दिवेर-छापली का युद्ध मेवाड़ तथा मुग़लों के बीच निर्णायक युद्ध था। दिवेर-छापली से महाराणा प्रताप को यश एवं विजय दोनों प्राप्त हुए। विजयादशमी के दिन 26 अक्टूबर, 1582 को राणाकड़ा (दिवेर घाटा), राताखेत आदि स्थानों पर राणा प्रताप की सेना तथा मुग़ल सेना के बीच कड़ा मुकाबला हुआ। इस युद्ध ने मुग़लों के मनोबल को बुरी तरह तोड़ दिया। दिवेर-छापली से महाराणा प्रताप को यश एवं विजय दोनों प्राप्त हुए। ये दिवेर-छापली तथा मगरांचल के वीर रावत-राजपूत ही थे, जिन्होंने अपनी मातृभूमि की रक्षा हेतु महाराणा प्रताप के नेतृत्व में युद्ध में अदम्य शौर्य एवं साहस का परिचय देते हुए मुग़लों को हमेशा के लिए खदेड़ दिया।
इतिहासकारों का वर्णन
मुग़ल न तो महाराणा प्रताप को पकड़ सके और न ही मेवाड़ पर पूर्ण आधिपत्य जमा सके। यूं तो हल्दीघाटी के युद्ध के बाद मुग़लों का कुम्भलगढ़, गोगुंदा, उदयपुर और आसपास के ठिकानों पर अधिकार हो गया था। लेकिन इतिहास में दर्ज है कि 1576 ई. में हुए हल्दीघाटी युद्ध के बाद भी अकबर ने महाराणा को पकड़ने या मारने के लिए 1577 से 1582 ई. के बीच करीब एक लाख सैन्यबल भेजे। अंग्रेज़ इतिहासकारों ने लिखा है कि हल्दीघाटी युद्ध का दूसरा भाग जिसको उन्होंने 'बैटल ऑफ दिवेर' कहा है, मुग़ल बादशाह के लिए एक करारी हार सिद्ध हुआ था। कर्नल टॉड ने भी अपनी किताब में जहां हल्दीघाटी को 'थर्मोपल्ली ऑफ मेवाड़' की संज्ञा दी, वहीं दिवेर के युद्ध को 'मेवाड़ का मैराथन' बताया है। कर्नल टॉड ने महाराणा और उनकी सेना के शौर्य, युद्ध कुशलता को स्पार्टा के योद्धाओं सा वीर बताते हुए लिखा है कि वे युद्धभूमि में अपने से 4 गुना बड़ी सेना से भी नहीं डरते थे।
दिवेर का युद्ध
दिवेर युद्ध की योजना महाराणा प्रताप ने अरावली स्थित मनकियावस के जंगलों में बनाई थी। भामाशाह द्वारा मिली राशि से उन्होंने एक बड़ी फौज तैयार कर ली थी। बीहड़ जंगल, भटकावभरे पहाड़ी रास्ते, भीलों, राजपूत, स्थानीय निवासियों की गुरिल्ला सैनिक टुकड़ियों के लगातार हमले और रसद, हथियार की लूट से मुग़ल सेना की हालत खराब कर रखी थी।
हल्दीघाटी के बाद अक्टूबर 1582 में दिवेर का युद्ध हुआ। इस युद्ध में मुग़ल सेना की अगुवाई करने वाला अकबर का चाचा सुल्तान खां था। विजयादशमी का दिन था और महाराणा ने अपनी नई संगठित सेना को दो हिस्सों में विभाजित करके युद्ध का बिगुल फूंक दिया। एक टुकड़ी की कमान स्वयं महाराणा के हाथ में थी, तो दूसरी टुकड़ी का नेतृत्व उनके पुत्र अमर सिंह कर रहे थे। महाराणा प्रताप की सेना ने महाराज कुमार अमर सिंह के नेतृत्व में दिवेर के शाही थाने पर हमला किया। यह युद्ध इतना भीषण था कि प्रताप के पुत्र अमर सिंह ने मुग़ल सेनापति पर भाले का ऐसा वार किया कि भाला उसके शरीर और घोड़े को चीरता हुआ जमीन में जा धंसा और सेनापति मूर्ति की तरह एक जगह गड़ गया।
उधर महाराणा प्रताप ने बहलोल खान के सिर पर इतनी ताकत से वार किया कि उसे घोड़े समेत 2 टुकड़ों में काट दिया। स्थानीय इतिहासकार बताते हैं कि इस युद्ध के बाद यह कहावत बनी कि "मेवाड़ के योद्धा सवार को एक ही वार में घोड़े समेत काट दिया करते हैं"। अपने सिपाहसालारों की यह गत देखकर मुग़ल सेना में बुरी तरह भगदड़ मची और राजपूत सेना ने अजमेर तक मुग़लों को खदेड़ा। भीषण युद्ध के बाद बचे-खुचे 36000 मुग़ल सैनिकों ने महाराणा के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। दिवेर के युद्ध ने मुग़लों के मनोबल को बुरी तरह तोड़ दिया। दिवेर के युद्ध के बाद प्रताप ने गोगुंदा, कुम्भलगढ़, बस्सी, चावंड, जावर, मदारिया, मोही, माण्डलगढ़ जैसे महत्वपूर्ण ठिकानों पर कब्ज़ा कर लिया।
स्थानीय इतिहासकार बताते हैं कि इसके बाद भी महाराणा और उनकी सेना ने अपना अभियान जारी रखते हुए सिर्फ चित्तौड़ को छोड़ के मेवाड़ के अधिकतर ठिकाने, दुर्ग वापस स्वतंत्र करा लिए। यहां तक कि मेवाड़ से गुजरने वाले मुग़ल काफिलों को महाराणा को रकम देनी पड़ती थी।
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