दरोगाजी -प्रेमचंद
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कल शाम को एक ज़रूरत से तांगे पर बैठा हुआ जा रहा था कि रास्ते में एक और महाशय तांगे पर आ बैठे। तांगेवाला उन्हें बैठाना तो न चाहता था, पर इनकार भी न कर सकता था। पुलिस के आदमी से झगड़ा कौनमोल ले। यह साहब किसी थाने के दारोगा थे। एक मुकदमे की पैरवी करने सदर आये थे ! मेरी आदत है कि पुलिसवालों से बहुत कम बोलता हूँ। सच पूछिए, तो मुझे उनकी सूरत से नफरत है। उनके हाथों प्रजा को कितने कष्ट उठाने पड़ते हैं, इसका अनुभव इस जीवन में कई बार कर चुका हूँ। मैं जरा एक तरफ खिसक गया और मुँह फेरकर दूसरी ओर देखने लगा कि दारोगाजी बोले, ‘ज़नाब, यह आम शिकायत है कि पुलिसवाले बहुत रिश्वत लेते हैं; लेकिन यह कोई नहीं देखता कि पुलिसवाले रिश्वत लेने के लिए कितने मजबूर किये जाते हैं। अगर पुलिसवाले रिश्वत लेना बन्द कर दें तो मैं हलफ से कहता हूँ, ये जो बड़े-बड़े ऊँची पगड़ियोंवाले रईस नजर आते हैं, सब-के-सब जेलखाने के अन्दर बैठे दिखाई दें। अगर हर एक मामले का चालान करने लगें, तो दुनिया पुलिसवालों को और भी बदनाम करे। आपको यकीन न आयेगा जनाब, रुपये की थैलियाँ गले लगाई जाती हैं। हम हज़ार इनकार करें, पर चारों तरफ से ऐसे दबाव पड़ते हैं कि लाचार होकर लेना ही पड़ता है।
मैंने उपहास के भाव से कहा, ‘ज़ो काम रुपये लेकर किया जाता है, वही काम बिना रुपये लिये भी तो किया जा सकता है।‘
दारोगाजी हँसकर बोले, ‘वह तो गुनाह बेलज्जत होगा, बंदापरवर। पुलिस का आदमी इतना कट्टर देवता नहीं होता, और मेरा खयाल है कि शायद कोई इंसान भी इतना बेलौस नहीं हो सकता। और सींगों के लोगों को भी देखता हूँ, मुझे तो कोई देवता न मिला ...’
मैं अभी इसका कुछ जवाब दे ही रहा था कि एक मियाँ साहब लम्बी अचकन पहने, तुर्की टोपी लगाये, तांगे के सामने से निकले। दारोगाजी ने उन्हें देखते ही झुककर सलाम किया और शायद मिज़ाज शरीफ़ पूछना चाहते थे कि उस भले आदमी ने सलाम का जवाब गालियों से देना शुरू किया। जब तांगा कई क़दम आगे निकल आया, तो वह एक पत्थर लेकर तांगे के पीछे दौड़ा। तांगेवाले ने घोड़े को तेज किया। उस भलेमानुस ने भी क़दम तेज किये और पत्थर फेंका। मेरा सिर बाल-बाल बच गया। उसने दूसरा पत्थर उठाया, वह हमारे सामने आकर गिरा। तीसरा पत्थर इतनी ज़ोर से आया कि दारोगाजी के घुटने में बड़ी चोट आयी; पर इतनी देर में तांगा इतनी दूर निकल आया था कि हम पत्थरों की मार से दूर हो गये थे। हाँ, गालियों की मार अभी तक जारी थी। जब तक वह आदमी आँखों से ओझल न हो गया, हम उसे एक हाथ में पत्थर उठाये, गालियाँ बकते हुए देखते रहे।
जब जरा चित्त शान्त हुआ, मैंने दारोगाजी से पूछा, ‘यह कौन आदमी है, साहब ? कोई पागल तो नहीं है ?’
दारोगाजी ने घुटने को सहलाते हुए कहा, ‘पागल नहीं है साहब, मेरा पुराना दुश्मन है। मैंने समझा था, जालिम पिछली बातें भूल गया होगा। वरना मुझे क्या पड़ी थी कि सलाम करने जाता।‘
मैंने पूछा, ‘आपने इसे किसी मुकदमे में सज़ा दिलाई होगी ?’
'बड़ी लम्बी दास्तान है जनाब ! बस इतना ही समझ लीजिए कि इसका बस चले, तो मुझे ज़िन्दा ही निगल जाय।'
'आप तो शोक की आग को और भड़का रहे हैं। अब तो वह दास्तान सुने बगैर तस्कीन न होगी।'
दारोगाजी ने पहलू बदलकर कहा, ‘अच्छी बात है, सुनिए। कई साल हुए, मैं सदर में ही तैनात था। बेफिक्री के दिन थे, ताजा खून, एक माशूक से आँख लड़ गई। आमदरफ्त शुरू हुई। अब भी जब उस हसीना की याद आती है, तो आँखों से आँसू निकल आते हैं। बाज़ारू औरतों में इतनी हया, इतनी वफा, इतनी मुरव्वत मैंने नहीं देखी। दो साल उसके साथ इतने लुत्फ से गुजरे कि आज भी उसकी याद करके रोता हूँ। मगर किस्से को बढ़ाऊँगा नहीं, वरना अधूरा ही रह जायगा। मुख्तसर यह कि दो साल के बाद मेरे तबादले का हुक्म आ गया। उस वक्त दिल को जितना सदमा पहुँचा, उसका ftक्र करने के लिए दफ़्तर चाहिए। बस, यही जी चाहता था कि इस्तीफा दे दूँ। उस हसीना ने यह खबर सुनी, तो उसकी जान-सी निकल गई। सफर की तैयारी के लिए मुझे तीन दिन मिले थे। ये तीन दिन हमने मंसूबे बाँधने में काटे। उस वक्त मुझे अनुभव हुआ कि औरतों को अक्ल से ख़ाली समझने में हमने कितनी बड़ी ग़लती की है। मेरे मंसूबे शेखचिल्ली के-से होते थे। कलकत्ते भाग चलें, वहाँ कोई दूकान खोल दें, या इसी तरह कोई दूसरी तजवीज करता। लेकिन वह यही जवाब देती कि अभी वहाँ जाकर अपना काम करो। जब मकान का बन्दोबस्त हो जाय, तो मुझे बुला लेना। मैं दौड़ी चली आऊँगी। आखिर जुदाई की घड़ी आई। मुझे मालूम होता था कि अब जान न बचेगी। गाड़ी का वक्त निकला जाता था और मैं उसके पास से उठने का नाम न लेता था। मगर मैं फिर किस्से को तूल देने लगा। खुलासा यह कि मैं उसे दो-तीन दिन में बुलाने का वादा करके रुख़्सत हुआ। पर अफ़सोस ! वे दो-तीन दिन कभी न आये। पहले दस-पाँच दिन तो अफसरों से मिलने और इलाके की देखभाल में गुजरे। इसके बाद घर से खत आ गया कि तुम्हारी शादी तय हो गई; रुख़्सत लेकर चले आओ। शादी की खुशी में उस वफा की देवी की मुझे फ़िक्र न रही। शादी करके महीने-भर बाद लौटा, तो बीवी साथ थी। रही-सही याद भी जाती रही। उसने एक महीने के बाद एक खत भेजा; पर मैंने उसका जवाब न दिया। डरता रहता था कि कहीं एक दिन वह आकर सिर पर सवार न हो जाय; फिर बीवी को मुँह दिखाने लायक़ भी न रह जाऊँ।
साल भर के बाद मुझे एक काम से सदर आना पड़ा। उस वक्त मुझे उस औरत की याद आई; सोचा, जरा चलकर देखना चाहिए, किस हालत में है। फौरन अपने खत न भेजने और इतने दिनों तक न आने का जवाब सोच लिया और उसके द्वार पर जा पहुँचा। दरवाज़ा साफ-सुथरा था, मकान की हालत भी पहले से अच्छी थी। दिल की खुशी हुई कि इसकी हालत उतनी ख़राब नहीं है, जितनी मैंने समझी थी। और, क्यों ख़राब होने लगी। मुझ जैसे दुनिया में क्या और आदमी ही नहीं हैं। मैंने दरवाज़ा खटखटाया। अंदर से वह बंद था। आवाज़ आई, ‘क़ौन है ?’
मैंने कहा, ;वाह ! इतनी जल्द भूल गईं, मैं हूँ, बशीर ...’
कोई जवाब न मिला, आवाज़ उसी की थी, इसमें शक नहीं, फिर दरवाज़ा क्यों नहीं खोलती ? ज़रूर मुझसे नाराज़ है। मैंने फिर किवाड़ खटखटाये और लगा अपनी मुसीबतों का क़िस्सा सुनाने। कोई पन्द्रह मिनट के बाद दरवाज़ा खुला। हसीना ने मुझे इशारे से अन्दर बुलाया और चट किवाड़ बन्द कर लिये। मैंने कहा, ‘मैं तुमसे मुआफी माँगने आया हूँ। यहाँ से जाकर मैं बड़ी मुश्किल में फॅस गया। इलाका इतना ख़राब है कि दम मारने की मुहलत नहीं मिलती।‘
हसीना ने मेरी तरफ न देखकर ज़मीन की तरफ ताकते हुए कहा,’मुआफी किस बात की ? तुमसे मेरा निकाह तो हुआ न था। दिल कहीं और लग गया, तो मेरी याद क्यों आती। मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं। जैसा और लोग करते हैं, वैसा ही तुमने किया। यही क्या कम है कि इतने दिनों के बाद इधर आ तो गये। रहे तो खैरियत से ?’
'किसी तरह जिंदा हूँ।'
'शायद जुदाई में घुलते-घुलते यह तोंद निकल आई है। खुदा झूठ न बुलवाये, तब से दूने हो गये।'
मैंने झेंपते हुए कहा, यह सारा बलगम का फिसाद है। भला मोटा मैं क्या होता। उधर का पानी निहायत बलगमी है। तुमने तो मेरी याद ही भुला दी।‘
उसने अबकी मेरी ओर तेज निगाहों से देखा और बोली, ‘ख़त का जवाब तक न दिया, उलटे मुझी को इलजाम देते हो। मैं तुम्हें शुरू से बेवफा समझती थी और तुम वैसे ही निकले। बीवी लाये और मुझे खत तक न लिखा ?’
मैंने ताज्जुब से पूछा, ‘तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि मेरी शादी हो गई ?’
उसने रुखाई से कहा, ‘यह पूछकर क्या करोगे ? झूठ तो नहीं कहती। बेवफा बहुत देखे, लेकिन तुम सबसे बढ़कर निकले। तुम्हारी आवाज़ सुनकर जी में तो आया कि दुत्कार दूँ; लेकिन यह सोचकर दरवाज़ा खोल दिया कि अपने दरवाज़े पर किसी को क्या जलील करूँ।‘
मैंने कोट उतारकर खूँटी पर लटका दिया, जूते भी उतार डाले और चारपाई पर लेटकर बोला, ‘लैली, देखो, इतनी बेरहमी से न पेश आओ। मैं तो अपनी खताओं को खुद तस्लीम करता हूँ और इसीलिए अब तुमसे मुआफी माँगने आया हूँ। जरा अपने नाजुक हाथों से एक पान तो खिला दो। सच कहना, तुम्हें मेरी याद काहे को आती होगी। कोई और यार मिल गया होगा।‘ लैली पानदान खोलकर पान बनाने लगी कि एकाएक किसी ने किवाड़ खटखटाये। मैंने घबराकर पूछा, ‘यह कौन शैतान आ पहुँचा ?’
हसीना ने होंठों पर उँगली रखते हुए कहा, ‘यह मेरे शौहर हैं। तुम्हारी तरफ से जब निराश हो गई, तो मैंने इनके साथ निकाह कर लिया।‘
मैंने त्योरियाँ चढ़ाकर कहा, ‘तो तुमने मुझसे पहले ही क्यों न बता दिया, मैं उलटे पाँव लौट न जाता, यह नौबत क्यों आती। न जाने कब की यह कसर निकाली।‘
'मुझे क्या मालूम कि यह इतने जल्द आ पहुँचेंगे। रोज तो पहर रात गये आते थे। फिर तुम इतनी दूर से आये थे, तुम्हारी कुछ खातिर भी तो करनी थी।'
'यह अच्छी खातिर की। बताओ; अब मैं जाऊँ कहाँ ?'
'मेरी समझ में खुद कुछ नहीं आ रहा है। या अल्लाह ! किस अजाब में फॅसी।'
इतने में उन साहब ने दरवाज़ा खटखटाया। ऐसा मालूम होता था कि किवाड़ तोड़ डालेगा। हसीना के चेहरे पर एक रंग आता था, एक रंग जाता था। बेचारी खड़ी काँप रही थी। बस, जबान से यही निकलता था, ‘या अल्लाह, रहम कर।‘
बाहर से आवाज़ आई--‘अरे, तुम क्या सरेशाम से सो गईं ? अभी तो आठ भी नहीं बजे। कहीं साँप तो नहीं सूँघ गया। अल्लाह जानता है, अब और देर की, तो किवाड़ चिड़वा डालूँगा।‘
मैंने गिड़गिड़ाकर कहा, ‘ख़ुदा के लिए मेरे छिपने की कोई जगह बताओ। पिछवाड़े कोई दरवाज़ा नहीं ?’
'ना !'
'संडास तो है ?'
'सबसे पहले वह वहीं जायेंगे।'
'अच्छा, वह सामने कोठरी कैसी है ?'
'हाँ, है तो, लेकिन कहीं कोठरी खोलकर देखा तो ?
'क्या बहुत डबल आदमी है ?'
'तुम जैसे दो को बगल में दबा ले।'
'तो खोल दो कोठरी। वह ज्यों ही अन्दर आयेगा, मैं दरवाज़ा खोलकर निकल भागूँगा।'
हसीना ने कोठरी खोल दी। मैं अन्दर जा घुसा। दरवाज़ा फिर बन्द हो गया।
मुझे कोठरी में बन्द करके हसीना ने जाकर सदर दरवाज़ा खोला और बोली, क्यों किवाड़ तोड़े डालते हो ? आ तो रही हूँ।‘
मैंने कोठरी के किवाड़ों के दराजों से देखा। आदमी क्या पूरा देव था। अन्दर आते ही बोला, ‘तुम सरेशाम से सो गई थीं !’
'हाँ, जरा आँख लग गई थी।'
'मुझे तो ऐसा मालूम हो रहा था कि तुम किसी से बातें कर रही हो।'
'वहम की दवा तो लुकमान के पास भी नहीं।'
'मैंने साफ़ सुना। कोई-न-कोई था ज़रूर। तुमने उसे कहीं छिपा रखा है।'
'इन्हीं बातों पर तुमसे मेरा जी जलता है। सारा घर तो पड़ा है, देख क्यों नहीं लेते।'
'देखूँगा तो मैं ज़रूर ही, लेकिन तुमसे सीधे-सीधे पूछता हूँ, बतला दो, कौन था ?'
हसीना ने कुंजियों का गुच्छा फेंकते हुए कहा, ‘और कोई था तो घर ही में न होगा। लो, सब जगह देख आओ। सुई तो है नहीं कि मैंने कहीं छिपा दी हो।‘
वह शैतान इन चकमों में न आया। शायद पहले भी ऐसा ही चरका खा चुका था। कुंजियों का गुच्छा उठाकर सबसे पहले मेरी कोठरी के द्वार पर आया और उसके ताले को खोलने की कोशिश करने लगा ! गुच्छे में
उस ताले की कुंजी न थी। बोला, इस कोठरी की कुंजी कहाँ है ? हसीना ने बनावटी ताज्जुब से कहा, ‘अरे, तो क्या उसमें कोई छिपा बैठा है ? वह तो लकड़ियों से भरी पड़ी है।‘
'तुम कुंजी दे दो न।'
'तुम भी कभी-कभी पागलों के-से काम करने लगते हो। अँधेरे में कोई साँप-बिच्छू निकल आये तो। ना भैया, मैं उसकी कुंजी न दूँगी।'
'बला से साँप निकल आयेगा। अच्छा ही हो, निकल आये। इस बेहयाई की ज़िन्दगी से तो मौत ही अच्छी !'
हसीना ने इधर-उधर तलाश करके कहा, 'न जाने उसकी कुंजी कहाँ रख दी। खयाल नहीं आता।'
'इस कोठरी में तो मैंने और कभी ताला नहीं देखा।'
'मैं तो रोज लगाती हूँ। शायद कभी लगाना भूल गई हूँ, तो नहीं कह सकती।'
'तो तुम कुंजी न दोगी ?'
'कहती तो हूँ इस वक्त नहीं मिल रही है।'
'कहे देता हूँ, कच्चा ही खा जाऊँगा।'
अब तक तो मैं किसी तरह जब्त किये खड़ा रहा। बार-बार अपने ऊपर गुस्सा आ रहा था कि यहाँ क्यों आया। न-जाने यह शैतान कैसे पेश आये। कहीं तैश में आकर मार ही न डाले। मेरे हाथों में तो कोई छुरी भी नहीं।
या खुदा ! अब तू ही मालिक है। दम रोके हुए खड़ा था कि एक पल का भी मौक़ा मिले, तो निकल भागूँ; लेकिन जब उस मरदूद ने किवाड़ों को ज़ोर से धमधमाना शुरू किया, तब तो रूह ही फना हो गई। इधर-उधर निगाह डाली कि किसी कोने में छिपने की जगह है, या नहीं। किवाड़ के दराजों से कुछ रोशनी आ रही थी ! ऊपर जो निगाह उठाई, तो एक मचान-सा दिखाई दिया। डूबते को तिनके का सहारा मिल गया। उचककर चाहता था कि ऊपर चढ़ जाऊँ कि मचान पर एक आदमी को बैठे देखकर उस हालत में मेरे मुँह से चीख निकल गई। यह हजरत अचकन पहने, घड़ी लगाये, एक ख़ूबसूरत साफ़ा बाँध, उकडूँ बैठे हुए थे। अब मुझे मालूम हुआ कि मेरे लिए दरवाज़ा खोलने में हसीना ने इतनी देर क्यों की थी। अभी इनको देख ही रहा था
कि दरवाज़े पर मूसल की चोटें पड़ने लगीं। मामूली किवाड़ तो थे ही, तीन-चार चोटों में दोनों किवाड़े नीचे आ रहे और वह मरदूद लालटेन लिए कमरे में घुसा। उस वक्त मेरी क्या हालत थी, इसका अंदाज़आप खुद कर सकते हैं। उसने मुझे देखते ही लालटेन रख दी और मेरी गर्दन पकड़कर बोला, ‘अच्छा, आप यहाँ तशरीफ रखते हैं। आइए, आपकी कुछ खातिर करूँ। ऐसे मेहमान रोज कहाँ मिलते हैं।‘
यह कहते हुए उसने मेरा एक हाथ पकड़कर इतने ज़ोर से बाहर की तरफ ढकेला कि मैं आँगन में औंधा जा गिरा। उस शैतान की आँखों से अंगारे निकल रहे थे। मालूम होता था, उसके होंठ मेरा ख़ून चूसने के लिए
बढ़े आ रहे हैं। मैं अभी ज़मीन से उठने भी न पाया था कि वह कसाई एक बड़ा-सा तेज छुरा लिए मेरी गरदन पर आ पहुँचा; मगर जनाब, हूँ पुलिस का आदमी। उस वक्त मुझे एक चाल सूझ गई। उसने मेरी जान बचा ली, वरना आज आपके साथ तांगे पर न बैठा होता। मैंने हाथ जोड़कर कहा, ‘हुज़ूर, मैं बिलकुल बेकसूर हूँ। मैं तो मीर साहब के साथ आया था। उसने गरजकर पूछा, क़ौन मीर साहब ?’
मैंने जी कड़ा करके कहा, ‘वही, जो मचान पर बैठे हुए हैं। मैं तो हुज़ूर का ग़ुलाम ठहरा, जहाँ हुक्म पाऊँगा,
उनके साथ जाऊँगा। मेरी इसमें क्या खता है ?’
'अच्छा, तो कोई मीर साहब मचान पर भी तशरीफ रखते हैं ?'
उसने मेरा हाथ पकड़ लिया और कोठरी में जाकर मचान पर देखा। वह हजरत सिमटे-सिमटाये, भीगी बिल्ली बने बैठे थे। चेहरा ऐसा पीला पड़ गया था, गोया बदन में जान ही नहीं। उसने उनका हाथ पकड़कर एक झटका दिया, तो आप धाम-से नीचे आ रहे। उनका ठाठ देखकर अब इसमें कोई शुबहा न रहा कि वह मेरे मालिक
हैं। उनकी सूरत देखकर उस वक्त तरस के साथ हँसी आती थी।
'तू कौन है बे ?'
'जी, मैं ... मेरा मकान, यह आदमी झूठा है, यह मेरा नौकर नहीं है।'
'तू यहाँ क्या करने आया था ?'
'मुझे यही बदमाश (मेरी तरफ देखकर) धोखा देकर लाया था।'
'यह क्यों नहीं कहता कि मजे उड़ाने आया था। दूसरों पर इल्जाम रखकर अपनी जान बचाना चाहता है, सुअर ? ले, तू भी क्या समझेगा कि किसके पाले पड़ा था।'
यह कहकर उसने उसी तेज छुरे से उन साहब की नाक काट ली। मैं मौक़ा पाकर बेतहाशा भागा, लेकिन हाय-हाय की आवाज़ मेरे कानों में आ रही थी। इसके बाद उन दोनों में कैसी छनी, हसीना के सिर पर क्या
आफत आई, इसकी मुझे कुछ खबर नहीं। मैं तब से बीसों बार सदर आ चुका हूँ, पर उधर भूलकर भी नहीं गया। यह पत्थर फेंकनेवाले हजरत वही हैं, जिनकी नाक कटी थी। आज न-जाने कहाँ से दिखाई पड़ गये और मेरी शामत आई कि उन्हें सलाम कर बैठा। आपने उनकी नाक की तरफ शायद खयाल नहीं किया।‘
मुझे अब खयाल आया कि उस आदमी की नाक कुछ चिपटी थी।बोला, ‘हाँ, नाक कुछ चिपटी तो थी। मगर आपने उस ग़रीब को बुरा चरका दिया।‘
'और करता ही क्या ?'
'ज़रूर दबा लेते; मगर चोर का दिल आधा होता है। उस वक्त अपनी-अपनी पड़ी थी कि मुकाबला करने की सूझती। कहीं उस रमझल्ले में धर लिया जाता, तो आबरू अलग जाती और नौकरी से अलग हाथ धोता।
मगर अब इस आदमी से होशियार रहना पड़ेगा।'
इतने में चौक आ गया और हम दोनों ने अपनी-अपनी राह ली।