कर्मभूमि -प्रेमचंद
कर्मभूमि -प्रेमचंद
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लेखक | मुंशी प्रेमचंद |
मूल शीर्षक | कर्मभूमि |
प्रकाशक | भूमिका प्रकाशन |
प्रकाशन तिथि | 1932 |
देश | भारत |
पृष्ठ: | 296 |
भाषा | हिन्दी |
विषय | सामाजिक, यथार्थवादी |
प्रकार | उपन्यास |
प्रेमचंद द्वारा रचित 'कर्मभूमि' नामक उपन्यास सन् 1932 में प्रकाशित हुआ था। यह राजनीतिक कथानक पर आधारित उपन्यास है।
- उपन्यास के पात्र
प्रेमचन्द्र का यह उपन्यास पाँच भागों में विभाजित है। इस उपन्यास में लाला समरकांत, उनके पुत्र अमरकांत, पुत्रवधु सुखदा, रेणुकांत (सुखदा का पुत्र), पुत्री नैना सकीना, हाफिज़ हलीम और उनके पुत्र सलीम, धनीराम और उनके पुत्र मनीराम, डॉ. शांतिकुमार और स्वामी आत्मानन्द, गूदड़, प्रयाग, काशी, सलोनी और मुन्नी आदि की कहानी है। कर्मभूमि में परिवारों की कथा है। इसमें प्रेमचन्द देशानुराग, समाज- सुधार, मठिरा- निवारण, अछूतोद्धार, शिक्षा, ग़रीबों के लिए मकानों की समस्या, देश के प्रति कर्त्तव्य, जन- जागृति आदि की ओर संकेत करते हैं। कृषकों की समस्या उपन्यास में है तो, किंतु वह प्रमुख नहीं हो पायी। सम्पूर्ण कथा का कार्य- क्षेत्र प्रधानत: काशी और हरिद्वार के पास का देहाती इलाक़ा है।
- राजनीतिक उपन्यास
प्रेमचन्द का कर्मभूमि उपन्यास एक राजनीतिक उपन्यास है जिसमें विभिन्न राजनीतिक समस्याओं को कुछ परिवारों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। ये परिवार यद्यपि अपनी पारिवारिक समस्याओं से जूझ रहे हैं तथापि तत्कालीन राजनीतिक आन्दोलन में भाग ले रहे हैं। उपन्यास का कथानक काशी और उसके आस-पास के गाँवों से संबंधित है। आन्दोलन दोनों ही जगह होता है और दोनों का उद्देश्य क्रान्ति है। किन्तु यह क्रान्ति गाँधी जी के सत्याग्रह से प्रभावित है। गाँधीजी का कहना था कि जेलों को इतना भर देना चाहिए कि उनमें जगह न रहे और इस प्रकार शक्ति और अहिंसा से अंग्रेज सरकार पराजित हो जाए।[1]
- समस्या
इस उपन्यास की मूल समस्या यही है। उपन्यास के सभी पात्र जेलों में ठूस दिए जाते हैं। इस तरह प्रेमचन्द क्रान्ति के व्यापक पक्ष का चित्रण करते हुए तत्कालीन सभी राजनीतिक एवं सामाजिक समस्याओं को कथानक से जोड़ देते हैं। निर्धनों के मकान की समस्या, अछूतोद्धार की समस्या, अछूतों के मन्दिर में प्रवेश की समस्या, भारतीय नारियों की मर्यादा और सतीत्व की रक्षा की समस्या, ब्रिटिश साम्राज्य के दमन चक्र से उत्पन्न समस्याएँ, भारतीय समाज में व्याप्त धार्मिक पाखण्ड की समस्या पुनर्जागरण और नवीन चेतना के समाज में संचरण की समस्या, राष्ट्र के लिए आन्दोलन करने वालों की पारिवारिक समस्याएँ आदि इस उपन्यास में बड़े यथार्थवादी तरीके से व्यक्त हुई हैं।[1]
- कथानक
अमरकांत बनारस के रईस समरकांत के पुत्र हैं। वे विद्यार्थी- जीवन से ही सार्वजनिक जीवन में कार्य करने के शौकीन हैं। अपने मित्र सलीम की आर्थिक सहायता भी करते रहते हैं। प्रारम्भ में उनके लोभी पिता के आदर्शों में काफ़ी अंतर बना रहता है। अमरकांत का विवाह लखनऊ के एक धनी परिवार की एकमात्र संतान सुखदा से हो जाता है, किंतु दोनों के दृष्टिकोणों में साम्य नहीं है। साथ-साथ रहते हुए भी दोनों को एक - दूसरे से प्रेम नहीं है। सुखदा को अपने पति का खादी बेचना और सार्वजनिक कार्य पसन्द नहीं। पत्नी से प्रेम न पाकर अमरकांत सकीना की मुहब्बत में पड़ जाते है। वे पहले से ही डॉक्टर शांतिकुमार के साथ काशी में कार्य करते थे। गोरे सिपाहीयों द्वारा सताई गयी मुन्नी के मुक़दमे के सम्बन्ध में उन्होंने काफ़ी कार्य किया। व्यावहारिकता और आर्दश में संघर्ष होने के कारण अपने पिता तथा सुखदा से उनका पहले से ही जी ऊबा हुआ था, लेकिन जब सकीना के साथ उनका प्रेमपूर्ण व्यवहार देखकर पठानिन ने उन्हें फटकारा तो वे शहर छोड़कर चले गये।
- हरिद्वार में
शहर छोड़कर वे हरिद्वार के पास एक ऐसे देहाती इलाके में पहुँचे चहाँ मुर्दाखोर और अछूत कहे जाने वाले लोग और किसान रहते थे। वे सलोनी के यहाँ रहते हुए गूदड़, प्रयाग, काशी आदि के सम्पर्क में आये और गाँववालों में शिक्षा, अच्छी- अच्छी आदतों, सफाई आदि का प्रचार करने प्रचार करने लगे। यहाँ रहते हुए उनकी मुन्नी से भेंट हुई। दोनों में परस्पर आकर्षण भी उत्पन्न हुआ। काशी से आये आत्मानन्द से उन्हें अपने सेवा- कार्य में बराबर सहायत प्राप्त होती रहती थी। कृषकों की सहायता के लिए वे महंत आशाराम गिरि से मिले किंतु उन्हें अधिक सफलता प्राप्त न हुई किंतु काशी में सुखदा के त्याग समाचार सुनकर भी वे उत्तेजित हो उठाते हैं और लगानबन्दी का आंदोलन शुरू कर देते हैं। उनका पुराना मित्र सलीम, अब आई. सी. एस. ऑफिसर और उस इलाके का इंचार्ज, उन्हें पकड़ ले जाता है। किंतु लाला समरकांत, जिनमें अब परिवर्तन हो चुका था, जन - सेवा की ओर मुड़कर उसी इलाके में पहुँच जाते हैं और किसान - आन्दोलन के सिलसिले में कारावास दण्ड भी भुगतते हैं। उनके प्रभाव से सलीम के हृदय में भी परिवर्तन हो जाता है। वह स्वंय आन्दोलन की बागडोर सम्हालता है और अंत में पकड़ा जाता है। तत्पश्चत मुन्नी और सकीना (वह भी उस इलाके में पहुँच जाती है) भी गिरफ़्तार हो जाती हैं। उग्र आत्मनन्द भी सरकारी शिकंजे से बच नहीं पाते।
- काशी में
उधर काशी के मन्दिरों में अछूतों के प्रवेश, ग़रीबों के लिए मकान बनवाने आदि समस्याओं को लेकर आन्दोलन छिड़ जाता है और सरकार से संघर्ष होता है। इस आन्दोलन का संचालन सुखदा, पठानिन, रेणुकादेवी और यहाँ तक कि समरकांत भी करते हैं। ये सब और डॉक्टर शांतिकुमार जेल-यात्रा करते हैं। नैना भी वहाँ आ जाती है और एक जलूस का नेतृत्व करते हुए चुंगी की ओर जाती है। वहाँ उसका पति मनीराम उसे गोली मार देता है। उसकी मृत्यु से चुंगी के मेम्बरों में भी हृदय - परिर्वतन हो जाता है और वे ग़रीबों के मकानों के लिए ज़मीन दे देते हैं। जो आन्दोलन सुखदा ने प्रारम्भ किया था, उसका अंत नैना की बलि से होता है। लखनऊ के सेण्ट्रल जेल में अमरकांत, मुन्नी, सकीना, सुखदा, पठानिन, रेणुका आदि सब मिल जाते हैं। धनीराम का पुत्र मनीराम मृत्यु को प्राप्त होता है।
- अंत
अंत में सेठ धनीराम की मध्यस्थता से सरकार द्वारा एक कमेटी नियुक्त हो जाती है जो सरकार से मिलकर किसानों और ग़रीबों की समस्याओं पर विचार करेगी। उस कमेटी में अमर और सलीम तो रहते ही हैं, उनके अतिरिक्त तीन अन्य सदस्यों को चुनने का उन्हें अधिकार दिया गया। सरकार ने भी उस कमेटी में दो सदस्यों अपने रखे। यह समझौते वाली नीति 1930 के कांग्रेस और सरकार के अस्थायी समझौते के प्रभाव के रूप में है। सरकार तब कैदियों को छोड़ देती है। अमरकांत, सकीना और मुन्नी को बहन के रूप में स्वीकार करते हैं और अमरकांत और सुखदा एक दूसरे का महत्त्व पहचानते हैं।
- प्रेमचन्द की रचना कौशल
प्रेमचन्द की रचना कौशल इस तथ्य में है कि उन्होंने इन समस्याओं का चित्रण सत्यानुभूति से प्रेरित होकर किया है कि उपन्यास पढ़ते समय तत्कालीन राष्ट्रीय सत्याग्रह आन्दोलन पाठक की आँखों के समक्ष सजीव हो जाता हैं। छात्रों तथा घटनाओं की बहुलता के बावजूद उपन्यास न कहीं बोझिल होता है न कहीं नीरस। प्रेमचन्द हर पात्र और घटना की डोर अपने हाथ में रखते हैं इसलिए कहीं शिथिलता नहीं आने देते। आदर्शोन्मुख यथार्थवाद से ओतप्रोत कर्मभूमि उपन्यास प्रेमचन्द की एक प्रौढ़ रचना है जो हर तरह से प्रभावशाली बन पड़ी है।[1]
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