरी के जाते ही उस उत्साह का कोई चिन्ह न दीखा। तीनों जने कुछ कुंठित से हो रहे। ललिता थोड़ी देर बाद ही उठकर चली गई, अपने कमरे में जाकर उसने दरवाज़ा बंद कर लिया।

हरिमोहिनी की अवस्था इस घर में कैसी हो गई है यह विनय अच्छी तरह समझ गया। बातों-ही-बातों में हरिमोहिनी का पिछला सारा इतिहास भी उसने जान लिया। सारी बात सुनकर हरिमोहिनी ने कहा, "बेटा, मुझ जैसी अनाथिनी के लिए दुनिया में रहना ही ठीक नहीं है। किसी तीर्थ में जाकर देव-सेवा में मन लगा सकती तो वही मेरे लिए अच्छा होता। मेरी जो थोड़ी-बहुत पूँजी बची है उससे कुछ दिन चल जाता, उसके बाद भी बची रहती तो किसी घर का चौका-बासन करके भी किसी तरह दिन कट जाते। काशी में देख आई हूँ, इसी तरह बहुतों का जीवन कट जाता है। लेकिन मैं पापिनी हूँ इसीलिए वैसा नहीं कर सकी। जब अकेली होती हूँ तो मेरे सारे दु:ख मुझे घेर लेते हैं-देवता-ठाकुर को भी मेरे पास नहीं आने देते। डरती हूँ कि कहीं पागल न हो जाऊँ। डूबते हुए को तिनके का जैसा सहारा होता है, मेरे लिए राधारानी और सतीश भी वैसे हो गए हैं-उन्हें छोड़ने की बात सोचते ही प्राण मुँह को आ जाते हैं। इसीलिए दिन-रात मुझे डर रहता है कि उन्हें छोड़ना ही होगा, नहीं तो सब खोकर फिर कुछ-एक दिनों में इतनी ममता उनसे क्यों हो जाती! बेटा, तुमसे कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है, जब से इन दोनों को पाया है तब से ठाकुर की पूजा पूरे मन से कर सकी हूँ- ये चले गए तो मेरे ठाकुर भी निरे पत्थर हो जाएँगे।"

कहते-कहते हरिमोहिनी ने ऑंचल से ऑंखें पोंछ लीं।



निचले कमरे में आकर सुचरिता हरानबाबू के सामने खड़ी हो गई। बोली, "आप को क्या कहना है, कहिए।"

हरानबाबू बोले, बैठो!"

सुचरिता बैठी नहीं, वैसे ही खड़ी रही।

हरानबाबू ने कहा, "सुचरिता, तुमने मेरे साथ अन्याय किया है।"

सुचरिता ने कहा, "आपने भी मेरे साथ अन्याय कियाहै।"

हरानबाबू ने कहा, "क्यों, मैंने तुम्हें वचन दिया था और अब भी.... "

बात काटते हुए सुचरिता ने कहा, "न्याय-अन्याय क्या केवल वचन से ही होता है? उसी वचन पर ज़ोर देकर तो आप मुझ पर अत्याचार करना चाहते हैं? एक सत्य क्या हज़ार झूठ से बड़ा नहीं है? अगर सौ बार भी मैंने भूल की हो तो तब भी क्या आप ज़बरदस्ती उस भूल को ही आगे रखेंगे? आज जब मैंने अपनी वह भूल जान ली है तब मैं अपनी पहले की कोई बात नहीं मानूँगी- उसे मानना ही अन्याय होगा।"

ऐसा परिवर्तन सुचरिता में कैसे हो सकता है, किसी तरह हरानबाबू यह नहीं समझ सके। सुचरिता की स्वाभाविक नम्रता ओर मौन के इस तरह भंग हो जाने का कारण वह स्वयं हैं, यह समझने की उनमें न शक्ति थी, न श्रध्दा। मन-ही-मन सुचरिता के नए साथियों को दोष देते हुए उन्होंने पूछा, "तुमने क्या भूल की थी?"

सुचरिता ने कहा, "यह मुझसे क्यों पूछते हो? पहले मेरी सम्मति थी और अब नहीं है, इतना ही क्या काफ़ी नहीं है?"

हरानबाबू ने कहा, "ब्रह्म-समाज के सामने भी तो हम जवाबदेह हैं। समाज के लोगों के सामने तुम क्या कहोगी, मैं भी क्या कहूँगा?"

सुचरिता ने कहा, 'मैं तो कुछ भी नहीं कहूँगी। आप कहना चाहें तो कह दीजिएगा-सुचरिता की उम्र कम है, उसे अक्ल नहीं है, उसकी मति चंचल है। जो चाहें सो कह दीजिएगा। लेकिन इस बारे में हमारी बातचीत यहीं खत्म हो गई समझे।"

हरानबाबू बोले, "बात खत्म कैसे हो सकती है? अगर परेशबाबू...."

उनके यह कहते समय ही परेशबाबू आ गए। बोले, "क्या है पानू ने कहा, "सुचरिता, जाओ मत, परेशबाबू के सामने ही बात हो जाय।"

सुचरिता लौटकर खड़ी हो गई। हरानबाबू ने कहा, "परेशबाबू, इतने दिन बाद आज सुचरिता कह रही हैं कि विवाह में उनकी सम्मति नहीं है। इतनी बड़ी, इतनी गंभीर बात को लेकर इतने दिन तक खिलवाड़ करना क्या उचित हुआ है? और आप भी क्या इस लज्जाजनक बात के लिए उत्तरदाई नहीं हैं?"

सुचरिता के सिर पर हाथ फेरते हुए परेशबाबू ने स्निग्ध स्वर में कहा, "बेटी, तुम्हारे यहाँ रहने की ज़रूरत नहीं है, तुम जाओ।"

क्षण-भर में इस छोटी-सी बात से सुचरिता की ऑंखों में ऑंसू भर आए और वह जल्दी से चली गई।

परेशबाबू ने कहा, "सुचरिता ने अच्छी तरह अपने मन को समझे बिना ही विवाह की सम्मति दी थी, यह संदेह बहुत दिन से मेरे मन में था। इसीलिए समाज के लोगों के सामने आपका संबंध पक्का करने के बारे में आपका अनुरोध मैं अभी तक नहीं मान सका था।"

हरानबाबू ने कहा "तब सुचरिता ने अपना मन ठीक समझकर ही राय दी थी और अब बिना समझे 'ना' कह रही है, ऐसा संदेह आपको नहीं होता?"

परेशबाबू बोले, "दोनों ही बातें हो सकती हैं, लेकिन संदेह की हालत में तो विवाह नहीं हो सकता।"

हरानबाबू बोले, "सुचरिता को आप कोई नेक सलाह न देंगे?"

परेशबाबू ने कहा, "आप निश्चित ही जानते हैं कि सुचरिता को मैं भरसक ग़लत सलाह नहीं दूँगा।"

हरानबाबू ने कहा, "अगर यही बात होती तो सुचरिता की यह हालत कभी न होती। आपके परिवार में जैसी-जैसी बातें आजकल होने लगी हैं सब आपकी लापरवाही का ही नतीजा है, यह बात मैं आपके मुँह पर कहता हूँ।"

मुस्‍कराकर परेशबाबू बोले, "आपकी यह बात तो ठीक ही है। अपने परिवार की अच्छाई-बुराई की सारी ज़िम्मेदारी मैं न लूँगा तो कौन लेगा?"

हरानबाबू बोले, "इसके लिए आपको पछताना पड़ेगा- यह मैं कहे देता हूँ।"

परेशबाबू ने कहा, "पछतावा तो ईश्वर की दया है, पानू बाबू! मैं अपराध से ही डरता हूँ, पश्चाताप से नहीं।"

कमरे में आकर सुचरिता ने परेशबाबू का हाथ पकड़कर कहा, "बाबा उपासना का वक्त हो गया है।"

परेशबाबू ने पूछा, "पानू बाबू, आप ज़रा बैठेंगे?"

हरानबाबू बोले, "नहीं!" और शीघ्रता से चले गए।



अपने अंतस् के साथ और बाहरी परिस्थिति के साथ, एक साथ ही सुचरिता का जो संघर्ष आरंभ हो गया था उससे वह भयभीत हो गई थी। गोरा के प्रति उसके मन का जो भाव इतने दिनों से उसके अजाने गहरा होता जाता था, और गोरा के जेल जाने के बाद से जो उसके सामने बिल्‍कुल स्पष्ट और दुर्निवार हो उठा था, उसे वह कैसे सँभाले, उसका क्या परिणाम होगा, यही वह सोच नहीं पा रही थी। न इसकी बात वह किसी से कह सकती थी, भीतर-ही-भीतर कुंठित होकर रह जाती थी। अपनी इस गहरी वेदना को लेकर वह अकेली बैठकर अपने साथ किसी तरह का समझौता कर सके, इसका भी अवकाश उसे नहीं मिला था, क्योंकि हरानबाबू सारे समाज को भड़काकर उसके द्वार पर जुटाने का प्रयास कर रहे थे। यहाँ तक कि समाचार-पत्रों में डोंडी पिटवाने के भी लक्षण दीख रहे थे। इन सबके ऊपर सुचरिता की मौसी की समस्या ने भी कुछ ऐसा रूप ले लिया था कि उसका बहुत जल्दी कोई हल निकाले बिना काम नहीं चल सकता था। सुचरिता ने समझ लिया था कि अब उसका जीवन एक संधि-स्थल पर आ पहुँचा है जहाँ से आगे चिर-परिचित मार्ग पर अपने अभ्यस्त निश्चिंत भाव से और नहीं चला जा सकेगा।

इस संकट के समय एकमात्र परेशबाबू ही उसके अवलंबन थे। उसने उनसे कोई सलाह या उपदेश नहीं माँगा। बहुत-सी बातें ऐसी थीं जिन्हें वह परेशबाबू के साने नहीं रख सकती थी, और कुछ बातें ऐसी थीं जो अपनी लज्जाजनक हीनता के कारण ही इस लायक़ नहीं थीं। परेशबाबू का संग ही चुपचाप उसे जैसे पिता की गोद में या माता के वक्ष की ओर खींच लेता था।

इस संकट के समय एकमात्र परेशबाबू ही उसके अवलंबन थे उसने उनसे कोई सलाह या उपदेश नहीं माँगा। बहुत-सी बातें ऐसी थीं जिनहें वह परेशबाबू के सामने नहीं रख सकती थी, और कुछ बातें ऐसी थीं जो अपनी लज्जाजनक हीनता के कारण ही इस लायक़ नहीं थी। परेशबाबू का संग ही चुपचाप उसे जैसे पिता की गोद में या माता के वक्ष की ओर खींच लेता था।

परेशबाबू जाड़े के दिन होने के कारण अब साँझ को बगीचे में नहीं जाते थे। घर के पश्चिम की ओर के छोटे कमरे में खुले दरवाज़े क़े सामने आसन बिछाकर वह उपासना के लिए बैठते थे, पके बालों से मंडित उनके शांत चेहरे पर सूर्यास्त की आभा पड़ती रहती थी। सुचरिता उस समय दबे-पैरों से आकर चुपचाप उनके पास बैठ जाती थी। अपने अशांत व्यथित चित्त को वह परेशबाबू की उपासना की गहराई में डुबा देती थी। आजकल उपासना के बाद परेशबाबू अक्सर ही देखते कि उनकी यह कन्या, यह छात्र चुपचाप उनके पास बैठी है। उस समय इस बालिका को वह एक अनिर्वचनीय आध्‍यात्मिक मधुरता से घिरी हुई देखकर पूरे अंत:करण से उसे नीरव आशीर्वाद देने लगते थे।

ईश्वर से मिलन ही एकमात्र परेशबाबू के जीवन का लक्ष्य था, इसलिए उनका चित्त हमेशा उसी की ओर उन्मुख रहता था जो कि सत्यतम और श्रेयतम हो। इसीलिए उनके लिए संसार कभी असह्य नहीं होता था। इस प्रकार उन्होंने अपने भीतर ही एक स्वाधीनता प्राप्त कर ली थी। इसी कारण मत अथवा आचरण के मामले में किसी दूसरे के प्रति वह किसी तरह की ज़बरदस्ती नहीं कर सकते थे। मंगलमय के प्रति निर्भरता और समाज के प्रति धैर्य उनके लिए अत्यंत स्वाभाविक था। यह धैर्य उनमें इतना प्रबल था कि साम्प्रदायिक प्रवृत्ति के लोग उनकी बुराई करते थे। लेकिन वह बुराई को भी ऐसे ग्रहण कर सकते थे कि वह उन्हें चोट भले ही पहुँचाए, किंतु विचलित नहीं कर सकती थी। वह रह-रहकर एक ही बात की आवृत्ति मन-ही-मन किया करते थे, "मैं और किसी के हाथ से कुछ नहीं लूँगा, सब कुछ उसी ईश्वर के कर-कमलों से लूँगा।"

परेशबाबू के जीवन की इस गंभीर निस्तब्‍ध शांति का स्पर्श पाने के लिए जब-तब कोई-न-कोई कारण निकालकर सुचरिता उनके पास आ जाती। इस अनभिज्ञ कच्ची उम्र में क ओर अपने विद्रोही मन और दूसरी ओर विपरीत परिस्थितियों से बिल्‍कुल उद्भ्रांत होकर बार-बार वह मन-ही-मन कह उठती- थोड़ी देर बाबा के पैरों में सिर रखकर धरती पर पड़ी रह सकूँ तो मेरा मन शांति से भर उठे।

सुचरिता सोचती थी कि मन ही सारी शक्ति को जगाकर अविचलित धैर्य से वह सब आघातों को सह लेगी, और अंत में सभी विरोधी परिस्थितियाँ अपने आप परास्त हो जाएगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उसे अपरिचित पथ पर ही चलना पड़ा।

वरदासुंदरी ने जब देखा कि गुस्से या डाँट-फटकार से सुचरिता को डिगाना संभव नहीं है, और परेशबाबू से भी मदद मिलने की कोई आशा नहीं है, तब हरिमोहिनी के प्रति उनका क्रोध बहुत ही भड़क उठा। उनके घर में हरिमोहिनी की उपस्थित उन्हें उठते-बैठते हर समय अखरने लगी।

उस दिन उन्होंने पिता की बरसी की उपासना के लिए विनय को भी बुलाया था। उपासना संध्‍या समय होगी, उसके लिए वह पहले से ही सभागृह सजा रही थी, सुचरिता और अन्य लड़कियाँ भी उनकी सहायता कर रही थी।

इसी समय उन्होंने देखा कि विनय पास की सीढ़ी से ऊपर हरिमोहिनी की ओर जा रहा है मन जब बोझिल होता है तब छोटी-सी घटना भी बहुत तूल पकड़ लेती है। विनय का सीधे ऊपर के कमरे की ओर जाना पलभर में ही उनके लिए ऐसा असह्य हो उठा कि घर सजाना छोड़कर तुरंत वह हरिमोहिनी के पास जा खड़ी हुईं। उन्होंने देखा, चटाई पर बैठा विनय आत्मीयों की भाँति घुल-मिलकर हरिमोहिनी से बातें कर रहा है।

वरदासुंदरी कह उठीं, "देखो, हमारे यहाँ तक जितने दिन रहना चाहो रहो, मैं तुम्हें अच्छी तरह ही रखूँगी। लेकिन यह मैं कहे देती हूँ कि तुम्हारे उस ठाकुर को यहाँ नहीं रखा जा सकता।"

हरिमोहिनी सदा गाँव-देहात में ही रही थी। उनकी ब्रह्म लोगों के बारे में यही धारणा थी कि वे ख्रिस्तानों की ही कोई शाखा है। इसलिए उनके संपर्क में आने के बारे में हरिमोहिनी को सोच-संकोच होना तो स्वाभाविक ही था। लेकिन हरिमोहिनी से मिलने-जुलने में उन लोगों को भी संकोच हो सकता है, यह बात धीरे-धीरे कुछ दिनों से ही उनकी समझ में आ रही थी। उन्हें क्या करना चाहिए, वह इसी की चिंता से व्याकुल हो रही थीं। ऐसे समय में आज एकाएक वरदासुंदरी के मुँह से यह बात सुनकर उन्होंने अच्छी तरह समझ लिया कि अब और चिंता करने का समय नहीं है, कुछ-न-कुछ निश्चय उन्हें कर लेना चाहिए। पहले उन्होंने सोचा, कलकत्ता में ही कहीं मकान लेकर रहेगी, जिससे बीच-बीच में सुचरिता और सतीश को देखती रह सकें। लेकिन थोड़ी-सी पूँजी में कलकत्ता का खर्च कैसे चलेगा?

यों अकस्मात् वरदासुंदरी ऑंधी की तरह आकर चली गईं पर विनय सिर झुकाकर चुपचाप बैठा रहा।

थोड़ी देर चुप रकर हरिमोहिनी बोल उठीं, "मैं तीर्थ जाऊँगी- तुममें से कोई मुझे पहुँचा आ सकेगा, बेटा?"

विनय ने कहा, "ज़रूर पहुँचा सकूँगा। लेकिन उसकी तैयारी में तो दो-चार दिन लग जाएँगे- तब तक मौसी, तुम चलकर मेरी माँ के पास रहो।"

हरिमोहिनी ने कहा, "बेटा, मेरा बोझ बहुत भारी बोझ है। विधाता ने मेरे सिर पर न जाने क्या गठरी लाद दी है कि मुझे कोई सँभाल नहीं सकता। जब मेरी ससुराल भी मेरा भार नहीं उठा सकी तभी मुझे समझ लेना चाहिए था। लेकिन बेटा, मन बड़ा ही ढीठ है- इस सूनी छाती को भरने के लिए मैं इधर-उधर भटक रही हूँ और मेरा यह खोटा भाग्य भी हर समय मेरे साथ है। अब रहने दो बेटा, और किसी के घर जाने की ज़रूरत नहीं है- जो सारी दुनिया का बोझ ढोते हैं उन्हीं के चरणों में अब मैं भी शरण लूँगी- और कुछ मुझसे अब नहीं होता।" कहती हुई हरिमोहिनी बार-बार ऑंखें पोंछने लगीं।

विनय ने कहा, "ऐसा कहने से नहीं चलेगा, मौसी! मेरी माँ से और किसी की तुलना नहीं की जा सकती। अपने जीवन का सारा भार जो भगवान को सौंप दे सकते हैं दूसरों का भार लेते उन्हें कोई क्लेश नहीं होता- जैसे कि मेरी माँ है, या जैसे यहाँ आपने परेशबाबू को देखा है। मैं कुछ नहीं सुनूँगा- एक बार तुम्हें अपने तीर्थ की सैर करा लूँगा, फिर मै तुम्हारा तीर्थ देखने चलूँगा।"

हरिमोहिनी ने कहा, "तब पहले एक बार उन्हें ख़बर तो देनी...."

विनय ने कहा, "हम लोगों के पहुँचते ही माँ को खबर हो जाएगी-वही तो पक्की खबर होगी।"

हरिमोहिनी ने कहा, "तो कल सबेरे...."

विनय ने कहा, "क्‍या ज़रूरत है? आज रात को ही चला जाए।"

संध्‍या हो रही थी; सुचरिता ने आकर कहा, "विनय बाबू, माँ ने आपको बुला भेजा है। उपासना का समय हो गया है।"

विनय ने कहा, "मुझे मौसी से बात करनी है, आज तो नहीं जा सकूँगा।"

असल में वरदासुंदरी की उपासना का निमंत्रण आज विनय किसी तरह स्वीकार नहीं कर पा रहा था। उसे ऐसा लग रहा था कि यह सब एक विडंबना है।

घबराकर हरिमोहिनी ने कहा, "बेटा विनय, तुम जाओ। मेरे साथ बातचीत फिर हो जाएगी। पहले तुम्हारा काम हो जाए, फिर आ जाना।"

विनय ने समझ लिया कि उसका सभा में न जाना, इस परिवार में जिस विप्लव का सूत्रपात हो चुका है उसे कुछ और बढ़ावा देना ही होगा। इसलिए वह उपासना में चला गया, किंतु उसमें पूरा मन नहीं लगा सका।

उपासना के बाद भोज भी था। विनय ने कहा, "आज मुझे भूख नहीं है।"

वरदासुंदरी बोलीं, "भूख का क्या दोष है? आप तो ऊपर ही खा-पी आए हैं।"

हँसकर विनय ने कहा, "हाँ, लालची लोगों का यही हश्र होता है। जो सामने है उसके लालच में भविष्य खो बैठते हैं।" कहकर वह जाने लगा।

वरदासुंदरी ने पूछा, "शायद ऊपर जा रहे हैं?"

संक्षेप में विनय 'हाँ' कहकर बाहर हो गया। दरवाज़े के पास ही सुचरिता थी, मृदु स्वर में उससे बोला, "दीदी, एक बार मौसी के पास आइएगा, कुछ ख़ास बात करनी है।"

ललिता आतिथ्य में व्यस्त थी। एक बार हरानबाबू के निकट उसके आते ही वह अकारण कह उठे, "विनय बाबू तो यहाँ पर नहीं हैं, वह तो ऊपर गए हैं।"

ललिता यह सुनकर वहीं खड़ी हो गई और उनके चेहरे की ओर ऑंखें उठाती हुई बिना संकोच बोली, "मुझे मालूम है। मुझसे मिले बिना वह नहीं जाएँगे। यहाँ का काम ख़त्म कर मैं अभी ऊपर जाऊँगी।"

ललिता को वह ज़रा भी कुंठित न कर सके, इससे हरान के भीतर घुटती हुई जलन और भी बढ़ गई। विनय सहसा सुचरिता को क्या कह गया जिसके थोड़ी देर बाद ही सुचरिता भी उसके पीछे चली गई, यह भी हरानबाबू ने देख लिया। आज वह सुचरिता से बात करने का मौक़ा पाने में कई बार विफल हो चुके थे- दो-एक बार तो सुचरिता उनका स्पष्ट आह्नान ऐसे टाल गई थी कि हरानबाबू ने सभा में जुटे हुए लोगों के सामने अपने को अपमानित अनुभव किया था। इससे उनका मन और भी बेचैन था।

ऊपर जाकर सुचरिता ने देखा, हरिमोहिनी अपना सब सामान समेटकर इस तरह बैठी थीं मानो इसी समय कहीं जाने वाली हों। सुचरिता ने पूछा, "मौसी यह क्या?"

हरिमोहिनी उसे कोई उत्तर न दे सकीं, रोती हुई बोलीं, "सतीश कहाँ है- एक बार उसे बुला दो, बेटी!"

सुचरिता ने विनय के चेहरे की ओर देखा। विनय ने कहा, "इस घर में सभी को मौसी के रहने से असुविधा होती है, मैं इसीलिए उन्हें माँ के पास ले जा रहा हूँ।"

हरिमोहिनी ने कहा, "वहाँ से मैं तीर्थ जाने की सोच रही हूँ। मुझ जैसी का यों किसी के घर में रहना ठीक नहीं है। हमेशा के लए कोई मुझे ऐसे रखने भी क्यों लगा?"

स्वयं सुचरिता यह बात कुछ दिनों से सोच रही थी। इस घर में रहना उसकी मौसी के लिए अपमानजनक है, यह उसने जान लिया था। इसलिए वह कोई जवाब न दे सकी, चुपचाप उनके पास जाकर बैठ गई। रात हो गई थी, कमरे में दिया नहीं जलाया गया था। कलकत्ता के हेमंत के मटमैले आकाश में तारे धुँधले हो रहे थे। किस-किस की ऑंखों से ऑंसू बहते रहे, यह अंधकार में देखा न जा सका।

सीढ़ियों पर से सतीश की तीखी पुकार सुनाई पड़ी, "मौसी!"

"क्या बेटा, आओ बेटा", कहती हुई हरिमोहिनी हड़बड़ाकर उठ खड़ी हुईं।

सुचरिता ने कहा, "मौसी, आज रात तो कहीं जाना नहीं हो सकता। कल सबेरे सब तय होगा। ठीक से बाबा से कहे बिना तुम कैसे जा सकती हो भला? यह तो बड़ी ज्यादती होगी।"

वरदासुंदरी के हाथों हरिमोहिनी के अपमान से उत्तेजित विनय ने यह बात नहीं सोची थी। उसने निश्चित किया था कि इस घर में मौसी का अब एक रात भी रहना ठीक नहीं है। हरिमोहिनी कहीं आसरा न होने के कारण ही सब कुछ सहती हुई इस घर में रहती हैं, वरदासुंदरी की यह धारणा दूर करने के लिए हरिमोहिनी को विनय यहाँ से ले जाने में ज़रा भी देर करना नहीं चाहता था। विनय को सहसा सुचरिता की बात सुनकर ध्‍यान आया, इस घर में हरिमोहिनी का संबंध एकमात्र अथवा मुख्य रूप से वरदासुंदरी के हाथ नहीं है। जिसने अपमान किया है उसी को बड़ा मान लेना, और जिसने उदारता से आत्मीय मानकर सहारा दिया है उसे भूल जाना- यह तो ठीक न होगा।

विनय कह उठा, "यह बात तो ठीक है। परेशबाबू को बताए बिना किसी तरह नहीं जाया जा सकता।"

आते ही सतीश ने कहा, "जानती हो, मौसी? रूसी लोग भारतवर्ष पर हमला करने आ रहे हैं। बड़ा मज़ा रहेगा।"

विनय ने पूछा, "तुम किसकी ओर हो?"

सतीश बोला, "मैं-रूसियों की ओर।"

विनय ने कहा, "तब तो रूसियों को कोई चिंता नहीं है।"

इस तरह सतीश के बातचीत फिर जमा देने पर सुचरिता धीरे-धीरे वहाँ से उठकर नीचे चली गई।

सुचरिता जानती थी, बिस्तर पर जाने से पहले परेशबाबू अपनी कोई प्रिय पुस्तक लेकर थोड़ी देर पढ़ते थे। ऐसे समय कई बार सुचरिता उनके पास जाकर बैठती रही है ओर सुचरिता के अनुरोध पर परेशबाबू उसे पढ़कर सुनाते रहे हैं।

नियमानुसार आज भी परेशबाबू अपने कमरे में अकेली बत्ती जलाकर एमर्सन का ग्रंथ पढ़ रहे थे। धीरे-से कुर्सी खींचकर सुचरिता उनके पास बैठ गई। परेशबाबू ने पुस्तक रखकर एक बार उसके चेहरे की ओर देखा। सुचरिता का संकल्प टूट गया- वह घर की कोई बात न कर सकी। बोली, "बाबा, मुझे भी पढ़कर सुनाओ।"

परेशबाबू पढ़कर उसे समझाने लगे। दस बज जाने पर पढ़ाई समाप्त हुई। तब सुचरिता यह सोचकर कि सोने से पहले परेशबाबू के मन में किसी प्रकार का क्लेश उत्पन्न न हो, कोई बात कहे बिना धीरे-धीरे जाने लगी।

स्नेह-भरे स्वर में परेशबाबू ने उसे पुकारा, "राधो!"

वह लौट आई। परेशबाबू ने कहा, "तुम अपनी मौसी की बात कहने आई थी न?"

उसके मन की बात परेशबाबू जान गए हैं, इससे विस्मित होते हुए सुचरिता ने कहा, "हाँ बाबा, लेकिन अब रहने दो, कल सबेरे बात होगी।"

परेशबाबू ने कहा, "बैठो।"

सुचरिता के बैठ जाने पर वह बोले, "यहाँ तुम्हारी मौसी को कष्ट होता है, यह बात मैं सोचता रहा हूँ। उनका धर्म-विश्वास ओर आचरण लावण्य की माँ के संस्कारों को इतनी अधिक चोट पहुँचाएगा, पहले यह मैं ठीक नहीं जान सका। जब साफ़ देख रहा हूँ कि इससे उन्हें दु:ख होता है तब इस घर में तुम्हारी मौसी को रखने से वह घुटती ही रहेंगी।"

सुचरिता ने कहा, "मौसी यहाँ से जाने के लिए तैयार बैठी हैं।"

परेशबाबू ने कहा, "मैं जानता था कि वह जाएँगी। तुम दोनों ही उनके एकमात्र अपने हो- उन्हें ऐसे अनाथ होकर तुम लोग नहीं जाने दे सकोगे, यह भी मैं जानता हूँ। इसीलिए कुछ दिनों से मैं इस बारे में सोच रहा था।"

उसकी मौसी किस संकट में पड़ी हैं, यह परेशबाबू समझते हैं और इस बारे में सोचते भी रहे हैं, यह बात सुचरिता ने बिल्‍कुल नहीं सोची थी। कहीं वह जानकर दु:ख न पाएँ इस डर से वह इतने दिनों से बड़ी सावधान रहती आई थी। उसे परेशबाबू की बात सुनकर बड़ा अचरज हुआ और उसकी ऑंखें डबडबा आईं।

परेशबाबू ने कहा, "तुम्हारी मौसी के लिए मैंने मकान ठीक कर रखा है।"

सुचरिता ने कहा, "लेकिन वह तो.... "

"किराया नहीं दे सकेंगी- यही न, लेकिन किराया वह क्यों देंगी- किराया तुम दोगी।"

अवाक् होकर सुचरिता परेशबाबू के चेहरे की ओर ताकती रही। परेशबाबू ने हँसकर कहा, "उन्हें अपने ही घर में रहने देना, किराया नहीं देना होगा।"

सुचरिता और भी विस्मत हो गई। परेशबाबू ने कहा, "कलकत्ता में तुम्हारे दो मकान हैं, क्या नहीं जानतीं? एक तुम्हारा, एक सतीश का। मरते समय तुम्हारे पिता मुझे कुछ रुपया सौंप गए थे। उसी पर सूद जोड़कर मैंने कलकत्ता में दो मकान ख़रीदे हैं। अब तक उनका जो किराया आता रहा है, वह भी जमा होता रहा है। तुम्हारे मकान के किराएदार अभी कुछ दिन पहले चले गए हैं- वहाँ रहने में तुम्हारी मौसी को कोई परेशानी न होगी।"

सुचरिता ने कहा, "वहाँ वह क्या अकेली रह सकेंगी?"

परेशबाबू ने कहा, "उनके अपने तुम लोगों के रहते हुए वह अकेली क्यों रहेंगी?"

सुचरिता ने कहा, "मैं यही बात कहने आज आई थी। मौसी चले जाने के लिए बिल्‍कुल तैयार हैं, सोच रही थी कि मैं उन्हें अकेली कैसे जानू दूँगी। इसीलिए तुम्हारा उपदेश लेने आई थी। जो तुम कहोगे वही करूँगी।"

परेशबाबू ने कहा, "हमारे घर से लगी हुई यह जो गली है, इसी गली में दो-तीन मकान छोड़कर तुम्हारा मकान है- इस बरामदे में खड़े होने से वह मकान दीख जाता है। तुम लोग वहाँ रहोगे तो ऐसे अरक्षित नहीं रहोगे- बराबर देखता-सुनता रहूँगा।"

एक बहुत बड़ा बोझ सुचरिता की छाती पर से उतर गया। बाबा को छोड़कर कैसे जाऊँगी? यह चिंता उसका पीछा नहीं छोड़ रही ी, लेकिन जाना ही होगा, यह भी उसे बिल्‍कुल निश्चित दीख पड़ता है।

आवेगपूर्ण हृदय लिए सुचरिता चुपचाप परेशबाबू के पास बैठी रही। परेशबाबू भी जैसे अपने को अंत:करण की गहराई में डुबोए हुए स्तब्ध बैठे रहे। सुचरिता उनकी शिष्या थी, उनकी कन्या थी, उनकी सुहृदय थी-वह उनके जीवन से और यहाँ तक कि उनकी ईश्वरोपासना से भी गुँथी हुई थी। जिस दिन वह चुपचाप आकर उनकी उपासना में योग देती उस दिन जैसे उनकी उपासना एक विशेष पूर्णता पा लेती। प्रतिदिन अपने मंगलपूर्ण स्नेह से सुचरिता के जीवन को गढ़ते-गढ़ते उन्होंने अपने जीवन को भी एक विशेष आकृति दे दी थी। जैसी भक्ति और एकांत नम्रता के साथ सुचरिता उनके निकट आ खड़ी हुई थी वैसे कोई और उनके पास नहीं आया था। फूल जैसे आकाश की ओर ताकता है उसी तरह उसने अपनी संपूर्ण प्रकृति उनकी ओर उन्मुख और उद्धाटित कर दी थी। ऐसे एकाग्र भाव से किसी के पास आने से मनुष्य की दान करने की शक्ति अपने आप बढ़ जाती है- अंत:करण जल-भार से झुके हुए बादल की भाँति अपनी परिपूर्णता के कारण ही झुक जाता है। अपना जो कुछ सत्य है, श्रेष्ठ है उसे किसी अनुकूल चित्त को प्रतिदिन दान करते रहने के सुयोग के बराबर कोई दूसरा शुभ योग मनुष्य के लिए नहीं हो सकता, सुचरिता ने वही दुर्लभ सुयोग परेशबाबू को दिया था। इसीलिए उनका संबंध सुचरिता के साथ अत्यंत गंभीर हो गया था। उसी सुचरिता के साथ आज उनके बाह्य संपर्क के टूटने का अवसर आ गया है- अपने जीवन-रस से पूरी तरह फल को पकाकर पेड़ से उसे मुक्त कर ही देना होगा। इसके लिए मन-ही-मन वह जिस गहरी टीस का अनुभव कर रहे थे उसे वह अंतर्यामी के सामने निवेदित करते जा रहे थे। सुचरिता का पाथेय जुट गया है, अपनी शत् से प्रशस्त मार्ग पर सुख-दु:ख, आघात-प्रतिघात और नए अनुभव की प्राप्ति का जो आह्नान उसे मिलेगा उसकी तैयारी परेशबाबू कुछ दिन पहले से ही देख रहे थे। मन-ही-मन वह कह रहे थे- जाओ वत्से, यात्रा करो। तुम्हारे चिर जीवन को मैं मात्र अपनी बुध्दि और अपने आश्रय से छाए रखूँ, यह कभी नहीं हो सकता- ईश्वर तुम्हें मुझसे मुक्त करके विचित्र के भीतर से तुम्हें चरम परिणाम की ओर खींच ले जावें, उन्हीं में तुम्हारा जीवन सार्थक हो। यह कहकर शैशव से ही स्नेह में पली हुई सुचरिता को मन-ही-मन वह अपनी ओर से ईश्वर को अर्पित की गई पवित्र उत्सर्ग सामग्री की भाँति सौंप रहे थे। वरदासुंदरी पर परेशबाबू ने क्रोध नहीं किया, न अपनी गृहस्थी के प्रति मन में किसी विरोधाभाव को कोई आश्रय दिया। वह जानते थे कि नई वर्षा की जल-राशि तंग किनारों के बीच सहसा आ जाने से बड़ी हलचल मचती है- उसका एक मात्र उपाय यही है कि उसे खुले क्षेत्र की ओर बह जाने दिया जाए। वह जानते थे कि कुछ दिनों से सुचरिता के आसपास इस छोटे-से परिवार में जो अप्रत्याशित घटनाएँ घटित होती रही हैं, उन्होंने उसके जमे हुए संस्कारों को हिला दिया है। उसे यहाँ रोके रखने की चेष्टा न करके उसे मुक्ति देने से ही उसके स्वभाव के साथ सामंजस्य स्थापित होगा और शांति हो सकेगी। यह समझकर चुपचाप वह ऐसा आयोजन हर रहे थे कि जिससे सहज ही यह शांति और सामंजस्य स्थापित हो सके।

थोड़ी देर दोनों चुपचाप बैठे रहे कि घड़ी में ग्यारह बज गए। तब परेशबाबू उठ खड़े हुए और सुचरिता का हाथ पकड़कर उसे दुमंज़िले के बरामदे में ले गए। साँझ के आकाश की धुंध तब तक छँट गई थी और निर्मल अंधकार में तारे जगमगा रहे थे। परेशबाबू सुचरिता को पास खड़ी कर निस्तब्ध रात में प्रार्थना करते रहे- संसार का सारा असत्य नष्ट कर हमारे जीवन में परिपूर्ण सत्य की निर्मल मूर्ति उद्भासित हो उठे।

गोरा उपन्यास
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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