ग्रंथताल
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जगत | पादप (Plantae) |
संघ | मैग्नोलिओफाइटा (Magnoliophyta) |
वर्ग | मोनोकोट्स (Monocots) |
गण | अरेकेल्स (Arecales) |
कुल | अरेकेसी (Arecaceae) |
जाति | बोरासूस (Borassus) |
प्रजाति | फ़्लाबेलीफ़ेर (flabellifer) |
द्विपद नाम | बोरासूस फ़्लाबेलीफ़ेर (Borassus flabellifer) |
विशेष | ग्रंथताल के पौधे 60-70 फुट ऊँचे होते हैं। ग्रंथताल के नर तथा मादा पौधों को उनके फूलगुच्छे से पहचाना जाता है। |
अन्य जानकारी | ग्रंथताल अरब देश का पौधा है, पर भारत, बर्मा तथा श्रीलंका में अब अधिक मात्रा में उगाया जाता है। |
ग्रंथताल (अंग्रेज़ी: Borassus flabellifer L.) को पामीरा पाम (Palmyra palm) भी कहते हैं। बंबई के इलाक़े में लोग इसे ब्रंब भी कहते हैं। यह एकदली वर्ग, ताल (Palmeae) कुल का सदस्य है और गरम तथा नम प्रदेशों में पाया जाता है। यह अरब देश का पौधा है, पर भारत, बर्मा तथा श्रीलंका में अब अधिक मात्रा में उगाया जाता है। अरब के प्राचीन नगर 'पामीरा' के नाम पर कदाचित् इस पौधे का नाम पामीरा पाम पड़ा है। ग्रंथताल समुद्रतटीय इलाकों तथा शुष्क स्थानों में बलुई मिट्टी पर पाया जाता है।
वानस्पतिक परिचय
ग्रंथताल के पौधे 60-70 फुट ऊँचे होते हैं। तना प्राय: सीधा और शाखारहित होता है एवं इसके ऊपरी भाग में गुच्छेदार, पंखे के समान पत्तियाँ होती हैं। ग्रंथताल के नर तथा मादा पौधों को उनके फूलगुच्छे से पहचाना जाता है। पौधे फाल्गुन महीने में फूलते हैं और फल ज्येष्ठ तक आ जाता है। ये फल श्रावणमास तक पक जाते हैं। प्रत्येक फल में एक बीज होता है, जो कड़ा तथा सुपारी की भाँति होता है। दो या तीन मास तक ज़मीन के अंदर गड़े रहने पर बीज अंकुरित हो जाता है।
आर्थिक महत्व
पौधे का लगभग हर भाग मनुष्य अपने काम में लाता है। एक तमिल भाषा के कवि ने इस पौधे के 800 विभिन्न उपयोगों का वर्णन किया है। इसका तना बड़ा ही मजबूत हेता है और इस पर समुद्री जल का कोई बुरा असर नहीं पड़ता। अत: इसका उपयोग नाव इत्यादि बनाने में किया जाता है। इसकी पत्तियाँ मकान छाने एवं चटाई तथा डलिया बनाने के काम में लाई जाती हैं। इस पौधे से पाँच प्रकार के रेशे निकाले जाते हैं-
- पत्तियों के डंठल के निचले भाग से निकलने वाला रेशा
- पत्ती के डंठल से निकलने वाला रेशा
- तने से निकलने वाला तार नामक रेशा
- फल के ऊपरी भाग से निकलने वाला रेशा
- पत्तियों से निकलने वाला रेशा।
इस रेशे तथा पत्तियों से तरह तरह की वस्तुएँ बनाई जाती है, जिनमें चटाई, डलिया, डिब्बे तथा हैट मुख्य हैं। रेशे का एक महत्वपूर्ण उपयोग ब्रश बनाने में किया जाता है। टुटिकोरिन से ग्रंथताल का रेशा बाहर भेजा जाता है। बंगाल तथा दक्षिण की कुछ जगहों में इसकी लंबी पत्तियाँ स्लेट की तरह लिखने के काम में लाई जाती हैं। दक्षिणी भारत में कहीं कहीं ग्रंथताल के बीजों को खेतों में उगाते हैं और जब पौधे 3-4 मास के हो जाते हैं तो उन्हें काटकर सब्जी के रूप में उपयोग करते हैं।
औषधीय महत्त्व
ग्रंथताल का औषधि के लिये भी पर्याप्त महत्व है। इसका रस स्फूर्तिदायक होता है तथा जड़ और कच्चे बीज से कुछ दवाएँ बनाई जाती हैं। इसके पुष्पगुच्छ को जलाकर बनाया गया भस्म बढ़ी हुई तिल्ली के रोगी को देने से लाभ होता है। ग्रंथताल के पुष्पगुच्छी डंठल से अधिक मात्रा में ताड़ी निकाली जाती है, जिससे मादक पेय, शर्करा तथा सिरका बनाया जाता है। एक पेड़ से प्रति दिन तीन चार क्वार्ट ताड़ी प्राय: चार पाँच मास तक निकलती है। 15-20 वर्ष पुराने पेड़ से ताड़ी निकालना आरंभ करते हैं और 50 वर्ष तक के पुराने पेड़ से ताड़ी निकलती है। इसकी ताड़ी में मिठास अधिक होती है। मीठी डबल रोटी बनाने के लिये बर्मा में ताड़ी को आटे में मिलाया जाता है।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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