तार (डाक)

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तार (डाक)
तार
तार
विवरण तार अथवा टेलीग्राम डाक द्वारा भेजा जाने वाला एक संदेश (पत्र) होता है।
शुरुआत 11 फरवरी, 1855 को आम जनता के लिए यह सुविधा शुरू हुई।
टेलीग्राफ़ एक्ट अक्टूबर 1854 में पहली बार टेलीग्राफ़ एक्ट बनाया गया।
तार सेवा समाप्त टेलीग्राम सेवा से लगातार गिरते राजस्व के बाद सरकार ने बीएसएनएल बोर्ड को फैसला लेने का अधिकार दिया और उसने डाक विभाग से सलाह-मशविरे के बाद टेलीग्राम सेवा को 15 जुलाई, 2013 से बंद करने का फैसला किया।
विशेष 1957-58 में एक साल में तीन करोड़ दस लाख तार भेजे गए, और इनमें से 80 हज़ार तार हिंदी में थे।
अन्य जानकारी 1981-82 तक देश में 31 हज़ार 457 तारघर थे और देशी तारों की बुकिंग 7 करोड़ 14 लाख तक पहुंच चुकी थी।

तार अथवा टेलीग्राम डाक द्वारा भेजा जाने वाला एक संदेश (पत्र) होता है। फ़ोन से पहले दशकों तक दूर तक संदेश भेजने के दो ही जरिए थे- चिट्ठी और तार। 15 जुलाई को 2013 को तार का सिस्टम खत्म हो गया। 5 नवंबर 1850 को जिस माध्यम का भारत में पहली बार प्रयोग हुआ और 1855 से जो आम जन का माध्यम बन गया, उसका अंत अस्वाभाविक तो नहीं है, लेकिन ये खबर करोड़ों लोगों को अतीत की स्मृतियों में ज़रूर ले गई है। जैसे मानव जीवन में कुछ भी स्थायी नहीं है, वैसा ही मानव सभ्यता में भी कोई चीज हमेशा के लिए नहीं है। तकनीक के विकास के साथ अतीत की तकनीक का इतिहास बन जाना स्वाभाविक परिघटना है। डाक विभाग के अस्तित्व में आने से संदेशवाहकों और कबूतरों के जरिए पैगाम भेजने की प्रथा खत्म हो गई। टेलीफोन ने टेलीग्राम की अहमियत में सेंध लगानी शुरू की। मोबाइल के युग ने पुराने टेलीफोन को भी अप्रासंगिक कर दिया। एसएमएस, ई-मेल, सोशल नेटवर्किंग पर चैटिंग ने दुनिया को इतना समेट दिया कि कई दिन तो छोड़िए संपर्क जुड़ने और जवाब आने में कुछ मिनट भी लग जाएं तो सब्र टूटने लगता है। तो कम से कम चौबीस घंटे में पहुंचने वाले टेलीग्राम का युग जाना ही था। उसने स्वाभाविक मत्यु का वरण किया है। लेकिन उसकी श्रद्धांजलि में यह ज़रूर कहा जाना चाहिए उसने अपने युग में संपर्क और संवाद के तीव्रतम माध्यम के रूप में आधुनिक राष्ट्रों के निर्माण में विशिष्ट भूमिका निभाई। इस तरह मानव सभ्यता के इतिहास में वह अपनी ख़ास जगह बना कर गया है। स्मृतियों से उसे बेदख़ल करना असंभव है।[1]

इतिहास

भारतीय डाक-तार सेवा के इतिहास पर शोध करने वाले अरविंद कुमार सिंह बताते हैं, ‘1857 के विद्रोह के वक़्त अंग्रेज़ों के टेलीग्राफ़ विभाग की असल परीक्षा हुई, जब विद्रोहियों ने अंग्रेज़ों को जगह-जगह मात देनी शुरू कर दी थी. अंग्रेज़ों के लिए तार ऐसा सहारा था जिसके ज़रिए वो सेना की मौजूदगी, विद्रोह की ख़बरें, रसद की सूचनाएं और अपनी व्यूहरचना सैकड़ों मील दूर बैठे अपने कमांडरों के साथ साझा कर सकते थे।’

तार बुकिंग केंद्र

कुछ इतिहासकार मानते हैं कि तार की वजह से बग़ावत दबाने में अंग्रेज़ों को काफ़ी मदद मिली। एक तरफ़ विद्रोहियों के पास ख़बरें भेजने के लिए हरकारे थे, दूसरी तरफ़ अंग्रेजों के पास बंदूक़ों के अलावा सबसे बड़ा हथियार था- तार, जो मिनटों में सैकड़ों मील की दूरी तय करता था। इस वजह से अंग्रेज़ों का टेलीग्राफ़ विभाग बाग़ियों की हिट लिस्ट में आ गया। नतीजा यह हुआ कि दिल्ली, कानपुर, लखनऊ, इंदौर जैसी जगहों पर बाग़ियों ने तार लाइनें ध्वस्त कर दीं और वहां काम कर रहे अंग्रेज़ कर्मचारियों को मार डाला। मेरठ समेत कई जगहों पर बाग़ियों ने तार के खंभों को जलावन की तरह इस्तेमाल किया। कुछ जगह तार गोलियां बनाने के काम आए। लोहारों ने खंभों का इस्तेमाल तोप बनाने तक में किया। 918 मील लंबी तार की लाइनें तोड़ दी गईं। अरविंद कुमार सिंह बताते हैं, ‘बिहार के सासाराम और आरा, इलाहाबाद और अलीगढ़ में इन्हें उखाड़कर तोप की तरह इस्तेमाल किया गया। दिल्ली में विद्रोही तार विभाग के काम से इतने नाराज़ थे कि जब उन्हें कुछ समझ न आया तो उन्होंने राइफल के कुंदों से तार मशीनें ही तोड़ डालीं।' बाद में सन 1902 में इन कर्मियों की याद में दिल्ली में टेलीग्राफ़ मैमोरियल खड़ा किया गया। जिस पर उन कर्मचारियों के नाम दर्ज किए गए जिन्होंने विद्रोह की ख़बरें तार से भेजते हुए जान गंवाई थीं। 1857-58 में तार की वजह से मिली कामयाबी के बाद अंग्रेज़ों ने पूरे हिंदुस्तान को तार के लिए ज़रिए जोड़ने का फ़ैसला किया। सैकड़ों मील की नई लाइनें बिछाई गईं। 1885-86 में डाक और तार विभाग के दफ़्तर एक कर दिए गए। इसके बाद 1 जनवरी 1882 से अंतरदेशीय प्रेस टेलीग्राम शुरू हुए जिनका फ़ायदा अख़बारों ने उठाया। आज़ादी के बाद 1 जनवरी 1949 को नौ तारघरों– आगरा, इलाहाबाद, जबलपुर, कानपुर, पटना और वाराणसी आदि में हिंदी में तार सेवा की शुरुआत हुई। आज़ादी मिलने के बाद भारत ने पहली पंचवर्षीय योजना में ही सिक्किम के खांबजांग इलाके में दुनिया की सबसे ऊंची तार लाइन पहुंचा दी।[2]

टेलीग्राफ़ की खोज

भारत में जब 1857 में पहला स्वतंत्रता संग्राम शुरू हुआ तो मेरठ से चले क्रांतिकारी सिपाहियों के रवाना होने की सूचना पहले ही तार के जरिए दिल्ली के लोथियान रोड स्थित तारघर पहुंच गई थी। टेलीग्राम सेवा शुरू होने पर आगरा एशिया का सबसे बडा ट्रांजिट दफ्तर था। अमरीकी वैज्ञानिक सैमुअल मोर्स ने वर्ष 1837 में मोर्स टेलीग्राफ़ का पेटेंट कराया था। मोर्स तथा उनके सहायक अल्फ्रेड वेल ने इसके बाद मिलकर एक ऐसी नई भाषा ईजाद की जिसके जरिए तमाम संदेश बस डाट और डेश के जरिए टेलीग्राफ़ मशीन पर भेजे जा सके। मशीन पर जल्दी से होने वाली `टक` की आवाज़ को डॉट कहा गया और इसमें विलम्ब को डेश। तीन डॉट से मिलकर अंग्रेजी का अक्षर `एस` बनता है और तीन डेश से `ओ`। इस तरह से संकट में फंसे जहाज सिर्फ डॉट डॉट डॉट, डेश डेश डेश तथा डॉट डॉट डॉट भेजकर मदद बुला सकते थे। जर्मन वैज्ञानिक वर्नर वोन साइमन्स ने एक नए किस्म के टेलीग्राफ़ की खोज की थी जिसमें सही अक्षर को चलाने के लिए बस मशीन का डायल घुमाना होता था। साइमन्स बंधुओं ने वर्ष 1870 में यूरोप तथा भारत को 11 हजार किलोमीटर लंबी टेलीग्राफ़ लाइन से जोड़ दिया जो चार देशों से होकर गुजरती थी। इससे भारत से इंग्लैंड तक महज तीस मिनटों में संदेश पहुंचाना संभव हो सका तथा यह सेवा वर्ष 1931 में वायरलस टेलीग्राफ़ के आगमन तक काम करती रही। टेलीग्राम सेवा अपने समय में इतनी सटीक होती थी कि मोर्सकोड ऑपरेटर बनने के लिए एक वर्ष की कड़ी ट्रेनिंग से गुजरना होता था जिसमें से आठ महीने अंग्रेजी मोर्स कोड तथा चार महीने हिंदी मोर्स कोड के लिए होते थे।

एक पुराना तार (टेलीग्राम)

टेलीग्राम दफ्तर में एक चार्ट मौजूद रहता था जिसपर तमाम सामान्य संदेशों के लिए एक विशेष नंबर लिखा रहता था। ग्राहक को वह नंबर ऑपरेटर को बताना होता था और संदेश महज कुछ ही समय में अपने गंतव्य तक पहुंच जाता था। टेलीग्राम ने सिर्फ समाज, सेना तथा सरकार को ही अपना योगदान नहीं दिया, बल्कि प्रेस जगत् भी फैक्स तथा इंटरनेट के आगमन से पहले तार विभाग की सहायता पर ही निर्भर था। रायटर संवाद समिति के जनक पाल जूलियस रायटर यूरोप में पहले उद्यमी थे जिन्होंने स्टाक एक्सचेंज के आंकड़ों को मंगाने के लिए टेलीग्राफ़ सेवा का इस्तेमाल करना शुरू किया था। भारत में तमाम महत्वपूर्ण अधिवेशनों तथा बैठकों के स्थल पर तार विभाग की विशेष चौकी बनाई जाती थी जहां से संवाददाता अपने कार्यालय को तार के जरिए खबरें भेज सकते थे।[3]

भारत में तार

  • 'कलकत्ता मेडिकल कॉलेज' में प्रोफ़ेसर रहे शांगुनसे को भारत में तार का जनक कहा जाता है।
  • 11 फरवरी 1855 को आम जनता के लिए यह सुविधा शुरू हुई। तब एक रुपए में 16 शब्दों का तार 400 मील की दूरी तक भेजा जा सकता था।
  • पहली प्रायोगिक तार लाइन 21 मील की थी जो 1839 में 'डब्ल्यू. बी. ओ. शांगुनसे' और उनके सहयोगी 'एफ़. बी. मोर्स' की पहल पर कलकत्ता और डायमंड हार्बर के बीच बिछाई गई थी।
  • इस लाइन को 5 नवंबर 1850 में ही खोला जा सका, जब शिबचंद्र नंदी का डायमंड हार्बर से भेजा गया संदेश गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौज़ी की मौजूदगी में पढ़ा गया।
  • 1854 में कोलकाता से आगरा टेलीग्राफ़ लाइन से जुड़ा और क़रीब 800 मील की दूरी कुछ मिनटों में तय हो गई।
  • अक्टूबर 1854 में पहली बार टेलीग्राफ़ एक्ट बनाया गया।
  • तेज़ गति से तार बांटने का काम करने के लिए 1949-50 में मोटरसाइकिलों का इस्तेमाल शुरू कर दिया गया।
  • इन सभी बदलावों का नतीजा यह हुआ कि 1957-58 में एक साल में तीन करोड़ दस लाख तार भेजे गए, और इनमें से 80 हज़ार तार हिंदी में थे।
  • 1981-82 तक देश में 31 हज़ार 457 तारघर थे और देशी तारों की बुकिंग 7 करोड़ 14 लाख तक पहुंच चुकी थी।

रेल और तार

  • 1849 तक भारत में एक किलोमीटर रेलवे लाइन तक नहीं बिछी थी। 1857 के बाद रेलवे लाइन बिछाने पर ब्रिटिश सरकार ने पूरी तरह ध्यान देना शुरू किया। इसके बाद 1853 में पहली बार बंबई (मौजूदा मुंबई) से ठाणे तक पहली ट्रेन चली।
  • सन 1865 के बाद देश में लंबी दूरियों को रेल से जोड़ना शुरू किया गया लेकिन तार उससे पहले ही अपना काम शुरू कर चुका था।
  • इसका सबसे बड़ा फ़ायदा अंग्रेज़ों को अपना नागरिक और सैन्य प्रशासन मज़बूत करने में मिला।

तत्काल ख़बरें

भारतीय मीडिया के लिए तार एक वरदान ही था। भारत में जब अख़बारों की शुरुआत हुई तो उस वक़्त देश के किसी हिस्से में होने वाली घटना की ख़बरें एक हफ़्ते या 10 दिन बाद तक अख़बारों में जगह हासिल कर पाया करती थीं। 1882 में इनलैंड प्रेस टेलीग्राम क्रैडिट कार्ड शुरू हुए। इनसे छोटे-बड़े सभी अख़बारों को काफ़ी मदद मिली। संवाददाता मुफ़्त में अपनी ख़बरें तार के ज़रिए भेज सकते थे। तार विभाग में प्रेस के लिए कमरे बनाए गए। इसने ख़बरों को लोगों तक जल्द से जल्द पहुंचाने में योगदान दिया। यह क्रांतिकारी हथियार था। रेडियो को भी समाचार टेलीग्राम से मिलते थे। तब ख़बरों के प्रति ललक पैदा हुई। मगर इसका उलटा असर भी पड़ा। अरविंद कुमार सिंह ने बताया, "तार की वजह से ही अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ ख़बरें भी तेज़ी से अख़बारों के पन्नों पर आने लगीं। यह बात भी कही गई कि ये सुविधा बंद कर दी जाए। मद्रास कूरियर अख़बार पर सरकार ने बंदिशें लगाने की कोशिश भी की, लेकिन बंगाल असेंबली की मीटिंग में इसका जमकर विरोध हुआ और इसे देखते हुए इनलैंड टेलीग्राम पर रोक नहीं लगाई जा सकी।"[2]

टेलीग्राफ़ पद्धति

टेलीग्राम का भी अपना लम्बा इतिहास रहा है। वर्ष 1837 में महान् अमेरिकी वैज्ञानिक सैमुअल मोर्स ने मोर्स कोर्ड टेलीग्राफ़ की खोज करके दुनिया में संचार क्रांति को नया रूप दिया था। 19वीं सदी में जब टेलीफोन की खोज नहीं हुई थी उस समय संकेत के द्वारा संदेश एक जगह से दूसरी जगह तक भेजे जाते थे। सैमुएल मोर्स ने इसका निर्माण वैद्युत टेलीग्राफ़ के माध्यम से संदेश भेजने के लिए किया था। 1840 के दशक में संदेश भेजने की इस नई पद्धति का नाम मोर्स कोड टेलीग्राफ़ दिया। उसके बाद लंबी दूरी की सूचनाओं को प्रेषित करने और प्राप्त करने के यंत्र को टेलीग्राफ़ और उन संदेशों को टेलीग्राम कहा जाने लगा। इस दौर में टेलीग्राम मोर्स कोड के जरिए भेजे जाते थे। मोर्स कोड में वस्तुत: एक लघु संकेत तथा दूसरा दीर्घ संकेत प्रयोग किया जाता है। मोर्स कोड में कुछ भी लिखने के लिए लघु संकेत के रूप में डाट का प्रयोग तथा दीर्घ संकेत के लिए डैश का प्रयोग किया जाता है। इसके अलावा मोर्स कोड के लघु और दीर्घ संकेतों के लिए अन्य चिन्ह भी प्रयुक्त हो सकते हैं जैसे- ध्वनि, पल्स या प्रकाश आदि। इसका प्रचालन समय के साथ भले ही कम होता गया, पर अभी भी मोर्स कोड पद्धति का इस्तेमाल कई जगह पर गुप्त संदेश भेजने के लिए किया जाता है। पानी के जहाज पर अभी भी इसके जरिए संदेश भेजे जाते हैं। आसानी से पकड़े नहीं जाने के कारण गुप्तचर भी इस पद्धति का प्रयोग करते हैं। सेना के सिग्नल रेजिमेंट में इसका बहुत काम है। मोर्स कोड का इस्तेमाल प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध में जमकर किया गया। मोर्स कोड के जरिए संदेश को कोड के रूप में बदलकर टेलीग्राफ़ लाइन और समुद्र के नीचे बिछी केबलों के द्वारा एक जगह से दूसरी जगह भेजा जाता था। संदेश पहुंचने के बाद इसे डीकोड करके लोगों तक भेजा जाता था।[4]

ब्रिटिश काल से आज तक

टेलीग्राम मशीन

भारत में ब्रिटिश काल के दौरान 1851 में कोलकता और डायमंड हार्बर के बीच पहली टेलीग्राफ़ सेवा शुरू हुई। वर्ष 1854 में ब्रिटेन सरकार ने भारत के लिए पहला टेलीग्राफ़ी एक्ट पास किया। उसी साल व्यवस्थित तरीके से देश में डाक विभाग की स्थापना हुई। उसके अधीन देश भर के 700 पोस्ट ऑफिस थे। टेलीग्राफ़ विभाग को भी डाक विभाग के साथ संबद्ध कर दिया गया और उसका नाम पोस्ट और टेलीग्राफ़ विभाग हो गया। आज भी अधिकतर लोग डाक विभाग को डाक-तार विभाग के नाम से ही जानते हैं। वर्ष 1855 में भारत में सार्वजनिक टेलीग्राम सेवाएं शुरू हुई। 400 मील तक प्रत्येक 16 शब्द (पता सहित) पर एक रुपये का चार्ज लिया जाता था। शाम छह से लेकर सुबह छह बजे तक टेलीग्राम के लिए दोगुना चार्ज लिया जाता था। इतिहास ने तमाम ऐतिहासिक टेलीग्रामों को सुरक्षित रखा हुआ है। इसी में 23 जून, 1870 को पोर्थकुर्नो (इंग्लैंड) से बांबे भेजे गए पहले टेलीग्राम को कांप्लिमेंटरी टेलीग्राम नाम दिया गया था। यह टेलीग्राम लंदन में बैठे प्रबंध निदेशक ने बांबे (अब मुंबई) के प्रबंधक को भेजा था। इसका जवाब पांच मिनट में प्राप्त हो गया था। इसके बाद बांबे के गवर्नर को भी संदेश भेजे गए थे। एक संदेश शिमला स्थित वाइसराय को उनकी पत्नी ने भेजा था। यह उस जमाने में तकनीक का बेजोड़ काम था। ख़ासकर तब जब दो देशों के बीच संदेश पहुंचाने में महीनों लग जाते थे। पहला संदेश प्रबंध निदेशक एंडरसन ने प्रबंधक स्टेसी को भेजा था - हाउ आर यू ऑल।  इसका जवाब मिला- आल वेल। लंदन से 506 किलोमीटर दक्षिण पश्चिम में अटलांटिक तट पर स्थित कॉर्नवाल में यह पोर्थकुर्नो घाटी है। इसी जगह से टेलीग्राम पद्धति की शुरुआत भी मानी जाती है। यहां से ब्रिटेन और इसके पूर्व उपनिवेश आपस में बातचीत करते थे।

टेलीग्राफ़ सेवा समाप्त

नब्बे के दशक की शुरुआत से तार का आकर्षण कम होना शुरू हुआ और नब्बे का दशक बीतने के बाद मोबाइल-इंटरनेट की तेज गति ने इसे हाशिये पर डाल दिया। 1984 में पोस्ट और टेलीग्राफ़ विभाग दो भागों में विभाजित होकर डाक विभाग और दूरसंचार विभाग कहलाया। 1980 का दशक वो सुनहरा युग था जब अकेले दिल्ली में आफिस के जरिये एक दिन में एक लाख टेलीग्राम भेजे व प्राप्त किये जाते थे, जबकि आज देश भर में महज एक लाख टेलीग्राम भेजे व प्राप्त किये जाते हैं। दरअसल इस सेवा को बनाए रखने पर बीएसएनएल को सालाना क़रीब 400 करोड़ रुपए का नुकसान हो रहा था। गिरते राजस्व से परेशान सरकार ने मई, 2010 में अंतर्देशीय सेवाओं के लिए टेलीग्राम दरों में पिछले 60 वर्षों में पहली बार बढ़ोत्तरी की थी। इनको साढ़े तीन और साढ़े चार रुपये से बढ़ाकर साढ़े 27 रुपये किया गया। यहां तक कि दो महीने पहले विदेश के लिए टेलीग्राम सेवाओं को बंद कर दिया गया। अन्तत: टेलीग्राम सेवा से लगातार गिरते राजस्व के बाद सरकार ने बीएसएनएल बोर्ड को फैसला लेने का अधिकार दिया और उसने डाक विभाग से सलाह-मशविरे के बाद टेलीग्राम सेवा को 15 जुलाई, 2013 से बंद करने का फैसला किया।[4] इसके बाद गौरवशाली इतिहास रखने वाली यह सेवा इतिहास के पन्नों तथा संग्रहालयों तक ही सिमट कर रह जाएगी। दूरसंचार एवं आईटी तत्कालीन मंत्री कपिल सिब्बल ने कहा, हम टेलीग्राम सेवाओं को काफ़ी गर्मजोशी से विदाई देंगे। संभवत: आखिरी भेजा जाने वाला टेलीग्राम म्यूजियम में रखने लायक होगा। इसी तरीके से हम इसे समारोहपूर्ण विदाई दे सकते हैं। गौरतलब है कि 2006-07 में देशभर में रोजाना क़रीब 22 हजार तार भेजे गये। 2011-12 में ये आंकडा 5 हजार प्रतिदिन पर पहुंच गया। बीएसएनएल की माने तो फिलहाल ये आंकड़ा कुछ हजार ही है।[5]

आखिरी टेलीग्राम

टेलीग्राम सेवा अब इतिहास के पन्‍नों में दर्ज हो गई है। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी को भेजे गए आखिरी टेलीग्राम के साथ ही 163 साल पुरानी टेलीग्राम सेवा भारतीय इतिहास के पन्नों में समा गई। तार केंद्रों के बाहर इस सेवा का इस्‍तेमाल करने वालों को तांता लगा रहा। सैंकड़ों लोगों ने अपनों को तार भेजा। इसके जरिए आखिरी टेलीग्राम जनपथ स्थित केंद्रीय तार घर (सीटीओ) से अश्विनी मिश्रा नामक व्यक्ति ने भेजा, जो राहुल गांधी और डीडी न्यूज के महानिदेशक एस एम खान को भेजा गया था। भारतीयों की कई पीढि़यों को अच्छी और बुरी खबरें देने वाली टेलीग्राम सेवा की विदाई के दिन इससे 68,837 रुपए का राजस्व प्राप्त हुआ। एक वरिष्ठ टेलीग्राफ़ अधिकारी ने बताया कि अंतिम दिन कुल 2,197 टेलीग्राम बुक किए गए, जिनमें से कंप्यूटर के माध्यम से 1,329 और फोन के जरिए 91 टेलीग्राम बुक कराए गए।[6]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. टेलीग्राम का जाना (हिंदी) नया इंडिया। अभिगमन तिथि: 27 दिसम्बर, 2013।
  2. 2.0 2.1 टेलीग्राम: 1857 का विद्रोह 'दबाने' वाले की मौत (हिंदी) बीबीसी हिंदी। अभिगमन तिथि: 27 दिसम्बर, 2013।
  3. टेलीग्राम का तार आज के बाद हमेशा के लिए बंद (हिंदी) ज़ी न्यूज। अभिगमन तिथि: 27 दिसम्बर, 2013।
  4. 4.0 4.1 इतिहास बन जायेगा अब टेलीग्राम (हिंदी) देशबंधु। अभिगमन तिथि: 27 दिसम्बर, 2013।
  5. 160 सालों का लम्बा सफ़र तय करने के बाद बंद होगी टेलीग्राम सेवा (हिंदी) पर्दा फाश।
  6. इतिहास में दर्ज आखिरी टेलीग्राम राहुल गांधी के नाम (हिंदी) P7 न्यूज।

बाहरी कड़ियाँ

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