राधाचरण गोस्वामी
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पूरा नाम | राधाचरण गोस्वामी |
जन्म | 25 फरवरी, 1859 |
मृत्यु | 12 दिसंबर, 1925 |
अभिभावक | पिता- गुणमंजरी दास (गल्लू जी महाराज) |
कर्म भूमि | वृन्दावन, मथुरा |
मुख्य रचनाएँ | 'सती चंद्रावती', 'अमर सिंह राठौर', 'सुदामा', 'तन मन धन श्री गोसाई जी को अर्पण', 'वीरबाला', 'दीप निर्वाण' आदि। |
भाषा | हिंदी, संस्कृत |
प्रसिद्धि | संस्कृत के उच्च कोटि के विद्वान |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | लाला लाजपत राय दो बार वृन्दावन आये थे। दोनों बार गोस्वामी जी ने उनका स्वागत किया था। श्रेष्ठ आचार्य होने के बावजूद उनकी बग्घी के घोड़ों के स्थान पर स्वयं उनकी बग्घी खींचकर उन्होंने भारत के राष्ट्रनेताओं के प्रति अपनी उदात्त भावना का सार्वजनिक परिचय दिया था। |
इन्हें भी देखें | कवि सूची, साहित्यकार सूची |
राधाचरण गोस्वामी (अंग्रेज़ी: Radhacharan Goswami, जन्म- 25 फरवरी, 1859, मृत्यु- 12 दिसंबर, 1925) ब्रज के निवासी एक साहित्यकार, नाटककार और संस्कृत के उच्च कोटि के विद्वान थे। आपने ब्रज भाषा का समर्थन किया। राधाचरण गोस्वामी खड़ी बोली पद्य के विरोधी थे। उनको यह आशंका थी कि खड़ी बोली के बहाने उर्दू का प्रचार हो जाएगा।
परिचय
राधाचरण गोस्वामी का जन्म 25 फ़रवरी, 1859 को हुआ था। उनके पिता गल्लू जी महाराज अर्थात् गुणमंजरी दास जी (1827- 1890 ई.) एक भक्त कवि थे। उनमें किसी प्रकार की धार्मिक कट्टरता और रूढ़िवादिता नहीं थी, प्रगतिशीलता और सामाजिक क्रान्ति की प्रज्ज्वलित चिनगारियाँ थीं। उनमें राष्ट्रवादी राजनीति की प्रखर चेतना थी। भारत की तत्कालीन राजनीतिक और राष्ट्रीय चेतना की नब्ज पर उनकी उँगली थी और नवजागरण की मुख्य धारा में राधाचरण गोस्वामी जी की सक्रिय एवं प्रमुख भूमिका थी। उन्होंने 1883 में पश्चिमोत्तर और अवध में आत्मशासन की माँग की थी। मासिक पत्र ‘भारतेन्दु’ में उन्होंने ‘पश्चिमोत्तर और अवध में आत्मशासन’ शीर्षक से सम्पादकीय अग्रलेख लिखा था। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में बनारस, इलाहाबाद, पटना, कलकत्ता और वृन्दावन नवजागरण के पाँच प्रमुख केन्द्र थे। वृन्दावन केन्द्र के एकमात्र सार्वकालिक प्रतिनिधि राधाचरण गोस्वामी ही थे।
नगरपालिका सदस्य
पण्डित राधाचरण गोस्वामी 1885 में वृन्दावन नगरपालिका के सदस्य पहली बार निर्वाचित हुए थे। 10 मार्च, 1897 को वे तीसरी बार नगरपालिका के सदस्य निर्वाचित हुए थे। नगरपालिका के माध्यम से वृन्दावन की कुंज गलियों में छह पक्की सड़कों का निर्माण उन्होंने कराया था।
क्रान्तिकारियों के प्रति आस्था
पंजाब केसरी लाला लाजपत राय का आगमन दो बार वृन्दावन में हुआ था। दोनों बार गोस्वामी जी ने उनका शानदार स्वागत किया था। ब्रजमाधव गौड़ीय सम्प्रदाय के श्रेष्ठ आचार्य होने के बावजूद उनकी बग्घी के घोड़ों के स्थान पर स्वयं उनकी बग्घी खींचकर उन्होंने भारत के राष्ट्रनेताओं के प्रति अपनी उदात्त भावना का सार्वजनिक परिचय दिया था। तत्कालीन महान क्रान्तिकारियों में उनके प्रति आस्था और विश्वास था और उनसे उनके हार्दिक सम्बन्ध भी थे। 22 नवम्बर, 1911 को महान क्रान्तिकारी रासबिहारी बोस और योगेश चक्रवर्ती उनसे मिलने उनके घर पर आए थे और उनका प्रेमपूर्ण स्वागत उन्होंने किया था। उक्त अवसर पर गोस्वामी जी की दोनों आँखें प्रेम के भावावेश के कारण अश्रुपूर्ण हो गई थीं।
कांग्रेस कार्यकर्ता
गोस्वामी जी कांग्रेस के आजीवन सदस्य और प्रमुख कार्यकर्ता थे। 1888 से 1894 तक वे मथुरा की कांग्रेस समिति के सचिव रहे थे।
साहित्यिक योगदान
गोस्वामी राधाचरण के साहित्यिक जीवन का उल्लेखनीय आरम्भ 1877 में हुआ था। इस वर्ष उनकी पुस्तक ‘शिक्षामृत’ का प्रकाशन हुआ था। यह उनकी प्रथम पुस्तकाकार रचना है। तत्पश्चात् मौलिक और अनूदित सब मिलाकर पचहत्तर पुस्तकों की रचना उन्होंने की। इनके अतिरिक्त उनकी प्रायः तीन सौ से ज्यादा विभिन्न कोटियों की रचनाएँ तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में फैली हुई हैं, जिनका संकलन अब तक नहीं किया जा सका है। उनकी साहित्यिक उपलब्धियों की अनेक दिशाएँ हैं। वे कवि थे, किन्तु हिन्दी गद्य की विभिन्न विधाओं की श्रीवृद्धि भी उन्होंने की। उन्होंने राधा-कृष्ण की लीलाओं, प्रकृति-सौन्दर्य और ब्रज की संस्कृति के विभिन्न पक्षों पर काव्य-रचना की। कविता में उनका उपनाम ‘मंजु’ था।
कृतियाँ
गोस्वामी जी ने मौलिक नाटकों की रचना की और बांग्ला भाषा की अनेक पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद किया। उनकी महत्त्वपूर्ण रचनाएं इस प्रकार हैं-
- 'सती चंद्रावती'
- 'अमर सिंह राठौर'
- 'सुदामा'
- 'तन मन धन श्री गोसाई जी को अर्पण'
राधाचरण जी ने समस्या प्रधान मौलिक उपन्यास लिखे। ‘बाल विधवा’ (1883-84 ई.), ‘सर्वनाश’ (1883-84 ई.), ‘अलकचन्द’ (अपूर्ण 1884-85 ई.) ‘विधवा विपत्ति’ (1888 ई.) ‘जावित्र’ (1888 ई.) आदि। वे हिन्दी में प्रथम समस्यामूलक उपन्यासकार थे, प्रेमचन्द नहीं। ‘वीरबाला’ उनका ऐतिहासिक उपन्यास है। इसकी रचना 1883-84 ई. में उन्होंने की थी। हिन्दी में ऐतिहासिक उपन्यास का आरम्भ उन्होंने ही किया। ऐतिहासिक उपन्यास ‘दीप निर्वाण’ (1878-80 ई.) और सामाजिक उपन्यास ‘विरजा’ (1878 ई.) उनके द्वारा अनूदित उपन्यास है। लघु उपन्यासों को वे ‘नवन्यास’ कहते थे। ‘कल्पलता’ (1884-85 ई.) और ‘सौदामिनी’ (1890-91 ई.) उनके मौलिक सामाजिक नवन्यास हैं। प्रेमचन्द के पूर्व ही गोस्वामी जी ने समस्यामूलक उपन्यास लिखकर हिन्दी में नई धारा का प्रवर्त्तन किया था।
मृत्यु
दिसंबर 1925 में राधाचरण गोस्वामी जी का निधन हो गया। राधाचरण जी भारतेंदु युग के साहित्यकार, नाटककार के होने के साथ-साथ संस्कृत भाषा के उच्च कोटि के विद्वान थे। आपने सदा सामाजिक बुराईयों का कड़ा विरोध किया और इस कारण आप ब्रह्म समाज की ओर भी आकृष्ट हुए थे।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भारतीय चरित कोश |लेखक: लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय' |प्रकाशक: शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली |पृष्ठ संख्या: 719 |
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