थार मरुस्थल

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थार मरुस्थल, राजस्थान

थार मरुस्थल लहरदार रेतीले पहाड़ों का विस्तार है जो विशाल भारतीय मरुस्थल भी कहलाता है। कुछ भाग भारत के राजस्थान में और कुछ पाकिस्तान में स्थित है। 2,00,000 वर्ग किमी में फैले इस क्षेत्र के पश्चिम में सिंधु द्वारा सिंचित क्षेत्र है, इसके दक्षिण-पूर्व में अरावली का विस्तार है और दक्षिण में कच्छ का रेगिस्तान है, तो पूर्वोत्तर में पंजाब का भूभाग है, यह मरुस्थल मॉनसून में अभाव के परिणामस्वरूप निर्मित हुआ है, जिसके कारण इस इलाक़े में पर्याप्त वर्षा नहीं होती।

थार शब्द से अभिप्राय

थार शब्द की उत्पत्ति थल से हुई है, जिसका अर्थ रेत का टीला है। मरुस्थल की रेत पूर्व कैंब्रियन युग की चट्टानों (ग्रेनाइट जैसी आग्नेय चट्टानों, जो 3.8 अरब वर्ष पुरानी हैं) के साथ 2.5 अरब से 57 लाख वर्ष पुरानी अवसादी चट्टानों का परिवर्तित रूप है। इसके अलावा आधुनिक भौगर्भिक काल में नदियों द्वारा बहाकर लाए गए निक्षेप भी इस रेत में हैं। सतह पर पाई गई रेत वायूढ़ (हवा द्वारा लाई गई) है। 16 लाख वर्ष पुरानी रेत की ऊपरी परत सबसे नई है। इस रेगिस्तान की सतह असमान और ऊंची-नीची है, रेत के छोटे-बड़े टीले रेतीले मैदानों और छोटी बंजर पहाड़ियों या भाकर से विभक्त हैं, जो आसपास के मैदानों से अचानक उठती है। विभिन्न आकार के रेतीले टीले सतत परिवर्तनशील हैं। पुराने टीले हालांकि अर्द्ध स्थिर और स्थिर हैं और उनकी ऊंचाई लगभग 150 मीटर तक है। इस पूरे क्षेत्र में खारे पानी की कुछ झीलें (प्लाया) बिखरी हुई हैं, जिन्हें स्थानीय भाषा में ढांढ़ कहते है। यहाँ मिट्टी की कुल सात श्रेणियां मिलती हैं- मरुस्थली मिट्टी, मरुस्थली लाल मिट्टी, भूरी व काली मिट्टी, तराई की लाल व पीली मिट्टी, खारी मिट्टी, मौसमी छिछली मिट्टी और पहाड़ी इलाकों में मुलायम भुरभुरी मिट्टी। ये सभी मिट्टियां मुख्यत: खुरदरी, चूनेदार, और पूरी तरह शुष्क हैं। मिट्टी की परतों में चूने का कम या ज्यादा जमाव है। यहाँ की मिट्टी सामान्यत: अनुपजाऊ है और तेज़ हवाएं चलने के कारण उस पर रेत जमा हो जाती है।

भौगोलिक विस्तार

थार मरुस्थल राजपूताना और सिन्धु नदी की घाटी के निचले भाग के मध्य में फैला हुआ है। इस मरुस्थल में एक बूँद जल नहीं मिलता और इसे केवल कारवाँ के द्वारा ही पार किया जा सकता है। यह भारत और पाकिस्तान के बीच की सीमा रेखा भी बनाता है। यह सिंध को दक्षिण और उत्तरी पश्चिमी भारत से पृथक् करता है। अरबों ने जब 710 ई. में सिंध विजय की, तो इस मरुस्थल के कारण वे अपने राज्य का विस्तार सिंध से आगे नहीं कर सके। इस मरुस्थल ने कुछ समय तक अंग्रेज़ों को भी सिंध पर अपना आधिपत्य जमाने से रोके रखा। अंग्रेज़ सिंध पर दाँत इसीलिए गड़ाये थे, क्योंकि यह अफ़ग़ानिस्तान और पंजाब का प्रवेशद्वार था। अंग्रेज़ों के द्वारा सिंध के अधिग्रहण के बाद यह मरुस्थल भारतीय ब्रिटिश साम्राज्य का अंग बन गया।[1]

वर्षा और तापमान

इस रेगिस्तानी पट्टी में वार्षिक वर्षा की दर बहुत कम है। यहाँ पश्चिम में वार्षिक वर्षा 100 मिमी या उससे कम और पूर्व में लगभग 500 मिमी होती है। वर्षा की स्थिति काफ़ी अनियमित है और साल दर साल इसके औसत में भारी उतार-चढ़ाव आता है। कुल वर्षा का लगभग 90 प्रतिशत भाग दक्षिण-पश्चिमी मॉनसून काल में जुलाई से सितंबर के बीच होता है, दूसरे मौसमों में पूर्वोत्तर से हवाएं चलती हैं। मई और जून सबसे गर्म महीने होते हैं, जब तापमान 50° से. तक पहुंच जाता है। जनवरी के महीने में ठंड के दौरान न्यूनतम तापमान 5° से 10° से. तक रहता है। मई और जून के मौसम में 140 से 150 किमी प्रति घंटा की गति से तेज़ धूल भरी आंधी और हवाएं चलती हैं।

वनस्पति और जीव-जंतु

रेगिस्तानी वनस्पतियों में ज्यादातर जड़ी-बूटियां या छोटी झाड़ियां होती हैं; पेड़ कहीं-कहीं दिखाई पड़ते हैं। पहाड़ियों पर गोंद के एरोबिक अकासिया और यूफ़ॉर्बिया भी मिलते हैं। मैदानी इलाकों में खेजड़ी (प्रोसोपिस सिनेरारिया) के पेड़ पाए जाते हैं। घास के मैदानों पर काला हिरन, चिंकारा और अन्य शिकारी-पक्षी, जैसे तीतर और बटेर पाए जाते हैं। प्रवासी पक्षियों में भट्टतीतर, बत्तख और कलहंस प्रमुख हैं। यह मरुस्थल लुप्तप्राय भारतीय सोन चिड़िया का आवासीय क्षेत्र भी है। थार मरुस्थल में दुधारू गायों की पांच मुख्य नस्लें पाई जाती हैं, इनमें से थारपारकर नस्ल की गाय सबसे अधिक दूध देती है, जबकि कांकरे नस्ल की गाय बोझ ढोने और दूध उत्पादन में समान रूप से महत्त्वपूर्ण है। मध्यम-उत्तम और मोटी, दोनों क़िस्मों की ऊन के लिये यहाँ भेड़ों का पालन किया जाता है। आमतौर पर ऊंट का परिवहन के साथ-साथ जुताई और अन्य कृषि कार्यों में भी इस्तेमाल किया जाता है। यहाँ की ज्यादातर आबादी ग्रामीण इलाकों में रहती है और विषम घनत्व में फैली है।

जनजीवन शैली

यहां के रीति-रिवाज, परंपरा और वेशभूषा में एकरूपता नहीं है। यहाँ हिंदू और मुसलमान, दोनों संप्रदायों के लोग रहते हैं और जनसंख्या जटिल आर्थिक व सामाजिक आधारों पर विभक्त है। यहाँ पर अनेक बंजारे पशुपालन, दस्तकारी और व्यापार में संलग्न हैं। ये न तो किसी ख़ास जातीय समूह से जुड़े हैं और न स्थान विशेष तक सीमित हैं। सामान्यत: ये स्थानबद्ध आबादी और उसकी अर्थव्यवस्था से सहजीवी रूप में जुड़े हैं। घास यहाँ का प्रमुख प्राकृतिक संसाधन है। इससे पशुओं के लिए स्वादिष्ट प्राकृतिक चारा तो मिलता ही है, स्थानीय लोग इससे दवा भी बनाते हैं। वनस्पतियों के सत्व से दवाइयां बनती हैं और तेल से साबुन भी तैयार किया जाता है। यहाँ पानी की बेहद कमी है। मौसमी वर्षा के पानी को कुंडों और जलाशयों में इकठ्ठा कर लिया जाता है, जिसका इस्तेमाल पीने और अन्य घरेलू उपयोगों में होता है। यहां भूमिगत जल का इस्तेमाल नहीं होता, क्योंकि एक तो जलस्तर बहुत नीचे है और फिर भूमिगत जल खारा होता है। कुओं और जलाशयों के अलावा नहरें यहां पानी का प्रमुख स्रोत हैं। पानी उपलब्ध होने पर गेंहू और कपास जैसी फ़सलें उगाई जाती हैं। सिंधु नदी पर 1932 में तैयार सुक्कर बांध से, जहां पाकिस्तान स्थित दक्षिणी थार में सिंचाई होती है, वहीं सतलुज नदी से निकली गंगा नगर से भारत स्थित उत्तरी हिस्से में सिंचाई का काम होता है। राजस्थान नहर से भारत में थार क्षेत्र में बड़े पैमाने पर सिंचाई होती है। यह नहर भारतीय पंजाब में सतलुज और व्यास नदियों के संगम पर बने हरि के बैराज से निकलती है और दक्षिण-पश्चिम दिशा में 470 किमी बहती है।

यातायात और परिवहन

कोयले और तेल से चालित ताप विद्युत परियोजनाएं यहां बड़े शहरों में स्थित हैं और बिजली की स्थानीय आपूर्ति करते हैं। पंजाब में सतलुज नदी पर स्थित नांगल विद्युत घर से जलविद्युत ऊर्जा की आपूर्ति की जाती है। यहाँ सड़कें और रेलमार्ग कम हैं। थार के दक्षिणी भाग में एक रेलवे लाइन है। रेगिस्तान के भारतीय हिस्से में एक दूसरी रेलवे लाइन है, जो मेड़ता रोड से बीकानेर होकर सूरतगढ़ पहुंचती है। एक दूसरी रेलवे लाइन जोधपुर और जैसलमेर को जोड़ती है। रेगिस्तान के पाकिस्तानी हिस्से में बहावलपुर से हैदराबाद को जोड़ती एक रेलवे लाइन है। 1947 में हुए भारत-पाकिस्तान विभाजन से सिंधु नदी की सिंचाई नहर प्रणाली का अधिकांश भाग पाकिस्तानी क्षेत्र में चला गया, जबकि भारतीय हिस्से का एक बड़ा रेगिस्तानी क्षेत्र असिंचित रह गया। 1960 के दोनों देशों के बीच हुए सिंधु जल संधि के द्वारा निश्चित किए गए अधिकार व अनुबंधों ने सिंधु नदी के जल के उपयोग की सीमाओं को निर्धारित किया। इस संधि के तहत रावी, व्यास और सतलुज का पानी राजस्थान नहर को उपलब्ध कराया गया, जिससे मुख्यत: भारत के पश्चिमी राजस्थान के रेगिस्तानी इलाकों की सिंचाई हो सके।

क्षेत्रफल में वृद्धि

थार मरुस्थल हर साल आधा किलोमीटर की रफ्तार से उत्तर-पूर्व की ओर बढ़ रहा है। आने वाले वक़्त में यह भारत के भू-उपयोग का नक्शा ही बदल देगा। 'इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गेनाइजेशन' (इसरो) की ताजा रिसर्च में यह खुलासा हुआ है कि, कल तक राजस्थान की पहचान रहे थार मरुस्थल ने अब हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश तक अपने पाँव पसार लिए हैं। रेतीली मिट्टी के फैलाव के अलावा देश के अन्य हिस्सों में भी मृदा का ह्रास इस हद तक बढ़ गया है कि, कृषि और वानिकी पर आजीविका चला रहे साठ प्रतिशत लोगों के सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा होने की आशंका पैदा हो गई है। इसरो ने पहली बार देश की भू-संपदा के ह्रास का नक्शा तैयार किया है। इसके लिए भारतीय उपग्रह आई.आर.एस.पी.सी.-1 रिसोर्ससेट पर स्थापित 'एडवांस्ड वाइड फ़ील्ड सेंसर' से समय-समय पर ली गई उपग्रह तस्वीर का गहन विश्लेषण किया गया। विश्लेषण के आधार पर तैयार नक्शे से संकेत मिलते हैं कि, पूवी घाट, पश्चिमी घाट तथा पश्चिमी हिमालय सतह से नीचे जा रहे हैं।[2]

भविष्य के लिए ख़तरा

सबसे ज़्यादा चौंकाने वाला तथ्य यह सामने आया है कि, देश के 32 प्रतिशत भू-भाग का बुरी तरह ह्रास हो चुका है। इसमें से सर्वाधिक 24 प्रतिशत मरुस्थली क्षेत्र है। राजस्थान राज्य तो ज़बर्दस्त मरुस्थलीकरण की चपेट में है। राष्ट्रीय मृदा सर्वे और भूमि उपयोग नियोजन ब्यूरो का कहना है कि थार मरुस्थल के फैलाव का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि, 1996 तक 1 लाख, 96 हज़ार 150 वर्ग किमी. में फैले मरुस्थल का विस्तार अब 2 लाख, 8 हज़ार 110 किमी. तक हो चुका है। अरावली पर्वत श्रृंखलाओं की प्राकृतिक संपदा को भी नुकसान पहुंचने से भूमि ज़्यादा बंजर हुई है। यहाँ लोगों ने जलावन और ज़रूरतों की पूर्ति के लिए जंगलों पर कुल्हाड़ी चलाई है।

थार मरुस्थल, राजस्थान

गंगा के मैदानी क्षेत्रों, हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश तथा गुजरात के तटीय क्षेत्रों में भी लवणीयता बेतहाशा बढऩे से उत्पादकता कम होने की आशंका जताई गई है। वैज्ञानिकों का कहना है कि जिस तरह वानिकी ह्रास तथा मरुस्थल का विस्तार हो रहा है, उससे आने वाले सालों में देश के भू-उपयोग का नक्शा बदलने से इंकार नहीं किया जा सकता। इस समय देश की 9.47 मिलियन हैक्टेयर भूमि बंजर हो चुकी है। बारिश में हर साल कमी और अकाल की विभीषिका से चोली-दामन का साथ होने के कारण भी भविष्य में स्थितियाँ बिगडऩे की आशंकाएँ हैं।[2]

हिमालय के ग्लेशियरों को नुकसान

थार मरुस्थल से उठने वाले बवंडर हिमालय के हिमनद को पानी-पानी कर रहे हैं। अब तक हिमनद पिघलने के लिए 'ग्लोबल वार्मिंग' को ही ज़िम्मेदार ठहरा रहे वैज्ञानिकों ने कहा है कि, थार से उठने वाले अंधड़ के धूल कण बर्फ़ को पानी बनाने के सबब बने हुए हैं। दरअसल, यूरोपियन और अमेरिकन रिसर्च के बाद हिमनद पिघलने के कारणों का पता लगा रहे भारतीय वैज्ञानिकों ने इसे एक प्रमुख कारक माना है। उपग्रह से प्राप्त आंकड़ों के अध्ययन के आधार पर पता लगता है कि, अरब प्रायद्वीप के अनेक हिस्सों के साथ-साथ थार मरुस्थल से तेज़ तूफ़ानी हवा के साथ उडऩे वाले धूल के कण हिमाचल प्रदेश तथा उत्तराखंड से लगते हिमालय से टकरा रहे हैं। कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय के डॉ. रमेश सिंह ने आई.आई.टी. कानपुर में रिसर्च के दौरान पाया कि, जिस जगह से बर्फ़ के पिघलने की रफ्तार तेज़ है, वहाँ बर्फ़ में रेतीली मिट्टी के कण पाए गए हैं। इन कणों के साथ बर्फ़ में लोहे या अन्य खनिज मिलते रहते हैं। बर्फ़ की संरचना में यह मिश्रण सौर विकिरणों का सर्वाधिक अवशोषण करता है। नतीजतन, बर्फ़ पिघलने लगती है।

प्री-मानसून सीजन में उठने वाले अंधड़ से उत्तर-पश्चिम का हिमालय ज़्यादा प्रभावित होता है। हालांकि अब तक वैज्ञानिक सर्दियों में होने वाले हिमपात के दौरान अंधड़ के असर का अध्ययन नहीं कर पाए हैं, क्योंकि इस दौरान के 'ग्राउंड मैट्रोलोजिकल डेटा' का विश्लेषण नहीं हो पाया है। वैज्ञानिकों का कहना है कि इसके अलावा पिछले तीस सालों में गंगा के मैदानी इलाकों के साथ-साथ उत्तरी भाग में बायोमास से निकली कालिख भी हिमालय को प्रदूषित करने के अलावा ग्लेशियर पिघलने का कारण बनी हुई है।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भट्टाचार्य, सच्चिदानन्द भारतीय इतिहास कोश, द्वितीय संस्करण-1989 (हिन्दी), भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, 194।
  2. 2.0 2.1 2.2 बोथरा, दिनेश। देश के भूगोल को बदल देगा थार (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल.)। । अभिगमन तिथि: 28 जून, 2011।

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